ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

अथर्ववेद में आचार्य को क्यों कहा गया मृत्यु ??

भिलाई में एक महामृत्युञ्जय मंत्र का अनुष्ठान चल रहा था, संयोग से वह अनुष्ठान मेरे ही आचार्यत्व एवं मार्गदर्शन में चल रहा था, वहां एक 'लाईटर से अगरबत्ती' जलाने वाले 'वामी' महाशय जो 'रावण के आदर्शों पर चलते हुए गलती से कुछ संस्कृत पढ़ लिये हैं ! खैर, मै उनका इससे अधिक महिमामण्डन नहीं सकता ! अब चलता हुं, मूल विषय पर 'वामी' महोदय ने एक प्रश्न किया कि-  आचार्य पण्डित चौबे जी आप अभी कुछ क्षणों  पूर्व 'ऊँ मृत्यवे नम: आवाह्यामि स्थापयामि का उच्चारण किया क्या इस महामृत्युंञ्जय 'अनुष्ठान मे यजनकर्ता यजमान को यजुर्वेदीय मंत्रों द्वारा मृत्यु से बचाने के लिये यह अनुष्ठान हो रहा है, परन्तु आप तो 'मृत्यु' का ही आह्वान कर रहें है, यह तो गलत है...

तो हमने उनके उपरोक्त प्रश्न का उत्तर दिया...

वेदों मे आचार्यको मृत्यु कहा गया है..

"आचार्यो वै मृत्यु:" (अथर्ववेद 11/5/14)

“गुकारस्त्वन्धकारः स्यात् रेफस्तस्य निवर्तकः । अज्ञाननिवर्तकत्वात् गुरुरित्यभिधीयते !!

गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम् ।

अथा प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ॥

गुरु शब्द में-गु = अन्धकार, रु = नाश।

शिष्य के अन्धकार भाग की मृत्यु।

आचार्यको मृत्यु इसलिये कहते है कि वह गुरुकुलमेँ प्रवेशार्थी बालकके पूर्वजन्मको बिलकुल ही तिरोहित करके विद्यासमाप्तिके पश्चात् उसे नया जन्म एवं वर्ण प्रदान करता है।

गुकारस्त्वन्धकारः स्यात् 

रुकारस्तन्निरोधकः।

आत्मवान् लोगों का शासन गुरु करते हैं; दृष्टों का शासन राजा करता है; और गुप्तरुप से पापाचरण करनेवालों का शासन यम करता है (अर्थात् अनुशासन तो अनिवार्य हि है)।

- आचार्य पण्डित विनोद चौबे, भिलाई 9827198828 

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