ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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बुधवार, 16 नवंबर 2011

मन बिमार है या शरीर ??? मनोविज्ञान में चन्द्र की गहरी छाप


 मन बिमार है या शरीर ?
मनोविज्ञान में चन्द्र की गहरी छाप

ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे ,09827198828
           ''चन्द्रमा के महत्वपूर्ण लक्षण हमारे शरीर में तरल रूप में विद्यमान हैं जिनमें कफ, रूधिर, मन, बाई आंख, भावनाएं मनोवैज्ञानिक समस्याएं और माँ आदि महत्वपूर्ण हैं। किसी जातक की कुंडली में अष्टम भाव में स्थित चन्द्रमा बालारिष्ट का कारक होता है। शनि के साथ द्वादश भाव में स्थित क्षीण चन्द्रमा पागलपन और उन्माद देता है जबकि शनि, केतु और चन्द्रमा की युति व्यक्ति को पागल बना देती है। लग्न आत्मा होता है और चन्द्रमा प्राण होते हैं। हम सूर्य से अहं और चन्द्रमा से मन ग्रहण करते हैं और अहं व मन का संयोग हमारे व्यवहार में सुधार लाता है। ये दोनों ग्रह सूर्य और चन्द्र ज्योतिष में ऐसे ग्रह हैं जिनसे व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार का निरूपण आसानी से किया जा सकता है।''


आयुर्वेद शास्त्र के महान भारतय प्राचीन ऋषि चरक ने मानवीय व्यक्तित्व का मन और शरीर के रूप में गंभीर चिन्तन-मनन किया है। शरीर में व्याप्त रोग का पता लगाने के लिए कि बीमारी शरीर में है अथवा मन में, ऋषि चरक कहते हैं कि बीमारी के तीन कारण हो सकते हैं जिनका मानव शरीर के तीन गुण—सत्व, रजस और तमस से सम्बन्ध हो सकता है। सतोगुण एक शुद्ध और पवित्र मन का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे मन के व्यक्ति मनुष्य और समाज दोनों का हित चाहते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ज्योतिष में कल्याणांश विशिष्ट (परार्थ विषयों पर चिन्तन करने वाले) कहलाते हैं। जब किसी व्यक्ति का राजस गुण निरंकुशता में बदल जाता है तो ऐसे व्यक्ति क्रोध और घृणा की चपेट में आ जाते हैं और ज्योतिष में हम उन्हें रोशांश विशिष्ट (नियंत्रित क्रोध वाले व्यक्ति) कहते हैं। जब किसी व्यक्ति के मन पर तमोगुण प्रभावी हो जाता है तो ऐसा व्यक्ति संवेदना शून्य हो जाता है और उसे मोहांश विशिष्ट कहते हैं ये अज्ञानता और निरंकुशता के दुर्गुणों के शिकार हो जाते हैं। महर्षि चरक ने मानव स्वभाव को तीन भागों में बांटा है जिसे आगे वे मानव मनोस्थिति गुण के रूप में परिभाषित करते हैं जिनका वर्णन निम्नानुसार किया जा रहा है—
ब्रह्म प्रकार के व्यक्ति: इस प्रकार के व्यक्ति बुद्धिमान और चरित्रवान होते हैं। उनमें वैज्ञानिक अथवा दर्शनिक बुद्धि होती है। ये सत्यवादी होते हैं और भावनाओं के वशीभूत नहीं होते और इन्द्रीयजनित तुच्छ सुखों के नियंत्रण में भी नहीं आते। इनकी प्रकृति सात्विक होती है। ये निम्न प्रकार के होते हैं—
1. आर्य प्रकार, 2. अनिद्र प्रकार, 3. यम प्रकार, 4. वरूण प्रकार, 5. कुबेर प्रकार, 6. गंधर्व प्रकार।
