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मैक्समूलर द्वारा वेदों का विकृतीकरण क्यों?
इस
प्रश्न का कुछ उत्तर तो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में
बोडेन चेयर की स्थापना के उद्देश्य से ही सुस्पष्ट है, जिसके लिए १८४७ में
मैक्समूलर की ऋग्वेद के सम्पादन एवं अंग्रेजी भाष्य करने के लिए नियुक्ति
की गई थी। इसी नीति के अन्तर्गत उसने १८४९ और १८५४ में ऋग्वेद के दो खंडो
का प्रकाशन भी किया। परन्तु १८५५ में मैकॉले से मिलने के बाद उसकी हिन्दू
धर्म शास्त्रों के प्रति चिन्तन की दिशा ही बदल गई। अब उसने वेदों के
अतिरिक्त अन्य हिन्दू धर्म शास्त्रों की आलोचना की ओर विशेष ध्यान दिया
तथासंस्कृत को मृत एवं हेय भाषा सिद्ध करने का प्रयास किया। इसके ही
फलस्वरूप उसने १८५६ में 'ऐसेज ऑन कम्परेटिव मायथोलौजी', १९५९, में 'दी
हिस्ट्री ऑफ ऐंशिएन्ट संस्कृत लिटरेचर', और १८६१ और १८६४ में 'साइंस ऑफ
लैंग्वेजिज' (दो खंडो में) आदि गं्रथों की रचना की।
(तालिका १)।
मैक्समूलर
ने ऋग्वेद के भाष्यकार के रूप में प्रारम्भिक लक्षणों को प्रगट करना शुरु
कर दिया था। इसीलिए वह चाहता था कि बोडेन-चेयर पर विराजमान प्रो. विलसन
वेदों पर ईसाई दृष्टिकोण से कुछ लिखें ताकि उनके विचारों को वह अपने लिए
मार्ग दर्शक के रूप में प्रयोग कर सकें।
बोडेन चेयर पाने का प्रयास
मैक्समूलर
ने प्रारम्भ से ही लगातार बोडेन चेयर के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जी
जान से परिश्रम किया। उसने इस काल खण्ड (१८४७-१८६०) में अपने आप को ईसाईयत
के क्रुसेडर (धर्म योद्धा) और हिन्दू धर्म के विध्वंसक के रूप में पूरी तरह
सािपित कर लिया था और जब १८६० में बोडेन चेयर पर आसीन प्रोफेसर डा. विलसन
की मृत्यु हो गई तो उसने बोडेन चेयर के पद को अथियाने का हर सम्भव प्रयास
किया। भारत कि मिशनरियों ने उसकी ईसाई हितकारी सेवाओं की भूरि-भूरिप्रशंसा
करते हुए उसे बोडेन चेयर के लिए अपना मनचाहा सर्वोत्तम प्रत्याशी माना जैसा
कि उनके नीचे दिए पत्रों से सुस्पष्ट है। कलकत्ता के बिशप श्री काटन ने
लिखाः
“Revenswood,
Simla, July 13, 1860, My dear Sir, When I heard of the great loss which
Sanskrit literature had sustained by the death of Professor Wilson, my thoughts
naturally turned to you as his obvious successor, and it wil give me great
pleasure to hear that the University make an election which is certainly
expected and will be approved by every one to whom I have spoken on the subject
in this country.”
“I feel
considerable interest in the matter, because I am sure that it is of the
greatest importance for our missionaries to understand Sanskrit, to study the
philosophy and Sacred books of the Hindus, and to be able to meet the Pundits
on their own ground.”
“Among the means to this great end, none can be
more important than your edition and Professor Wilson’s transalation of the
Rigveda. (Max Muller did the translation on Sayana’s basis which was published
in Wilson’s
name as he was the Librarian and Incharge of Publications). It would be most fitting in my opinion for
the great Christian
University to place in
its Sanskrit Chair the scholar who has made the Sanskrit scriptures accessible
to the Christian missionary.”….You are at liberty to make any use that you
please of this letter.” “With every wish
for your success. I remain, my dear, Your’s very sincerely. (G.E.L. Cotton)”.
(LLMM, Vol. 1, pp.
236-37).
