माँ बमलेश्वरी शक्तिपीठ डोंगरगढ़ (1100 सीढ़ी ) में उपर पहाड़ी पर माता जी के शरण में साधना करते हुए ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे |
शाक्त धर्म में छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ में शक्तिपूजा
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे,०९८२७१९८८२८, भिलाई
मित्रों जब छत्तीसगढ़ की बात होती है तो सर्वप्रथम शिव-शिवोपासना स्वयमेव ही चर्चा निकल पड़ती है । यदि शिवमय छत्तीसगढ़ है तो शक्ति की उपासना यहां के लोगों में सहज ही देखने को मिलता है और छत्तीसगढ़ राज्य पर विशेष कृपा है क्योंकि इसका प्रमाण यहां विद्यमान शक्तिपीठों से मिलता है , हो भी क्यों न क्योंकि जहां शिव हैं वहीं शक्ति हैं । यदि शिव का इकार निकाल दिया जाय तो शव शब्द शेष रह जाता है, और शव शब्द का अर्थ प्राण विहिन मरा हुआ अस्थि (लाश)। तो मित्रों इकार शक्ति का परिचायक है अतएव शिव शक्ति के वगैर अधुरा हैं इसीलिए शिव क्षेत्र छत्तीसगढ़ में शक्ति की प्रधानता है अपितु यहां अगर भोरमदेव हैं तो महा माया भगवती बमलेश्वरी भी हैं इसी प्रकार अन्य सभी शक्तिपीठों की बात की जाय तो छत्तीसगढ़ के प्रमुख शक्तिपीठों में रतनपुर, चंद्रपुर, डोंगरगढ़, खल्लारी और दंतेवाड़ा प्रमुख है- रतनपुर में महामाया, चंद्रपुर में चंद्रसेनी, डोंगरगढ़ में बमलेश्वरी और दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी देवी विराजमान हैं- लेकिन अम्बिकापुर में महामाया और समलेश्वरी देवी विराजित हैं और ऐसा माना जाता है कि पूरे छत्तीसगढ़ में महामाया और समलेश्वरी देवी का विस्तार अम्बिकापुर से ही हुआ है- शाक्त धर्म में आदि तत्व को मातृरूप मानने की सामाजिक मान्यता है- उसके अनुसार नारी पूजनीय माने जाने लगी, विशेषत: माताओं और कुवांरी बालिकाओं का शाक्त धर्म में बहुत ऊंचा स्थान है- दबिस्तां नामक फारसी ग्रंथ के मुस्लिम लेखक ने भी लिखा है कि आगमों में नारियों को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है।
अगर यहां के गढ़ों के उत्तराधिकारी राजाओं को देखाजाय तो उनका भी अकथनीय और आकल्प सहयोग रहा है जो छत्तीसगढ़ की एक पहचान व संस्कृति आज भी जीवंत है इस जीवंतता के पिछे उन रजवाड़ों का भी संस्मरण करना बेहद आवश्यक है तो आईए.
.मित्रों अब उनको भी जानने की कोशिश करते हैं।गढ़ों के गढ़ छत्तीसगढ़ अनेक देशी राजवंशों के राजाओं की कार्यस्थली रही है- यहां अनेक प्रतापी राजा और महाराजा हुए जो विद्वान, शक्तिशाली, प्रजावत्सल और देवी उपासक थे- यही कारण है कि यहां अनेक मंदिर और शक्तिपीठ उस काल के साक्षी हैं- ये देवियां उनकी कुलदेवी थीं- यहां देवी रियासतों की स्थापना से लेकर उसके उत्थान पतन से जुड़ी अनेक कथाएं पढ़ने और सुनने को मिलती है- यहां प्रमुख रूप से दो देवियां रतनपुर की महामाया और सम्बलपुर की समलेश्वरी देवी पूजी जाती है, शेष देवियां उनकी प्रतिरूप हैं और क्षेत्र विशेष का बोध कराती हैं- इनमें सरगुजा की सरगुजहीन दाई, खरौद की सौराईन दाई, कोरबा की सर्वमंगला देवी, अड़भार की अष्टभूजी देवी, मल्हार की डिडिनेश्वरी देवी, चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी, डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी, बलौदा की गंगा मैया, जशपुर की काली माता, मड़वारानी की मड़वारानी दाई प्रमुख हैं- सुप्रसिद्ध कवि पंडित शुकलाल पांडेय ने ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव’’ में की है।
