छत्तीसगढ़ में संस्कृत को चाहिए संजीवनी
छत्तीसगढ़ संस्कृत विद्यामंडलम के अध्यक्ष डॉ. गणेश कौशिक के मुताबिक राज्य में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन को बेहतर बनाने के अलावा रोजगारपरक बनाये जाने पर ज्यादा जोर दिया जायेगा, जो आगामी शिक्षा सत्र से राज्य में कम से कम 100 नए संस्कृत विद्यालय प्रारंभ करने की योजना है, राज्य के लिए बेहद आवश्यक था। प्रदेश में मरणासन्न शय्या पर कराहती संस्कृत-भाषा के लिए संजीवनी का काम करेगी,जरूरत है इस दिशा में कठोर कदम उठाने की। छत्तीसगढ़ मे संस्कृत के शताधिक विद्यालयों का खोला जाना स्वागतेय है, किन्तु आम जनमानस को संस्कृत के प्रति आकर्षित करना अत्यंत कठिन है। आज कोई भी छात्र का अभिभावक बच्चे को स्कूल व विद्यालय भेजने से पहले सम्भावनाओं को तलाशता है..? अतएव इस शिक्षा के विस्तार के साथ-साथ सम्भावनाओं और रोजगारपरक बनाने पर बल देना बेहद जरूरी होगा । प्रदेश सरकार द्वारा की जा रहीं शिक्षा कर्मियों के नियुक्तियों में संस्कृत के अध्यापकों के लिए सुरक्षित करना, पीएमटी, इंजीनियरिंग, शासकीय राजस्व आदि सभी क्षेत्रों में रोजगार मुहैया कराने, जैसा ठोस कदम उठाना होगा। संस्कृत किसी वर्ग विशेष का शिक्षा नहीं बल्कि चहुँमुखी रोजगार शिक्षा के रूप में स्वयमेव आम जनमानस को अपनी तरफ आकर्षित करे।
क्योंकि यदि केन्द्रीय शिक्षा नीति पर बात की जाय तो पिछले कुछ दिनों पूर्व त्रिभाषा फार्मूले की राष्ट्रीय भाषा नीति का उल्लंघन करते हुए सीबीएसई ने हाल ही में 9वीं-10वीं कक्षा के स्कूली पाठ्यक्रम के बाबत जो नया आदेश जारी किया है. उससे सन् 1992 में संसद द्वारा स्वीकृत राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर प्रश्नचिह्न तो लगता ही है, संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल संस्कृत भाषा के मौलिक अधिकारों पर भी कुठाराघात हुआ है. वर्षों से चले आ रहे पुराने सीबीएसई पाठ्यक्रम के अनुसार तृतीय भाषा या फिर अतिरिक्त छठे विषय के रूप में संस्कृत भाषा को पढ़ा जा सकता था किन्तु बोर्ड द्वारा जारी नई द्विभाषा नीति के लागू होने तथा अतिरिक्त छठे विषय के प्रावधान को हटा देने की वजह से स्कूलों में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन की बची-खुची संभावना भी पूरी तरह से समाप्त हो गई है. सीबीएसई के इस नए फैसले से पब्लिक स्कूलों ने अब संस्कृत की पढ़ाई बंद करके उसके स्थान पर जर्मन और फ्रेंच भाषाओं को पढ़ाना शुरू कर दिया है इस कारण हजारों संस्कृत छात्रों-अध्यापकों का भविष्य खतरे में पड़ गया है.
संस्कृत के साथ हो रहे इस अन्याय को देखते हुए इसके संगठनों में गम्भीर प्रतिक्रिया हुई है. 'दिल्ली संस्कृत अकादमी' द्वारा आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बोर्ड द्वारा जारी संस्कृत विरोधी शिक्षा नीति की घोर निंदा की गई थी.
'संस्कृत कमीशन' तथा ' यूजीसी' की सिफारिश के अनुसार संस्कृत भाषा और साहित्य की वर्तमान संदर्भ में उपयोगिता को चरितार्थ करने के लिए स्कूली पाठ्यक्रम में भाषा का माध्यम चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जानी चाहिए. किंतु सीबीएसई ने 'संस्कृत कमीशन' और 'यूजीसी' की इन सिफारिशों को दरकिनार करते हुए अपने तुगलकी फरमान द्वारा 9वीं-10 वीं कक्षा के प्रारम्भिक स्तर पर ही संस्कृत विषय का चयन करने वाले छात्रों के लिए संस्कृत भाषा का माध्यम अनिवार्य कर दिया ताकि छात्र इस भाषा को कठिन मानकर फ्रेंच या जर्मन पढ़ सकें. बोर्ड द्वारा अपनाई गए इस संविधान विरुद्ध भाषाई दुराग्रह का मुख्य कारण है संस्कृत को जन-सामान्य से दूर रखना और इसके राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार पर अंकुश लगाना ही साबित हुआ .
