ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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रविवार, 27 नवंबर 2011

तानाशाह शासक के चक्रव्यूह में किरण बेदी

तानाशाह शासक के चक्रव्यूह में किरण बेदी
 मित्रों आज मुझे बहुत कष्ट तब हुआ जब सुबह अखबार के पन्नों में किरण बेदी के उपर एफआईआर जर्ज की बात लगभग सभी समाचार पत्रों का प्रमुख समाचार था। मेरी भी निगाह उस हेड लाईन पर गयी मैने पढ़ा भी लेकिन आज के इस छद्म राजनीतिक परीवेश को कोशा भी की आज देश कहां जा रहा है सरकार के नीतियों के खिलाफ जो भी आवाज उठायेगा उसको कुचल दिया जायेगा यही नारा बुलंद करने वाली यू.पी.ए.-2 का शासन काल साबित करने जा रहा है , केवल यही नहीं बल्कि मुश्लिम राष्ट्रों में अक्सर देखे जाने वाला तानशाही शासन अपने भारत के इतिहास में इस सरकार द्वारा तब किया गया जब 4 जून 2011 को रामलीला मैदान में आधी रात को बाबा रामदेव के समर्थकों एवं स्वयं बाबा रामदेव को पुलिस वालों नें इस तरह खदेड़ा जैसे कोई बहुत बड़े अपराधी को देश से निकाला गया हो अथवा उस पर सैन्य कार्वाही किया गया हो। ठिक उसी तरह अन्ना हजारे को भी उसी तिहाड़ में भेजा गया ए राजा कलमाड़ी थे।
तो मित्रों क्या यह सरकार की तानाशाही रवैया नहीं वहीं  दुसरी तरफ  यही सरकार सेक्स से सियासती खेल खेलने वाले मंत्री मदेरणा राजस्थान के भंवरी के भंवर में फंसे महिपाल को बचाने का पुरजोर मेहनत कर रही है . और जो केवल भ्रष्टाचार की खिलाफ आवाज उठाने वाली टीम अन्ना की अहम सदस्या किरण बेदी का कुशुर बस इतना ही है , आप लोग ये बताईये की देश में कौन सा ऐसा एन जी ओ. है जो सही काम करता है और तो और सरकार के नुमाइंदे उसी एनजीओ को काम देती है जिससे उनको कमीशन मिल सके ऐसे में यदि किरण बेदी ने घपला कर ही लिया तो राजा के तो ठीक ही है..
 मानव मात्र को कष्ट देना, उसे अपमानित और प्रताड़ित करने का विचार ईश्वरीय सृजन के विरूद्ध है, इसीलिए सच्चा संत या ईश्वर भक्त इसे कभी स्वीकार नहीं करता । वास्तविकता तो यही है कि संसार को ईश्वरभक्ति से शून्य अहंवादी, प्रमादी लोगों ने ही बार-बार हिंसा और रक्तपात की ओर धकेला है।

शायद यही कारण है कि भक्ति आंदोलन से जुड़े तमाम संत सम्राटों की चाकरी और राजनीतिक प्रभुता, धन-ऐश्वर्य से अपने को दूर रखते हैं। कहीं-कहीं तो वे धन-प्रभुता और ऐश्वर्य प्रदर्शन के अनुचित स्वरुप को देखकर दुःखी और ठगे से महसूस भी करते हैं। भक्त कुंभनदास को सम्राट अकबर द्वारा प्रदत्त राजकीय वैभव बेकार लगने लगता है और गोस्वामी तुलसीदास अकबर की मंसबदारी से स्वयं को दूर ही रखते हैं। इन भक्तों ने राजमहलों की शोभा बनने की बजाए अपने झौपड़े को अधिक आनन्ददायक माना और साधारण समाज जीवन को भी सम्राट की बजाए रामजी को राजा मानकर अपने जीवनयापन का निर्देश दिया। सम्राट अकबर को प्रस्ताव को ठुकराते हुए तुलसीदास ने कहा-

