मन का राजा राजा है, बाकी सब गुलाम. इस नजरिए से एक बार खुद को तौलके देखिये
तभी उनके सामने से एक लकड़हारा सिर पर लकड़ियों का गठ्ठर उठाए वहां से गुजरा.
लकड़हारा अपनी धुन में चला जा रहा था.
उसकी नजर राजा भोज पर पड़ी. एक पल के लिए रुका. उसने राजा को गौर से देखा फिर अपने रास्ते पर बढ़ गया.
उन्होंने लकड़हारे को रोककर पूछा, ‘तुम कौन हो?’
लकड़हारे ने जवाब दिया, ‘मैं अपने मन का राजा हूं.’
राजा ने पूछा, ‘अगर तुम राजा हो तो तुम्हारी आमदनी भी बहुत होगी. कितना कमाते हो?’
लकड़हारे ने जवाब दिया, ‘मैं छह स्वर्ण मुद्राएं रोज कमाता हूं.’
भोज की दिलचस्पी बढ़ रही थी. उन्होंने पूछा, ‘तुम इन मुद्राओं को खर्च कैसे करते हो?’
लकड़हारा बोला, ‘मैं रोज एक मुद्रा अपने ऋणदाता यानी मेरे माता-पिता को देता हूं.
उन्होंने मुझे पाला-पोसा है, मेरे लिए हर कष्ट सहा है.
एक लकड़हारे से ज्ञान की ऐसी बातें सुनकर राजा हक्के-बक्के रह गए.
एक असंतुष्ट मन विवेकपूर्ण निर्णय नहीं कर पाता. अपनी जरूरतों की हमें एक रेखा खींच लेनी चाहिए.
कबीरदास जी ने कितनी सुंदर बात लिखी है-
चाह मिटी चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह !
उनको कुछ नहीं चाहिए, जो शाहन के शाह !!
#साभार
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