भारतीय धर्मशास्त्रों में दण्ड का प्रावधान हैः
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे , ०९८२७१९८८२८, भिलाई
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे , ०९८२७१९८८२८, भिलाई
''अमेरीका पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुस से लेकर आज भारत में भी वी वी आई पी लोगों पर जुते चप्पल और घूंसे के अलावा सरेआम कृपाण निकालकर हरवींदर जैसे लोगों के द्वारा भारत के केन्द्रीय कृषी मंत्री शरद पवार हमला करना एक तरह से पूर्व की हुयी घटनाओं में इस कृत्य को अंजाम देने वाले को दण्डीत न किया जाना भी महत्त्वपूर्ण कारण है, इससे इस प्रकार के कु-कृत्य करने वालों पर नरमी से बढ़ावा ही मिलता है। मित्रों भारतीय दण्ड संहिता अपने आप में पूर्णतया सक्षम है बसर्ते वी.वी.आई.पी. नेताओं नें जो इन्हें माफ करने शिगुफा छोड़ा तो भा.द.सं. भी वहां बेबस हो जाती है एक तो अपने भारत के दण्ड संहिता को कई देशों का नकल कर बनाया गया वहीं भारतीय धर्मशास्त्रों के संविधान सूत्रों को दरकिनार किया गया जिससे भारतीय लोगों के मनोमष्तिष्क में स्वाभाविक तौर पर कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान नहीं हो पाया नहीं तो ऐसी घटनाएं सद्यः नहीं होता धर्मशास्त्रों के संविधान सूत्रों को यदि विधी कालेजों में प्रमुखता से छात्रों को पढ़ाया गया होता अथवा इन सूत्रों को लोगों तक पहुंचाने का सरकार पहल करती तो शायद मर्यादा वाले इस देश के नौजवान इस प्रकार के कृत्य नहीं करते क्योंकि उनको संविधान सूत्रों के सम्यक संदर्भित ज्ञान होता और परीपक्वता भी सहज मिल जाता तो दोस्तों आईए आज इसी संदर्भ में शास्त्र- सम्मत चर्चा करेंगे''
महाभारत के आदिपर्व के ‘आस्तीक’ प्रकरण में पढ़ने को मिले हैं । उक्त प्रकरण अर्जुन के प्रपौत्र, अभिमन्यु के पौत्र, एवं परीक्षित् के पुत्र राजा जनमेजय के सर्पयज्ञ को ऋषि आस्तीक द्वारा निष्प्रभावी किये जाने से संबद्ध है । मैं संबंधित कथा का उल्लेख नहीं कर रहा हूं । केवल इतना बता दूं कि एक बार जंगल में वन्य जन्तुओं का शिकार करते हुए थके-हारे राजा परीक्षित् ने मौनव्रत के साथ तप में तल्लीन ऋषि शमीक के कंधों पर उनसे प्रत्युत्तर न पा सकने से क्रुद्ध होकर मृत सर्प डाल दिया था । घटना से क्षुब्ध ऋषिपुत्र शृंगी ने राजा परीक्षित् को शाप दे डाला था कि तक्षक नाग के डसने से उसकी मृत्यु होवे । बाद में ऋषि शमीक ने पुत्र शृंगी को समझाते हुए परीक्षित् की बतौर राजा के प्रशंसा की और शासन के लिए राजा के होने और उसके दण्ड के अधिकार से सज्जित रहने की महत्ता की बात की । उसी संदर्भ में कहे गए वचनों में से मैंने अधोलिखित तीन श्लोक चुने हैं (महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 41):
अराजके जनपदे दोषा जायन्ते वै सदा ।
उद्वृत्तं सततं लोकं राजा दण्डेन शास्ति वै ॥२७॥
(अराजके जनपदे सदा वै दोषाः जायन्ते, राजा सततम् उद्वृत्तम् लोकम् दण्डेन वै शास्ति ।)
जिस प्रदेश में समुचित राजकीय व्यवस्था का अभाव हो वहां प्रजा में दोष या अपराध की प्रवृत्ति घर कर जाती है । उच्छृंखल या उद्धत जनसमूह को राजा ही दण्ड के प्रयोग द्वारा निरंतर अनुशासित रखता है ।
आज के युग में राजा की जगह चुने गये शासकों ने ले ली है । किंतु अपराध रोकने और अपराधियों को दण्डित करने का उनका कर्तव्य यथावत् है । दुर्भाग्य से आज हमारे देश में अपराधी को सजा देने का कार्य त्वरित एवं निर्णायक तरीके से नहीं हो रहा है ।
दण्डात् प्रतिभयं भूयः शान्तिरुत्पद्यते तदा ।
नोद्विग्नश्चरते धर्मं नोद्विग्नश्चरते क्रियाम् ॥२८॥
(दण्डात् भूयः प्रतिभयम्, तदा शान्तिः उत्पद्यते, उद्विग्नः धर्मम् न चरते, उद्विग्नः क्रियाम् न चरते ।)
