8 मार्च महिला दिवस पर विशेष....
समाजसेवा में महिलाओं का योगदान अविस्मरणीय
० महिला समूहों के माध्यम से कुटीर उद्योगों का कर रही हैं संचालन
डा. सूर्यकांत मिश्रा |
डा. सूर्यकांत मिश्रा, जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
महिलाओं को पुरूषों से कमतर आंकना हमारी प्रवृत्ति में शामिल सदियों पुरानी मानसिकता रही है। विकास में महिलाओं का योगदान स्वतंत्रता से पूर्व से देखा जा सकता है। जब भारत वर्ष की सरजमीं को अंग्रेजों के मुक्त कराने में रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी पूरी जवानी झोंक दी। इतना ही नहीं बचपन की शरारतें और उछलकूद भी उस विरांगना की जीवनी में क्रांतिकारी विचारों के रूप में लिखी जा चुकी है। सन्ï 1950 के दशक में एक महिला के गाये अंग्रेजी गीत 'एनीथिंग यू कैन डू, आई कैन डू बेटरÓ आज भी हमारे कानों में गंूज रहे है। उस गीत के एक एक शब्द का महत्व आज मैं प्रासंगिक लग रहा है, जब अनेक महिलाएं बैंकिंग क्षेत्र से लेकर प्रबंधन टेक्नोलॉजी, आईटी विज्ञान, रक्षा सेवाओं आदि में अपनी प्रभावी उपस्थिति के साथ स्थापित हो चुकी है। ये ऐसे क्षेत्र है, जिन्हें एक जमानें में पुरूषों के अधिकार क्षेत्र में रखा गया था। वर्तमान समय में शायद ही ऐसा कोई उद्योग होगा जहां महिलाओं ने अपना योगदान न दिया हो। 20वीं सदी के बीतते समय से लेकर अब 21वीं सदी में महिलाओं ने कुशल उद्यमी से लेकर सफल चिकित्सक, इंजीनियर और अंतरिक्ष यात्री तक अपना महत्व सिद्घ करते हुए विमान संचालन की कमान भी संभाल ली है। सरकारी चुनने के मामले में हमनें पश्चिमी देशों की तुलना में भारतीय महिलाओं को शुरू से वोटिंग का अधिकार दिया है। जिसे हम उनका सम्मान न कहते हुए राजनैतिक गलियारे में लगभग पुरूषों के सामान और साक्षरता से दूर रहने पर बहलाकर वोट प्राप्त करने से जोड़ते हुए देख सकते है। कहीं न कहीं स्वार्थ की राजनीति ने महिलाओं को इस एक मामले में पुरूषों के बराबर हक दिया है।
अब महिलाओं की अपेक्षा हमारे आर्थिक तंत्र से लेकर विकास की अर्थ व्यवस्था को भी प्रभावित कर सकती है। हमें जानकर हैरान नहीं होना चाहिये कि आज भारतवर्ष में सक्षम महिलाओं की कमी नहीं। आंकड़े बताते है कि वर्तमान समय में हमारे देश में पूरी दुनिया की तुलना में सबसे अधिक प्रोफेशनल महिलाएं अपना योगदान कर रही है। भारत वर्ष में अमेरिका से भी अधिक डाक्टर, सर्जन, वैज्ञानिक और प्रोफेसर्स मौजूद है, जो शिक्षा जगत से लेकर नवीन भारत के सृजन में आगे खड़ी दिखाई पड़ रही है। शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र को छोड़ भी दिया जाये तो सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी महिलाओं की सकारात्मक भूमिका से इंकार नहंी किया जा सकता है। विगत दो दशकों में महिलाओं ने महिला समूहों का गठन कर ग्राम्य विकास में जो विकास कार्य किये है, वे वास्तव में महिलाओं द्वारा विकास की उस नाव को खेने के बराबर कही जा सकती है, जो एक सफल नाविक के अभाव में भंवर में फंसी हुयी थी। गांवों में स्कूल स्थापना से लेकर लघु और कुटीर उद्योगों में निरक्षर महिलाओं को आगे लाते हुए न केवल उनकी क्षमताओं का उपयोग किया गया है, वरन उन्हें साक्षर कर शोषण भी मुक्ति दिलायी गयी है। यह जानकार भी लोगों को आश्चर्य होगा कि 'फोब्र्सÓ की हालिया रिपोर्ट के अनुसार विश्व की सबसे अधिक शक्तिशाली महिलाओं में शीर्ष पर जमीं दो महिलाएं भारतीय ही है। जिनमें सत्तासीन यूपीए गठबंधन की कांग्रेस नत्री श्रीमती सोनिया गांधी और पेप्सिको की अध्यक्ष तथा मुख्य कार्यकारी इंदिरा नूयी शामिल है। इनके अलावा हमें किरण मजूमदार शॉ का नाम भी नहीं भुलना चाहिये, जिन्होंने ब्रिवरी के अपने प्रशिक्षण को विश्वस्तरीय अरबों डॉलर वाले बायो टेक्नोलॉजी कार्पोरेट में तब्दील कर दिखाया है। इतना ही नहीं देश में वैज्ञानिक उद्यमशीलता की शुरूआत का श्रेय भी किरण मजूमदार शॉ को ही जाता है।
