गणेश जी का दूसरा अवतार एकदंत
नारदजी बोले - 'हे महर्षे! आज आपने गणेश-पूजन के विधान में शिव-शिवा के पूजन का निर्देश किया है, वह क्यों करना चाहिए? यह बात मुझे स्पष्ट बताने की कृपा करें।!� महर्षि ने बताया-देवर्षे! शिव-शिवा गणेशजी के माता-पिता हैं। भला पुत्र की पूजा के साथ उनकी पूजा क्यों नहीं होनी चाहिए? अनेक पूजनों में पंचायतन पूजन का विधान है। पहले इष्टदेव का, फिर अग्नि फिर निऋति का, फिर बागीश का क्रमश: पूजन करें। पंचायतन-पूजन में मध्य में भगवान् विष्णु रहें तो क्रमश: पूर्व की ओर से गणपति, सूर्य, अम्बिका और भगवान् आशुतोष की स्थापना करनी चाहिए। इसी प्रकार सूर्य, अम्बिक, शंकर आदि देवों का पंचायतन जिस प्रकार हो, उसी का क्रमश: पूजन करें। गणेश पूजन की प्रधानता वाले पंचायतन में गणेशजी का पूजन करते हुए उनकी प्रतिमा को मध्य में स्थापित करें। इस स्थिति मेें पूर्व में शंकर और फिर क्रमश: देवी सूर्य और विष्णु का पूजन करना चाहिए। हे नारदजी! कुछ अनुष्ठानों में मातृ न्यास का भी विधान है। इसे करने में वैष्णव और शैव मातृका न्यास के पश्चात् शिव शक्ति का ध्यान करते हुए विघ्नराज गणेश्वर का न्यास करना चाहिए। इसका विधान इस प्रकार है-प्रारम्भ में मातृका स्थान में गणेश बीज लगाने के पश्चात् एक-एक मातृवर्ण लें और अन्त में चतुर्थी विभक्ति के साथ नम: पद जोड़े। तथा -'गं अं विघ्नेश ह्रीं भ्यां नम: ललाटे। गं आं विघ्नराज श्रीम्यां नम: मुखवृत्ते।� उक्त मन्त्र में ह्रीं के साथ विघ्नेश का श्री के साथ विघ्नराज का न्यास करना चाहिए। हे मुने! अब आपको इससे आगे का क्रम बताता हूँ-पुष्टि-विनायक, शान्ति-शिवोत्तम, स्वस्ति विघ्नकृत, सरस्वती-विघ्नहत्र्ता, स्वाहा-गणनाथ, सुमेधा-एकदन्त, कान्तिद्विदन्त, कामिनी-गजमुख, मोहिनी-निरञ्जन, नटीं-कपर्दी, पार्वती-दीर्घजिह्व, ज्वालिनी-शुंकुकर्ण, नन्दा-वृषभध्वज, सुरेशी-गणनायक, कामरुपिणी-गजेन्द्र, उमा-शूर्पकर्ण, तेजोवती-वीरोचन, सती-लम्बोदर-विघ्नेशी-महानन्द, सुरुपधी-चतुर्मुख, कामदा-सदाशिव, पदजिह्व-आमोद, भूति-दुर्मुख, भौतिकी-सुर्मुख, सिता-प्रमोद, रमा-एकपाद, महिषी-द्विजिह्व, जभिनीशूर, विकर्ण-वीर, भृकुटी-षण्मुख, लज्जा-वरद, दीर्घघोषा-वामदेवेश, धनुर्धरी-वक्रतुण्ड, यामिनी-द्विरण्ड, रात्री सेनानी, ग्रामणी-कामान्ध, शशिप्रीाा-मत्त, लोलनेत्रा-विमत्त, चंचलामत्तवाह, दीप्ति-जटी, सुभगा-मुण्डी, दुर्भगा-खड्गी, शिवा-वरेण्य, भगा-वृषकेतन, भगिनी-भक्तप्रिय, भोगिनी-गणेश, सुभग-मेघनाद, कालरात्रि-व्यापी और कालिका-गणेश। इन गणेश मातृकाओं के गण ऋषि कहते हैं। इसका छन्द-निबूद गायत्री एवं देवता शक्ति सहित गणपति है। इसका बीज गां गीं गूं गौं ग: इन छ: स्वरों से युक्त है। इस प्रकार अगन्यास करते हुए भगवान् श्री गणेश्वर का ध्यान निम्न