रोविन्सवुड
शिमला, जुलाई १३, १८६०; ''प्रियवर महोदय! जब मुझे प्रोफेसर विल्सन, जिसने
संस्कृत रचना को प्रगति दी, के निधन का बड़ा दुःखद समाचार मिला तो मेरा
ध्यान, उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में, अपने आप ही आपकी तरफ गया
और मेरे लिए यह अति प्रसन्नता का विषय होगा कि विश्वविद्यालय यह चुनाव, जो
कि निश्चय ही होगा, उस व्यक्ति के पक्ष में हो जिसके बारे में मैने इस देश
(भारत) में सबको बतलाया है।''
''मैं
इस विषय में काफी दिलचस्पी रखता हूँ क्योंकि मुझे आशा है यह हमारे
मिशनरियों को संस्कृत जानने और हिन्दुओं केधर्मशास्त्रों तथा दर्शनों को
समझने और हिन्दू पंडितों से उनकी ही धरती पर उन्हें चुनौती देने के लिए
अत्यन्त महत्वपूर्ण है।''
''इस
उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक साधनों में से डा. विल्सन के मार्ग दर्शन
में आपके द्वारा ऋग्वेद का सम्पादन एवं भाष्य से ज्यादा अन्य कोई कार्य
उपयोगी न हो सकेगा। मेरे विचार से यहसबसे उचित होगा कि इस महान ईसाई
विश्वविद्यालय (ऑक्सफोर्ड) के लिए (बोडेन की) संस्कृत-चेयर उस विद्वान को
दी जाए जिसने संस्कृत धर्मशास्त्रों को ईसाई मिशनरियों के लिए सुग्राह्य
बनाया है, आप मेरे इस पत्र को जैसे चाहें उस कार्य के लिए प्रयोग कर लें।
आपकी सफलता की कामनाओं सहित- आपका प्रिय जी. ई. एल. काटन,''
(जी.प.खं. १, पृ. २३६-२३७)।
इसी प्रकार ऑक्सफोर्ड आन्दोलन से जुड़े एक दूसरे सक्रिय सदस्य और मिशनरी डॉ. ई. बी. पूसी ने मैक्समूलर को लिखाः
“Christ Church,
June 2, 1860, My Dear Professor—On the first election to the Sanskrit Chair, you
will have heard that we were divided before two great names. Professor Wilson, whose first-rate Sanskrit
knowledge was in the mouth of every one, and Dr. Mill who, many of us thought,
might fulfil the object of the founder better by giving to the Professorship a
direct missionary turn. The same thought
would naturally recur to us now, and I have kept myself in suspense since our
sudden loss of Professor Wilson. My
first impression, however, is my abiding conviction, that we should be best
promoting the intentions of the founder, by electing yourself, who have already
done so much to make us fully acquainted with the religious system of those
whom we wish to win to the Gospel…..I cannot but think gthat your lecturers on
the Vedas….are the greatest fits which have been berstowed on those who would
win to Christianity the subtle and thoughtful minds of the cultivated
Indians. We owe you every much for the
past, and we shall ourselves gain greatly by placing you in a position in which
you can give our undivided attention to those labours by which we have already
so much profited.
“…….Your
work will form a new era in the efforts for the conversion of India, and
Oxford will have reason to be thankful for that by giving you a home it will
have facilitated a work of such primary and lasting importance for the
conversation of India and which by anabling us to compare that early false
religion with the true, illustrates the more than blessedness
of what we enjoy. Your very
faithfully, E.B. Pusey.”
(LLMM Vol. 1 pp. 237-38).