राजसिक प्रकृति के व्यक्तियों को निम्न प्रकारों में बाँटा गया है—
1. असुर, 2. राक्षस, 3. पिशाच, 4. सर्प, 5. प्रेत, 6. शाकनि
तामसिक प्रकृति के व्यक्तियों को निम्न भागों में बाँटा गया है—
1. पसय, 2. मत्स्य, 3. वनस्पत्य आदि।

ज्योतिष की नजर में
ज्योतिष में भी विभिन्न ग्रहों के यही गुण माने गए हैं  जैसे—सूर्य, चन्द्र और गुरू = सात्विक, बुध और शुक्र = राजसिक, मंगल और शनि = तामसिक। सूर्य के शत्रु ग्रह यथा राहु, गुलिक और केतु शरीर और आत्मा दोनों को हानि पहुंचाते हैं। इसलिए इन राहु केतु आदि के गुण भी वही होंगे जो शनि और मंगल के हैं अर्थात् तामसिक। सूर्य जगत की आत्मा है, चन्द्रमा मन, मंगल-पराक्रम, बुध-वाणी, गुरू बुद्धि, शुक्र-वीर्य और शनि-दु:ख और क्लेश। जब गुरू अथवा सूर्य का चन्द्रमा पर पूर्ण प्रभाव होता है तो महर्षि चरक द्वारा बताए अनुसार जातक में सतोगुणी व्यक्तियों की विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। जब शुभ बुध अथवा शुक्र का चन्द्रमा पर प्रभाव हो जाता है तो व्यक्ति राजसिक गुणों के रूप में व्यवहार करने लगता है और जब शनि अथवा मंगल का चन्द्रमा पर प्रभाव हो तो व्यक्ति में तामसिक प्रवृत्तियां पनपने लगती हैं।
चन्द्र सतोगुणी है। यदि चन्द्रमा किसी जातक की कुंडली दुष्प्रभावों से मुक्त हो अर्थात शुभ प्रभावों में हो तो जातक में सतोगुण प्रकट होते हैं और वह तदनुसार आचरण करता है।
उदाहरण कुंडलियां—
श्री रामचन्द्र परमहंस—सत्व गुण सत्त्व तत्त्व, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम—ब्रह्म, सद्दाम हुसैन—तमोगुण कुंडली में जिन बातों पर विचार किया गया है, वे मूल रूप से भाव और भावेशों पर ही होती है। उदाहरणार्थ—गुरू, शुक्र और बुध यदि नवमेश होकर लग्न में बैठें तो सत्व गुण प्रकट करते हैं। यदि ये केन्द्र के स्वामी हों तो ये राजसिक के साथ सात्विक गुण भी देते हैं। ऐसे में व्यक्ति विवेकशील निर्णय लेता है। यदि ये दु:स्थानों के स्वामी हों तो वे सात्विक होकर प्रसिद्धि दिलाते हैं। इसी प्रकार यदि मंगल और शनि शुभ स्थानों के स्वामी हों तो इनकी चन्द्रमा से युति व्यक्ति में सात्विक गुणों के साथ-साथ कुछ तामसिक गुण भी उत्पन्न करती हैं। यदि ये अशुभ प्रभाव में हों तो ये राजसिक और तामसिक गुणों का मिश्रित रूप प्रकट करते हैं। यदि मंगल और शनि लग्नेश हों, शुभ प्रभाव में हों, राशि कारक हों तो सत्व गुण प्रकट होता है और ऐसे व्यक्ति बहुत अच्छे विवेक के धनी होते हैं परन्तु सतोगुण का प्रकटीकरण किसी ग्रह विशेष की नैसर्गिक विशेषताओं की पृष्ठभूमि में ही प्रकट होता है। उदाहरणार्थ, तुला लग्न वालों के यदि शनि, चन्द्रमा पर शुभ प्रभाव डालते हैं तो जातक में सात्विक गुण प्रकट होते हैं। उनका बाहरी व्यवहार मित्तभाषी होगा और वे तुच्छ विचारों से ग्रसित नहीं होंगे।
कल्याण शकट योग—
1. ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे (अन्र्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त) के अनुसार कल्याण शकट योग का निर्माण तभी होता है जब गुरू से चन्द्रमा 6 या आठ भाव में हो। इस योग का केवल एक ही अपवाद है कि यदि चन्द्रमा लग्न से केन्द्र में स्थित हो तो यह योग भंग हो जाता है।
