मित्रों,
आप सभी आत्मीय जनों को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महापर्व पर हार्दिक बधाई व अनंत शुभकामनाएं.!
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत का महापर्व १४ अगस्त २०१७ को गृहस्थों एवं १५ अगस्त २०१७ को वैष्णवीय पंथों, अखाड़ों सहित समस्त साधु, सन्यासियों द्वारा श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाया जायेगा !
साथियों, श्रीकृष्ण का जन्म मध्यरात्रि में एवं रोहिणी नक्षत्र पर आरूह्य हो चंद्र की उच्चराशि वृषभस्थ गोचरीय परिवेश में जन्म हुआ इसलिये भगवान कृष्ण को ''कृष्णचंद्र'' कहा जाता है ! वहीं प्रभु राम को ''रामचंद्र" ! आखिरकार श्रीकृष्ण ने रोहिणी नक्षत्र का ही चयन क्यों किये ? इसी विषय पर विस्तृत चर्चा करेंगे !
फलित ज्योतिष के अनुसार रोहिणी का चंद्रमा बहुत प्रशस्त माना गया है। सुना है रोहिणी के लिए पक्षपात ने ही चंद्रमा को क्षय का शाप दिलवाया है। पर तब भी रोहिणी को लिए चंद्रमा का लगाव है सविशेष। रोहिणी चंद्रमा की अरोहिणी भी है। चंद्रमा की आश्रिता भी है, आश्रय भी है, इसलिए उसके घर में चंद्रमा सर्वोच्च हो जाता हैं। स्वयं श्रीकृष्ण का जन्म भी रोहिणी के चंद्रमा में ही हुआ है, तभी वे व्रजचंद्र हुए, उन्हें किसी ने भानुकुलभानु नहीं कहा। रामचंद्र का जन्म हुआ है उच्च सूर्य में और भानुकुलभानु सही माने में कहे भी गए। किंतु श्रीकृष्ण मनोभव तत्व के अधिष्ठान, वे मन के मीत, चंद्रमा से ही बने हुए हैं। उनकी उपासना में अंधे रहने वाले अलबत्ता सूर्य बन गए, पर वे स्वयं ‘देवकीजठरभूरुडुराज:’ बने रहे अकेले उन्हें चमकना नहीं था, उन्हें बनना था उडुराज, नक्षत्रमालाओं का आराध्य उन्हें प्रात: सायं अर्ध्य नहीं लेना था, प्रताप नहीं फैलाना था, अमृत छिड़काना था। पर उन्हें यह शीतल ज्योति मिली कहाँ से? उनकी रोहिणी कौन बनीं? जिन्होंने अपना नाम खोकर राधना करने में ही अपने को निश्शेष कर दिया और जो इसीलिए आज राधा या राधिका नाम से ही विश्रुत भी हैं, उन्होंने ही वृषभानु का तेज लेकर अवतार लिया केवल कृष्ण को चंद्र बनाने के लिए धरती की बेटी ने अपनी क्षमा की बलि देकर राम को सूर्य-सा तेजस्वी बना दिया, वृषभानु की कन्या ने अपने स्नेह की बलि देकर कृष्ण को कमनीय बना दिया। इस शशि की उपासना करके सूर सूर्य हो गए और उस भानु की वंदना के लिए तुलसी शशि हो गए, जिन्होंने व्यक्ति के लिए आदर्श उपस्थित किया, वे लोकरंजक रह गए। राम के राज्य की बड़ाई हुई और कृष्ण के रूप की बड़ाई हुई। यह है विडंबना, पर इन दोनों की शक्ति के स्रोतों की यह महिमा है, दानों अपनी उल्टी दिशा में पड़ गए हैं। मन की यही बात है। उसे स्फूर्ति या शक्ति किसी रोहिणी से ही मिलती है, रोहिणी चाहे रूपमई हो, चाहे रसमयी हो, चाहे गंधमयी हो, चाहे स्पर्शमयी हो, चाहे शब्दमयी हो,या चाहे पंचमयी ही क्यों न हो, पर उसकी उठान के लिए रोहिणी का अवलंबन अपेक्षित है। रोहिणी के लिए जिसे भटकना पड़ता है, वह शून्य में खो जाता है, पर रोहिणी जिसे स्वत: मिल जाती है वह ऊँचे उठ जाता है। पर सबसे ऊँचे उठाने वाली रोहिणी शब्दमयी ही होती है, यह अक्षर उन्नति कराती है।