''क्राइस्ट
चर्च, जून २, १८६०, मेरे प्रिय प्रोफेसर-संस्कृत (बोडेन) चेयर के लिए सबसे
पहले चुनाव में तुमने सुना होगा कि हम दो बड़े नामों के बीच में विभाजित
थे। प्रोफेसर विल्सन, जिसके संस्कृत ज्ञान के प्रति आदर के कारण सभी के
मुँह पर उन्हीं का नाम था, और दूसरे थे, डॉ. मिल जिनके बारे में हममे से
कुछ यह सोचते थेकि एक मिशनरी को सीधे प्रोफेसर का पद देने से वे चेयर के
संस्थापक (बोडेन) के उद्देश्य की पूर्ति अधिक अच्छी तरह कर सकेंगे और
निश्चय ही यही विचार अब हमारे मन में फिर से आएगा; और डॉ. विल्सन की अचानक
मृत्यु के बाद से ही मैं बड़ी दुविधा में हूँ। फिर भी मेरी प्राथमिकता यह है
कि इस पद के लिए आपको चुनने से हम चेयर के संस्थापक की भावनाअें का सबसे
अधिकआदर कर सकेंगे, क्यों आपने हम सबको उनकी (हिन्दुओं) की धर्म व्यवस्था
से पूरी तरह परिचित कराया है जिन तक हम गोस्पिलों (बाइबिल) को ले जाना
चाहते हैं। मैं इसके अलावा और कुछ नहीं सोच सकता कि आपके वेदों पर भाषण उन
लोगों के लिए सबसे अधिक उपयोगी होंगे जो विचारवान और तीव्र बुद्धि वाले
सभ्य भारतीयों को ईसाईयत के लिए जीतने में सक्रिय हैं। हम सब आपके पिछले
कार्यों के प्रति आभारी हैं और हम सब आपको इस सम्माननीय पद पर प्रतिष्ठित
करके और अधिक लाभान्वित होंगे। तब आप हमारा सम्पूर्ण ध्यान उन प्रयासों की
तरफ और अधिक खींच सकेंगे जिससे हम पहले ही काफी लाभान्वित हुए हैं।''
''आपका
कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के प्रयत्नों में नवयुग लाने वाला होगा और
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय को अपने को धन्य समझने का अवसर होगा जिसने आपको
आश्रय देकर भारत को ईसाई बनाने के प्राथमिक और दूरगामी प्रभाव के
महत्वपूर्ण कार्य को सुगम बना दिया। साथ ही यह आपका कार्य हमें तुलनात्मक
दृष्टि से समर्थ बनाएगा कि हम पुराने (हिन्दू) धर्म को सच्चे (ईसाई) धर्म
के साथ तुलना का आनन्द उठाऐं। आपका यह कार्य उससे भी बड़ा औरआशीषपूर्ण है जो
कि हमें प्राप्त है। आपका - ई.बी. पूसी।
उपरोक्त
दोनों पत्रों से सुस्पष्ट और सच्चाई के साथ प्रमाणित होता है कि मैक्समूलर
का साहित्य भारत को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने के कार्य को सुगम बनाएगा
और यदि वह विल्सन का उत्तराधिकारी चुना जाता है तो इससे कर्नल बाडेन के
उद्देश्य की पूर्ति और अधिक प्रभावी ढंग से किए जाने की सम्भावना हो
सकेगी। इन पत्रों से यह भी प्रमाणित होता है कि डॉ. मैक्समूलर अन्य किसी
संस्कृत के विद्वान की अपेक्षा भारत में गोस्पिल (बाइबिल) के हित में
भारतीयों के पवित्र ग्रंथों को उन तक पहुँचा कर पहले ही अधिक कार्य कर चुका
है और उसके चुनाव से उसे और अधिक कार्य करने का अवसर मिलेगा। वह वर्तमान
संस्कृत विद्वानों एवं बोडेन चेयर के प्रत्याशियों में सर्वोत्तम है। लेकिन
प्रतीत होता है कि मैक्समूलर को पूर्वानुमान थ कि चुनाव का परिणाम उसके
विरुद्ध होगा, जैसा कि उसने अपनी माँ को लिखे पत्र से प्रगट होता हैः
''मेरी
प्यारी माँ: मेरा काफी समय चुनाव कार्य में लग जाता है और कभी-कभी लगता है
कि मैं चुनाव की न सोचता। इसमें मेरा दिसम्बर (१८६०) तक का समय लग जाएगा
और यदि मैं सफल नहीं होताहूँ तो बड़ा दुःखी होऊँगा। जरा उन चार हजार
चयनकर्ताओं की सोचों जो कि सारे इंग्लैंड में बिखरे हुए हैं और प्रत्येक को
पत्र भी लिखा जाना चाहिए।''
(जी.प. खं. १, पृ. २३८)
अन्त
में मैक्समूलर २७३ (८३३/६१०) मतों से चुनाव हार गया। मुखयतया इसलिए कि वह
एक गैर-ब्रिटिश था। इससे वह काफी निराश हुआ। ऐन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका
(खंड XVII पृ. ९२७-२८) बतलाता है कि ''यह (चुनाव में हारना) मैक्समूलर के
जीवन की एक बड़ी निराशा थी जिसका उसके ऊपर बहुत समय तक प्रभाव रहा।''
मैक्समूलर के वेद भाष्य का उद्देश्य
हालांकि
१८६० में बोडेन चेयर के लिए मैक्समूलर का चयन नहीं हुआ फिर भी वह बोडेन के
उद्देश्य की पूर्ति के लिए योजनाबद्ध तरीके से लगातार प्रयास करता रहा।
मगर यहाँ प्रश्न यह है कि एक संस्कृत के विद्वान होने के नाते उसका
वेदभाष्य के प्रति क्या दृष्टिकोण था? वेदभाष्य करने में उसका क्या
उद्देश्य था? क्या वह मैकॉले जैसे संस्कृत एवं भारत के कट्टर विरोधी का
अनुयायी था या एक उदारवादी विचारक था?