हमारे देश की दो 'बुकर अवार्डÓ विजेता महिलाओं अरूंधती रॉय और किरण देसायी को भी हमें महिला दिवस के परिपे्रेक्ष्य में स्मरणीय मानना होगा। मीरा नॉयर और दीपा मेहता जैसी रंग मंच की कुशल अदाकारा भी हमारे बीच है। जिन्होंने फिल्मकारों के बीच अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की है। देखा जाये तो जमीनी स्तर पर दस लाख से अधिक महिलाएं ग्राम प्रमुख के तौर पर चुनी जा चुकी है, जो लगभग 322 करोड़ महिला मतदाता के सपनों को साकार करने प्रयासरत है। विगत कुछ वर्षों से हमारे देश में महिलाओं ने सफलता के जिन द्वारों पर दस्तक दी है, उनसे बालिका और युवती शिक्षा के अनेक अवसर स्वमेव खुल चुके है। शिक्षा के अधिकाधिक विस्तार और प्रचार प्रसार के साथ ही युवतियां अपने लक्ष्यों की आकांक्षा के प्रति सचेत होते हुए तेजी से बढ़ चली है। आधुनिक युवतियों के लिए अब विद्यालयीन और महाविद्यालयीन शिक्षा न्यूनतम मांग बच चुकी है। मात्र एक गृहिणी के तौर पर खाना बनाने, सिलाई और बच्चों के परवरिश से ही संतुष्टï होकर न रहने वाली आज की महिलाएं अपनी प्रतिभा और लक्ष्य के प्रति जागरूक होकर उसे पूर्णत: निखारना चाहती है। ऊंचाई की ओर बढ़ रही देश की अर्थव्यवस्था ने रोजगार के अनेक अवसर खोले है। नये क्षेत्रों ने महिलाओं को उनकी क्षमता के अनुसार विकल्प प्रदान किये है, ताकि वह नई चुनौतियां स्वीकारें और पुरानी परंपराओं का त्याग करें।
महिला हर क्षेत्र में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर विकास में योगदान कर रही है। बावजूद इसके शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बाद भी दोयम दर्जे की नागरिकता ही पा सकी है। हमारे देश राष्टï्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि आजादी के बाद देश में महिलाओं की काफी विकास हुआ है, लेकिन लैंगिक असमानता के आंकड़े हमें अभी भी चौंका रहे है। चंद महिलाओं की उपलब्धियों पर स्वयं अपनी पीट थपथपाने वाले हमारे देश को इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि आज भी हमारे देश की महिलाएं उपेक्षित ही नहीं वरन भेदभाव के विष भरे घूंट को पी रही है। दफ्तरों में यौन शोषण के आंकड़े भी कम नहीं है। एक सर्वे के आंकड़े बताते है कि देश में महिलाओं को पुरूषों के साथ बराबरी करते हुए उनके सामान अवसर नहीं दिये जा रहे है। पदोन्नति के मामले में वे पीछे ही रही है। ऐसी महिलाएं जिन्हें नौकरी तो मिल गयी है, उन्हें भी शीर्ष पदों की प्राप्ति नहीं हो पा रही है। उपलब्ध आंकड़े बताते है कि महज 4 प्रतिशत महिलाएं ही शीर्ष पदों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा पा रही है। इसी प्रकार समान कार्य समान वेतन की नीति भी सिर्फ दस्तावेजी भाषा बनकर रही है। श्रम मंत्रालय से प्राप्त आंकड़े इस संबंध में बताते है कि कृषि क्षेत्र में स्त्री और पुरूषों को मिलने वाली मजदूरी में लगभग 27.6 प्रतिशत का अंतर है। सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि झाडू लगाने जैसे अकुशल कार्य में लगे स्त्री-पुरूष श्रमिकों में भी वेतन को लेकर असंगति है जो स्पष्टï भेदभाव का सूचक है।