प्रकार करना चाहिए - हस्तिन्द्राननमिन्द्रचूडमरुणच्छायं त्रिनेत्रंरसा- दाश्लिष्टं प्रियया सपद्मकरया स्वांकस्थया संततम्। बीजापूरगदाधनुस्त्रिशिखयुक्चक्राब्जपासोत्पल- व्रीह्यग्रस्वविषाणरत्नकलशान्हस्तैर्वहन्त भजे।। श्री गणेश्वर का श्रेष्ठ गजेन्द्र के समान मुख है, उनके मस्तक में अद्र्धचन्द्र सुशोभित हैं तथा उनकी शरीर कान्ति अरुण वर्ण की है। वह तीन नेत्र वाले प्रभु अपने अंक में स्थित पद्महस्ता प्रिया के द्वारा प्रेमपूर्वक आलिंगित हो रहे हैं। उनकी दस भुजाएँ हैं, जिनमें क्रमश: दाडि़म, गदा, धनुष, त्रिशूल, चक्र, पद्म, पाश, उत्पल, धान्यगुच्छक, स्वदन्त, रम्य कलश स्थित हैं। इस प्रकार श्री गणेश जी का ध्यान करते हैं। गणेशजी के द्वादश मासीय व्रत सूतजी बोले-'हे शौनक! महर्षि सनन्दन के उक्त विधान संक्षेप में बता दिया बोले-हे मुने! तुम्हारी जिज्ञासा शान्त हो गई होगी। यदि और कुछ पूछना चाहो तो मैं बताने को प्रस्तुत हूँ। इस पर नारदजी ने कहा-प्रभो! अनेक विद्वान् गणेशजी के व्रत की बड़ी महिमा कहते हैं, इसलिए उसके सम्बन्ध में भी बताने की कृपा करें।� ऋषि बोले-'तुम धन्य हो नारदजी! जो बार-बार भगवान् गणेश्वर से सम्बन्धित प्रश्न करते हो। यद्यपि तुम स्वयं सभी कुछ जानते हो, फिर भी अनजान के समान जो कुछ पूछते हो, वह सब लोक कल्याणार्थ ही है, वह बताता हूँ। देवर्षे! गणेशजी का व्रत प्रतिमास की चतुर्थी के दिन किया जाता है। प्रत्येक मास की चतुर्थी अपना विशेष महत्व रखती है। इसलिए उनमें किये गये व्रतों के फल भी भिन्न-भिन्न होते हैं। प्रथम मैं उन सबके फलों का वृतान्त ही पृथक् रूप से बताता हूँ, सुनो! चैत्र मास की चतुर्थी में भगवान् वासुदेव स्वरूप गणेाशजी का व्रत किया जाता है। उस दिन श्रद्धानुसार षोडशोपचार से अथवा पंचोपचार से उनका पूजन करे और ब्राह्मणों को श्रद्धानुसार दक्षिणा दे। इस व्रत के फलस्वरूप पूजनकर्ता मनुष्यों को विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। यह व्रत भोग और मोक्ष दोनों का ही देने वाला है। वैशाख मास की चतुर्थी को भगवान् संकर्षण गणेश का व्रत करना चाहिए। उस दिन भक्तिभावपूर्वक उनका पूजन करे और ब्राह्मणों को शंख दान दे। इस व्रत के फलस्वरूप मनुष्य को भगवान् संकर्षण के श्रेष्ठ लोक की प्राप्ति होती है। ज्येष्ठ मास की चतुर्थी में प्रद्युम्न रूपी गणेश्वर के व्रत का विधान है। इस दिन उन भगवान का अनन्य भाव से पूजन करना चाहिए। पूजन के पश्चात् ब्राह्मणों को श्रेष्ठ, मीठे सुस्वादु फलों का दान करें। इसके फलस्वरूप पूजक को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। यह व्रत स्त्री-पुरुष सभी कर सकते हैं, किन्तु केवल स्त्रियों के लिए एक विशेष व्रत और है, जो ज्येष्ठ मास की चतुर्थी में ही किया जाता है। इसके