दिखावटी शांतिपुरूष हैं, गिलानी!
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इसी तरह जब राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने अचानक कह दिया कि हर पाकिस्तानी के दिल में कहीं न कहीं एक हिंदुस्तान धड़कता है तो उनकी कितनी दुर्गति हुई। अभी-अभी भारत को ‘सर्वानुग्रहीत राष्ट्र’ का दर्जा देने की घोषणा पर पाकिस्तानी सरकार को कितनी बार द्रविड़-प्राणायाम करना पड़ा। फौज और मज़हबी तत्व वहाँ सबसे अधिक शक्तिशाली हैं और वे भारत-विरोधी है।
इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं कि भारत से संबंध सुधारने के पक्षधर तत्वों की हम उपेक्षा करें। शायद इसी दृष्टि से हमारे प्रधानमंत्री ने यह कूटनीतिक दांव मारा है। पिछले तीन वर्षों में गिलानी से वे कई बार मिल चुके हैं। अगर ये दोनों पंजाबी सज्जन शांति की खिचड़ी पका सकें तो पूरे दक्षिण एशिया का रूपांतर होने में कितनी देर लगेगी। इसके कुछ संकेत हाल ही में मिले भी हैं। पाकिस्तान ने उसकी सीमा में घुसे भारतीय हेलिकॉप्टर को बाइज्जत और सुरक्षित लौटाया।
भारत ने पाक को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाने में मदद की। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान संबंधी तुर्की सम्मेलन में भारत के भाग लेने का इस बार विरोध नहीं किया। उसने भारत को सर्वानुग्रहीत राष्ट्र का दर्जा दिया। उसके गृहमंत्री रहमान मलिक ने कसाब को लटकाने की हिमायत की। दक्षेस सम्मेलन में दोनों राष्ट्र सहयोग के कुछ नए आयाम भी खोलना चाहते हैं। पाकिस्तान से अमेरिकी उच्चाटन की वेला में ऐसे संकेत मिलना स्वाभाविक हैं लेकिन इन पर फिलहाल मुग्ध होने या उनकी अनदेखी करने की जरूरत नहीं है। इस समय आहिस्ता-आहिस्ता चलना और फूंक-फूंककर चलना ही ठीक है।
(लेखक : वरिष्ठ पत्रकार एवं भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और क्या करते? उनके पास विकल्प ही क्या था? क्या वे जनरल क़यानी को शांति-पुरूष कहते? वे ऐसा कह ही नहीं सकते। जिस दिन वे ऐसा कहने की स्थिति में होंगे, मानलीजिए कि भारत और पाकिस्तान उसी दिन से शांति की राह पर चल पड़ेंगे। पाकिस्तान में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की हैसियत क्या होती है? सिर्फ दिखावटी! सिर्फ सजावटी!!
जुल्फिकार अली भुट्टो और नवाज शरीफ ने असली प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की तो उन्होंने उसका अंजाम देख लिया! एक को फांसी पर लटका दिया गया और दूसरे को देश-निकाला दे दिया गया। बेनज़ीर भुट्टो जैसी लोकप्रिय प्रधानमंत्री की दुर्दशा कई बार देखी गयी है। सेना-प्रमुख उनसे मिलने इस्लामाबाद नहीं आता था। उससे मिलने के लिए बेनज़ीर भुट्टो को रावलपिंडी जाना पड़ता था। पाकिस्तान की रक्षा-नीति और विदेश नीति का निर्धारण वहाँ के नेता नहीं, फौजी अफसर लोग करते हैं। खासतौर से भारत संबंधी नीति का!
