ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शनिवार, 12 मई 2012

''माँ'' मदर्स डे (13 मई, 2012)पर विशेष


''माँ'' मदर्स डे (13 मई, 2012)पर विशेष

तू पूजा,तू अर्चना ,तू श्रद्धा , तू है वंदनीया ,तू है सबकी सृजन।
हे नारी तू नारायणी, वैभवी तू, धनलक्ष्मी मैं करूं कन्या पूजन।
संतति सुषमा के बाग में तना, विटप, तरू और हम हैं चंदन।
हों दृढ़ प्रतिज्ञ यह अलख जगायेंगे,
पुष्पीत, फलित सुषमा नहीं मिटायेंगे,
अब हरगिज़ नही होगा माँ भारती का चीखता कोंख-क्रंदन।
तू पूजा,तू अर्चना ,तू श्रद्धा , तू है वंदनीया ,तू है सबकी सृजन।।

-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, सम्पादक, ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक, भिलाई

मित्रों,
शास्त्रों में कहा गया है कि जिसने भी गर्भपात किया या करवाया है, उसको देखने से, बात करने से, स्पर्श करने से आदमी पाप का भागी बनता है। और जो गर्भपात करता है, करवाता है उसको कितना पाप लगता होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। कहते है कि उसको कई कल्पों तक रौरव, कुम्भीपाक आदि नरकों में सडऩा पड़ता है। शास्त्रों के अनुसार गर्भपात एक ब्रह्महत्या है। लोगो में बढती पुत्र- लालसा और खतरनाक गति से लगातार घटता स्त्री, पुरूष अनुपात आज पूरे देश के समाजशास्त्रियों, जनसंख्या विशेषज्ञों , योजनाकारों तथा सामाजिक चिंतकों के लिए चिंता का विषय बन गया है। जहाँ एक हजार पुरूषों में इतनी ही मातृशक्ति की आवश्यकता पड़ती है, वही अब कन्या - भ्रूण हत्या एवं जन्म के बाद बालिकाओं की हत्या ने स्थिति को विकट बना दिया है। हालाकि धर्म शास्त्रों में गर्भपात करना बहुत बड़ा कुकर्म और पाप है। इस संदर्भ में पराशर स्मृति के चौथे अध्याय में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि-ब्रह्म हत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात से लगता है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है। ऐसे में हम एक के बाद एक घोर पाप को क्यों अंजाम देते हैं..?
पराशर स्मृति के चौथे अध्याय का 20/21वाँ श्लोक-

''यत्पापं ब्रह्महत्यायां द्विगुणं गर्भपातने ।

प्रायश्चित्तं न तस्या: स्यात्तस्यास्त्यागो विधीयते । । 4.20 । ।

न कार्यं आवसथ्येन नाग्निहोत्रेण वा पुन: ।

स भवेत्कर्मचाण्डालो यस्तु धर्मपराङ्मुख: । । 4.21 । ।''

जबकि,देवी स्वरूप, निस्वार्थ भाव से अपनी सुख-सुविधाओं का बलिदान करने वाली माँ अजन्मे शिशु को मारने की स्वीकृति कैसे दे सकती है? क्या उस बच्ची को जीने का अधिकार नहीं है? बेचारी उस बच्ची ने कौन-सा अपराध किया है? यह कृत्य मानवीय दृष्टि से भी उचित नहीं है। प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है। जीने के अधिकार से किसी को वंचित करना पाप है। संसार के किसी भी धर्म में भ्रूण-हत्या को गलत बताया गया है। जैन-दर्शन में भी पंचेन्द्रिय की हत्या करना नरक की गति पाने का कारण माना गया है। आश्चर्य है कि धार्मिक कहलाने वाला समाज, चींटी की हत्या से कांपने वाला समाज आँख मूंद कर कैसे भ्रूण-हत्या करवाता है! यह मानव-जाति को कलंकित करने वाला अपराध है। अमेरिका में सन् 1954  में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें डॉ. निथनसन ने एक अल्ट्रासाउंड फिल्म (साईलेंट क्रीन) दिखाई। कन्या भ्रूण की मूक चीख बड़ी भयावह थी। उसमें बताया गया कि 10-12  सप्ताह की कन्या-धड़कन जब 120  की गति में चलती है, तब बड़ी चुस्त होती है। पर जैसे ही पहला औजार गर्भाशय की दीवार को छूता है तो बच्ची डर से कांपने लगती है और अपने आप में सिकुडऩे लगती है। औजार के स्पर्श करने से पहले ही उसे पता लग जाता है कि हमला होने वाला है। वह अपने बचाव के लिए प्रयत्न करती है। औजार का पहला हमला कमर व पैर के ऊपर होता है। गाजर-मूली की भांति उसे काट दिया जाता है। कन्या तड़पने लगती है। फिर जब संडासी के द्वारा उसकी खोपड़ी को तोड़ा जाता है तो एक मूक चीख के साथ उसका प्राणान्त हो जाता है। यह दृश्य हृदय को दहला देता है।
इस निर्मम कृत्य से बचाकर माँ के ममतामयी आँचल के पल्लु में पुष्पित और पल्लवित होने दें, ताकि संस्कारी और सुयोग्य कन्याओं के सुरभित गुणों से परिवार भी सुरभित बनेगा, जो समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।

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-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, सम्पादक, ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक, भिलाई

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