दण्ड यानी सजा की व्यवस्था अधिकांशतः भय पैदा करता है और तब शान्ति स्थापित होती है । उद्विग्न या बेचैन व्यक्ति धर्माचरण नहीं करता है, और न ही ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाता है ।
जब दण्डित होने का भय समाज में रहता है तब लोगों में अपराध करने का साहस सामान्यतः नहीं होता है । समाज में सुरक्षा और निश्चिंतता की भावना व्याप्त रहती है । लोग उचित-अनुचित के विवेक के साथ अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाते हैं ।
राज्ञा प्रतिष्ठितो धर्मो धर्मात् स्वर्गः प्रतिष्ठितः ।
राज्ञो यज्ञक्रियाः सर्वा यज्ञात् देवाः प्रतिष्ठिताः ॥२९॥
(राज्ञा धर्मः प्रतिष्ठितः, धर्मात् स्वर्गः प्रतिष्ठितः, राज्ञः सर्वाः यज्ञक्रियाः, यज्ञात् देवाः प्रतिष्ठिताः ।)
राजा के द्वारा धर्म प्रतिष्ठित होता हैं और धर्म के माध्यम से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । राजा के द्वारा ही सभी यज्ञकर्म संपन्न होते हैं और यज्ञों से ही देवतागण प्रतिष्ठित होते हैं ।
प्रथम दो श्लोकों की बातें इसी भौतिक संसार के संदर्भ में महत्त्व रखती हैं । तीसरे श्लोक में दण्ड के समुचित प्रयोग की महत्ता परलोक एवं दैवी शक्तियों के संदर्भ में कही गयी है । भारतीय दर्शन के अनुसार स्वर्ग एवं नरक जैसे परलोकों का अस्तित्व है और मनुष्य के ऐहिक कर्म ही उसके परलोक का निर्धारण करते हैं । अमूर्त दैवी शक्तियों के अस्तित्व का भी भारतीय दर्शन में स्थान है । मनुष्य के कर्म उनके प्रसाद या रोष का आधार होते हैं । चूंकि राजा लोगों को दण्ड के माध्यम से सत्कर्म में लगाए रहता है, अतः स्वर्गलोक के लिए वही परोक्षतः सहायक बनता है । सामान्यतः यज्ञ का अर्थ देवताओं को प्रसन्न करने के लिए प्रज्वलित अग्नि में डाली जाने वाली घृतादि की आहुति के कर्मकाण्ड से लिया जाता है । किंतु यज्ञ का अर्थ अधिक व्यापक भी माना जाता है । विविध प्रयोजनों के लिए किए जाने वाले कर्मों को भी यज्ञ में ही शामिल किया जाता है ।
उक्त बातों का तात्पर्य यह है कि समाज पर शासन करने का दायित्व जिन पर हो उनका कर्तव्य है कि वे अनुचित कार्यों में लिप्त लोगों को दण्डित करें और ऐसा करके आम जन को सुरक्षा का भरोसा दें । और तदनुसार दण्ड की प्रक्रियओं में दण्डाधिकारी गणों का सापेक्ष सहयोग भी देना चाहिए। -ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे , ०९८२७१९८८२८, भिलाई
महाभारत के आदिपर्व के ‘आस्तीक’ प्रकरण में पढ़ने को मिले हैं । उक्त प्रकरण अर्जुन के प्रपौत्र, अभिमन्यु के पौत्र, एवं परीक्षित् के पुत्र राजा जनमेजय के सर्पयज्ञ को ऋषि आस्तीक द्वारा निष्प्रभावी किये जाने से संबद्ध है । मैं संबंधित कथा का उल्लेख नहीं कर रहा हूं । केवल इतना बता दूं कि एक बार जंगल में वन्य जन्तुओं का शिकार करते हुए थके-हारे राजा परीक्षित् ने मौनव्रत के साथ तप में तल्लीन ऋषि शमीक के कंधों पर उनसे प्रत्युत्तर न पा सकने से क्रुद्ध होकर मृत सर्प डाल दिया था । घटना से क्षुब्ध ऋषिपुत्र शृंगी ने राजा परीक्षित् को शाप दे डाला था कि तक्षक नाग के डसने से उसकी मृत्यु होवे । बाद में ऋषि शमीक ने पुत्र शृंगी को समझाते हुए परीक्षित् की बतौर राजा के प्रशंसा की और शासन के लिए राजा के होने और उसके दण्ड के अधिकार से सज्जित रहने की महत्ता की बात की । उसी संदर्भ में कहे गए वचनों में से मैंने अधोलिखित तीन श्लोक चुने हैं (महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 41):
अराजके जनपदे दोषा जायन्ते वै सदा ।
उद्वृत्तं सततं लोकं राजा दण्डेन शास्ति वै ॥२७॥
(अराजके जनपदे सदा वै दोषाः जायन्ते, राजा सततम् उद्वृत्तम् लोकम् दण्डेन वै शास्ति ।)
जिस प्रदेश में समुचित राजकीय व्यवस्था का अभाव हो वहां प्रजा में दोष या अपराध की प्रवृत्ति घर कर जाती है । उच्छृंखल या उद्धत जनसमूह को राजा ही दण्ड के प्रयोग द्वारा निरंतर अनुशासित रखता है ।
