वेदशब्द का अर्थ ज्ञान है। वेद-पुरुष के शिरोभाग को उपनिषद् कहते हैं। उप (व्यवधानरहित) नि (सम्पूर्ण) षद् (ज्ञान)। किसी विषय के होने न होने का निर्णय ज्ञान से ही होता है। अज्ञान का अनुभव भी ज्ञान ही कराता है। अतः ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए ज्ञान से भिन्न किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। उपनिषद् का अन्य अर्थ उप(समीप) निषत् -निषीदति-बैठनेवाला। अर्थात- जो उस परम तत्व के समीप बैठता हो। उपनिषद्यते-प्राप्यते ब्रह्मात्मभावोऽनया इति उपनिषद् ।अर्थात्-जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सके,वह उपनिषद् है।मुक्तिकोपनिषद् में एक सौ आठ (१०८) उपनिषदों का वर्णन आता है, इसके अतिरिक्त अडियार लाइब्रेरी मद्रास से प्रकाशित संग्रह में से १७९ उपनिषदों के प्रकाशन हो चुके है। गुजराती प्रिटिंग प्रेस बम्बई से मुदित उपनिषद्-वाक्य-महाकोष में २२३ उपनिषदों की नामावली दी गई है, इनमें उपनिषद(१) उपनिधि-त्स्तुति तथा (२)देव्युपनिषद नं-२ की चर्चा शिवरहस्य नामक ग्रंथ में है लेकिन ये दोनों उपलब्ध नहीं हैं तथा माण्डूक्यकारिका के चार प्रकरण चार जगह गिने गए है इस प्रकार अबतक ज्ञात उपनिषदो की संख्या २२० आती हैः-
कुल ज्ञात उपनिषद मुख्य १०८ उपनिषद्
१-ईशावास्योपनिषद् (शुक्लयजर्वेदीय)
२-अक्षिमालिकौपनिषद् (ऋग्वेदीय)
३-अथर्वशिखोपनिषद् (सामवेद)
४-अथर्वशिर उपनिषद् (सामवेद)
५-अद्वयतारकोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
६अद्वैतोपनिषद्
७-अद्वैतभावनोपनिषद्
८-अध्यात्मोपनिषद् (शुक्लयजर्वेदीय) ९-अनुभवसारोपनिषद्
१०-अन्नपुर्णोंपनिषद् (सामवेद)
११-अमनस्कोपनिषद्
१२-अमृतनादोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१३-अमृतबिन्दूपनिषद्(ब्रह्मबिन्दूपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)
१४-अरुणोपनिषद्
१५अल्लोपनिषद
१६-अवधूतोपनिषद्(वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक) (कृष्णयजुर्वेदीय)
१७-अवधूतोपनिषद्(पद्यात्मक)
१८-अव्यक्तोपनिषद् (सामवेद)
१९-आचमनोपनिषद्
२०-आत्मपूजोपनिषद्
२१-आत्मप्रबोधनोपनिषद्(आत्मबोधोपनिषद्) (ऋग्वेदीय)
२२-आत्मोपनिषद्(वाक्यात्मक) (सामवेद)
२३-आत्मोपनिषद्(पद्यात्मक)
२४-आथर्वणद्वितीयोपनिषद्
२५-आयुर्वेदोपनिषद्
२६-आरुणिकोपनिषद्(आरुणेय्युपनिषद्) (सामवेद)
२७-आर्षेयोपनिषद्
२८-आश्रमोपनिषद्
२९-इतिहासोपनिषद्(वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)
३०-ईसावास्योपनिषद
उपनषत्स्तुति(शिव रहस्यान्तर्गत,अबी तक अनुपलब्ध है।)
३१-ऊध्वर्पण्ड्रोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)
३२-एकाक्षरोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
३३-ऐतेरेयोपनिषद्(अध्यायात्मक) (ऋग्वेदीय)
३४-ऐतेरेयोपनिषद्(खन्ड़ात्मक)
३५-ऐतेरेयोपनिषद्(अध्यायात्मक)
३६-कठरुद्रोपनिषद्(कण्ठोपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)
३७-कठोपनिषद्
३८-कठश्रुत्युपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
३९-कलिसन्तरणोपनिषद्(हरिनामोपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)
४०-कात्यायनोपनिषद्
४१-कामराजकीलितोद्धारोपनिषद्
४२-कालाग्निरुद्रोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
४३-कालिकोपनिषद्
४४-कालिमेधादीक्षितोपनिषद्