मूलर
के जीवनी लेखक निराद चौधरी का मत है कि 'उसने मध्यम मार्ग अपनाया', (वही.
पृ. १३४), या यह कहिए कि उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससेकि
ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्देश्यों की भी पूर्ति होती रह और भारतीयों को भी
शब्द जाल में बहकाए रखा? मैक्समूलर एक अर्न्तमुखी व्यक्ति था जिसने ऋग्वेद
के भाष्य करने के पीछे अपने सच्चे मनोभावों और उद्देश्यों को अपने जीवन
भर कभी भी सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया। मगर अपने हृदय की भावनाओं को
१५ दिसम्बर १८६६ को केवल अपनी पत्नी को लिखे पत्र में अवश्य व्यक्त किया।
उसके ये मनोभाव एवं उद्देश्य आम जनता को तभी पता चल सके जब उसके निधन के
बाद, १९०२ में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी व पत्रों को
सम्पादित कर दो खण्डों में एक दूसरी जीवनी प्रकाशित की। यदि श्रीमती
जोर्जिना उसे अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करती तो विश्व उस छद्मवेशी
व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता। अपनी पत्नी को लिखे इस
पत्र में मैक्समूलर ने अपने वेद भाष्य के उद्देश्य को पहली बार दिल खोलकर
उजागर किया। वह लिखता हैः
“I hope I shall finish
that work, and I feel convinced, though I shall not live to see it, that this
edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great
extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that
country. It is the root of their
religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only way of
uprooting all that has sprung up from it during the last three thousand
years.”
(LLMM. Vol, 1, p. 328).
अर्थात्
''मुझे आशा है कि मैं इस काम को (सम्पादन-भाष्य आदि) पूरा कर दूंगा और
मुझे निश्चय है कि यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित न रहूँगा तो भी मेरा
ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों की
आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा। यह (वेद) उनके धर्म का मूल
है और मूल को उन्हें दिखा देना जो कुछ उससे पिछले तीन हजार वर्षों में
निकला है, उसको मूल सहित उखाड़ फैंकने का सबसे उत्तम तरीका है।''
(जी.प.,खं. १, ३२८)
उपरोक्त
पत्र को पढ़ने के बाद पाठकों को और अधिक प्रमाणों की शायद आवश्यकता नहीं
रहेगी। यहाँ मैक्समूलर स्वयं सच्चाई स्वीकारता है कि उसके वेद भाष्य का
उद्देश्य क्या था। वह स्पष्ट कहता है कि उसके वेद और उससे निकले हिन्दू
धर्म शास्त्रों के भाष्यादि का उद्देश्य हिन्दू धर्म को जड़ से उखाड़फैंकने
का हैं भले ही वेदों में कितना ही श्रेष्ठ ज्ञान क्यों न हो। यदि वह इतना
पक्षपाती और पूर्वाग्रही है, तो उसके साहित्य को पढ़ना और मानना ही व्यर्थ
है।
इसका अर्थ यह भी
हुआ कि जो कोई आज मैक्समूलर के वेद भाष्य को प्रामाणिक मानता है तथा वैसा
प्रचार करता है, वह भी हिन्दू धर्म को जड़ से उखाड़ कर फैंक देना चाहता हूँ
जैसा कि हम ईसाई मिशनरियों एवं कम्युनिष्टों के साहित्य व प्रचार कार्यों
में देखते हैं।
(हिन्दु राइटर्स फोरम ) !!साभार!!
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