ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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रविवार, 25 सितंबर 2011

अमर सिंह की तिहाड़ यात्रा

अमर सिंह की तिहाड़ यात्रा
-पं. विनोद चौबे


नोट के बदले वोट' मामले में पूर्व सपा नेता अमर सिंह के जेल जाने के बाद अब सवालों का तूफान कांग्रेस की तरफ मुड़ गया है। अमर की गिरफ्तारी से यह साफ हो गया है कि 2008 में मनमोहन सरकार बचाने के लिए बहुमत जुटाने की कवायद साफ सुथरी नहीं थी। यदि अमर सिंह ने वास्तविकता उगल दी तो सत्ताधारी कांग्रेस का क्या हश्र होगा...? इसको विपक्ष भुनाने में तनिक भी देर नहीं लगायेगा, जिसका प्रभाव उ.प्र.के विधान सभा चुनाव पर पड़ेगा। विश्वस्त सूत्रों के मुताबिक जब से अमर सिंह तिहाड़ गयें हैं तभी से कांग्रेस 'नोट के बदले वोट' मामले को लेकर भारी पशोपेश में पड़ी है।
कांग्रेस के आकाओं की नजर अब सोनिया जी के देश लौटने पर टिकी हुयी है। उधर उ.प्र. के विधान सभा चुनाव को देखते हुए। कांग्रेस कोई नया खुलासा करते हुए अमर सिंह को कांग्रेस में शामिल कर मुंह न खोलने के एवज में उ.प्र. की कमान भी दिया जा सकता है। ताकि अमर सिंह उ.प्र.के सवर्णों का वोट कांग्रेस के पाले में डालने का काम करें वहीं दूसरी तरफ मुलायम सिंह को भी नुकसान पहुंचाने की मंशा अमर सिंह का भी पूरा हो सके। हॉलाकि कांग्रेस के तरफ से ऐसा न होने दावा किया जा रहा है, लेकिन अब देखना यह है कि अमर सिंह की चुप्पी क्या गुल खिलाती है..? मुंह खोलते हैं तो क्या फिर घर वापसी भी सम्भव है..? कुल मिलाकर कांग्रेस यह जरूर सोच रही होगी कि...अमर सिंह।़।़।़ प्लीज मुंह मत खोलना।

