(25 सितम्बर 1916–11 फ़रवरी 1968)
शत-शत नमन !
पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक प्रखर विचारक और उत्कृष्ट संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उनकी गिनती उन आदर्श महापुरुषों में की जाती है, जिन्होंने आधुनिक राजनीति को शुचिता और शुद्धता के आधार पर स्थापित करने की प्रेरणा दी।
पंडित दीनदयाल एक ऐसे नेता थे, जिन्होंने जीवनपर्यन्त ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्व दिया। वे भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत हैं। उपाध्यायजी नितान्त सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी।
जीवन परिचय
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को मथुरा ज़िले के छोटे से गांव ‘नगला चंद्रभान’ में हुआ था। दीनदयाल के पिता का नाम ‘भगवती प्रसाद उपाध्याय’ था। इनकी माता का नाम ‘रामप्यारी’ था, जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। 7 वर्ष की अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। सन् 1934 में बीमारी के कारण दीनदयाल के भाई का देहान्त हो गया। उनके मामा राधारमण शुक्ल ने दीनदयालजी को पाला-पोसा।
उपाध्यायजी ने पिलानी, आगरा तथा प्रयाग में शिक्षा प्राप्त की। बीएससी, बीटी. करने के बाद भी उन्होंने नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गये। काॅलेज छोड़ने के तुरन्त बाद वे उक्त संस्था के प्रचारक बन गये और एकनिष्ठ भाव से संघ का संगठन कार्य करने लगे। उनका एकात्मवाद सर्वप्रथम 1964 में जनसंघ के ग्वालियर अधिवेशन में विचारार्थ प्रस्तुत किया गया और अगले वर्ष-1965 में विजयवाड़ा अधिवेशन में स्वीकार कर लिया गया। उन्होंने एकात्म मानववाद के सैद्धांतिक विवेचन के बाद कई व्यावहारिक सूत्र भी दिए, जैसे-अर्थव्यवस्था का बुनियादी सूत्र समझाते हुए उन्होंने लिखा था कि रोटी, कपड़ा और मकान जैसी भौतिक जरूरतों की पूर्ति किसी भी अर्थव्यवस्था का न्यूनतम कर्तव्य है।
सन 1951 ई० में भारतीय जनसंघ का निर्माण होने पर वे उसके संगठन मंत्री बनाये गये। दो वर्ष बाद सन् 1953 ई० में उपाध्यायजी भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग 15 वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने जनसंघ की अमूल्य सेवा की। दिसम्बर 1967 के कालीकट अधिवेशन में वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय में उनकी मृत्यु हो गयी।
पं. दीनदयाल उपाध्याय की श्रेष्ठतम वैचारिक देन: एकात्म मानववाद
देश को ‘एकात्म मानववाद’ का विचार पं. दीनदयाल उपाध्याय की श्रेष्ठतम देन है। यह एक ऐसा चिंतन है, जिसकी जड़ें भारत के अतीत में हैं, पर दृष्टि भविष्य पर। वे इस चिंतन से एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण व विकास करना चाहते थे, जिसके तहत राष्ट्र अपने स्वत्व को ध्यान में रखकर विशुद्ध भारतीय संस्कृति के अनुरूप विकास कर सके।
उनका कहना था कि हमारी संस्कृति और परंपरा में दुनिया को देने योग्य क्या-क्या बातें हैं, उन्हें जानें और विश्व की प्रगति में अपना सहयोग दें। लंबे अरसे तक हमारा सारा ध्यान स्वाधीनता संग्राम व आत्मरक्षा में लगा रहा। अतः हम दुनिया के अन्य राष्ट्रों की बराबरी में खड़े नहीं हो सके हैं, पर आज जब हम स्वतंत्र हैं, तो हमें इस कमी को पूरा करना होगा। इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में दीनदयालजी ने ‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा प्रतिपादित की। यह उनके राजनीतिक चिंतन की उपज है, जिसका केंद्र बिंदु मनुष्य है। मनुष्य का समग्र विकास धर्म का निर्वाह करने पर होता है। मनुष्य का मनुष्य के लिए उनका यह चिंतन राजनीतिक नहीं था। यह उनकी सांस्कृतिक दृष्टि थी, क्योंकि वे भारतीय संस्कृति में प्रगाढ़ आस्था रखने वाले विचारक थे। वे मानते थे कि आर्थिक इच्छाओं की तृप्ति व संतुष्टि कभी भी पूर्ण नहीं होती। एक इच्छा पूरी होती है, तो दूसरी जाग्रत हो जाती है, इसलिए वे कहते थे कि मनुष्य को शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की समन्वित इकाई की तरह ही देखा जाना चाहिए।
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