रतनपुर में महामाया देवी का सिर है और उसका धड़ अम्बिकापुर में है। प्रतिवर्ष वहां मिट्टी का सिर बनाये जाने की बात कही जाती है। इसी प्रकार संबलपुर के राजा द्वारा देवी मां का प्रतिरूप संबलपुर ले जाकर समलेश्वरी देवी के रूप में स्थापित करने की किंवदंती प्रचलित है- समलेश्वरी देवी की भव्यता को देखकर दर्शनार्थी डर जाते थे अत: ऐसी मान्यता है कि देवी मंदिर में पीठ करके प्रतिष्ठित हुई- सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में जितने भी देशी राजा-महाराजा हुए उनकी निष्ठा या तो रतनपुर के राजा या संबलपुर के राजा के प्रति थी- कदाचित् मैत्री भाव और अपने राज्य की सुख, समृद्धि और शांति के लिए वहां की देवी की प्रतिमूर्ति अपने राज्य में स्थापित करने किये जो आज लोगों की श्रद्धा के केंद्र हैं।
चंद्रसेनी या चद्रहासिनी देवी सरगुजा से आकर सारंगढ़ और रायगढ़ के बीच महानदी के तट पर विराजित हैं- उन्हीं के नाम पर कदाचित् चंद्रपुर नाम प्रचलित हुआ- पूर्व में यह एक छोटी जमींदारी थी- चंद्रसेन नामक राजा ने चंद्रपुर नगर बसाकर चंद्रसेनी देवी को विराजित करने की किंवदंती भी प्रचलित है- तथ्य जो भी हो, मगर आज चंद्रसेनी देवी अपने नव कलेवर के साथ लोगों की श्रद्धा के केंद्र बिंदु है- नवरात्रि में और अन्य दिनों में भी यहां बलि दिये जाने की प्रथा है- पहाड़ी में सीढ़ी के दोनों ओर अनेक धार्मिक प्रसंगों का शिल्पांकन है- हनुमान और अर्द्धनारीश्वर की आदमकद प्रतिमा आकर्षण का केंद्र है- रायगढ़, सारंगढ़, चाम्पा, सक्ती में समलेश्वरी देवी की भव्य प्रतिमा है।
बस्तर की कुलदेवी दंतेश्वरी देवी हैं जो यहां के राजा के साथ आंध्र प्रदेश के वारंगल से आयी और शंखिनी डंकनी नदी के बीच में विराजित हुई और बाद में दंतेवाड़ा नगर उनके नाम पर बसायी गयी- बस्तर का राजा नवरात्रि में नौ दिन तक पुजारी के रूप में मंदिर में निवास करते थे- देवी की उनके उपर विशेष कृपा थी- जगदलपुर महल परिसर में भी दंतेश्वरी देवी का एक भव्य मंदिर है।
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे,०९८२७१९८८२८, भिलाई
मित्रों जब छत्तीसगढ़ की बात होती है तो सर्वप्रथम शिव-शिवोपासना स्वयमेव ही चर्चा निकल पड़ती है । यदि शिवमय छत्तीसगढ़ है तो शक्ति की उपासना यहां के लोगों में सहज ही देखने को मिलता है और छत्तीसगढ़ राज्य पर विशेष कृपा है क्योंकि इसका प्रमाण यहां विद्यमान शक्तिपीठों से मिलता है , हो भी क्यों न क्योंकि जहां शिव हैं वहीं शक्ति हैं । यदि शिव का इकार निकाल दिया जाय तो शव शब्द शेष रह जाता है, और शव शब्द का अर्थ प्राण विहिन मरा हुआ अस्थि (लाश)। तो मित्रों इकार शक्ति का परिचायक है अतएव शिव शक्ति के वगैर अधुरा हैं इसीलिए शिव क्षेत्र छत्तीसगढ़ में शक्ति की प्रधानता है अपितु यहां अगर भोरमदेव हैं तो महा माया भगवती बमलेश्वरी भी हैं इसी प्रकार अन्य सभी शक्तिपीठों की बात की जाय तो छत्तीसगढ़ के प्रमुख शक्तिपीठों में रतनपुर, चंद्रपुर, डोंगरगढ़, खल्लारी और दंतेवाड़ा प्रमुख है- रतनपुर में महामाया, चंद्रपुर में चंद्रसेनी, डोंगरगढ़ में बमलेश्वरी और दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी देवी विराजमान हैं- लेकिन अम्बिकापुर में महामाया और समलेश्वरी देवी विराजित हैं और ऐसा माना जाता है कि पूरे छत्तीसगढ़ में महामाया और समलेश्वरी देवी का विस्तार अम्बिकापुर से ही हुआ है- शाक्त धर्म में आदि तत्व को मातृरूप मानने की सामाजिक मान्यता है- उसके अनुसार नारी पूजनीय माने जाने लगी, विशेषत: माताओं और कुवांरी बालिकाओं का शाक्त धर्म में बहुत ऊंचा स्थान है- दबिस्तां नामक फारसी ग्रंथ के मुस्लिम लेखक ने भी लिखा है कि आगमों में नारियों को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है।
अगर यहां के गढ़ों के उत्तराधिकारी राजाओं को देखाजाय तो उनका भी अकथनीय और आकल्प सहयोग रहा है जो छत्तीसगढ़ की एक पहचान व संस्कृति आज भी जीवंत है इस जीवंतता के पिछे उन रजवाड़ों का भी संस्मरण करना बेहद आवश्यक है तो आईए.