सरकार मनमोहन सिंह की बची। सरकार बचाने का इशारा मुलायम सिंह ने किया। लेकिन आज न तो कांग्रेस का हाथ है और न ही मुलायम सिंह का साथ। फिर भी अमर सिंह खामोश रहे और खामोशी से तिहाड़ जेल पहुंच गये। यह फितरत अमर सिंह की कभी रही नहीं। तो फिर वह कौन सी मजबूरी है जिसे अमर सिंह ओढ़े हुये हैं। क्योंकि वामपंथियों के समर्थन वापस लेने के बाद संकट में आयी सरकार को बचाने की पहल अगर 10 जनपथ से शुरु हुई थी तो सीधी शिरकत मनमोहन सिंह ने खुद की थी। और तभी मनमोहन सिंह का अमर प्रेम खुलकर दिखा था। याद कीजिये 2008 में जुलाई के पहले हफ्ते में मनमोहन सिंह के घर 7 रेसकोर्स का दरवाजा पहली बार मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के लिये खुला था। तब प्रधानमंत्री ने सभी सहयोगियो को भोजन पर बुलाया था। और जिस टेबल पर अमर सिंह और मुलायम सिंह बैठे थे उसी टेबल तक चलकर खुद मनमोहन सिंह गये और साथ बैठकर गुफ्तगु के बीच जायके का मजा भी लिया था। उस वक्त यह सवाल सबसे बड़ा था कि सोनिया गांधी ने एक वक्त जब मुलायम-अमर सिह के लिये अपने दरवाजे बंद कर दिये तो फिर कांग्रेस में क्या किसी की हिम्मत होगी जो अमर सिंह के लिये दरवाजे खोले। लेकिन संकट सरकार पर था और लोकसभा में बहुमत का खेल मनमोहन सिंह सरकार को बचाने के लिये ही खेला जाना था तो फिर अमर सिंह के लिये दरवाजा भी 7 रेसकोर्स का ही खुला।
बडा सवाल यहीं से शुरु होता है कि आखिर अदालत की फटकार के बाद सीबीआई ने जब तेजी दिखायी तो सरकार बचाने वाले किरदार तो जेल चले गये। जिन्होंने सरकार बचाने के लिये खरीद-फरोख्त के इस खेल को पकड़ा वह भी जेल चले गये। लेकिन सरकार का कोई खिलाड़ी जेल क्यों नहीं गया और सीबीआई ने सत्ता के दायरे में हाथ क्यों नहीं डाला। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि अमर सिंह के आगे का रास्ता उस दौर में लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक सचिव रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी तक भी जाता है और अमर सिंह कुछ बोले तो कटघरे में सरकार और कांग्रेस के वैसे चेहरे भी खड़े होते दिखते हैं, जिन पर सोनिया गांधी को नाज़ है।
तो क्या अमर सिंह की खामोशी आने वाले वक्त में अपनी सियासी जमीन बनाने के लिये राजनीतिक सौदेबाजी का दायरा बड़ा कर रही है। या फिर अमर सिंह जेल से किसी राजनीतिक तूफान के संकेत देकर अपना खेल सत्ता -विपक्ष दोनो तरफ खेलने की तैयारी में हैं। चूंकि अमर सिंह की सियासी बिसात उत्तर प्रदेश के चुनाव से भी जुड़ी है और साथ ही इस दौर में सीबीडीटी और प्रवर्तन निदेशालय की जांच के घेरे में आयी उनकी फर्जी कंपनियो के फर्जी कमाई से भी जुड़ी है। कैश फार वोट की जांच करते करते सीबीआई ने अमर सिंह के उस मर्म को ही पकड़ा, जहां सियासी ताकत के जरीये अपने परिवार और दोस्तो की कमाई के लिये फर्जी कंपनी बनायी तो कमाई से सियासत में अपनी ताकत का अहसास कराते रहे। जिस पंकजा आर्टस नाम की कंपनी की सफेद जिप्सी में ही तीन करोड़ रुपया ले जाया गया, वह पंकजा आर्टस कंपनी में अमर सिंह और उनकी पत्नी की हिस्सदारी है। सीबीडीटी की रिपोर्ट बताती है कि अमर सिंह करीब 45 कंपनियो से किसी ना किसी रुप में जुड़े हैं, जिनके खिलाफ जांच चल रही है।
इन सभी कंपनियों पर सत्ता की प्यार भरी निगाहें तब तक रहीं जब तक अमर सिंह सत्ता में रहे या फिर सत्ता से सौदेबाजी करने की हैसियत में रहे। और सौदेबाजी के इसी दायरे ने उन्हे पावर सर्किट के तौर पर स्थापित भी किया और संकट के दौर में हर किसी के लिये संकट मोचक भी बने। इसलिये जब जब अमर सिंह जांच के दायरे में इससे पहले आये उन्होने सत्ता को भी लपेटा और विपक्ष को भी। बीमारी में मित्र अरुण जेटली के देखने आने को भी इस तरह याद किया जैसे बीजेपी से उनका करीबी नाता है और सरकार बचाने के दौर में काग्रेस के सबसे ताकतवर अहमद पटेल को भी मित्र कहकर यह संकेत देने से नहीं चूके कि उनकी सियासी बिसात पर राजनीतिक सौदेबाजी ही प्यादा भी है और राजा भी। क्योंकि अमर सिंह की