शषष्टमा गताश्चन्द्र सूर्य राज पुरोहित:केन्द्र दान्य गतो लग्नाद्योग:शकट समग्नित:।। परिणामों पर विचार करते हैं तो—
अपि राजा कुले जातो निश्व शकट योगज:। क्लेश यशवस नित्यम संतोप्त निरूप विप्रय:।।
अर्थ—1. चाहे कोई व्यक्ति राज परिवार में क्यों नहीं जन्मे, इस योग वाले को निर्धनता, दिन-प्रतिदिन दु:ख-कष्ट और अन्य राजाओं के क्रोध का भाजन बनना पड़ता है।
2. मंत्रेश्वर, फलदीपिकाकार के अनुसार, जीवन्त्यश्तरी समष्टे शशिनितु शकट:, केन्द्रगे नास्ते लग्नथ:।।
जब बृहस्पति से छठे, आठवें या बारहवें भाव में चन्द्र हो तो शकट योग बनता है परन्तु यदि चन्द्र केन्द्र में हो तो शकट योग भंग हो जाता है।
क्वचित क्वचित भाग्य परिचयत: सन् पुन: सर्वा मुपैते भाग्य:,
लोके प्रस्तीधो परिहर्य मन्त: सल्यम प्रपन्न: शकटे ति दु:खी:।।
इस शकट योग में जन्मा जातक प्राय: भाग्यहीन होता है अथवा भाग्यहीन हो जाता है और जीवन में खोए हुए को पुन: पा भी सकता है और प्रतिष्ठा आदि में एक सामान्य व्यक्ति होता है और इस दुनिया में उसका कोई महत्व नहीं होता है। वह नि:स्संदेह भारी मानसिक वेदना सहता है और जीवन में दु:खी ही रह जाता है। दूसरे विद्वानों के विचारों पर दृष्टिपात करते हैं तो यह देखते हैं ।
3. यदि चन्द्र अपनी उच्चा राशि में हो, स्वग्रही हो अथवा बृहस्पति के भावों में हो और चन्द्रमा बृहस्पति से छठे, आठवें अथवा बारहवें भाव में हो तो यह शकट योग का अपवाद बन जाता है। ऐसी स्थिति में शकट योग ही भंग नहीं होता अपितु उसके दुष्परिणाम भी आते हैं परन्तु यही योग जातक को मुकुट योग देकर ऊंचाइयों पर भी पहुंचा देता है।
4. यदि चन्द्रमा बृहस्पति से छठे-आठवें भाव में हो परन्तु वह मंगल से दृष्ट हो तो भी शकट योग भंग हो जाता है।
5. यदि राहु-चन्द्र की युति हो अथवा राहु उन्हें देखें तो भी शकट योग भंग हो जाता है।
6. बृहस्पति से छठे, आठवें या बारहवें भाव में पूर्ण चन्द्र स्थित हो तो भी शकट योग भंग हो जाता है।
7. यदि षड्बल में बृहस्पति चन्द्र से बली हों तो भी शकट योग भंग हो जाता है।
8. यदि चन्द्र बृहस्पति से छठे आठवें भाव में स्थित होकर द्वितीय भाव में बैठे तो शकट योग भंग हो जाता है और व्यक्ति धनी होता है। ?सी ग्रह स्थिति मिथुन लग्न वाले जातकों की ही होती है। चन्द्र से छठे भाव में स्थित बृहस्पति से हंस योग का निर्माण होता है क्योंकि वे निज भाव में होंगे जो सप्तमेश और दशमेश का लग्न से केन्द्र स्थान होगा, चन्द्रमा से अष्टम भाव में स्थित होने पर जातक धनवान नहीं बन सकता है। सूर्य नवम भाव में स्थित होकर गुरू से युति करें और द्वितीय भाव में चन्द्रमा पर उनकी पूर्ण रश्मियां पड़ें तो जातक प्रचुर धन का स्वामी हो सकता है परन्तु ऐसी स्थिति में गुरू अस्तंगत दोष से मुक्त हो।