इसीलिए प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी की तारीफ पर बहुत गंभीर हो जाने की जरूरत नहीं है। इस मामले में भाजपा अपने आपको फिजूल ही परेशान कर रही है। यह तारीफ भी उतनी ही दिखावटी है, जितना दिखावटी गिलानी का पद है। डर यही है कि यह तारीफ कहीं गिलानी के गले न पड़ जाए। वे कहीं फिजूल में ही मारे न जाएं। सारे भारत-विरोधी तत्व कहीं उन पर एक साथ टूट न पड़ें। ज़रा याद करें कि मुम्बई हमले के वक्त नवाज शरीफ के मुँह से भारत के प्रति सहानुभूति के जो कुछ शब्द निकल पड़े थे, उनका अंजाम क्या हुआ? नवाज़ को उल्टे पांव भागना पड़ा।
जुल्फिकार अली भुट्टो और नवाज शरीफ ने असली प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की तो उन्होंने उसका अंजाम देख लिया! एक को फांसी पर लटका दिया गया और दूसरे को देश-निकाला दे दिया गया। बेनज़ीर भुट्टो जैसी लोकप्रिय प्रधानमंत्री की दुर्दशा कई बार देखी गयी है। सेना-प्रमुख उनसे मिलने इस्लामाबाद नहीं आता था। उससे मिलने के लिए बेनज़ीर भुट्टो को रावलपिंडी जाना पड़ता था। पाकिस्तान की रक्षा-नीति और विदेश नीति का निर्धारण वहाँ के नेता नहीं, फौजी अफसर लोग करते हैं। खासतौर से भारत संबंधी नीति का!
इसीलिए प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी की तारीफ पर बहुत गंभीर हो जाने की जरूरत नहीं है। इस मामले में भाजपा अपने आपको फिजूल ही परेशान कर रही है। यह तारीफ भी उतनी ही दिखावटी है, जितना दिखावटी गिलानी का पद है। डर यही है कि यह तारीफ कहीं गिलानी के गले न पड़ जाए। वे कहीं फिजूल में ही मारे न जाएं। सारे भारत-विरोधी तत्व कहीं उन पर एक साथ टूट न पड़ें। ज़रा याद करें कि मुम्बई हमले के वक्त नवाज शरीफ के मुँह से भारत के प्रति सहानुभूति के जो कुछ शब्द निकल पड़े थे, उनका अंजाम क्या हुआ? नवाज़ को उल्टे पांव भागना पड़ा।
इसी तरह जब राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने अचानक कह दिया कि हर पाकिस्तानी के दिल में कहीं न कहीं एक हिंदुस्तान धड़कता है तो उनकी कितनी दुर्गति हुई। अभी-अभी भारत को ‘सर्वानुग्रहीत राष्ट्र’ का दर्जा देने की घोषणा पर पाकिस्तानी सरकार को कितनी बार द्रविड़-प्राणायाम करना पड़ा। फौज और मज़हबी तत्व वहाँ सबसे अधिक शक्तिशाली हैं और वे भारत-विरोधी है।
इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं कि भारत से संबंध सुधारने के पक्षधर तत्वों की हम उपेक्षा करें। शायद इसी दृष्टि से हमारे प्रधानमंत्री ने यह कूटनीतिक दांव मारा है। पिछले तीन वर्षों में गिलानी से वे कई बार मिल चुके हैं। अगर ये दोनों पंजाबी सज्जन शांति की खिचड़ी पका सकें तो पूरे दक्षिण एशिया का रूपांतर होने में कितनी देर लगेगी। इसके कुछ संकेत हाल ही में मिले भी हैं। पाकिस्तान ने उसकी सीमा में घुसे भारतीय हेलिकॉप्टर को बाइज्जत और सुरक्षित लौटाया।
भारत ने पाक को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाने में मदद की। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान संबंधी तुर्की सम्मेलन में भारत के भाग लेने का इस बार विरोध नहीं किया। उसने भारत को सर्वानुग्रहीत राष्ट्र का दर्जा दिया। उसके गृहमंत्री रहमान मलिक ने कसाब को लटकाने की हिमायत की। दक्षेस सम्मेलन में दोनों राष्ट्र सहयोग के कुछ नए आयाम भी खोलना चाहते हैं। पाकिस्तान से अमेरिकी उच्चाटन की वेला में ऐसे संकेत मिलना स्वाभाविक हैं लेकिन इन पर फिलहाल मुग्ध होने या उनकी अनदेखी करने की जरूरत नहीं है। इस समय आहिस्ता-आहिस्ता चलना और फूंक-फूंककर चलना ही ठीक है।
(लेखक : वरिष्ठ पत्रकार एवं भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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