शह देने में ही सामने वाले की मात होती और वही से अमर सिंह का आगे का रास्ता खुलता। और यही बिसात हमेशा अमर सिंह को भी बचाती रही। लेकिन पहली बार सौदेबाजी का दायरा बडा होने के बावजूद अमर सिंह का अपना संकट दोहरा है क्योंकि सरकार के सामने भ्रष्ट्राचार पर नकेल कसने की चुनौती है। और देश ने अन्ना आंदोलन के जरीये सत्ता को अपनी ताकत का एहसास करा भी दिया है। इसलिेए अब सवाल यह है कि अमर सिंह के तिहाड जेल जाने के बाद सरकार कितने दिन तक खामोशी ओढे रह सकती है । बीजेपी सिर्फ सरकार पर वार कर अपने सांसदो को व्हीसल ब्लोअर का तमगा देते हुये गिरफ्तारी के तार सुधीन्द्र तक पहुंचने से रोक पाती है। समाजवादी पार्टी अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिये सौदेबाजी का दोष काग्रेस या सरकार पर मढ़ कर अमर प्रेम जताती रहती है जिससे यूपी चुनाव में भ्रष्ट होने के दाग उस पर न लगे। या फिर सभी एक साथ खड़े होकर अमरसिंह की बिसात पर प्यादा बनकर सियासी सौदेबाजी में सबकुछ छुपाने में भिड़ते हैं। और संसदीय लोकतंत्र यह सोच कर ठहाके लगाने को तैयार है कि जिस स्टैडिंग कमेटी के पास भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाला जनलोकपाल बिल पडा है छह दिन पहले तक उसी स्टैडिंग कमेटी के सदस्य के तौर पर अमर सिंह भी थे।
यह अलग बात है कि संसद के भीतर अपराध करने के आरोप में फिलहाल अमर सिंह तिहाड जेल में हैं। इसी आधार पर विपक्ष ने कांग्रेस को घेरना और प्रधानमंत्री से जवाब मांगना शुरू कर दिया, क्योंकि अमर सिंह कांग्रेस सरकार बचाने की कोशिशों के सूत्रधार थे। जबकि कोर्ट और कानून का हवाला देकर कांग्रेस अपना पल्ला झाडऩे में लग गई है।
क्या था मामला:
तीन वर्ष पहले अमेरिका के साथ नाभिकीय करार पर मचे राजनीतिक उफान और वामदलों की समर्थन वापसी के बाद अमर सिंह ने न सिर्फ सरकार को बचाने में बल्कि करार को अंजाम तक पहुंचाने में भी मदद की थी। उसी अहम पड़ाव पर सरकार को सांसदों के वोट की जरूरत हुई थी और विपक्ष के कई सदस्य सरकार के साथ खड़े थे।
अमर सिंह की भूमिका इसलिए भी अहम मानी जाती है क्योंकि सपा के शुरुआती विरोध के बाद उन्होंने ही पार्टी का रुख बदलवाया था।
नोट के बदले वोट प्रकरण सीधे तौर पर भले ही सरकार के विश्वास प्रस्ताव से जुड़ा हो, इसकी पूरी पृष्ठभूमि परमाणु करार से जुड़ी थी।
दरअसल इसी करार के विरोध में वामदलों ने समर्थन वापस लेकर सरकार को अल्पमत में ला दिया था। दबाव में आई सरकार 22 जुलाई 2008 को लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव लेकर आई थी। संप्रग सरकार 5 वोट के मामूली अंतर से बची थी। सरकार के पक्ष में 268 वोट पड़े थे जिसमें सपा के भी 37 वोट शामिल थे। जबकि विरोध में 263 वोट पड़े थे।
मतदान का रोचक पहलू यह था कि विपक्ष के कई सांसद सरकार के साथ खड़े थे, लेकिन वोटिंग की इस जीत से पहले भाजपा के अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर भगौरा ने लोकसभा के अंदर कथित तौर पर रिश्वत में दिए गए रुपये दिखाकर सनसनी फैला दी थी।
तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने पुलिस को इस मामले की जांच के लिए कहा था। बाद में राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के बीच कुछ अन्य लोगों के साथ साथ अमर सिंह का भी नाम आया
वहीं कुछ महीने पहले हुए विकिलीक्स खुलासे में कहा गया कि कांग्रेस नेता के एक सहयोगी नचिकेता कपूर ने अमेरिकी दूतावास के एक अधिकारी को बताया था कि सरकार बचाने के लिए कुछ सांसदों को रिश्वत दे दी गई है।
इधर, जनवरी 2009 से शुरू हुई पुलिस जांच में तब तेजी आई जब अप्रैल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने लताड़ लगाया था। उसके बाद कभी अमर सिंह जुड़े रहे संजीव सक्सेना और भाजपा के कार्यकर्ता सुहैल हिंदुस्तानी को गिरफ्तार किया गया था। अमर सिंह के रूप में पहली बड़ी गिरफ्तारी हुई है।
(समाचार लिखने तक अमर सिंह तिहाड़ जेल में थे)

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