आज के युग में राजा की जगह चुने गये शासकों ने ले ली है । किंतु अपराध रोकने और अपराधियों को दण्डित करने का उनका कर्तव्य यथावत् है । दुर्भाग्य से आज हमारे देश में अपराधी को सजा देने का कार्य त्वरित एवं निर्णायक तरीके से नहीं हो रहा है ।
दण्डात् प्रतिभयं भूयः शान्तिरुत्पद्यते तदा ।
नोद्विग्नश्चरते धर्मं नोद्विग्नश्चरते क्रियाम् ॥२८॥
(दण्डात् भूयः प्रतिभयम्, तदा शान्तिः उत्पद्यते, उद्विग्नः धर्मम् न चरते, उद्विग्नः क्रियाम् न चरते ।)
दण्ड यानी सजा की व्यवस्था अधिकांशतः भय पैदा करता है और तब शान्ति स्थापित होती है । उद्विग्न या बेचैन व्यक्ति धर्माचरण नहीं करता है, और न ही ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाता है ।
जब दण्डित होने का भय समाज में रहता है तब लोगों में अपराध करने का साहस सामान्यतः नहीं होता है । समाज में सुरक्षा और निश्चिंतता की भावना व्याप्त रहती है । लोग उचित-अनुचित के विवेक के साथ अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाते हैं ।
राज्ञा प्रतिष्ठितो धर्मो धर्मात् स्वर्गः प्रतिष्ठितः ।
राज्ञो यज्ञक्रियाः सर्वा यज्ञात् देवाः प्रतिष्ठिताः ॥२९॥
(राज्ञा धर्मः प्रतिष्ठितः, धर्मात् स्वर्गः प्रतिष्ठितः, राज्ञः सर्वाः यज्ञक्रियाः, यज्ञात् देवाः प्रतिष्ठिताः ।)
राजा के द्वारा धर्म प्रतिष्ठित होता हैं और धर्म के माध्यम से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । राजा के द्वारा ही सभी यज्ञकर्म संपन्न होते हैं और यज्ञों से ही देवतागण प्रतिष्ठित होते हैं ।
प्रथम दो श्लोकों की बातें इसी भौतिक संसार के संदर्भ में महत्त्व रखती हैं । तीसरे श्लोक में दण्ड के समुचित प्रयोग की महत्ता परलोक एवं दैवी शक्तियों के संदर्भ में कही गयी है । भारतीय दर्शन के अनुसार स्वर्ग एवं नरक जैसे परलोकों का अस्तित्व है और मनुष्य के ऐहिक कर्म ही उसके परलोक का निर्धारण करते हैं । अमूर्त दैवी शक्तियों के अस्तित्व का भी भारतीय दर्शन में स्थान है । मनुष्य के कर्म उनके प्रसाद या रोष का आधार होते हैं । चूंकि राजा लोगों को दण्ड के माध्यम से सत्कर्म में लगाए रहता है, अतः स्वर्गलोक के लिए वही परोक्षतः सहायक बनता है । सामान्यतः यज्ञ का अर्थ देवताओं को प्रसन्न करने के लिए प्रज्वलित अग्नि में डाली जाने वाली घृतादि की आहुति के कर्मकाण्ड से लिया जाता है । किंतु यज्ञ का अर्थ अधिक व्यापक भी माना जाता है । विविध प्रयोजनों के लिए किए जाने वाले कर्मों को भी यज्ञ में ही शामिल किया जाता है ।
उक्त बातों का तात्पर्य यह है कि समाज पर शासन करने का दायित्व जिन पर हो उनका कर्तव्य है कि वे अनुचित कार्यों में लिप्त लोगों को दण्डित करें और ऐसा करके आम जन को सुरक्षा का भरोसा दें । और तदनुसार दण्ड की प्रक्रियओं में दण्डाधिकारी गणों का सापेक्ष सहयोग भी देना चाहिए। -ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे , ०९८२७१९८८२८, भिलाई
2 टिप्पणियां:
aam janata aaj in neteo se trast hai kya hum inko jute chappal thappad bhi nahi maar sakte.......inke bachhe kya raj yog likha kar laye hai .........shahid humare bachhe ho aur inke bachhe raj kare ............ mere vichar hai ki aab india aarmi main kise ko nahi jana chahiye jab tak in netao ke ek bhi bachha nahi jata ...........mera bus chale to humare sare netao ko bich choraha main naga kar ke sule main latka dena chahiye...........
मैं किसी पार्टी अथवा नेताओं का पक्षधर नहीं हुं या इस लेख में पक्षपात किया गया है...लेकिन आपको राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी से सीख लेनी चाहिए ...
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