.मित्रों अब उनको भी जानने की कोशिश करते हैं।गढ़ों के गढ़ छत्तीसगढ़ अनेक देशी राजवंशों के राजाओं की कार्यस्थली रही है- यहां अनेक प्रतापी राजा और महाराजा हुए जो विद्वान, शक्तिशाली, प्रजावत्सल और देवी उपासक थे- यही कारण है कि यहां अनेक मंदिर और शक्तिपीठ उस काल के साक्षी हैं- ये देवियां उनकी कुलदेवी थीं- यहां देवी रियासतों की स्थापना से लेकर उसके उत्थान पतन से जुड़ी अनेक कथाएं पढ़ने और सुनने को मिलती है- यहां प्रमुख रूप से दो देवियां रतनपुर की महामाया और सम्बलपुर की समलेश्वरी देवी पूजी जाती है, शेष देवियां उनकी प्रतिरूप हैं और क्षेत्र विशेष का बोध कराती हैं- इनमें सरगुजा की सरगुजहीन दाई, खरौद की सौराईन दाई, कोरबा की सर्वमंगला देवी, अड़भार की अष्टभूजी देवी, मल्हार की डिडिनेश्वरी देवी, चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी, डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी, बलौदा की गंगा मैया, जशपुर की काली माता, मड़वारानी की मड़वारानी दाई प्रमुख हैं- सुप्रसिद्ध कवि पंडित शुकलाल पांडेय ने ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव’’ में की है।
रतनपुर में महामाया देवी का सिर है और उसका धड़ अम्बिकापुर में है। प्रतिवर्ष वहां मिट्टी का सिर बनाये जाने की बात कही जाती है। इसी प्रकार संबलपुर के राजा द्वारा देवी मां का प्रतिरूप संबलपुर ले जाकर समलेश्वरी देवी के रूप में स्थापित करने की किंवदंती प्रचलित है- समलेश्वरी देवी की भव्यता को देखकर दर्शनार्थी डर जाते थे अत: ऐसी मान्यता है कि देवी मंदिर में पीठ करके प्रतिष्ठित हुई- सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में जितने भी देशी राजा-महाराजा हुए उनकी निष्ठा या तो रतनपुर के राजा या संबलपुर के राजा के प्रति थी- कदाचित् मैत्री भाव और अपने राज्य की सुख, समृद्धि और शांति के लिए वहां की देवी की प्रतिमूर्ति अपने राज्य में स्थापित करने किये जो आज लोगों की श्रद्धा के केंद्र हैं।
चंद्रसेनी या चद्रहासिनी देवी सरगुजा से आकर सारंगढ़ और रायगढ़ के बीच महानदी के तट पर विराजित हैं- उन्हीं के नाम पर कदाचित् चंद्रपुर नाम प्रचलित हुआ- पूर्व में यह एक छोटी जमींदारी थी- चंद्रसेन नामक राजा ने चंद्रपुर नगर बसाकर चंद्रसेनी देवी को विराजित करने की किंवदंती भी प्रचलित है- तथ्य जो भी हो, मगर आज चंद्रसेनी देवी अपने नव कलेवर के साथ लोगों की श्रद्धा के केंद्र बिंदु है- नवरात्रि में और अन्य दिनों में भी यहां बलि दिये जाने की प्रथा है- पहाड़ी में सीढ़ी के दोनों ओर अनेक धार्मिक प्रसंगों का शिल्पांकन है- हनुमान और अर्द्धनारीश्वर की आदमकद प्रतिमा आकर्षण का केंद्र है- रायगढ़, सारंगढ़, चाम्पा, सक्ती में समलेश्वरी देवी की भव्य प्रतिमा है।
बस्तर की कुलदेवी दंतेश्वरी देवी हैं जो यहां के राजा के साथ आंध्र प्रदेश के वारंगल से आयी और शंखिनी डंकनी नदी के बीच में विराजित हुई और बाद में दंतेवाड़ा नगर उनके नाम पर बसायी गयी- बस्तर का राजा नवरात्रि में नौ दिन तक पुजारी के रूप में मंदिर में निवास करते थे- देवी की उनके उपर विशेष कृपा थी- जगदलपुर महल परिसर में भी दंतेश्वरी देवी का एक भव्य मंदिर है।
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