द्वितीय भाव में स्थित उच्च के गुरू से अष्टम भाव में चन्द्र की स्थिति शुभ नहीं होती है और ऐसे जातक संभवत: 40 वर्ष की आयु होते-होते सब कुछ गंवा देते हैं परन्तु यह बाद में आने वाली दशाओं पर निर्भर करता है कि वह अपना खोया धन और सम्मान पुन: प्राप्त कर लें। माना कोई जातक शनि महादशा में हो और 40 वर्ष की आयु का हो चुका है तो वह बृहस्पति की दशा में सब कुछ गंवा देगा और शनि की अंतर्दशा में पुन: प्राप्त कर लेगा। यदि शनि उनकी कुंडली में शुभ स्थिति में हो। तुला और मीन लग्न के जातकों का शनि शुभ स्थिति में होता है। वृश्चिक में भी शनि की स्थिति ठीक होती है। बृहस्पति से द्वादश भाव में स्थित चन्द्रमा अनफा योग का सृजन करते हैं। द्वितीय भाव के स्वामी लग्नस्थ होकर चन्द्र या बृहस्पति की अन्तर्दशा में किसी जातक को बर्बाद नहीं करते। बहुत सी कुंडलियों का अध्ययन करने के बाद अब मुझे यह विश्वास हो गया है कि शकट योग के कुछ भी परिणाम होते हों परन्तु यह कहना ठीक नहीं होगा कि जीवन में बुरे दिन सदा नहीं रहते। जीवन परिवर्तनशील है। बुरा समय जीवन में परीक्षा लेता है और इस परीक्षा एवं कसौटी के लिए शकट योग एक महत्वपूर्ण स्थिति है। योग जीवन में बहुत लंबे समय तक फलीभूत नहीं होते हैं। कुछ समय बाद ये योग स्वत: विलीन होने लगते हैं। यहां मंत्रेश्वर महाराज हमें आशा दिलाते हैं कि रूठा हुआ भाग्य पुन: मनाया जा सकता है, खोई हुई प्रतिष्ठा और धन पुन: अर्जित किए जा सकते हैं। एक साधारण एवं गरीब व्यक्ति भी मानसिक रूप से बहुत प्रसन्न एवं प्रफुल्लित हो सकता है अथवा वही व्यक्ति बहुत अधिक दु:खी, पीड़ित और कष्ट से भरा जीवन व्यतीत करता है। ये सभी परिस्थितियां विभिन्न प्रकार के योगायोग, शकट योगादि के कारण बनती हैं और कई बार इनके अपवाद भी पाए जाते हैं।
गर्ग होरा: उन्होंने कल्याण शकट योग का अद्भुत वर्णन किया है। इस योग के लिए निम्न स्थितियां होती हैं—
1. चन्द्र शुक्र यति।
2. चन्द्रमा बृहस्पति से छठे, आठवें और बारहवें भाव में स्थित हों।
3. लग्न से केन्द्र में स्थित चन्द्र शुभ है और लग्न से बृहस्पति केन्द्र स्थित हो तो और भी शुभ होते हैं।
बृहस्पति से छठे भाव में स्थित चन्द्र के कारण निम्न स्थितियां हो सकती हैं—
1. लग्न में चन्द्र-शुक्र युति और बृहस्पति अष्टम भाव में उच्चा के हों।
2. चन्द्र-शुक्र युति सप्तम भाव में हो और बृहस्पति द्वितीय भाव में नीच राशि में हो।
3. चन्द्र-शुक्र युति दशम भाव में हो और बृहस्पति पंचम भाव में मित्र राशि में हों।
4. चन्द्र शुक्र युति चतुर्थ भाव में हो और बृहस्पति एकादश भाव में शत्रु राशि में हों।
5. बृहस्पति प्रथम भाव में हो और चन्द्र-शुक्र छठे भाव में उच्च राशि में हों।
6. बृहस्पति चतुर्थ भाव में हों और चन्द्र-शुक्र नवम भाव में मित्र राशि में हों।
7. बृहस्पति सप्तम भाव में हो और चन्द्र शुक्र युति द्वादश भाव में नीच राशि में हों।
8. बृहस्पति दशम भाव में हो और चन्द्र शुक्र युति तृतीय भाव में शत्रु राशि में हों।
उपर्युक्त सभी आठ प्रकार के योगों से यह स्पष्ट होता है कि अंतिम योग अधम प्रकृति का है। बृहस्पति षड्बल में हीन बली है जबकि चन्द्र और शुक्र बलवान हैं।