प्रशासनीक स्तर पर महिला-पुरूषों की भागीदारी के संबंध में 'यूनीसेफ'' द्वारा किये गये एक सर्वे रिपोर्ट के आंकड़े सुनिश्चितता की बात करते हुए कहते है कि महिलाएं नागरिक प्रशासन ने सहभागिता के मामले में पुरूषों से कमतर नहंी आंकी जानी चाहिये। इतना ही नहीं महिलाओं के सहयोग से ही बच्चों के जीवन को बेहतर मार्ग मिल पाता है यह भी सत्य स्वीकार किया जाना चाहिये कि महिलाओं के प्रतिनिधित्व से ही कार्यालयों में सौहाद्र का वातावरण निर्मित हो पा रहा है। विभिन्न देशों की संसद में महिलाओं की भागीदारी के संबंध में भी हमारा देश अन्य देशों की तुलना में काफी पीछे है। जहां पुरूषों के 92 प्रतिशत की तुलना में महिलाओं को प्रतिशत मात्र 8 है। अंतिम रूप से हमें देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के कथन को ध्यान में रखना चाहिये जिसमें उन्होंने कहा था कि 'जब महिलायें आगे बढ़ती है, तो परिवार आगे बढ़ता है, समाज आगे बढ़ता है और राष्टï्र भी प्रगति की ओर अग्रसर होता है।''
प्रस्तुतकर्ता
(डा. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
अब महिलाओं की अपेक्षा हमारे आर्थिक तंत्र से लेकर विकास की अर्थ व्यवस्था को भी प्रभावित कर सकती है। हमें जानकर हैरान नहीं होना चाहिये कि आज भारतवर्ष में सक्षम महिलाओं की कमी नहीं। आंकड़े बताते है कि वर्तमान समय में हमारे देश में पूरी दुनिया की तुलना में सबसे अधिक प्रोफेशनल महिलाएं अपना योगदान कर रही है। भारत वर्ष में अमेरिका से भी अधिक डाक्टर, सर्जन, वैज्ञानिक और प्रोफेसर्स मौजूद है, जो शिक्षा जगत से लेकर नवीन भारत के सृजन में आगे खड़ी दिखाई पड़ रही है। शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र को छोड़ भी दिया जाये तो सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी महिलाओं की सकारात्मक भूमिका से इंकार नहंी किया जा सकता है। विगत दो दशकों में महिलाओं ने महिला समूहों का गठन कर ग्राम्य विकास में जो विकास कार्य किये है, वे वास्तव में महिलाओं द्वारा विकास की उस नाव को खेने के बराबर कही जा सकती है, जो एक सफल नाविक के अभाव में भंवर में फंसी हुयी थी। गांवों में स्कूल स्थापना से लेकर लघु और कुटीर उद्योगों में निरक्षर महिलाओं को आगे लाते हुए न केवल उनकी क्षमताओं का उपयोग किया गया है, वरन उन्हें साक्षर कर शोषण भी मुक्ति दिलायी गयी है। यह जानकार भी लोगों को आश्चर्य होगा कि 'फोब्र्सÓ की हालिया रिपोर्ट के अनुसार विश्व की सबसे अधिक शक्तिशाली महिलाओं में शीर्ष पर जमीं दो महिलाएं भारतीय ही है। जिनमें सत्तासीन यूपीए गठबंधन की कांग्रेस नत्री श्रीमती सोनिया गांधी और पेप्सिको की अध्यक्ष तथा मुख्य कार्यकारी इंदिरा नूयी शामिल है। इनके अलावा हमें किरण मजूमदार शॉ का नाम भी नहीं भुलना चाहिये, जिन्होंने ब्रिवरी के अपने प्रशिक्षण को विश्वस्तरीय अरबों डॉलर वाले बायो टेक्नोलॉजी कार्पोरेट में तब्दील कर दिखाया है। इतना ही नहीं देश में वैज्ञानिक उद्यमशीलता की शुरूआत का श्रेय भी किरण मजूमदार शॉ को ही जाता है।
हमारे देश की दो 'बुकर अवार्डÓ विजेता महिलाओं अरूंधती रॉय और किरण देसायी को भी हमें महिला दिवस के परिपे्रेक्ष्य में स्मरणीय मानना होगा। मीरा नॉयर और दीपा मेहता जैसी रंग मंच की कुशल अदाकारा भी हमारे बीच है। जिन्होंने फिल्मकारों के बीच अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की है। देखा जाये तो जमीनी स्तर पर दस लाख से अधिक महिलाएं ग्राम प्रमुख के तौर पर चुनी जा चुकी है, जो लगभग 322 करोड़ महिला मतदाता के सपनों को साकार करने प्रयासरत है। विगत कुछ वर्षों से हमारे देश में महिलाओं ने सफलता के जिन द्वारों पर दस्तक दी है, उनसे बालिका और युवती शिक्षा के अनेक अवसर स्वमेव खुल चुके है। शिक्षा