फलस्वरूप वे पार्वतीजी के लोक को गमन करती है। इसे 'सतीव्रत� कहते हैं। आषाढ़ मास की चतुर्थी में अनिरुद्धस्वरूप गणपति का व्रत किया जाता है। इसमें भगवान् का पूजन कर सन्यासियों को कमण्डलु दान करना चाहिए। यह समसत संन्यासियों की मनुष्यों की समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाला है। आषाढ़ी चतुर्थी का ही एक पुत्रदायक गणेश-व्रत भी है। हे नारद! यह रथान्तर कल्प के प्रथम दिवस किया गया था। उस दिन श्रद्धा भक्ति सहित गणेशजी का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए। उसके फलस्वरूप दुर्लभ पुत्र-रत्न की प्राप्ति होती है। श्रावण मास की चतुर्थी में चन्द्रोदय होने पर गणेशजी को अध्र्य दे और भक्तिपूर्वक उनके रूप का ध्यान करे। फिर विधिपूर्वक षोडशोपचार पूजन कर भोग में स्वादिष्ट एवं मिष्ठ मोदक भेंट करे। फिर मोदक का ही भक्षण कर रात्रि में गणेश जी का पुन: पूजन करे। इस व्रत के प्रभाव से समस्त मनोकामनायें पूर्ण होती हैं और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी में बहुला गौ रूपी श्री गणेश जी का षोडशोपचार से पूजन करे और ब्राह्मणों को शक्तिभर दक्षिणा दे। यह व्रत पाँच वर्ष, दस वर्ष, सोलह वर्ष निरन्तर करना चाहिए। अन्त में व्रत का उद्यापन करे, जिसमें दुधारु गाय का दान करे। इस व्रत के प्रभाव से व्रतकत्र्ता को भगवान् श्रीकृष्ण के गोलोक धाम की प्राप्ति होती है। भाद्रपद में ही एक अन्य व्रत भी किया जाता है, जिसे 'सिद्धिविनायक� व्रत कहते हैं। भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी में इसे करे। प्रारम्भ में सिद्ध विनायक का ध्यान कर उनके इक्कीस नामों का उच्चारण करे। प्रत्येक नाम का उच्चारण करते समय एक प्रकार के वृक्ष की पत्ती समर्पित करे। वस्तुत: इक्कीस प्रकार के वृक्षों की पत्तियाँ पहले ही एकत्र कर लेनी चाहिए और क्रमानुसार नाम लेकर चढ़ाना चाहिए। यथा - (1) '� सुमुखाय नम:� का उच्चारण करके शमी पत्र चढ़ावे, (2) '� गणाधीशाय नम:� कहकर कामापत्र चढ़ावे, (3) '� उमापुत्राय नम:� कहकर विल्व पत्र, (4) '� गमुखाय नम:� कहकर दूर्वादल, (5) '� लम्बोदराय नम:� कहकर बेरी पत्र, (6) '� हरसूनवे नम:� कहकर फत्तत्र्तूफल, (7) '� शूर्पकर्णाय नम:� कहकर तुलसीपत्र, (8) '� वक्रतुण्डाय नम:� कहकर वरवटी पत्र, (9) '� गुहाग्रजाय नम:� कहकर आघाडा पत्र, (10) '� एकदन्ताय नम:� कहकर रिंगाणी पत्र, (11) '� हेरम्बाय नम:� कहकर पलाश पत्र, (12) '� चतुर्होत्रे नम:� कहकर दालचीनी, (13) '� सर्वेश्वराय नम:� कहकर अगत्स्य-पत्र, (14) '� विकटाय नम:� कहकर कन्हेरी पत्र, (15) '� इम तुण्डाय नम:� कहकर पत्थर पुष्प, (16) '� विनायकाय नम:� कहकर रुई का पत्र, (17) '� कपिलाय नम:� कहकर अर्जुपत्र, (18) '� कटवे नम:� कहकर देवदारु