ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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मंगलवार, 20 सितंबर 2011

हिंदी दिवस औपचारिकता या आवश्यकता

हिंदी दिवस औपचारिकता या आवश्यकता 
-हृषिकेश त्रिपाठी,भिलाई  
नयी भारतीय सभ्यता का प्रतीक बनती ''इंगलिश अब तेजी से अपने पैर अत्याधुनिक यंत्रो मोबाइल,इंटरनेट आदि के माध्यम से पसारते जा रही है।
इंटरनेट पर अब लैटिन के साथ-साथ देवनागरी लिपि में खोज करना सुगम हो गया है। इस बात सक कुछ हिंन्दी प्रेमियों को यह प्रसन्नता अवश्य हुई होगी कि अब शायद हिंदी के पढऩे लिखने, वालो की तादात बढ़ेगी। हिंदी को लेकर उछलकूद, (धींगामुश्ती) बस 14 सितंबर के बाद पख्वाड़े भर ही दिखती है। फिर सब कुछ टांय-टांय फिस्स क्योंकि लोगो ने 14 सितंबर 1949 को हिंदी दिवस जो घोषित कर दिया है। तो इतनी कवायद तो जरूर है ना?
    वैसे लगता है कि हमें अंग्रेजी नही आती और हिंदी आती है इसीलिए पठन-पाठन एवं लेखन का कार्य हिंदी में किया जाना उचित लगता है, नही तो जिन्हें थोड़ी बहुत भी अंग्रेजी आती है वे दो-चार शेक्सपियर ओर चेतनभगत तक के बीच के लेखकों का नाम व उनकी ख्यातिलब्ध रचनाओं का नाम लेकर ही अपनी परिपक्वता दर्शाने का प्रयास करते हैं। व्यवासीयकरण के इस दौर में जहां उच्च वर्ग, उच्च मध्यम वर्ग, के बच्चों के अभिभावक एक अदद नौकरी पाने के लिए बच्चों के अंदर अंग्रेजी कम और अंग्रेजियत ज्यादा ठँूस रहे हैं, वहाँ यह आशा करना ही निरर्थक है कि भविष्य में हिंदी का प्रचार -प्रसार बढ़ेगा ।
अभी-अभी कुछ दिनो पूर्व यहां सरकारी विद्यालय एवं महाविद्यालयों के प्रति कम होता रूझान और निजी विद्यालयों व महाविद्यालयों के प्रति बढ़ती लिप्सा हिंदी के प्रति उपेक्षा को दर्शाती प्रतीत होती है। ट्रेन,बस,घर अथवा निजी कार्यालय में हिंदी अखबार,पत्रिका लेकर पढऩा ''आउट ऑफ  फैशनÓÓ और अंगेजी एवं पत्रिका को उलटते-पुलटते रहना 'फैशनेबलÓ माना जाने लगा है। महानगरों में अब हिंदी भाषा-भाषी चलन मे अब ऐसे उपेक्षित हैं जैसे अंगेजो के जमाने में भारतीय। भले ही राजभाषा कही जाने वाली हिंदी के लिए गूगल का देवनागरी करण हो जाए किंतु जब तक हिंदी को आदत में शुमार नही किया जाएगा तब तक इसका चलन में आना कठिन हैं। ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी भी लुप्त प्राय भाषाओं की श्रेणी मे परिलक्षित होने लगेगी।
हिंदी पढऩे एवं लिखने वालों की संख्या में कमी और इंगलिश पढऩे वालों की जनसंख्या में होती वृद्धि इंगित कर रही है कि कैसे लोगो का पाश्चात्यीकरण हो रहा है, और पड़ोसी के समक्ष अपने 3 वर्ष के बच्चे से अंग्रेजी में कविता सुनवाने का दम भरने वाले लोग किस मार्ग पर जा रहें हैं।
आज आवश्यकता इस बात की नहीं है कि हिंदी-दिवस और पखवाड़े मनाए जाएँ बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी को सामान्य समाज की आदत में शामिल किया जाय। क्षेत्रवाद,क्षेत्रीयभाषा एवं जातिवाद के नाम पर हो रहे हिंदी भाषा पर कुठाराघातों को रोका जाय। निम्न तबके के लोगों की, जो मजबूरी में हिंदी विद्यालयों अथवा महाविद्यालयों  में पढ़ते हों इंटरनेट की सुविधा सस्ती उपलब्ध कराई जाय ताकि आने वाले दिनों में हिंदी की व्यापकता का दम उन्हें भी स्वयं में दिखे। हिंदी भाषा के लिए मात्र एक दिन हिंदी दिवस मनाकर  पूर्ण करना, कहाँ तक उचित है?

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