के अधिकाधिक विस्तार और प्रचार प्रसार के साथ ही युवतियां अपने लक्ष्यों की आकांक्षा के प्रति सचेत होते हुए तेजी से बढ़ चली है। आधुनिक युवतियों के लिए अब विद्यालयीन और महाविद्यालयीन शिक्षा न्यूनतम मांग बच चुकी है। मात्र एक गृहिणी के तौर पर खाना बनाने, सिलाई और बच्चों के परवरिश से ही संतुष्टï होकर न रहने वाली आज की महिलाएं अपनी प्रतिभा और लक्ष्य के प्रति जागरूक होकर उसे पूर्णत: निखारना चाहती है। ऊंचाई की ओर बढ़ रही देश की अर्थव्यवस्था ने रोजगार के अनेक अवसर खोले है। नये क्षेत्रों ने महिलाओं को उनकी क्षमता के अनुसार विकल्प प्रदान किये है, ताकि वह नई चुनौतियां स्वीकारें और पुरानी परंपराओं का त्याग करें।
महिला हर क्षेत्र में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर विकास में योगदान कर रही है। बावजूद इसके शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बाद भी दोयम दर्जे की नागरिकता ही पा सकी है। हमारे देश राष्टï्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि आजादी के बाद देश में महिलाओं की काफी विकास हुआ है, लेकिन लैंगिक असमानता के आंकड़े हमें अभी भी चौंका रहे है। चंद महिलाओं की उपलब्धियों पर स्वयं अपनी पीट थपथपाने वाले हमारे देश को इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि आज भी हमारे देश की महिलाएं उपेक्षित ही नहीं वरन भेदभाव के विष भरे घूंट को पी रही है। दफ्तरों में यौन शोषण के आंकड़े भी कम नहीं है। एक सर्वे के आंकड़े बताते है कि देश में महिलाओं को पुरूषों के साथ बराबरी करते हुए उनके सामान अवसर नहीं दिये जा रहे है। पदोन्नति के मामले में वे पीछे ही रही है। ऐसी महिलाएं जिन्हें नौकरी तो मिल गयी है, उन्हें भी शीर्ष पदों की प्राप्ति नहीं हो पा रही है। उपलब्ध आंकड़े बताते है कि महज 4 प्रतिशत महिलाएं ही शीर्ष पदों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा पा रही है। इसी प्रकार समान कार्य समान वेतन की नीति भी सिर्फ दस्तावेजी भाषा बनकर रही है। श्रम मंत्रालय से प्राप्त आंकड़े इस संबंध में बताते है कि कृषि क्षेत्र में स्त्री और पुरूषों को मिलने वाली मजदूरी में लगभग 27.6 प्रतिशत का अंतर है। सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि झाडू लगाने जैसे अकुशल कार्य में लगे स्त्री-पुरूष श्रमिकों में भी वेतन को लेकर असंगति है जो स्पष्टï भेदभाव का सूचक है।
प्रशासनीक स्तर पर महिला-पुरूषों की भागीदारी के संबंध में 'यूनीसेफ'' द्वारा किये गये एक सर्वे रिपोर्ट के आंकड़े सुनिश्चितता की बात करते हुए कहते है कि महिलाएं नागरिक प्रशासन ने सहभागिता के मामले में पुरूषों से कमतर नहंी आंकी जानी चाहिये। इतना ही नहीं महिलाओं के सहयोग से ही बच्चों के जीवन को बेहतर मार्ग मिल पाता है यह भी सत्य स्वीकार किया जाना चाहिये कि महिलाओं के प्रतिनिधित्व से ही कार्यालयों में सौहाद्र का वातावरण निर्मित हो पा रहा है। विभिन्न देशों की संसद में महिलाओं की भागीदारी के संबंध में भी हमारा देश अन्य देशों की तुलना में काफी पीछे है। जहां पुरूषों के 92 प्रतिशत की तुलना में महिलाओं को प्रतिशत मात्र 8 है। अंतिम रूप से हमें देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के कथन को ध्यान में रखना चाहिये जिसमें उन्होंने कहा था कि 'जब महिलायें आगे बढ़ती है, तो परिवार आगे बढ़ता है, समाज आगे बढ़ता है और राष्टï्र भी प्रगति की ओर अग्रसर होता है।''
प्रस्तुतकर्ता
(डा. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
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