पत्र, (19) '� भालचन्द्राय नम:� कहकर मरुवा, (20) '� सुराग्रजाय नम:� कहकर गान्धारी पत्र और (21) '� सिद्धिविनायकाय नम:� कहकर केतकी पत्र चढ़ावे। हे देवर्षे! श्री गणेश्वर के लिये उनके उक्त नामों के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार के पत्र-पुष्प समर्पित करने के पश्चात् दूर्वा, गन्ध, पुष्प, अक्षत् आदि के द्वारा उन भगवान् का पूजन करना चाहिए। फिर उन्हें पाँच, दस या अधिक मोदकों का नैवेद्य समर्पित कर आचमन करावे, ताम्बूल अर्पित करे तथा पुष्पाँजलि, प्रणाम, प्रार्थना, प्रदक्षिणा आदि के साथ विसर्जन करना चहिए। अन्त में समस्त सामिग्री सहित गणपति प्रतिमा भी ब्राह्मण को दे दें। साथ ही शक्त्यानुसार दान दक्षिणा भी दें। गणपति की प्रतिमा हो तो अत्युत्तम, अन्यथा अन्य किसी सौम्य धातु की बनवानी चाहिए। चन्द्र दर्शन का निषेध वर्णन उक्त व्रत-पूजन प्रतिवर्ष एक दिन किया जाता है। उसे पाँच वर्ष तक तो करे ही, अधिक करे तो अधिक फल होता है। इस व्रत के फलस्वरूप उपासक को गणेशजी के स्वानन्द लोक की प्राप्ति होती है। यह गणेश व्रत अत्यन्त प्रभावशाली हैं। किन्तु नारदजी! इस चतुर्थी में रात्रि समय चन्द्रमा का दर्शन न करें। क्योंकि उस दिन चन्द्र दर्शन से मिथ्या अभियोग लग जाता है। तथा अन्य अनिष्टों की भी सम्भावना रहती है। यदि भूल से चन्द्रमा का दर्शन हो जाये तो उसके दोष निवारणार्थ भगवान् गणेश्वर का चिन्तन करे। निम्न श्लोक का पाठ चन्द्र-दर्शन के दोष निवारण में बहुत महत्वपूर्ण है - सिंहप्रसेनमवधीत् सिंहा जाम्बवता हत:। सुकुमारक भा रोदीस्तव हृेषस्यमन्तक:।। हे नारदजी! अब आश्विन मास की चतुर्थी के व्रत का फल कहता हूँ। उस दिन भगवान् कपिर्दीश विनायक का षोडशोपचार से पूजन करें तो सर्वप्राप्ति कराता है। कार्तिक मास की चतुर्थी करके चतुर्थी या 'करवा चौथ� कहलाती है। यह व्रत प्राय: महिलाएँ करती हैं। उन्हें शुद्ध जल से स्नान कर नवीन वस्त्र धारण करने चाहिए। तदुपरान्त प्रसन्नचित्त से गणपति का पूजन करे और चौदह थालियों में स्वादिष्ट पकवान ब्राह्मणों को दे। हे मुने! सामथ्र्य के अनुसार ही दान करना चाहिए। कम देने की शक्ति हो तो चौदह स्थानों पर कुछ दे। कुछ विद्वान् दस स्थानों पर देने का विधान बताते हैं। इस प्रकार का दान ब्राह्मणों को अथवा गुरुजनों को या बड़ी-बूढ़ी महिलाओं को भी दे सकते हैं। रात्रि में चन्द्रमा के दर्शन कर विधिपूर्वक अध्र्य देने के पश्चात् स्वयं भोजन करे। यह व्रत प्रतिवर्ष बारह या सोलह वर्ष तक निरन्तर करना चाहिए। फिर उसका विधिवत् उद्यापन कार्य सम्पन्न करना उचित है। बाद में भी यदि पुन: आरम्भ करना चाहो तो कर सकते हैं। मार्गशीर्ष मास की चतुर्थी 'वर व्रत� का आरम्भ किया जाता है। यह व्रत चार वर्ष तक निरन्तर करना चाहिए। इसमें