सरकार के गलियारे से बाहर निकले सहकारिता |
भारतीय समाज में सहकारिता का इतिहास बहुत पुराना है। अंग्रेजों की गुलामी में फंसने के पहले हजारों वर्षों से यहां के गांव सहकारिता के आधार पर अपने संसाधनों एवं श्रमशक्ति का उपयोग कुशलतापूर्वक करते आ रहे थे। इसी कारण वे स्वावलंबी और सुखी थे।
बीच-बीच में शासकों की लूट-खसोट के बावजूद उनकी व्यवस्था चलती रही। किंतु, 1780 में लैंड सेटलमेंट एक्ट के द्वारा अंग्रेजों ने इस प्राचीन परिपाटी को समाप्त कर दिया। भूमि का स्वामित्व पहले जहां गांवों के पास सामूहिक रूप से था, वहीं अब यह कुछ व्यक्तियों के हाथ आ गया। जिस प्रकार अंग्रेजों ने शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में देशी व्यवस्था समाप्त करके अंग्रेजी माडल लागू किया, उसी प्रकार सहकारिता के क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी व्यवस्था चलाने का निर्णय लिया। इसी के तहत 1904 में कोआपरेटिव क्रेडिट सोसाइटीज एक्ट बनाया गया। पहले जहां सहकारिता विशुद्ध रूप से सामाजिक उपक्रम हुआ करती थी, वहीं अब इसे सरकारी निगरानी एवं नियंत्रण में कैद कर दिया गया।
1947 में अंग्रेजी शासन से मुक्त होने के बाद भी सहकारिता के क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप बदस्तूर जारी रहा। पहले जहां अंग्रेज अपने औपनिवेशिक हितों को ध्यान में रखकर इसमें हस्तक्षेप करते थे, वहीं स्वतंत्र भारत में सरकार को लगा कि बिना सरकारी मदद के सहकारिता आंदोलन आगे नहीं बढ़ पाएगा। इसलिए सरकार ने सहकारिता के क्षेत्र में संसाधनों की खूब बारिश की। देखते ही देखते सहकारिता आंदोलन 99 प्रतिशत गांवों तक पहुंच गया। सहकारी समितियों द्वारा संचालित चीनी मिलों, कताई मिलों, बैंकों एवं सुपर मार्केटों की एक लंबी श्रृंखला स्थापित हो गई।
वर्तमान में इनकी कुल पूंजी हजारों करोड़ रुपए हो गई है। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि आज 80 प्रतिशत सहकारी समितियां कृषि के क्षेत्र में कार्य कर रही हैं और 60 प्रतिशत ऋण बांटने में लगी हैं। कृषि क्षेत्र में ऋण बांटने में इनका योगदान व्यावसायिक बैंकों से भी अधिक है।
प्रथम दृष्टया सहकारी समितियों की प्रगति अत्यंत आकर्षक लगती है। लेकिन, नजदीक जाने पर कुछ और ही नजर आता है। जिस कृषि क्षेत्र के लिए अधिकतर समितियां कार्य कर रही हैं, उसकी हालत किसी से छिपी नहीं है। किसानों को ऋण बांटने के लिए उतावलापन है किंतु किसानों को लाभकारी मूल्य मिले, इसकी चिंता कम ही देखने को मिलती है।
कहने को तो सहकारी समितियां जनता की हैं और जनता के लिए हैं। लेकिन, वास्तव में इनमें से अधिकतर राजनेताओं एवं नौकरशाहों की स्वार्थपूर्ति का जरिया बन चुकी हैं। ऐसा उन स्थानों पर विशेष रूप से हुआ है जहां जनता को जागरूक किए बिना उनके ऊपर सहकारी संस्थानों को लाद दिया गया। जहां जनता जागरूक थी और उसने अपने प्रयासों से अपने चुने हुए नेतृत्व के जरिए सहकारिता के प्रयोग किए, वहां के परिणाम आश्चर्यजनक रूप से बेहतर रहे हैं।
भूमंडलीकरण के इस दौर में अधिकतर सार्वजनिक उपक्रम अपनी अतिशय प्रतिबद्धता के कारण असफल सिद्ध हो चुके हैं जबकि निजी उपक्रम अपनी अनंत लिप्सा के कारण जनसाधारण के लिए कष्टकारी साबित हो रहे हैं। ऐसे में सहकारिता से उम्मीदें बढ़ गई हैं। यह एक ऐसा उपकरण है जिसमें गरीबी से लड़ने, खाद्य सुरक्षा देने और रोजगार सृजित करने की असीम क्षमता है। जरूरत बस इस बात की है कि सरकार इसमें अनावश्यक हस्तक्षेप एवं रुचि लेना बंद करे। सरकार पर अत्यधिक निर्भरता सहकारी समितियों को कभी भी आगे नहीं बढ़ने देगी।
वित्तीय मदद मुहैया कराने की बजाय सरकार को बस यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जिन लोगों के हाथों में सहकारी समितियों का नियंत्रण है, वे इसके संसाधनों का दुरुपयोग न करने पाएं। साथ ही सरकार जनता को जागरूक करने में भी अपने संसाधनों का उपयोग कर सकती है। यदि सहकारिता को एक आंदोलन बनाना है तो सरकार को चाहिए कि वह खुद पीछे होकर समाज को इस दिशा में आगे बढ़ने का अवसर दे।
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