हम चाकर रघुवीर के…, अब तुलसी का होहिंगे नर के मंसबदार।

भक्त कुंभनदास ने तो एक कदम आगे जाकर अकबर के दरबार में ही घोषणा की-

जिनके मुख देखत अघ लागत तिनको करन पड़ी परनाम, आवत जात पनहिया टूटी, बिसर गयो हरि नाम। संतन सो कहां सीकरी सो काम।

यानी जिन्हें देखने पर भी पाप लगता है, उन्हें प्रणाम करना पड़ रहा है। सम्राट की सीकरी से संतों का आखिर क्या काम है, इनके कारण तो भगवान का नाम लेना भी विस्मृत हो जा रहा है। और अंत में भक्त कुंभनदास दरबार में यह कहने की हिम्मत भी करते हैं कि- आज पाछे मोकों कबहूं बुलाइयो मति सम्राट। यानी हे सम्राट, अब फिर कभी इस भक्त को अपने दरबार में बुलावा मत भेजना।

जब बड़े-बड़े प्रतापी राजाओं की हिम्मत टूट चली थी, तब ये संत कैसा साहस प्रकट कर रहे थे, सहज समझ आ सकता है। यह कोई आसान काम नहीं था जो हिंदुस्थान के संत कर रहे थे। इन संतों ने विदेशी मुगलों के राज्य को कभी अपनी मान्यता और सम्मति नहीं दी और इसके समानांतर जब हिंदू राजा केवल नामशेष रह गए, राजा राम को लोकजीवन का सम्राट घोषित कर दिया।

कैसा विस्मित और दिल को दहलाने वाला दृश्य रहा होगा जब गुरु अर्जुनदेव ने जहांगीर को सामने झुकने से इनकार कर दिया। भयानक कष्टों और शारीरिक पीड़ा भोगने के बावजूद मृत्यु के समय उनके मुख से गुरुवाणी ही गुंजती रही और अंत में भी यही निकला- तेरा किया मीठा लागे। जहांगीर के लिए इससे बढ़कर शर्म की क्या बात हो सकती थी कि उसके अत्याचारों को भी एक संत ‘मीठे कार्य’ बता रहा था। गुरु तेगबहादुर महाराज भी इसी प्रकार कंठ से जपुजी साहिब का कीर्तन करते हुए बलिदान हुए।

यह भक्ति की ताकत थी जिसने भारतीय समाज को बड़े से बड़ा बलिदान करने की ओर उन्मुख किया। यह भक्ति थी जिसने भारतीय समाज को यह भी प्रेरणा दी कि अत्याचारियों से स्वराज्य छीनकर पुनः भारतभूमि को अपने सपनों का स्वर्ग बनाएं। यही कारण है कि एक ओर उत्तर में गुरु गोविंद सिंह महाराज कहते हैं-

अगम सूर वीरा उठहिं सिंह योद्धा,

पकड़ तुरकगण कऊं करै वै निरोधा।

वहीं दूसरी ओर दक्षिण में विद्यारण्य स्वामी और मध्य भारत में समर्थ स्वामी रामदास जैसे संत विदेशी सल्तनत का जुआ उतार कर समाज को उठ खड़े होने का आह्वान देते हैं।

परकीय दासता के कालखण्ड में भक्ति पराक्रम के विरुद्ध कायरता या गृहस्थी और संसार के झंझटों से मुक्त होकर स्वयं को सुखी रखने का साधन नहीं थी। संतों की साधना स्वयं में एक कठिन कार्य था, उसमें भी समाज को विदेशी दासता से मुक्ति की शुभ घड़ी के आगमन तक धैर्य रखने के लिए आश्वस्त करने का काम तो और कठिन था। इसलिए भक्ति के कार्य में कायरों के लिए तो कोई जगह नहीं थी। तभी तो कबीर दास उस कालखण्ड में भक्ति को बलिदान का दूसरा नाम देते हुए कहते हैं-

भगति देहुली राम की, नहिं कायर का काम।

सीस उतारै हाथि करि, सो ले हरिनाम।

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