vinod choubey |
दूसरी आजादी अभी बाकी है...
भारत को आज़ाद हुए चौसठ साल हो गए है। 65वें स्वतंत्रता दिवस पर दिल्ली के लाल किला पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फिर से राष्ट्रध्वज फहराकर देश को संबोधित किया जो पहले से तैयार किया गया अंग्रेजी के शब्दों को हिन्दी में पढ़ सुनाने जैसा था, वहां मौजूद...छाता ओढ़े सांसद और देश के उच्चाधिकारियों सहित आला लोगों ने घर बैठे टीवी स्क्रीन पर सुना भी लेकिन जिस बात को सुनने के लिए देश की जनता बेताब थी वह बात कहीं हुई ही नहीं। फिर वही रटा-रटाया जवाब सुनने को मिला कि- महंगाई खत्म करने की कोई जादुई छड़ी मेरे पास नहीं है..जिससे महंगाई खत्म किया जा सके...आज़ादी की ६४वीं वर्षगाँठ मना चुके लेकिन क्या हिन्दुस्तान वाकई आज़ाद हुआ है ?
इस देश में सभ्यता व संस्कृति को ताक पर रखा जाता है। देश के अधिकतर लोग अपना हित साधने में लगे हुए हैं. आज कई लोग देश की संपत्ति को हर साल करोड़ो का चूना लगा रहे हैं। देश की जनता की आँखों से छुपाकर गुपचुप तरीके से आम आदमी का पैसा दूसरे देश के बैंको में जमा किया जा रहा है. आज देश का हर नेता अपना व अपनी पार्टी का हित साधने में लगा हुआ है। देश में भगत सिंह, महात्मा गाँधी की कमी दिखाई पड़ रही है जो खुद संपन्न होते हुए भी देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार थे। आर्थिक विकास के आंकड़ों में भारत निरंतर प्रगति कर रहा है लेकिन दूसरी तरफ गरीबी, महंगाई, नक्स़लवाद-माओवाद, अशिक्षा की समस्या से जूझ रहा है। शिक्षा को दुरुस्त करने के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू किया गया, साथ ही इसको और सुदृढ़ बनाने तथा ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल से जोडऩे के लिए मिड डे मील की योजना चलाई जा रही है बावजूद इसके कमजोर इच्छाशक्ति और बिखरी हुई मानसिकता के कारण इसे उतनी सफलता नहीं मिल पा रही है, जितनी कि कानून को अमलीजामा पहनाने के वक्त की जा रही थी। हमारा देश युवाओं का देश है, लेकिन इतनी विशाल मात्रा में युवाओ के होने के बावजूद रोजगार और अन्य मूलभूत सुविधाओं के अभाव के कारण यह वर्ग देश के विकास में अपना योगदान दे पाने में असमर्थ है। जो समर्थ होते भी हंै उन्हें अन्य विकसित देशों की सुख सुविधाएँ ,अच्छा वेतन, रहन-सहन आकर्षित कर लेता है और वो फिर एनआरआई यानी अप्रवासी भारतीय बन जाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि हममें प्रतिभा बहुत खूब है, समय-समय पर हमने अपनी काबिलियत व दक्षता का प्रदर्शन करते हुए देश व दुनिया में अपना लोहा मनवाया है।
विडम्बना के आंसू लिये दिल कहता है
लेकिन कुछ प्रश्न आज भी यक्ष प्रश्न बने हमारे सामने मुंह बाये खड़े हैं जिनका जवाब हममें से किसी के पास यकीनन नहीं है। मेरी नजऱ में आज़ादी के मायने यह हंै कि हम ये सोचें कि पिछले चौसठ वर्षों में किन कमियों को नजऱ अंदाज़ किया ? हमारे लिए सही मायने में आज़ादी क्या है ? क्या सभ्यता व संस्कृति को ताक में रख कर जीवन जीना आज़ादी है ? क्या जाति-पाति, ऊँच-नीच के साये में जिंदगी जीना आज़ादी है ? क्या आरक्षण की मांग में झुलसना आज़ादी है ? क्या किसानों कि आत्म हत्याओं पर मौन रहना आज़ादी है ? ये चंद सवाल हैं जिनके जवाब हमें समय रहते हुए खोजना होगा, तब कहीं जाकर हम सही मायने में आज़ाद कहलायेंगे लेकिन इन सबके बावजूद दिल कहता है कि वो वक्त जल्दी आएगा जब हिंदुस्तान में हर आदमी जाति-पाति, ऊँच-नीच से नहीं बल्कि सिर्फ एक हिन्दुस्तानी के नाम से पहचाना जायेगा। दिल कहता है कि मेरा देश बहुत जल्दी आज़ाद होगा।
जापान जैसा पौरूख क्यों नहीं हमारे पास