चन्द्र मंगल योग: भविष्य प्रारब्ध कर्मो के अच्छे-बुरे परिणामों की फल श्रुति होता है। जीवन में अच्छे-बुरे का हेतु कर्म सिद्धान्त ही है। हम अपनी संकल्प शक्ति के बल पर कर्मफलों को अपने अनुसार भोगने का प्रयास करते हैं अथवा अपने आपको भाग्य पर रहने के लिए छोड़ देते हैं। अहंकार किसी व्यक्ति के जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करता है। जीवन में अपनी संकल्प शक्ति के बल पर जीवित रहते हुए हम संचित कर्मो को प्रारब्ध कर्मो में बदलकर जन्म-जन्मान्तर तक भोगते रहते हैं। इस संसार की भी क्रियाओं पर ग्रहों पर पड़ने वाली किरणों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी भी भौतिक क्रिया की पूर्णता के लिए दो प्रकार की पारस्परिक किरणों का होना आवश्यक है। ये सभी क्रियाएं ग्रहों की गति के अनुरूप बदलती रहती हैं।
चन्द्रमा के महत्वपूर्ण लक्षण हमारे शरीर में तरल रूप में विद्यमान हैं जिनमें कफ, रूधिर, मन, बाई आंख, भावनाएं मनोवैज्ञानिक समस्याएं और माँ आदि महत्वपूर्ण हैं। किसी जातक की कुंडली में अष्टम भाव में स्थित चन्द्रमा बालारिष्ट का कारक होता है। शनि के साथ द्वादश भाव में स्थित क्षीण चन्द्रमा पागलपन और उन्माद देता है जबकि शनि, केतु और चन्द्रमा की युति व्यक्ति को पागल बना देती है। लग्न आत्मा होता है और चन्द्रमा प्राण होते हैं। हम सूर्य से अहं और चन्द्रमा से मन ग्रहण करते हैं और अहं व मन का संयोग हमारे व्यवहार में सुधार लाता है। ये दोनों ग्रह सूर्य और चन्द्र ज्योतिष में ऐसे ग्रह हैं जिनसे व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार का निरूपण आसानी से किया जा सकता है। वैदिक ज्योतिष में चन्द्रमा पर बहुत बल दिया गया है।
क्योंकि चन्द्रमा हमारे जागृत और सुप्त दोनों प्रकार के मस्तिष्क को प्रभावित करता है। जहां तक मनुष्य के स्वभाव को समझने की बात है वास्तव में मन ही वह शक्ति है जो ग्रहों और वातावरणीय कारणों से आने वाली किरणों को ग्रहण करके उन पर प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करता है। किसी जातक की कुंडली में शुभ स्थित चन्द्रमा अच्छे स्वास्थ्य और बलवान मन का सूचक है। मन ही सभी प्रकार की क्रियाओं का कारक है। जैसा कि जॉन मिल्टन कहते हैं कि मन का अपना स्थान है, वह चाहे तो नरक को स्वर्ग और स्वर्ग को नरक बना सकता है। गोचर में चन्द्रमा की प्रधान भूमिका रहती है।
चन्द्रमा मंगल को सम मानते हैं जबकि मंगल, चन्द्र को मित्र मानते हैं। दोनों ही ग्रह भिन्न-भिन्न प्रकृति और अलग चरित्रगत विशेषताएं रखते हैं। सूर्य इन दोनों ग्रहों के मित्र हैं परन्तु शनि उन्हें शत्रु मानते हैं। शुक्र भी चन्द्र को शत्रु मानते हैं। बुध मंगल के शत्रु हैं। चन्द्र सफे द (सित्वर्णी) रंग के हैं जबकि मंगल लाल (रक्तगौर) रंग के हैं। चन्द्रमा में स्त्री तत्व और मंगल में पुरूषोचित गुण रहते हैं।
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