‘चंद्रमा मनसो जात:’ की ओर एक बार फिर लौट कर दृष्टि जाती है, तो याद आता है कि इस मंत्र का विनियोग आरती के लिए है।
मन के आलोक का डिंडिमनाद करने के लिए मानों मंत्र उच्चरित होता है, मंत्र का दूसरा अंश है :‘चक्षो: सूर्यों आजाएत: (चक्षु से सूर्य उत्पन्न हुए) अर्थात आँख जिसका महत्व मन से से कहीं कम है सूर्य को पैदा करती है। इसी से पता चल जाता है कि भीतरी ज्योति के आगे बाहरी ज्योति कितनी छोटी है। मन की धुँधली तरल स्वप्निल ज्योति जो देती है, वह आँख की भास्वर दृष्टि नहीं देती। आँख चमत्कृत अवश्य करती है, पर सुख नहीं देती। इसीलिए आरती करते समय पहले स्मरण किया जाता है चंद्रमा और मन का ही। जिस आरती में हृदय का सोमदीप नहीं जला, वह आरती छूँछी है, जिस पूजा में ऐसी आरती नहीं हुई, वह पूजा छूँछी है और जिस घर में ऐसी पूजा नहीं वह घर भी छूँछा है। कोई भी देवी देवता हो, कोई भी आराध्य हो, कोई भी सेव्य हो उसकी आरती में ‘चंद्रमा मनसो जात:’ पढ़ना उसे तृप्त कर देता है। जो नहीं तृप्त होता होगा, वह पिशाच होगा। हृदय की लौ जिसे आलोकित न कर सके, वह महामूढ़ होगा और उसके लिए जो कुछ ऊपर लिखा गया है वह चंद्रगस्त प्रलाप ही जान पड़ेगा। प्रलाप है या विलाप है, यह दोनों है इसे मैं बता नहीं सकता। यह तो भविष्य की कसौटी बताएगी, किंतु मन कभी-कभी मूढ़ ज्वाला में घबरा कर चाहता आवश्य है कि
विशालविषयाटवीवल लग्नय दावानल
प्रसृत्वरशिखावलीविकलित मदीयं मन:।
अमंदमिलदिन्दिरे निखिलमाधुरीमंदिरे
मुकुंदमुखचंदिरे चिरमिदं चकोरायताम्॥
आग की लपटों से बचाव का कोई रास्ता नहीं है जब तक कि किसी अमंद शोभा वाले मुखचंद्र को पीते रहने की चकोरता न आ जाए, इसलिए मन उस चंद्र का चकोर बनने के लिए तड़प रहा है, अब चाहे चंद्र दर्शन दे या नहीं, कम से कम आग चुगने की सामर्थ्य तो दे ही दे, आशा का बल तो दे ही दे, जिससे दुराशा के दुर्दिन कट जाएँ। यह चाह उठती है, इसी में जन्म की सार्थकता मानता हूँ अभी टिक नहीं पा रही है, तो चंद्रमा भी चंचल, मन भी चंचल दोनों की देखादेखी भी नहीं, केवल सुना-सुनी है, दोष ही क्यों किसी को दूँ? तब तक अपने मन को आश्वासन देने के लिए जपता रहूँगा ‘चंद्रमा मनसो जात:’ मन कम से कम अवसाद से उबरा रहेगा। इतना बहुत है, छीना झपटी में इतना हाथ आन भी बहुत बड़ा लाभ है।
!! प्रेम से बोलो श्रीकृष्णचंद्र की जय !!
- ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे
संपादक- ''ज्योतिष का सूर्य" राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई, मोबाईल नं 9827198828
(हमारे लेख में मेरा स्वयं का विचार है)
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