दरअसल, सीबीएसई का पुराना इतिहास रहा है कि वह कभी मातृभाषा या कभी क्लासिकल भाषा बताकर संस्कृत को स्कूली पाठ्यक्रम से बाहर रखने की रणनीति बनाता आया है. सन् 1986 में जब सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति की बुनियाद रखी गई तब भी बोर्ड ने स्कूली पाठ्यक्रम से संस्कृत विषय को ही समाप्त कर दिया और लम्बे संघर्ष तथा सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से संस्कृत की पुन: बहाली हो सकी.
4 अक्टूबर 1994 को सर्वोच्च न्यायालय ने स्कूली पाठ्यक्रम में संस्कृत भाषा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि किसी देश की सीमा के साथ उसकी संस्कृति की रक्षा भी मुख्य राष्ट्रीय दायित्व होता है. हम भारतवासियों के लिए संस्कृत का अध्ययन देश की सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा के लिए किया जाता है. यदि शैक्षिक पाठ्यक्रम से संस्कृत को हतोत्साहित किया जाएगा तो हमारी संस्कृति की धारा ही सूख जाएगी. इन्हीं टिप्पणियों के साथ न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह तथा न्यायमूर्ति बी. एल. हनसेरिया ने सीबीएसई को स्कूली पाठ्यक्रम में संस्कृत को एक वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाने का आदेश जारी किया. अदालत ने पाठ्यक्रम निर्माताओं को इस तथ्य से भी अवगत कराया कि संविधान की आठवीं अनुसूची में संस्कृत को इसलिए शामिल किया गया ताकि देश की संस्कृति को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली हिन्दी शब्दावली के विकास में मुख्य रूप से संस्कृत से सहयोग लिया जा सके.
संस्कृत कमीशन की रिपोर्ट हो या सर्वोच्च न्यायालय का फैसला सभी ने स्कूली पाठ्यक्रम में एक वैकल्पिक विषय के रूप में संस्कृत को पढ़ाए जाने की जरूरत इसलिए समझी ताकि इस भाषा के शिक्षण से छात्रों को अपने देश की सांस्कृतिक परम्पराओं का ज्ञान हो सके. संस्कृत पाठ्यक्रम से सम्बन्धित सन् 1988 की यूजीसी की रिपोर्ट के अनुसार स्कूली स्तर पर संस्कृत शिक्षा के तीन उद्देश्य बताए गए हैं-चरित्र निर्माण, बौद्धिक योग्यताओं का समुचित विकास तथा राष्ट्रीय धरोहर का संरक्षण. पर चिंता का विषय है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रीय संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने वाली संस्कृत भाषा आज संकट के दौर से गुजर रही है.
अभी कुछ वर्ष पूर्व अमेरिकी प्राच्यविद्या मनीषी प्रोफेसर सैल्डन पोलॉक जब केरल स्थित संस्कृत कालेज में व्याख्यान देने आए थे तो उन्होने भी चिंता व्यक्त की कि, जिस संस्कृत विद्या को अमेरिका आदि विभिन्न देशों में गहरी रुचि लेकर पढ़ाया जाता है वही संस्कृत अपने ही देश में अस्तित्व को बचाने के दौर से गुजर रही है. यदि भारत में संस्कृत को मर जाने दिया गया तो यह विश्व की एक बहुत बड़ी सांस्कृतिक धरोहर की हत्या होगी. सैल्डन पोलॉक के अनुसार ब्रिटिशकालीन उपनिवेशवादी शिक्षानीति जो अंग्रेजी के वर्चस्व को स्थापित करने के लिए सदैव प्रयासरत रहती है, संस्कृत शिक्षा को भारत में हतोत्साहित करती आई है.
गांधी जी ने 'संस्कृति को दबाने वाली अंग्रेजी भाषा को अंग्रेजों की तरह ही यहां से निकाल बाहर करने' के आग्रह से राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति में संस्कृत शिक्षा पर विशेष बल दिया था.
संस्कृत पिछले दस हजार वर्षों के भारतीय ज्ञान-विज्ञान की संवाहिका 'हैरिटेज' भाषा भी है. इसलिए भारतीय संसद द्वारा स्वीकृत 'संस्कृत कमीशन' की रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा व्यवस्था में संस्कृत को राष्ट्रीय अस्मिता के संरक्षण की दृष्टि से भी विशेष प्रोत्साहन दिया जाना जरूरी है.ऐसे में छत्तीसगढ़ सरकार ने संस्कृत शिक्षा के प्रति गंभीर होकर संस्कृत शिक्षा बोर्ड के अंतर्गत आगामी सत्र तक 100 संस्कृत विद्यालयों के खोले जाने व बोर्ड के अध्यक्ष गणेश कौशिक के अनुसार संस्कृत शिक्षा को रोजगार परक बनाने की पहल अत्यंत प्रशंसनीय है। लेकिन देखना यह है कि, राज्य सरकार द्वारा किया गया यह पहल क्या रंग लाता है।
- पं. विनोद चौबे (पत्रिका के संपादक)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें