॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
*श्रीमद्भागवतमहापुराण*
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..
*जय-विजय को सनकादि का शाप*
वैमानिकाः सललनाश्चरितानि यत्र ।
गायन्ति लोकशमलक्षपणानि भर्तुः ।
अन्तर्जलेऽनुविकसन् मधुमाधवीनां ।
गन्धेन खण्डितधियोऽप्यनिलं क्षिपन्तः ॥ १७ ॥
पारावतान्यभृतसारसचक्रवाक ।
दात्यूहहंसशुकतित्तिरिबर्हिणां यः ।
कोलाहलो विरमतेऽचिरमात्रमुच्चैः ।
भृङ्गाधिपे हरिकथामिव गायमाने ॥ १८ ॥
मन्दारकुन्दकुरबोत्पलचम्पकार्ण ।
पुन्नागनागबकुलाम्बुजपारिजाताः ।
गन्धेऽर्चिते तुलसिकाभरणेन तस्या ।
यस्मिंस्तपः सुमनसो बहु मानयन्ति ॥ १९ ॥
वहाँ (वैकुण्ठधाममें) विमानचारी गन्धर्वगण अपनी प्रियाओंके सहित अपने प्रभुकी पवित्र लीलाओंका गान करते रहते हैं, जो लोगोंकी सम्पूर्ण पापराशिको भस्म कर देनेवाली हैं। उस समय सरोवरोंमें खिली हुई मकरन्दपूर्ण वासन्तिक माधवी लताकी सुमधुर गन्ध उनके चित्तको अपनी ओर खींचना चाहती है; परन्तु वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते वरं उस गन्धको उड़ाकर लानेवाले वायुको ही बुरा-भला कहते हैं ॥ १७ ॥ जिस समय भ्रमरराज ऊँचे स्वर से गुंजार करते हुए मानो हरिकथा का गान करते हैं, उस समय थोड़ी देर के लिये कबूतर, कोयल, सारस, चकवे, पपीहे, हंस, तोते, तीतर और मोरों का कोलाहल बंद हो जाता है—मानो वे भी उस कीर्तनानन्द में बेसुध हो जाते हैं ॥ १८ ॥ श्रीहरि तुलसी से अपने श्रीविग्रह को सजाते हैं और तुलसी की गन्धका ही अधिक आदर करते हैं—यह देखकर वहाँके मन्दार, कुन्द, कुरबक (तिलकवृक्ष), उत्पल (रात्रिमें खिलनेवाले कमल), चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेसर, बकुल (मौलसिरी), अम्बुज (दिनमें खिलनेवाले कमल) और पारिजात आदि पुष्प सुगन्धयुक्त होनेपर भी तुलसीका ही तप अधिक मानते हैं ॥ १९ !! *श्रीमद्भागवतमहापुराण*
- आचार्य पण्डित विनोद चौबे, भिलाई
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