15 अगस्त 1945 को जापान के आत्मसमर्पण के साथ द्वितीय विश्व युद्ध हिरोशिमा और नागासाकी के त्रासदी के रूप में कलंक लेकर समाप्त तो हुआ परन्तु आज जापान 11 मार्च 2011, को आये भूकंप और सूनामी जैसी त्रासदी के बाद भी बिना अपने मूल्यों से समझौता किये राष्ट्रभक्ति, अपनी ईमानदारी और कठिन परिश्रम के आधार पर अखिल विश्व के मानस पटल पर लगभग हर क्षेत्र में गहरी छाप छोड़ता हुआ नित्य-प्रतिदिन आगे बढ़ता ही जा रहा है। ठीक दो वर्ष बाद 15 अगस्त 1947 को भारत माँ ने अपने रण-बांकुरों की कुर्बानियों के साथ एक खंडित रूप में अंग्रेजों की बेडिय़ों से स्वाधीनता तो प्राप्त कर ली परन्तु शायद हम आज भी स्व-तंत्र नहीं हो पायें है। हमने अपने लगभग हर मूल्यों से समझौता कर लिया। तंत्र हमने किसी और देश से लिया तो मैकाले-शिक्षा नीति किसी और देश से ली जो पूर्णत: परीक्षण पर आधारित थी न कि प्रशिक्षण पर। सच मानिये मुझे आज तक यह नहीं पता चल पाया कि वेद व्यास, तुलसीदास, कालिदास आदि जैसे प्रकाण्ड विद्वानों ने किस विश्वविद्यालय से पढ़ाई की थी या कौन सी डिग्री ली थी ? तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारतीय शिक्षा दर्शन तो भारत में था अब इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है तो फिर क्या ऐसी मजबूरी है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद हम उस मैकाले की शिक्षा नीति को अपनाये हुए है जिसने खुद भारत में काले अंग्रेज तैयार करने के उद्देश्य से ऐसी विकृत शिक्षा नीति लागू की थी। इस बात को वह स्वयं स्वीकार भी करता है जिसको मैक्स मूलर ने प्राचीनतम ग्रंथों के साथ-साथ भारतीय इतिहास को तोड़-मरोड़ कर अपने अनुसार व्याख्या कर और सुदृढ़ किया।
सस्ती लोकप्रियता के गुबार पर खड़े राजनेता
वर्तमान जीवन में राजनीति का प्रभुत्व है। धर्म, समाज, अर्थ आदि सभी में राजनीति का प्रवेश है। सभी पर राजनीति हावी है। सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षति पूर्ति) विधेयक-2011 जैसा कानून लाया जाता है। आज इस स्वाधीन भारत में अगर ऊपर से नीचे तक अर्थात मंत्री से लेकर संतरी तक सुरसा की भांति फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ अगर कोई आवाज़ उठाता है तो उस पर जलियावालां बाग़ जैसा हमला होता है , आजकल के कुछ आदर्श राजनेता सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए कभी गरीबों की झोपड़ी में रात बिताते हैं तो कभी किसानों व गरीबों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हुए मीडिया से अपनी ब्रांडिंग करवाते हंै।
तिरंगा जलाने वाले कैसे बन जाते हैं मेहमान
तिरंगे को जलाने वाले अलगाववादियों को आज के राजनेता अपना मेहमान बनाते हैं तो लाल चौक पर झंडा फहराने वालों पर सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का आरोप मढ़ते हंै। जहां आज के राजनेताओं को देश के लिए अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले शहीदों के परिवारों की सुध लेने की फुरसत नहीं है वहीं दूसरी तरफ हमलावर-कातिलों को सरकारी मेहमान बनाकर उन पर जनता का करोड़ों रूपया खर्च करते हैं। आज सरकारी गोदामों में अनाज सड़ जाता है परन्तु विदर्भ जैसे प्रान्तों के किसान भूखों मरने के लिए मजबूर हैं। वनवासियों के तन ढकने के लिए व उन्हें समाज से जोडऩे के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है परन्तु उनके धर्मान्तरण के लिए खूब पैसा लूटाया जाता है।
मरीचिका की तरह चमचमाती हुई भौतिकवादिता को आधुनिकता का आधार मान कर सस्ती कु-राजनीति करते हुए ऐसी व्यवस्था बना ली है जिसे बदलने के लिए वह कभी तैयार नहीं होगा भले ही उसे स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे जैसे समाजसेवियों से टकराना पड़े। यह कहना उचित ही होगा कि अभी हम स्वाधीन तो हैं परन्तु भ्रष्टाचार मुक्त स्वतन्त्रता लेना अर्थात् दूसरी आजादी अभी बाकी है...।
-पं.विनोद चौबे,भिलाई 09827198828
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