मानस रोग है भ्रष्टाचार
हम बीमार पड़ते ही, चिकित्सक के पास जाते हैं..डॉक्टर पूरी जांच-पड़ताल कर शरीर व्याप्त रोग के खात्मे के लिए माकुल दवा देते हैं.. और रोग का निदान हो जाता है। यह तो शारीरिक रोग की बात हुयी लेकिन... बात उस दर्द की है जो हमारे जन-मानस समाज रूपी शरीर में नासूर की तरह विद्यमान है, जो बढ़ कर प्रतिक्रियात्मक हो जाता है, यह नासूर है-भ्रष्टाचार, अर्थात् भ्रष्ट आचार, जो घुन की तरह हमारी व्यवस्था की जड़ को काट-काट कर खोखला कर रहा है। समाचार पत्र-पत्रिकाओं पर नजर दौड़ाएं तो समाज में व्याप्त यह नासूर चाहे छोटा हो या बड़ा, सारी खबरों के सुर्खियों में रहता है।
हम बात करते हैं कि अपने देश व समाज की, अपने भारत की। सोने की चिडिय़ा कहा जाने वाला वह भारत आज कहां है ? संविधान में उल्लेखित समानता व बंधुत्व केवल सैद्धांतिक हैं, वहीं व्यवहार में इसका प्रचलन बहुत कम है, कारण कहीं न कहीं हमारी व्यवस्था में व्याप्त सोच है। हम अपने को भारतीय कहते हैं पर इसे साबित व परिभाषित कैसे करें ? यह प्रश्न जरा अजीब लगता है पर उत्तर थोड़ा मुश्किल है। जब हम किसी दूसरे देश में जाते हैं तो स्थानिय देशवासियों के मन में आपके बारे में जाना चाहता है कि ...आप कहाँ से आये हैं ? यह प्रश्न उठना ला•ामी है। उत्तर मे हमें सर्वप्रथम अपने देश, प्रदेश व क्षेत्र के माध्यम से बतानी पड़ती है। आपका परिचय पूछने वाला आपकी पहचान उस क्षेत्र में प्रचलित बातों और विशेषताओं के साथ आपको जोड़ लेता है क्योंकि जिस समूह में हम पलते-बढ़ते हैं, उसी समूह की विशेषताओं के हम प्रतिनिधि होते हैं, प्रसिद्ध समाजशास्त्री इ.दुर्खीम ने इसी आधार पर समाजशास्त्र की परिभाषा दे डाली कि जिन संस्कारों और व्यक्तित्व की विशेषताओं के बीच हमारी परवरिश होती है, उन्हीं के हम प्रतिनिधि होते हैं।
उसी समूह की विशेषताएं और अ-विशेषताएं हमारे व्यक्तित्व की परिचायक होती हैं। इसका अर्थ है कि भारत नामक क्षेत्र में रहने के कारण हमारा व्यक्तित्व भी उन्हीं गुणों से युक्त है जो भारतीयता की पहचान है। सहनशीलता, उदारता, विभिन्नताओं में एकता, आत्मत्याग, परोपकार और नैतिकता हमारे भारतीय राष्ट्रीयता की बुनियाद रही है। विशिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था का परिचायक भारत, जिसने उतार-चढ़ावों के बावजूद अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाये व बचाये रखा और महासागर बन सभी विभिन्नताओं को समेटता रहा। धीरे-धीरे विकास होता रहा। हम निरंतर प्रगति के सोपान पर बढ़ते गये। वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की प्रक्रियाएं औद्योगिकरण और शहरीकरण की तरह न केवल क्रियाशील हुई बल्कि इन्होंने हमारी तमाम व्यवस्था को अपने प्रभावों से आवेशित कर दिया। इससे एक ओर सकारात्मक परिणाम दिखे दूसरी ओर इसके दुष्प्रभावों ने हमें हमारी मूल विशेषताओं से दूर कर दिया। सामाजिक व्यवस्था का चारित्रिक पतन कोढ़ की तरह हर क्षेत्र में भ्रष्ट आचरण के रूप में परिलक्षित होने लगा। चाहे व्यक्ति हो या समाज दोनों ही स्तरों पर इस आचरण ने हमारे मानस को इतने घाव दिये कि जनमानस कराह उठा है।
सामाजिक संबंधों के अध्येता के रूप में बात शुरू करते हैं, व्यक्ति से, क्योंकि वही संबंधों की मुख्य कड़ी है। व्यक्ति से व्यक्ति, समूह से समूह और व्यक्ति से समूह के बीच का व्यवहार ही सामाजिक व्यवस्था का आधार है। आचरण की शुद्धता ही संबंधों को पुष्टता प्रदान करती है। अपनी आवश्यकताओं के चलते ही व्यक्ति और समाज आपस में व्यवहार करते हैं। आज हमारा भारतीय समाज जिन घटनाक्रमों से गुजर रहा है, उसकी परिणति क्रांति की लहर के रूप में बह रही है। भ्रष्टाचार रूपी राक्षस के पंजों से निकलने के प्रयास ने समूचे देश को इस कदर झकझोरा है कि क्रांति की इस लहर ने आजादी के संग्राम की याद दिला दी है। साथ ही यह असहयोग, आक्रोश क्रांति में बदल सकते हैं।