४५-कुण्डिकोपनिषद् (सामवेद)
४६-कृष्णोपनिषद् (सामवेद)
४७-केनोपनिषद् (सामवेद )
४८-कैवल्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
४९-कौलोपनिषद्
५०-कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद् (ऋग्वेदीय)
५१-क्षुरिकोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
५२-गणपत्यथर्वशीर्षोपनिषद् (सामवेद)
५३-गणेशपूर्वतापिन्युपनिषद्(वरदपूर्वतापिन्युपनिषद्)
५४-गणेशोत्तरतापिन्युपनिषद्(वरदोत्तरतापिन्युपनिषद्)
५५-गर्भोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
५६-गान्धर्वोपनिषद्
५७-गायत्र्युपनिषद्
५८-गायत्रीरहस्योपनिषद्
५९-गारुड़ोपनिषद्(वाक्यात्मक एवं मन्त्रात्मक) (सामवेद)
६०गुह्यकाल्युपनिषद्
६१-गुह्यषोढ़ान्यासोपनिषद्
६२-गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद् (सामवेद)
६३-गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद्
६४-गोपीचन्दनोपनिषद्
६५-चतुर्वेदोपनिषद्
६६-चाक्षुषोपनिषद्(चक्षरुपनिषद्,चक्षुरोगोपनिषद्,नेत्रोपनिषद्)
६७-चित्त्युपनिषद्
६८-छागलेयोपनिषद्
६९-छान्दोग्योपनिषद् (सामवेद)
७०जाबालदर्शनोपनिषद् (सामवेद)
७१-जाबालोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
७२-जाबाल्युपनिषद् (सामवेद)
७३-तारसारोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
७४-तारोपनिषद्
७५-तुरीयातीतोपनिषद्(तीतावधूतो०) (शुक्लयजुर्वेदीय)
७६-तुरीयोपनिषद्
७७-तुलस्युपनिषद्
७८-तेजोबिन्दुपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
७९-तैत्तरीयोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
८०-त्रिपादविभूतिमहानारायणोपनिषद् (सामवेद)
८१-त्रिपुरातापिन्युपनिषद् (सामवेद)
८२-त्रिपुरोपनिषद् (ऋग्वेदीय)
८३-त्रिपुरामहोपनिषद्
८४-त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
८५-त्रिसुपर्णोपनिषद्
८६-दक्षिणामूर्त्युपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
८७-दत्तात्रेयोपनिषद् (सामवेद)
८८-दत्तोपनिषद्
८९-दुर्वासोपनिषद्
९०-(१) देव्युपनिषद्(पद्यात्मक एवं मन्त्रात्मक) (सामवेद)
(२) देव्युपनिषद्(शिवरहस्यान्तर्गत-अनुपलब्ध)
९१-द्वयोपनिषद्
९२-ध्यानबिन्दुपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
९३-नादबिन्दुपनिषद् (ऋग्वेदीय)
९४-नारदपरिब्राजकोपनिषद् (सामवेद)
९५-नारदोपनिषद्
९६-नारायणपूर्वतापिन्युपनिषद्
९७-नारायणोत्तरतापिन्युपनिषद्
९८-नारायणोपनिषद्(नारायणाथर्वशीर्ष) (कृष्णयजुर्वेदीय)
९९-निरालम्बोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
१००-निरुक्तोपनिषद्
१०१-निर्वाणोपनिषद् (ऋग्वेदीय)
१०२-नीलरुद्रोपनिषद्
१०३-नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद्
१०४-नृसिंहषटचक्रोपनिषद्
१०५-नृसिंहोत्तरतापिन्युपनिषद् (सामवेद)
१०६-पञ्चब्रह्मोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१०७-परब्रह्मोपनिषद् (सामवेद)
१०८-परमहंसपरिब्राजकोपनिषद् (सामवेद)
१०९-परमहंसोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
११०-पारमात्मिकोपनिषद्
१११-पारायणोपनिषद्
११२-पाशुपतब्राह्मोपनिषद् (सामवेद)
११३-पिण्डोपनिषद्
११४-पीताम्बरोपनिषद्
११५-पुरुषसूक्तोपनिषद्
११६-पैङ्गलोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
११७-प्रणवोपनिषद्(पद्यात्मक)
११८-प्रणवोपनिषद्(वाक्यात्मक
११९-प्रश्नोपनिषद् (सामवेद)
१२०-प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१२१-बटुकोपनिषद(बटुकोपनिषध)
१२२-ब्रह्वृचोपोपनिषद् (ऋग्वेदीय)
१२३-बाष्कलमन्त्रोपनिषद्
१२४-बिल्वोपनिषद्(पद्यात्मक)
१२५-बिल्वोपनिषद्(वाक्यात्मक)
१२६-बृहज्जाबालोपनिषद् (सामवेद)
१२७-बृहदारण्यकोपनिषद् (शुक्लयजर्वेदीय)
१२८-ब्रह्मविद्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१२९-ब्रह्मोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१३०-भगवद्गीतोपनिषद्
१३१-भवसंतरणोपनिषद्
१३२-भस्मजाबालोपनिषद् (सामवेद)
१३३-भावनोपनिषद्(कापिलोपनिषद्) (सामवेद)
१३४-भिक्षुकोपनिष (शुक्लयजुर्वेदीय)
१३५-मठाम्नयोपनिषद्
१३६-मण्डलब्राह्मणोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
१३७-मन्त्रिकोपनिषद्(चूलिकोपनिषद्) (शुक्लयजुर्वेदीय)
१३८-मल्लायुपनिषद्
१३९-महानारायणोपनिषद्(बृहन्नारायणोपनिषद्,उत्तरनारायणोपनिषद्)
१४०-महावाक्योपनिषद्
१४१-महोपनिषद् (सामवेद)
१४२-माण्डूक्योपनिषद् (सामवेद)
१४३-माण्डुक्योपनिषत्कारिका
(क)-आगम
(ख)-अलातशान्ति
(ग)-वैतथ्य
(घ)-अद्वैत
१४४-मुक्तिकोपनिषद् (शुक्लयजर्वेदीय)
१४५-मुण्डकोपनिषद् (सामवेद)
१४६-मुद्गलोपनिषद् (ऋग्वेदीय)
१४७-मृत्युलाङ्गूलोपनिषद्
१४८-मैत्रायण्युपनिषद् (सामवेद)
१४९-मैत्रेव्युपनिषद् (सामवेद)
१५०-यज्ञोपवीतोपनिषद्
१५१-याज्ञवल्क्योपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
१५२-योगकुण्डल्युपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१५३-योगचूडामण्युपनिषद् (सामवेद)
१५४-(१) योगतत्त्वोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१५५-(२) योगतत्त्वोपनिषद्
१५६-योगराजोपनिषद्
१५७-योगशिखोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१५८-योगोपनिषद्
१५९-राजश्यामलारहस्योपनिषद्
१६०-राधोकोपनिषद्(वाक्यात्मक)
१६१-राधोकोपनिषद्(प्रपठात्मक)
१६२-रामपूर्वतापिन्युपनिषद् (सामवेद)
१६३-रामरहस्योपनिषद् (सामवेद)
१६४-रामोत्तरतापिन्युपनिषद्
१६५-रुद्रहृदयोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१६६-रुद्राक्षजाबालोपनिषद् (सामवेद)
१६७-रुद्रोपनिषद्
१६८-लक्ष्म्युपनिषद्
१६९-लाङ्गूलोपनिषद्
१७०-लिङ्गोपनिषद्
१७१-बज्रपञ्जरोपनिषद्
१७२-बज्रसूचिकोपनिषद् (सामवेद)
१७३-बनदुर्गोपनिषद्
१७४-वराहोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१७५-वासुदेवोपनिषद् (सामवेद)
१७६-विश्रामोपनिषद्
१७७-विष्णुहृदयोपनिषद्
१७८-शरभोपनिषद् (सामवेद)
१७९-शाट्यायनीयोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
१८०-शाण्डिल्योपनिषद् (सामवेद)
१८१-शारीरकोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१८२-(१)शिवसङ्कल्पोपनिषद्
१८३-(२)शिवसङ्कल्पोपनिषद्
१८४-शिवोपनिषद्
१८५-शुकरहस्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१८६-शौनकोपनिषद्
१८७-श्यामोपनिषद्
१८८-श्रीकृष्णपुरुषोत्तमसिद्धान्तोपनिषद्
१८९-श्रीचक्रोपनिषद्
१९०-श्रीविद्यात्तारकोपनिषद्
१९१-श्रीसूक्तम
१९२-श्वेताश्वतरोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१९३-षोढोपनिषद्
१९४-सङ्कर्षणोपनिषद्
१९५-सदानन्दोपनिषद्
१९६-संन्यासोपनिषद्(अध्यायात्मक) (सामवेद)
१९७-संन्यासोपनिषद्(वाक्यात्मक)
१९८-सरस्वतीरहस्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
२००-सर्वसारोपनिषद्( सर्वोप०) (कृष्णयजुर्वेदीय)
२०१-स ह वै उपनिषद्
२०२-संहितोपनिषद्
२०३-सामरहस्योपनिषद्
२०४-सावित्र्युपनिषद् (सामवेद)
२०५-सिद्धाँन्तविठ्ठलोपनिषद्
२०६-सिद्धान्तशिखोपनिषद्
२०७-सिद्धान्तसारोपनिषद्
२०८-सीतोपनिषद् (सामवेद)
२०९-सुदर्शनोपनिषद्
२१०-सुबालोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
२११-सुमुख्युपनिषद्
२१२-सूर्यतापिन्युपनिषद्
२१३-सूर्योपनिषद् (सामवेद)
२१४-सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद् (ऋग्वेदीय)
२१५-स्कन्दोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
२१६-स्वसंवेद्योपनिषद्
२१७-हयग्रीवोपनिषद् (सामवेद)
२१८-हंसषोढोपनिषद्
२१९-हंसोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
२२०-हेरम्बोपनिषद्
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ॐ
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि। सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु। तदात्मनि
निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु।।
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्ति!!!
अर्थातः- मेरे (हाथ-पाँव आदि) अङ्ग सब प्रकार से पुष्ट हों, वाणी, प्राण,नेत्र, श्रोत्र पुष्ट हों तथा सम्पूर्ण इन्द्रियाँ बल प्राप्त करें। उपनिषद् में प्रतिपादित ब्रह्म ही सब कुछ है। मैं ब्रह्म का निराकरण (त्याग) न करूँ और ब्रह्म मेरा निराकरण न करे। इस प्रकार हमारा अनिराकरण (निरन्तर मिलन) हो, अनिराकरण हो। उपनिषदों में जो शम आदि धर्म कहे गये हैं वे ब्रह्मरूप आत्मा में निरन्तर रमण करने वाले मुझमें सदा बने रहें, मुझमें सदा बने रहें। आध्यात्मिक, अधिभौतिक और अधिदैविक ताप की शान्ति हों।
ॐ - उदगीथशब्दवाच्य-ॐ- इस अक्षर की उपासना करे--ॐ- यह अक्षर परमात्मा का सबसे समीपवर्ती (प्रियतम) नाम है। ॐ यह अक्षर उदगीथ है।
इन (चराचर) प्राणियों का पृथिवी रस (उत्पत्ति, स्थिति, और लय का स्थान) है। पृथिवी का रस जल है, जल का रस औषधियाँ हैं, औषधियों का रस पुरुष है, पुरुष का का रस वाक् है, वाक् का रस ऋक् है, ऋक् का रस साम है और साम का रस उदगीथ (ॐ) है। ऋक् और साम के कारणभूत वाक् और प्राण ही मिथुन है। वह यह मिथुन ॐ इस अक्षर में संसृष्ट होता है। जिस समय मिथुन (मिथुन के अवयव) परस्पर मिलते हैं उस समय वे एक दूसरे की कामनाओं को प्राप्त कराने वाले होते है। अतः ॐ अक्षर(उदगीथ) की उपसना करने वाले की संम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति होती है। ॐकार ही अनुमति सूचक अक्षर है।
श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणित वेदान्त-दर्शन के अनुसार जो तीन मात्राओं वाले ओम् रूप इस अक्षर के द्वारा ही इस परम पुरुष का निरन्तर ध्यान करता है, वह तेजोमय सूर्यलोक मे जाता है तथा जिस प्रकार सर्प केंचुली से अलग हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से वह पापो से सर्वथा मुक्त हो जाता है। इसके बाद वह सामवेद की श्रुतियों द्वारा ऊपर ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है। वह इस जीव-समुदाय रूप परमतत्त्व से अत्यन्त श्रेष्ठ अन्तर्यामी परमपुरुष पुरुषोत्तम को साक्षात् कर लेता है। तीनों मात्राओं से सम्पन्न ॐकार पूर्ण ब्रह्म परमात्मा ही है, अपरब्रह्म नहीं।
(ओ३म्) यह ओङ्कार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि यह तीन अक्षरों अ, उ, और म से मिल कर बना है, इनमें प्रत्येक अक्षर से भी परमात्मा के कई-कई नाम आते हैं। जैसे- अकार से विष्णु, विराट्, अग्नि और विश्वादि। उकार से महेश्वर, हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ब्रह्मा, ईश्वर, आदित्य और प्रज्ञादि नामों का वाचक है। तथा अर्धमात्रा निर्गुण परब्रह्म परमात्मास्वरूप है। वेदादि शास्त्रों के अनुसार प्रकरण के अनुकूल ये सब नाम ईश्वर के ही हैं।
तैत्तरीयोपनषद शीक्षावल्ली अष्टमोंऽनुवाकः में ॐ के विषय में कहा गया हैः-
ओमति ब्रह्म। ओमितीद ँूसर्वम्। ओमत्येदनुकृतिर्हस्म वा अप्यो श्रावयेत्याश्रावयन्ति। ओमति सामानि गायन्ति। ओ ँूशोमिति शस्त्राणि श ँूसन्ति। ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति। ओमिति ब्रह्मा प्रसौति। ओमित्यग्निहोत्रमनुजानति। अमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति।ब्रह्मैवोपाप्नोति।।
अर्थातः- ॐ ही ब्रह्म है। ॐ ही यह प्रत्यक्ष जगत् है। ॐ ही इसकी (जगत की) अनुकृति है। हे आचार्य! ॐ के विषय में और भी सुनाएँ। आचार्य सुनाते हैं। ॐ से प्रारम्भ करके साम गायक सामगान करते हैं। ॐ-ॐ कहते हुए ही शस्त्र रूप मन्त्र पढ़े जाते हैं। ॐ से ही अध्वर्यु प्रतिगर मन्त्रों का उच्चारण करता है। ॐ कहकर ही अग्निहोत्र प्रारम्भ किया जाता है। अध्ययन के समय ब्राह्मण ॐ कहकर ही ब्रह्म को प्राप्त करने की बात करता है। ॐ के द्वारा ही वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
अर्थातः- ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण; क्योंकि पूर्ण से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है। तथा (प्रलयकाल में) पूर्ण (कार्यब्रह्म) का पूर्णत्व लेकर (अपने में ही लीन करके) पूर्ण (परब्रह्म) ही बच रहता है। त्रिबिध ताप की शान्ति हो।
ॐ को प्रणव भी कहते हैं; जिसका अर्थ पवित्र घोष भी है। यह शब्द ब्रह्म बोधक भी है; जिससे यह विश्व उत्पन्न होता हे, जिसमें स्थित रहताहै और जिसमें लय हो जाता है। यह विश्व नाम-रूपात्मक है, उसमें जितने पदार्थ है इनकी अभिव्यक्ति वर्णों अथवा अक्षरों से ही होती है। जितने भी वर्ण है वे अ (कण्ठ्य स्वर) और म् ओष्ठय स्वर के बीच उच्चरित होते हैं। इस प्रकार ॐ सम्पूर्ण विश्व की अभिव्यक्ति, स्थिति और प्रलय का द्योतक है।
सर्वे वेदा यतपदमामन्ति
तपा ँूसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति
तत्तेपद ँू संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।।१५।
(कठोपनषद् अध्याय १ वल्ली २ श्लोक १५),
अर्थातः- सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैं, समस्त तपों को जिसकी प्राप्ति के साधक कहते हैं, जिसकी इक्षा से (मुमुक्षुजन) ब्रह्मचर्य का पालन करते है, उस पद को मैं तुमसे संक्षेप में कहता हूँ। ॐ यही वह पद है।
ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं
सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते।
तमोङ्कारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान्
यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति।।७।।
(प्रश्नोपनिषद् प्रश्न ५ श्लोक ७),
अर्थातः- साधक ऋग्वेद द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा आन्तरिक्ष को और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विद्वजन जानते हैं। तथा उस ओंङ्काररूप आलम्बन के द्वारा ही विद्वान् उस लोक को प्राप्त होता है जो शान्त, अजर, अमर, अभय एवं सबसे पर (श्रेष्ठ) है।
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत।।
(मुन्डकोपनिषद्-मुन्डक २ खन्ड २ श्लोक-४)अर्थातः- प्रणव धनुषहै, (सोपाधिक) आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक बेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।।४।।
ओमित्येतदक्षरमिद ँ्सर्व तस्योपव्याख्यानं भूत, भवभ्दविष्यदिति सर्वमोंङ्कार एव। यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव।।१।।
( माण्डूक्योपनिषद् गौ० का० श्लोक १)
अर्थातः-ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है। यह जो कुछ भूत, भविष्यत् और वर्तमान है उसी की व्याख्या है; इसलिये यह सब ओंकार ही है। इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वस्तु है वह भी ओंकार ही है।
सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति।।८।। ( माण्डूक्योपनिषद् आ०प्र० गौ०का० श्लोक ८ )
वह यह आत्मा ही अक्षर दृष्टि से ओंङ्कार है; वह मात्राओं का विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है; वे मात्रा अकार, उकार और मकार हैं।
यह आत्मा अध्यक्षर है; अक्षर का आश्रय लेकर जिसका अभिधान(वाचक) की प्रधानता से वर्णन किया जाय उसे अध्यक्षर कहते हैं। जिस प्रकार अकार नामक अक्षर अदिमान् है उसी प्रकार वैश्वानर भी है। उसी समानता के कारण वैश्वानर की अकार रूपता है। अकार निश्चय ही सम्पूर्ण वाणी है श्रुति के अनुसार अकार से समस्त वाणी व्याप्त है। ओङ्कार की दूसरी मात्रा ऊकार है उत्कर्ष के कारण जिस प्रकार अकार से उकार उत्कृष्ट-सा है उसी प्रकार विश्व से तैजस उत्कृष्ट है। जिस प्रकार उकार अकार और मकार के मध्य स्थित है उसी प्रकार विश्व और प्राज्ञ के मध्य तैजस है। सुषुप्ति जिसका स्थान है वह प्राज्ञ मान और लय के कारण ओङ्कार की तीसरी मात्रा मकार है। जिस प्रकार ओङ्कार का उच्चारण करने पर अकार और उकार अन्तिम अक्षर में एकीभूत हो जाते हैं उसी प्रकार सुषुप्ति के समय विश्व और तैजस प्राज्ञ में लीन हो जाते हैं। अमात्र-जिसकी मात्रा नहीं है वह अमात्र ओङ्कार चौथा अर्थात तुरीय केवल अत्मा ही है। इस प्रकार अकार विश्व को प्राप्त करादेता हैतथा उकार तैजस को और मकार प्राज्ञ को; किन्तु अमात्र में किसी की गति नहीं है। अतः प्रणव ही सबका आदि, मध्य और अन्त है।प्रणव को इस प्रकार जानने के अनन्तर तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है। प्रणव को ही सबके हृदय में स्थिति ईश्वर जाने। इस प्रकार सर्वव्यापी ओङ्कार को जानकर बुद्धिमान पुरुष शोक नहीं करता। तैतरीयोपनिषद में कहा है कि जिस प्रकार शंकुओं(पत्तों की नसों) से संपूर्ण पत्ते व्याप्त रहते हैं उसी प्रकार ओंकार से सम्पूर्ण वाणी व्याप्त है-ओंकार ही यह सब कुछ है।
--- ॐ का महत्व--
ॐ का महत्व इस तथ्य से भी जाना जा सकता है कि नासा के वैज्ञानिकों ने आन्तरिक्ष में किसी अन्य ग्रह पर जीवन है कि नहीं,यह जानने के लिये जो ध्वनि चुनकर भेजी है; वह ॐ ही है।इसका तातपर्य यह है कि ब्रह्मांड में ॐ ही एक ऐसी ध्वनि है जो सभी जगह पहचानी जा सकती है तथा सभी के मूल श्रोत के रूप में है।
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