प्रत्येक चतुर्थी को व्रत करने का विधान है। उन दिन प्रथम वर्ष श्री गणेशजी का पूजन कर एक बार दिन में ही भोजन करे। दूसरे वर्ष दिन में भोजन न कर रात्रि में ही भोजन करना चाहिये। तीसरे वर्ष प्रत्येक चतुर्थी बिना माँगे, बिना प्रयास किये जो कुछ भी मिल जाये वही एक बार खा ले। चौथे वर्ष चतुर्थी में पूर दिन रात्रि उपवास करे। इस प्रकार चार वर्ष निरन्तर व्रत करने के पश्चात् व्रत स्नान करने का विधान है। महर्षि को मौन देखकर नारदजी ने पूछा-'प्रभो! व्रत स्नान की विधि भी बताने की कृपा कीजिये।� यह सुनकर महर्षि बोले-'नारदजी! वह भी कहता हूँ, सुनो! यदि सामथ्र्य हो तो उस दिन के लिए गणेशजी की स्वर्ण प्रतिमा बनवाये। यदि यह सम्भव न हो तो किसी काष्ठादि पवित्र पट पर हरिद्रा अथवा चन्द्रन से गणपति की प्रतिमा का आलेखन करें। फिर धरती को लेपकर उस पर चौक पूरें और कलश स्थापित करें। उस कलश में अक्षत् और पुष्प डालकर उसे दो लाल वस्त्रों में ढककर गणेशजी की वह प्रतिमा स्थापित कर दें, तदुपरान्त गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप आदि के द्वारा विधिपूर्वक पूजन करके मोदकों का भोग लगाकर आचमन, ताम्बूल, पुष्पमाला आदि समर्पित करें। रात्रि के समय गायन, भजन, कीर्तन आदि करते हुए रात्रि में जागरण करें। फिर प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर शास्त्रोक्त विधि से सुगन्धित द्रव्यों के द्वारा हवन करना चाहिए। हे मुने! गण, गणाधिप, ब्रह्मा, यम, वरुण, सोम, सूर्य, हुतांसन, गन्धमादि और परमेष्ठी, इन सोलह नामों से आहुतियाँ देनी चाहिए। प्रत्येक नाम के प्रारम्भ में ओंकार और अनत में चतुर्थी विभक्ति के साथ नम: लगाकर प्रत्येक नाम से एक-एक आहुति दे। तदुपरान्त 'वक्रतुण्डाय हुम्� मन्त्र के साथ 108 आहुतियाँ देकर शेष हव्य की पूर्णाहुति करे। फिर दिग्पालों को पूजन कर चौबीस ब्राह्मणों को केवल मोदक और खीर से भोजन कराकर दक्षिणा दें। यदि सामथ्र्य हो तो पुरोहित को बछड़े वाली दुग्धवती निरोग गाय का दक्षिणा सहित दान करे। गणेश व्रत विषयक फल श्रुति नारदजी! यह तो इस व्रत की कार्य विधि हुई। इसके अनन्तर प्रसन्न चित्त से अपने सब परिजनों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करें। गणपति का यह सर्वश्रेष्ठ व्रत माना गया है। इसके प्रभाव से उपासक मत्र्यलोक में सब प्रकार के सुखों को भोगता है और अन्त में विष्णु पद भी प्राप्त हुआ गणपति जी की कृपा से अत्युच्चलोक को प्राप्त होता है। हे मुने! अब तुम्हें पौष मास की चतुर्थी के विषय में कहता हूँ। इस दिन प्रसन्न चित्त से एवु परम भक्तिपूर्वक श्री गणपति का पूजन कर ब्राह्मणों को मिष्ठान्न का भोजन कराकर शक्ति के अनुसार दक्षिणा दे।
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