प्राचीन काल में छोटे छोटे राज्य थे और आमने-सामने के घनिष्ठ संबंध तथा पारस्परिक परिचय के कारण भ्रष्ट आचरण की कोई वजह नहीं थी। अधिकारियों के अधिकार क्षेत्र सीमीत थे इसीलिए भ्रष्ट आचरण की कोई गुंजाइश नहीं थी। आखिर यह भ्रष्टाचार क्या है? समाजशास्त्री इलियट व मेरिल ने अपनी कृति सोशल आर्गेनाइजेशन में लिखा है - प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्ति के लिये जान बूझ कर निश्चित कर्तव्य का पालन न करना ही भ्रष्टाचार है।
आज की व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार की स्थिति हमें कहां ले जा रही है। बहुत पहले समाजशास्त्री सोरोकिन ने अपनी कृति द क्राइसिस ऑफ ऑवरएज में जो लिखा, वह प्रासंगिक है - आज हमारे जीवन का हर पहलु, हर संगठन, प्रत्येक संस्था और सम्पूर्ण संस्कृति एक अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहा है। समाज का बाहरी ढांचा और आंतरिक मानस रोग ग्रस्त है। इस सामाजिक शरीर का शायद ही कोई हिस्सा ऐसा मिले, जो सूजा हुआ और घायल न हो, शायद ही कोई स्नायु मिले जो सही ढंग से अपना कार्य कर रहा हो। वास्तव में हम दो संस्कृतियों के बीच फंसे हुए हैं-एक, मरती हुई इंद्रियपरक संस्कृति जो कल तक की सुंदरतम् उपलब्धि थी और दूसरी ओर आने वाली कल की भावात्मक संस्कृति जिसे हम ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं। इस गड़बड़ी में सही दिशा देख पाना और अपने को बचा कर सही दिशा में ले जाना इसंभव प्रतीत हो रहा है। इस संक्रमणकालीन संध्या में दिल कंपा देने वाली डरावनी छाया उभर रही है और निरंतर बढ़ रहे संत्रास को चीर पाना कठिन हो गया है।
सोरोकिन ने सामाजिक व्यवस्था का जो भयावह रूप प्रस्तुत किया, आज वह साकार रूप में हमारे सामने है। इसका कारण निश्चित रूप में नैतिक मूल्यों का हृास और भौतिकता के पीछे भागने की प्रवृत्ति का बढऩा है जिससे मूल्यों में गिरावट और जनसाधारण की लाचारी बढ़ी है।
कहने का तात्पर्य है कि भ्रष्टाचार रूपी बीमारी ने हमारे समाज की संरचनात्मक व्यवस्था को तोड़ कर रख दिया है। इस भयानक सांस्कृतिक संकट से उबरने के लिए क्रांतिकारी परिवर्तनों की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अलग से व्यवस्था के ऊपर व्यवस्था खड़ा करना, इसे और ज्यादा फैलाना और मजबूत करने जैसा है। इसीलिए जो है उसी में सुधार की गुंजाइश तलाश करना और
.....शेष पृष्ठ 15 पर
.....पृष्ठ 15 का शेष समाज का मानस रोग है...
उसी में भरसक कोशिश करनी होगी। यह दिन प्रतिदिन खोखला करने वाला घुन है, जिसके लिए सबसे पहले अपनी सोच बदलनी होगी। उसका स्तर ऊंचा करना होगा, व्यक्ति की योग्यताओं के सही मूल्यांकन तथा दृढ़ इच्छा शक्ति और पूर्वाग्रह रहित व्यापक नजरिया हर स्तर पर पारदर्शिता के साथ प्रयोग में लाना होगा। जब तक व्यक्ति के जीवन में सुचिता का समावेश नहीं होता तब तक केवल कानून बनाने से भ्रष्टाचार का अंत नहीं हो सकता। जनमानस में बैठा भ्रष्टाचार, आचरण व व्यवहार के तिरस्कार से, नैतिक साहस और मनोबल बढ़ाने वाले प्रयासों से दूर होगा। सामाजिक जड़ों में बैठे भ्रष्टाचार निवारण हेतु एक अन्ना को नहीं बल्कि हजारों करोड़ों अन्नाओं की आवश्यकता है। जिसके लिए स्व शासन, स्व दर्शन, स्व चिंतन और स्व परिवर्तन की आवश्यकता है, जो कार्य हमें अपने लिए पसंद नहीं, वह दूसरों के लिए सोच में भी न हों, पहले खुद बदलें फिर दुनियां को बदलें। बकौल कबीर -
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझ सा बुरा न कोय।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें