ईश्वर,भगवान और देवता
अखिल ब्रह्माण्ड के रचयिता परमात्मा के लिए मुख्यत: तीन शब्दों का प्रचलन आम जनता में प्रचुर मात्रा में दिखाई देता है ! यह तीन शब्द हैं ईश्वर , देवता और भगवान ! धर्म भीरु , भोली व सत्य शाश्त्रों के प्रति अबोध जनमानस में इन तीनों शब्दों को प्रायः समानार्थक ही माना जाता है !
जिस कर्मकांडी ब्राह्मण वर्ग से सामान्य जन सही विवेचना करते हें उनमें ही इन तीन शब्दों के विषय में घोर अज्ञान पायाजाता है ! वे तीनों को एक ही मानते हें !
इन तीनों शब्दों में से देवता शब्द के विषय सबसे अधिक भ्रम है जो सारे देश में फैला हुआ है ! इस शब्द ,हमारे पूर्वज ऋषियों के द्वारा किये गए वास्तविक अर्थ को हम समझ लें तो इस देश में व्याप्त एक बहुत बड़े भ्रम का निराकरण हो सकेगा व् सत्य देवताओं की पूजा कर हम अपने कल्याण के साथ ही विश्व का भी कल्याण कर सकेंगे !
वैदिक धर्मियों पर यह आरोप तीव्रता से लगाया जाता है कि वे देवताओं को नहीं मानते ,अपितु उनकी घोर निंदा अवं विरोध करतें हें !इस दुश प्रचार के कारण सत्य सनातन वैदिक धर्म के पावन सन्देश से जन मानस वंचित हो रहा है |
आइये हम् निम्न् पंक्तियों मे प्रथम देव्ता शब्द पर विचार करें|
शास्त्रकारोंने देवता दो प्रकार के बताए हे:
1) जड, 2) चेतन | पहले हम चेतन देवता पर संक्षेप में विचार करें|
देव परमात्मा को भी कहा है, क्योंकि उसने ही पावन वेद वाणी का दान, ऐवम् सूर्यादि देवताओं की रचना कर जीवात्मा का परम उपकार किया है| अतह् वह देवों का देव 'महादेव' है|
चेतन देवता
चेतन देवता - मातृ देवो भाव, पितृ देवो भाव, आचार्य देवो भाव, अतिथि देवोभाव .......... तैंत्तिरीयोपनिषद्
माता, पिता, साक्षात देवता हैं| जिस गृह में माता-पिता और वृद्ध अपने पुत्र व पुत्रवधुओं से उनकी सेवा से प्रसन्न रहते हैं वहां सौभाग्य की वृद्धि होती है|
ऐसे घर में प्रतिदिन संध्या एवं हवन भी होता हो तो वह घर मंदिर से कम नहीं | इसी को स्वधा कहते हैं |
सर्व तीर्थमयी माता सर्व देवमयः पिता |
मातरं पितरं तस्मात् सर्वलयेंन पूजयेत ||
अर्थ -माता सर्वतीर्थमयी है और पिता सर्व देवताओं का स्वरुप है इसलिए सब प्रकार से माता पिता की सेवा सत्कार करना चाहिए |
यज्ञोपवीत के तीन तार होते हैं उनमें एक तार संतान को पितृ ऋण का स्मरण रखने और उसको उतारने हेतु संकल्पबद्ध होने की याद दिलाता है |
माता पिता के उपकारों का वर्णन विश्व का कोई पुत्र पुत्री वाणी के द्वारा नहीं कर सकता | महाभारत में यक्ष और युधिष्ठिर का बड़ा ही प्रेरक संवाद है | एक प्रश्न में यक्ष ने पूछा था |
प्रश्न --- किं स्विद गुरुतरं भूमेह् ?
धर्मराज ने उत्तर दिया
उत्तर --- माता गुरुतरा भूमेह् |
माता का गौरव पृथ्वी से अधिक है| माता के उपकारों का भार इतना अधिक होता है कि पृथ्वी का वजन भी न्यून प्रतीत होता है|
यक्ष ने पुनः अगला प्रश्न पूछा "किं स्विदुच्चतरम च खात ?"
धर्मराज युधिष्ठिर ने उत्तर दिया "खात पितोच्चतरस्तथा"
प्रश्न --- आकाश से भी ऊंचा क्या है?
उत्तर --- पिता आकाश से भी ऊंचा होता है|
माता पिता अपने संतानों के लिए चंदन कि तरह अपने शरीर को जीर्ण कर देते हैं| और उनका जीवन सुखमय बनाने हेतु पूरा जीवन लगा देते हैं|
मनु महाराज ने कहा है,
"यं मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम |
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुवर्ष शतैरपि || मनु २/२२७ "
अर्थ --- संतानोत्पत्ति और उनके पालन-पोषण में माता पिता जो कष्ट व दुःख सहते हैं उसका बदला सैकड़ों वर्षों कि सेवा से भी नहीं चुकाया जा सकता|
आचार्य आध्यात्मिक व भौतिक विद्याओंका ज्ञान-दान करनेवाले विद्वान व गुरु भी देवता हैं| शतपथ ब्रह्मण में आया है - 'विद्वांसो हि देवा' | राष्ट्र के तीन शत्रु कहे गए हैं १) "अज्ञान", २) "अभाव", ३) अन्याय | इनमें अज्ञान हि मूलतः दो अभाव और अन्याय का जनक है| आज समाज कि व देश कि अनेक समस्याएं आध्यात्मिक सत्य ज्ञान के अभाव के कारण हि है|
अतिथि
अतिथि भी चेतन देवता है| जो विद्वान धार्मिक, सत्योपदेशक, मानव मात्र के कल्याणआर्थ भ्रमण करते हुए अचानक गृहस्थ के दरवाजे पर उपस्थित हो जाते हैं| उन्हें 'अतिथि' कहते हैं| ऐसे सन्यासी, उपदेशक, महात्मा की सेवा शुश्रुषा कर अन्नादि से तृप्त करना अतिथि यज्ञ कहाता है| अथर्ववेद के कां १५ सू १०-१४, ९ के ६ सूक्त में अतिथि यज्ञ की महिमा का उत्तम वर्णन है|
स्वर्गलोकं गमयन्ति यदतिथयः| अथर्व सूक्ति ९/६/२३
अर्थ --- अतिथि मनुष्य को स्वर्गलोक में ले जाते हैं|
जड़ देवता
जड़ देवता --- वेद मन्त्रों का विषय भी देवता कहाता है| उसपर विचार नहीं होगा| अतः अन्य देवताओं पर विस्तार से मनन करें जो इस विषय का मुख्य प्रयोजन है|
वर्तमान समय में भारत में दो प्रकार के देवतओं का पूजन प्रचलित है, १) मनुष्य कृत २) ईश्वर कृत|
मनुष्य कृत देवता --- जिन देवताओं को बनाने में मनुष्य का हाथ किसी न किसी रूप में लगा हो वे सभी देवता मनुष्य के बनाए हुए माने जाने चाहिए|
इश्वर कृत देवता --- इन देवताओं की रचना ईश्वर ने संसार के प्रारंभ में सृष्टि की उत्पत्ति के समय की थी, उनसे सारे दृश्य-अदृश्य, जड़-चेतन जगत का कार्य संचालन व पालन हो रहा है| इन देवताओं में जोजो गुण प्रभु ने निश्चित किये हैं उनका धारण परमात्मा इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र ओत-प्रोत, व्यापक होकर स्वयं कर रहा है, अतः यह सब देव ईश्वरीय नियमानुसार सृष्टि के आदि से प्रलय पर्यंत विश्व के कल्याणार्थ अपने गुणों का प्रकाश करते हैं| जीव के निवास इस मानव शरीर एवं सूक्ष्म जीव-जन्तुओं से लेकर हाथी पर्यंत के शरीर के व्यापार भी इश्वर की कर्मफल व्यवस्था के अनुसार यह जड़ देवता ही इश्वर आज्ञा से करते हैं|
देवता पहचानने की कसौटी
वर्तमान समय में उपलभ्द निरुक्त में महर्षि यास्क ने लिखा है ---
देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीतिवा |
निरुक्त अ. ७/खंड १५ एवं ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका
सच्चे देवता कितने हैं ?
शतपथ ब्राह्मण कार याज्ञवल्क्य ऋषी ने लिखा है --
त्र्यरिअन्शत्वेव देवा इति | शतपथ कांड १४/अ .६गया
ये देवता तैंतीस हैं प्रायः जन मानस में देवता कितने हैं ? इस पार चर्चा के समय तैंतीस कोटी देवता हैं ऐसीबात प्रचलित हैं | जिससे ऐसा प्रतीत होता हैं कि देवता तैंतीस करोड हैं ,किंतु कोटी शब्द के दो अर्थ स्पष्ठ हैं | (१)करोड (२)प्रकार ,श्रेणी | वस्तुतः देवता तैंतीस प्रकार के हैं |व्यवहार में ये ही देवता माने गये हैं | लेखक का नम्र निवेदन है कि पुर्वाग्रह से मुक्त होकार अगर सर्वहितकारी प्राचीन महान वैज्ञानिकॉ के विचारो पर मनन कर सत्य कॉ हृदयंगम करे तो संसार का कल्याण हो जाय |
तैंतीस देवता कौनसे है ?
अष्टौ वसवः,एकादश रुद्राः, द्वादशादित्यास्तएक त्रिंश द्विद्र श्चैव
प्रजापति श्च भय रिन्न शाविति | शतपथ ब्रा.,ऋ.भा. भू .
ईश्वर रचित तैंतीस जड देवता हैं | आठ वसु , ग्यारह रुद्र , बारह आदित्य , एक इंद्र एवं एक प्रजापति (यज्ञ ) | कुल तेंतीस देवता हैं |
इन तैंतीस देव ता ओं का वेद में पुनः वर्ण न देखें--
यस्य त्रय रिअंश द्देवा ओ सर्वे समाहिताः |
स्क म्भं तं ब्रूहि कतेमः स्वि देवः सः || अथर्व वेद .कां १० सु .७ मंत्र १३ .
अर्थ --सब तैंतीस देव जिसके शरीर में स्थिर हुये हैं उस सर्वधर के विषय में बातावो कि वह कौन हैं ?
ईश्वर
अब ईश्वर विषय पर कुछ चिंतन करेंगे | पाठक गण ! 'ईश्वर ' पर सब कुछ अर्थात पूर्ण रूप से लिखना अल्पज्ञ और अल्प शक्तिमान जीवात्मा की शक्ति से परे है |
एक संस्कृत के कवी ने लिखा है ----
असित गिरी समं स्यात कज्जलं सिन्धु पात्रे |
सुरतरुवर शाखा लेखनी पत्र मूर्वी |
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ||
अर्थ --यदि समुद्र की दवात बने ,कृष्ण पर्वत की स्याही बना कर उस दावत मै डाली जाय ,कल्प तरु की शाखा की लेखनी बने ,समस्त पृथ्वी कागज के रूप में प्रयुक्त हो और साक्षात् सरस्वती अनंत कल तक लिखती चली जाय तब भी हे ईश्वर ! तुम्हारे गुणों का पर नहीं पाया जा सकता | फिर भी विषय प्रवाह बनाये रखने हेतु श्रेष्ठ व् उत्तम साहित्य के रहते भी कुछ चिंतन प्रस्तुत करते है |
वेद का प्रत्येक मंत्र ईश्वर का वर्णन कर रहा है | वेद का मुख्य विषय ,ईश्वर , ही है | मनुष्य जाति जब से वेद से अलग हुई है तब से द्रश्य को मानाने और अद्रश्य को न मानाने की आदी हो गयी है | इस बीच अनेक विद्वानों ने समय -समय पर मानव की सुसुप्त चेतना को जागृत करने का प्रयत्न किया है किन्तु सत्य के आग्रह पर अटल रहने के कारण उन्हें समाज में निंदा ,उपहास ,दुर्व्यहार ,अत्याचार सहना पड़ा ,अनेकों कष्ट झेलने पड़े , दूषित आरोप सहने पड़े | किन्तु यह भी नितांत सत्य है की देर सबेर संसार को अनेक सत्य कथन का और महानता का कायल होना पड़ा है | परात्मा का स्वरुप आर्य समाज के दूसरे नियम में स्पष्ट व् सुन्दर वर्णित किया है | कहा है -
ईश्वर सच्चिदानंद स्वरुप ,निराकार , सर्व शक्तिमान , न्यायकारी ., दयालू .अजन्मा ,अनंत ,निर्विकार , अनादि , अनुपम , सर्वाधार ,सर्वेश्वर सर्व व्यापक , सर्वान्तर्यामी , अजर, अमर, अभय .नित्य ,पवित्र और सृष्टि करता है | उसी की उपासना करनी योग्य है |
किन्तु स्वाध्याय ,सत्संग और मनन के आभाव में किसी साधारण मनुष्य द्वारा छल कपट का सहारा लेकर दिकाए गए चमत्कारों से आज बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी धोखा खा जातें हैं | यह देख आश्चर्य भी होता है तो तरस भी आता है | क्यों की वे ईश्वरों को ऑंखें खोल कर देखना नहीं चाहते | एक श्रेष्ठ कवि ने प्रभु के चमत्कारों का वर्णन अत्यंत ह्रदय ग्राही शब्दों में किया है | लिखते हैं ----
रच दिए रंग बिरंगे फूल और बादल, रंग की रैणी कहीं नही |
सूरज से चमकते लोक रचे ,एसी चमक निराली कहीं नहीं |
नर तन सा चोला सीम दिया ,सुई धागा हाथ में कहीं नहीं |
पत्ते-पत्ते की कतरन न्यारी, तेरे हाथ कतरनी कहीं नहीं |
बरसे तो भर दे जल जंगल , आकाश में सागर कहीं नहीं |
दे भोजन कीड़ी - कुंजर को , तेरे चढ़े भंडारे कहीं नहीं |
तू न्याय करे है ठीक-ठीक , तेरी लगी कचहरी कहीं नहीं |
कर्मों का फल दे यथा योग्य , रू और रियासत कहीं नहीं |
अखंड ज्योति अपार लीला, किनहूँ ना पायो तेरो पार रे --
धन्य -धन्य रे तेरी कारीगरी रे करतार ||
संसार में ईश्वर रचित हर वस्तु परमात्मा के अस्तित्व की साक्षी दे रही है | परन्तु भोतिक आँखों से वह कैसे दिखाई देगी |
एक पवित्र ऋचा में कैसे सुन्दर भाव हैं -----
अयम स्मि जरितः पश्य मेह विश्वा जतान्य भ्य स्मि मन्हा |
ऋतस्य माँ प्रदिशो वर्ध यन्त्या दर्दिरो भुवना दर्दरीभि || ऋग्वेद ८/१००/४
ईश्वर कहता है -- जस्तिः :- हे स्तुति करने वाले भक्त क्यों संदेह करता है |में तो यह रहा | तेरे ही पास | पश्य मा इह -- मुझे तू अपने अति निकट ही देख ले |
विश्वा जातानि अभि अस्मि मन्हा -- अपनी महानता के बल से में संसार पर नियंत्रण रखता हूं |
ऋतस्य प्रतिशः -- ऋत आर्थात त्रिकाल बाधित सृष्टि नियम के जानने वाले विद्वान लोग |
मा वर्धयन्ति -- मुझे बढ़ाते हैं आर्थात हियर यश का , गुणों का , महानता का प्रचार करते हैं |
आदर्दिर :- संहार करने की शक्ति रखने वाला |
भुवना दर्दरी भि - -सब भुवनों का आर्थात सब जगत का संहार भी करता हूँ |
प्रभु दर्शन हेतु ज्ञान - चक्षु की आवश्यकता होती है | इसीलिए शायर कहता है ---
रोशन हैं मेरे जलवे ,हर एक शै में लेकिन |
है कोर चश्म तेरी क्या है कसूर मेरा ||
किसी वस्तु के अस्तित्व में होने पर भी उसके दिखाई न देने के आठ वेदोक्त कारन विद्वानों ने बताये हें |
(१) किसी वस्तु का अति दूर होना , जेसे आकाश में अति दूर उडाता उपग्रह या रोकेट |एन तो जल अद्रश्य
(२) अति समीप होना , यथा ,आँखों में काजल अपने आपको दिखाई नहीं देता |
(३) आवरण युक्त होना ,जैसे ,भूमि के अन्दर जल स्रोत ,खनिज पदार्थ |
(४) इन्द्रयाँ दुर्बल होना (द्रष्टि शक्ति अति न्यून हो तो वस्तु दिखाई नहीं देती )
(५) मन का एकाग्र न होना --मन और आंख का संयोग न होना |
(६) अपने से तीव्र वस्तु से अभिभूत होना--अति तीव्र प्रकाश या अति अन्धकार से प्रभावित होना |
(७) सामान आकर की वस्तुएं मिल जाना ---जैसे वायु में ,दूध में जल मिला दें तो जल अद्रश्य हो जायेगा |
(८) अति सूक्ष्म होना
उपरोक्त आठ बिन्दुओं पर गह राइ से चिंतन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि संसार में अनेक पदार्थ ऐसे हें जिनका अस्तित्व है किन्तु नेत्रों से हम उन्हें देख नहीं सकते | क्या परिवार भूख या प्यास लगाने पर माता या पत्नी के समक्ष भूख ,प्यास को बाहर निकल कार दिखा सकते हें | इसी प्रकार मरीज अपने दर्द को डॉक्टर या वैद्य को नहीं दिखा सकता |
आइये देखें वह इश्वर कैसा है -----
ईशा वास्यमि दं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत | हे मनुष्यों | ये सब चराचर ,स्थावर - जंगम , द्रश्य - अद्रश्य पदार्थ ब्रह्माण्ड में हँ | वह सब इश्वर से ओत - प्रोत हें |
अणो रणी यान्महतो महीयानू -- कठोपनिषद बली - २
वह परमात्मा सूक्ष्म से सूक्ष्म और महँ से महँ है |
स हि सर्व वित् सर्व कर्ता -- संख्य दर्शन ३/५६
वह परात्मा सर्वा न्तार्यामी और सब जगत का कर्ता है |
तदेजति तन्ने जति तददूरिके तद्वन्ति के |
तदन्त रस्य सर्व स्य तदू सर्व स्यास्य बाह्यतः || यजुर्वेद अ. ४०
वह परात्मा सरे संसार को गति देता है किन्तु स्वयं गति शून्य है ,अचल है | वह दूर भी है और समीप भी है | वही सरे संसार में अणु - परमाणु के अन्दर भी है
और बहार भी है |
आसीनो दूरं ब्रजति शयानो याति सर्वतः |
कस्टम मदा मदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हती | | कठोपनिषद / वल्ली -२
भावार्थ -- वह इश्वर सर्व व्यापक होने से अचल होने पर भी दूर से दूर देश में पह ले से मोजूद है | निश्चल रहते हुए भी एक ही समय में सर्वत्र जाता है |
उस आनंद घन परमात्मा को मुझ से भिन्न कौन जानने में समर्थ है |
अशरीर शरीरेन वस्थे ष्व स्थितमू |
महान्तं विभु मात्मा नमू मत्वा धीरो न शोचति | | कठोपनिषद / वल्ली --२
वह इश्वर सब शरीरों में बिना शारीर के मोजूद है और चलायमान चीजों में स्थिर है | ऐसे महान सर्व व्यापक परमात्मा को जानकर धीर जन शोक रहित हो जाते है |
भयातू अग्निस्त पति भयात्त पति सूर्यः |
भयदिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचम | | कठोपनिषद / वल्ली ६/३
अर्थ :- उसी परमेश्वर के भय से अग्नि जलती है | उसी के कठोर नियम से सूर्य तपता है | उसी के भय से मेघ बरसते है ,और मृत्यु दौड़ - दौड़ कर नियत कार्य करती है |
परमात्मा के इसी स्वरुप का वर्णन श्री गोस्वामी तुलसी दस ने भी निम्न शब्दों में किया है --
बिनु पग चलहिं ,सुने बिनु काना |
बिन कर कर्म करे विधि नाना | |
आनादामृतमय परमात्मा के सामीप्य का अनुभव , और सर्वशक्तिमान ,व्,कर्म फल दाता होने का अहसास ही मनुष्य को अनेक अधर्मों से , पापों से बचाता है | इसी भाव को शायद पं हरिचंद अख्तर ने लिखा है --
जो ठोकर ही नहीं खाते ,वो सब कुछ हैं मगर वाअज |
वो जिनको दस्ते रहमत खुद सम्हाले और होते हैं | |
वाणी उस परमब्रह्म का स्वरुप वर्णन करने में असमर्थ है | तभी उपनिषद कर ऋषि नेति-नेति कह कर अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं |
बे हिजाबी यह की हर सूरत में जलवा आशकार
उस पे घूंघट यह की सूरत आज तक नादीदा है |
इश्वर अणु से भी सूक्षम और महान से भी महान है | इसी लिए वह नित्य है ,अमर है , अजर है , अभय है , और निर्अवयव है ,अकाय है |
भगवान
अब तक देवता और इश्वर विषय पर कुछ विचार किया गया | अब हम भगवान विषय पर कुछ विचार करेंगे |
वर्त्तमान स्थिति में भारत के हर प्रान्त में अनेक भगवान पैदा हो चुके हैं | जिधर देखिये उधर भगवान ही भगवान नज़र आते हैं | पुराणों में इस कलयुग की २८ वीं
चतुर्यगी में भगवान ( ईश्वर ) के दशावतार की चर्चा सुनते आये हैं | कहीं - कहीं दस से अधिक भी बताये गए हैं | किन्तु आज भगवानों की बाढ़ सी आयी हुई है |
विधाता ये दुनियां में क्या हो रहा है |
जिसे देखए वह खुदा हो रहा है | |
यथा हम धन वाले को धनवान , विद्या वाले को विद्यावान कहते हैं उसी प्रकार भग वाले को भगवान कहा जाता है | प्रथम भग शब्द पर विचार करें |
भग संस्कृत का शब्द है |
एश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यश स श्रियः |
ज्ञान वैराग्य यो श्चैव श ण णो भग इतिरणा | |
अर्थात -सम्पूर्ण एश्वर्य, धर्म , यश ,श्री ,ज्ञान और वैराग्य इन छः का नाम भग है | इन सब लक्षणों से भी अनंत गुण जिसमें हैं वह इश्वर ( परम भगवान ) है , किन्तु जिन महा मानवों में भग के उपरोक्त गुण पाए जाते हैं ,या वे संसार भर के लिए इन गुणों के चरम उत्कर्ष को अपने जीवन में धारण करते हुए आदर्श प्रस्तुत करते हैं उन्हें भी हम भगवान कह के संबोधित करते हैं | उपरोक्त गुणों से युक्त हो कर मानव जाति को अज्ञान, अत्याचार, भय ,शोषण से मुक्ति दिलाने वालों को भी भगवान माना गया है | जैसे भगवान राम , भगवान कृष्ण |
क्रमशः "देवता ईश्वर भगवान्" पुस्तक, लेखक श्री कान्तिलाल 'अग्निमित्र' आर्यापुरोहित से (संक्षिप्त में)
जिस कर्मकांडी ब्राह्मण वर्ग से सामान्य जन सही विवेचना करते हें उनमें ही इन तीन शब्दों के विषय में घोर अज्ञान पायाजाता है ! वे तीनों को एक ही मानते हें !
इन तीनों शब्दों में से देवता शब्द के विषय सबसे अधिक भ्रम है जो सारे देश में फैला हुआ है ! इस शब्द ,हमारे पूर्वज ऋषियों के द्वारा किये गए वास्तविक अर्थ को हम समझ लें तो इस देश में व्याप्त एक बहुत बड़े भ्रम का निराकरण हो सकेगा व् सत्य देवताओं की पूजा कर हम अपने कल्याण के साथ ही विश्व का भी कल्याण कर सकेंगे !
वैदिक धर्मियों पर यह आरोप तीव्रता से लगाया जाता है कि वे देवताओं को नहीं मानते ,अपितु उनकी घोर निंदा अवं विरोध करतें हें !इस दुश प्रचार के कारण सत्य सनातन वैदिक धर्म के पावन सन्देश से जन मानस वंचित हो रहा है |
आइये हम् निम्न् पंक्तियों मे प्रथम देव्ता शब्द पर विचार करें|
शास्त्रकारोंने देवता दो प्रकार के बताए हे:
1) जड, 2) चेतन | पहले हम चेतन देवता पर संक्षेप में विचार करें|
देव परमात्मा को भी कहा है, क्योंकि उसने ही पावन वेद वाणी का दान, ऐवम् सूर्यादि देवताओं की रचना कर जीवात्मा का परम उपकार किया है| अतह् वह देवों का देव 'महादेव' है|
चेतन देवता
चेतन देवता - मातृ देवो भाव, पितृ देवो भाव, आचार्य देवो भाव, अतिथि देवोभाव .......... तैंत्तिरीयोपनिषद्
माता, पिता, साक्षात देवता हैं| जिस गृह में माता-पिता और वृद्ध अपने पुत्र व पुत्रवधुओं से उनकी सेवा से प्रसन्न रहते हैं वहां सौभाग्य की वृद्धि होती है|
ऐसे घर में प्रतिदिन संध्या एवं हवन भी होता हो तो वह घर मंदिर से कम नहीं | इसी को स्वधा कहते हैं |
सर्व तीर्थमयी माता सर्व देवमयः पिता |
मातरं पितरं तस्मात् सर्वलयेंन पूजयेत ||
अर्थ -माता सर्वतीर्थमयी है और पिता सर्व देवताओं का स्वरुप है इसलिए सब प्रकार से माता पिता की सेवा सत्कार करना चाहिए |
यज्ञोपवीत के तीन तार होते हैं उनमें एक तार संतान को पितृ ऋण का स्मरण रखने और उसको उतारने हेतु संकल्पबद्ध होने की याद दिलाता है |
माता पिता के उपकारों का वर्णन विश्व का कोई पुत्र पुत्री वाणी के द्वारा नहीं कर सकता | महाभारत में यक्ष और युधिष्ठिर का बड़ा ही प्रेरक संवाद है | एक प्रश्न में यक्ष ने पूछा था |
प्रश्न --- किं स्विद गुरुतरं भूमेह् ?
धर्मराज ने उत्तर दिया
उत्तर --- माता गुरुतरा भूमेह् |
माता का गौरव पृथ्वी से अधिक है| माता के उपकारों का भार इतना अधिक होता है कि पृथ्वी का वजन भी न्यून प्रतीत होता है|
यक्ष ने पुनः अगला प्रश्न पूछा "किं स्विदुच्चतरम च खात ?"
धर्मराज युधिष्ठिर ने उत्तर दिया "खात पितोच्चतरस्तथा"
प्रश्न --- आकाश से भी ऊंचा क्या है?
उत्तर --- पिता आकाश से भी ऊंचा होता है|
माता पिता अपने संतानों के लिए चंदन कि तरह अपने शरीर को जीर्ण कर देते हैं| और उनका जीवन सुखमय बनाने हेतु पूरा जीवन लगा देते हैं|
मनु महाराज ने कहा है,
"यं मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम |
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुवर्ष शतैरपि || मनु २/२२७ "
अर्थ --- संतानोत्पत्ति और उनके पालन-पोषण में माता पिता जो कष्ट व दुःख सहते हैं उसका बदला सैकड़ों वर्षों कि सेवा से भी नहीं चुकाया जा सकता|
आचार्य आध्यात्मिक व भौतिक विद्याओंका ज्ञान-दान करनेवाले विद्वान व गुरु भी देवता हैं| शतपथ ब्रह्मण में आया है - 'विद्वांसो हि देवा' | राष्ट्र के तीन शत्रु कहे गए हैं १) "अज्ञान", २) "अभाव", ३) अन्याय | इनमें अज्ञान हि मूलतः दो अभाव और अन्याय का जनक है| आज समाज कि व देश कि अनेक समस्याएं आध्यात्मिक सत्य ज्ञान के अभाव के कारण हि है|
अतिथि
अतिथि भी चेतन देवता है| जो विद्वान धार्मिक, सत्योपदेशक, मानव मात्र के कल्याणआर्थ भ्रमण करते हुए अचानक गृहस्थ के दरवाजे पर उपस्थित हो जाते हैं| उन्हें 'अतिथि' कहते हैं| ऐसे सन्यासी, उपदेशक, महात्मा की सेवा शुश्रुषा कर अन्नादि से तृप्त करना अतिथि यज्ञ कहाता है| अथर्ववेद के कां १५ सू १०-१४, ९ के ६ सूक्त में अतिथि यज्ञ की महिमा का उत्तम वर्णन है|
स्वर्गलोकं गमयन्ति यदतिथयः| अथर्व सूक्ति ९/६/२३
अर्थ --- अतिथि मनुष्य को स्वर्गलोक में ले जाते हैं|
जड़ देवता
जड़ देवता --- वेद मन्त्रों का विषय भी देवता कहाता है| उसपर विचार नहीं होगा| अतः अन्य देवताओं पर विस्तार से मनन करें जो इस विषय का मुख्य प्रयोजन है|
वर्तमान समय में भारत में दो प्रकार के देवतओं का पूजन प्रचलित है, १) मनुष्य कृत २) ईश्वर कृत|
मनुष्य कृत देवता --- जिन देवताओं को बनाने में मनुष्य का हाथ किसी न किसी रूप में लगा हो वे सभी देवता मनुष्य के बनाए हुए माने जाने चाहिए|
इश्वर कृत देवता --- इन देवताओं की रचना ईश्वर ने संसार के प्रारंभ में सृष्टि की उत्पत्ति के समय की थी, उनसे सारे दृश्य-अदृश्य, जड़-चेतन जगत का कार्य संचालन व पालन हो रहा है| इन देवताओं में जोजो गुण प्रभु ने निश्चित किये हैं उनका धारण परमात्मा इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र ओत-प्रोत, व्यापक होकर स्वयं कर रहा है, अतः यह सब देव ईश्वरीय नियमानुसार सृष्टि के आदि से प्रलय पर्यंत विश्व के कल्याणार्थ अपने गुणों का प्रकाश करते हैं| जीव के निवास इस मानव शरीर एवं सूक्ष्म जीव-जन्तुओं से लेकर हाथी पर्यंत के शरीर के व्यापार भी इश्वर की कर्मफल व्यवस्था के अनुसार यह जड़ देवता ही इश्वर आज्ञा से करते हैं|
देवता पहचानने की कसौटी
वर्तमान समय में उपलभ्द निरुक्त में महर्षि यास्क ने लिखा है ---
देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीतिवा |
निरुक्त अ. ७/खंड १५ एवं ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका
सच्चे देवता कितने हैं ?
शतपथ ब्राह्मण कार याज्ञवल्क्य ऋषी ने लिखा है --
त्र्यरिअन्शत्वेव देवा इति | शतपथ कांड १४/अ .६गया
ये देवता तैंतीस हैं प्रायः जन मानस में देवता कितने हैं ? इस पार चर्चा के समय तैंतीस कोटी देवता हैं ऐसीबात प्रचलित हैं | जिससे ऐसा प्रतीत होता हैं कि देवता तैंतीस करोड हैं ,किंतु कोटी शब्द के दो अर्थ स्पष्ठ हैं | (१)करोड (२)प्रकार ,श्रेणी | वस्तुतः देवता तैंतीस प्रकार के हैं |व्यवहार में ये ही देवता माने गये हैं | लेखक का नम्र निवेदन है कि पुर्वाग्रह से मुक्त होकार अगर सर्वहितकारी प्राचीन महान वैज्ञानिकॉ के विचारो पर मनन कर सत्य कॉ हृदयंगम करे तो संसार का कल्याण हो जाय |
तैंतीस देवता कौनसे है ?
अष्टौ वसवः,एकादश रुद्राः, द्वादशादित्यास्तएक त्रिंश द्विद्र श्चैव
प्रजापति श्च भय रिन्न शाविति | शतपथ ब्रा.,ऋ.भा. भू .
ईश्वर रचित तैंतीस जड देवता हैं | आठ वसु , ग्यारह रुद्र , बारह आदित्य , एक इंद्र एवं एक प्रजापति (यज्ञ ) | कुल तेंतीस देवता हैं |
इन तैंतीस देव ता ओं का वेद में पुनः वर्ण न देखें--
यस्य त्रय रिअंश द्देवा ओ सर्वे समाहिताः |
स्क म्भं तं ब्रूहि कतेमः स्वि देवः सः || अथर्व वेद .कां १० सु .७ मंत्र १३ .
अर्थ --सब तैंतीस देव जिसके शरीर में स्थिर हुये हैं उस सर्वधर के विषय में बातावो कि वह कौन हैं ?
ईश्वर
अब ईश्वर विषय पर कुछ चिंतन करेंगे | पाठक गण ! 'ईश्वर ' पर सब कुछ अर्थात पूर्ण रूप से लिखना अल्पज्ञ और अल्प शक्तिमान जीवात्मा की शक्ति से परे है |
एक संस्कृत के कवी ने लिखा है ----
असित गिरी समं स्यात कज्जलं सिन्धु पात्रे |
सुरतरुवर शाखा लेखनी पत्र मूर्वी |
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ||
अर्थ --यदि समुद्र की दवात बने ,कृष्ण पर्वत की स्याही बना कर उस दावत मै डाली जाय ,कल्प तरु की शाखा की लेखनी बने ,समस्त पृथ्वी कागज के रूप में प्रयुक्त हो और साक्षात् सरस्वती अनंत कल तक लिखती चली जाय तब भी हे ईश्वर ! तुम्हारे गुणों का पर नहीं पाया जा सकता | फिर भी विषय प्रवाह बनाये रखने हेतु श्रेष्ठ व् उत्तम साहित्य के रहते भी कुछ चिंतन प्रस्तुत करते है |
वेद का प्रत्येक मंत्र ईश्वर का वर्णन कर रहा है | वेद का मुख्य विषय ,ईश्वर , ही है | मनुष्य जाति जब से वेद से अलग हुई है तब से द्रश्य को मानाने और अद्रश्य को न मानाने की आदी हो गयी है | इस बीच अनेक विद्वानों ने समय -समय पर मानव की सुसुप्त चेतना को जागृत करने का प्रयत्न किया है किन्तु सत्य के आग्रह पर अटल रहने के कारण उन्हें समाज में निंदा ,उपहास ,दुर्व्यहार ,अत्याचार सहना पड़ा ,अनेकों कष्ट झेलने पड़े , दूषित आरोप सहने पड़े | किन्तु यह भी नितांत सत्य है की देर सबेर संसार को अनेक सत्य कथन का और महानता का कायल होना पड़ा है | परात्मा का स्वरुप आर्य समाज के दूसरे नियम में स्पष्ट व् सुन्दर वर्णित किया है | कहा है -
ईश्वर सच्चिदानंद स्वरुप ,निराकार , सर्व शक्तिमान , न्यायकारी ., दयालू .अजन्मा ,अनंत ,निर्विकार , अनादि , अनुपम , सर्वाधार ,सर्वेश्वर सर्व व्यापक , सर्वान्तर्यामी , अजर, अमर, अभय .नित्य ,पवित्र और सृष्टि करता है | उसी की उपासना करनी योग्य है |
किन्तु स्वाध्याय ,सत्संग और मनन के आभाव में किसी साधारण मनुष्य द्वारा छल कपट का सहारा लेकर दिकाए गए चमत्कारों से आज बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी धोखा खा जातें हैं | यह देख आश्चर्य भी होता है तो तरस भी आता है | क्यों की वे ईश्वरों को ऑंखें खोल कर देखना नहीं चाहते | एक श्रेष्ठ कवि ने प्रभु के चमत्कारों का वर्णन अत्यंत ह्रदय ग्राही शब्दों में किया है | लिखते हैं ----
रच दिए रंग बिरंगे फूल और बादल, रंग की रैणी कहीं नही |
सूरज से चमकते लोक रचे ,एसी चमक निराली कहीं नहीं |
नर तन सा चोला सीम दिया ,सुई धागा हाथ में कहीं नहीं |
पत्ते-पत्ते की कतरन न्यारी, तेरे हाथ कतरनी कहीं नहीं |
बरसे तो भर दे जल जंगल , आकाश में सागर कहीं नहीं |
दे भोजन कीड़ी - कुंजर को , तेरे चढ़े भंडारे कहीं नहीं |
तू न्याय करे है ठीक-ठीक , तेरी लगी कचहरी कहीं नहीं |
कर्मों का फल दे यथा योग्य , रू और रियासत कहीं नहीं |
अखंड ज्योति अपार लीला, किनहूँ ना पायो तेरो पार रे --
धन्य -धन्य रे तेरी कारीगरी रे करतार ||
संसार में ईश्वर रचित हर वस्तु परमात्मा के अस्तित्व की साक्षी दे रही है | परन्तु भोतिक आँखों से वह कैसे दिखाई देगी |
एक पवित्र ऋचा में कैसे सुन्दर भाव हैं -----
अयम स्मि जरितः पश्य मेह विश्वा जतान्य भ्य स्मि मन्हा |
ऋतस्य माँ प्रदिशो वर्ध यन्त्या दर्दिरो भुवना दर्दरीभि || ऋग्वेद ८/१००/४
ईश्वर कहता है -- जस्तिः :- हे स्तुति करने वाले भक्त क्यों संदेह करता है |में तो यह रहा | तेरे ही पास | पश्य मा इह -- मुझे तू अपने अति निकट ही देख ले |
विश्वा जातानि अभि अस्मि मन्हा -- अपनी महानता के बल से में संसार पर नियंत्रण रखता हूं |
ऋतस्य प्रतिशः -- ऋत आर्थात त्रिकाल बाधित सृष्टि नियम के जानने वाले विद्वान लोग |
मा वर्धयन्ति -- मुझे बढ़ाते हैं आर्थात हियर यश का , गुणों का , महानता का प्रचार करते हैं |
आदर्दिर :- संहार करने की शक्ति रखने वाला |
भुवना दर्दरी भि - -सब भुवनों का आर्थात सब जगत का संहार भी करता हूँ |
प्रभु दर्शन हेतु ज्ञान - चक्षु की आवश्यकता होती है | इसीलिए शायर कहता है ---
रोशन हैं मेरे जलवे ,हर एक शै में लेकिन |
है कोर चश्म तेरी क्या है कसूर मेरा ||
किसी वस्तु के अस्तित्व में होने पर भी उसके दिखाई न देने के आठ वेदोक्त कारन विद्वानों ने बताये हें |
(१) किसी वस्तु का अति दूर होना , जेसे आकाश में अति दूर उडाता उपग्रह या रोकेट |एन तो जल अद्रश्य
(२) अति समीप होना , यथा ,आँखों में काजल अपने आपको दिखाई नहीं देता |
(३) आवरण युक्त होना ,जैसे ,भूमि के अन्दर जल स्रोत ,खनिज पदार्थ |
(४) इन्द्रयाँ दुर्बल होना (द्रष्टि शक्ति अति न्यून हो तो वस्तु दिखाई नहीं देती )
(५) मन का एकाग्र न होना --मन और आंख का संयोग न होना |
(६) अपने से तीव्र वस्तु से अभिभूत होना--अति तीव्र प्रकाश या अति अन्धकार से प्रभावित होना |
(७) सामान आकर की वस्तुएं मिल जाना ---जैसे वायु में ,दूध में जल मिला दें तो जल अद्रश्य हो जायेगा |
(८) अति सूक्ष्म होना
उपरोक्त आठ बिन्दुओं पर गह राइ से चिंतन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि संसार में अनेक पदार्थ ऐसे हें जिनका अस्तित्व है किन्तु नेत्रों से हम उन्हें देख नहीं सकते | क्या परिवार भूख या प्यास लगाने पर माता या पत्नी के समक्ष भूख ,प्यास को बाहर निकल कार दिखा सकते हें | इसी प्रकार मरीज अपने दर्द को डॉक्टर या वैद्य को नहीं दिखा सकता |
आइये देखें वह इश्वर कैसा है -----
ईशा वास्यमि दं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत | हे मनुष्यों | ये सब चराचर ,स्थावर - जंगम , द्रश्य - अद्रश्य पदार्थ ब्रह्माण्ड में हँ | वह सब इश्वर से ओत - प्रोत हें |
अणो रणी यान्महतो महीयानू -- कठोपनिषद बली - २
वह परमात्मा सूक्ष्म से सूक्ष्म और महँ से महँ है |
स हि सर्व वित् सर्व कर्ता -- संख्य दर्शन ३/५६
वह परात्मा सर्वा न्तार्यामी और सब जगत का कर्ता है |
तदेजति तन्ने जति तददूरिके तद्वन्ति के |
तदन्त रस्य सर्व स्य तदू सर्व स्यास्य बाह्यतः || यजुर्वेद अ. ४०
वह परात्मा सरे संसार को गति देता है किन्तु स्वयं गति शून्य है ,अचल है | वह दूर भी है और समीप भी है | वही सरे संसार में अणु - परमाणु के अन्दर भी है
और बहार भी है |
आसीनो दूरं ब्रजति शयानो याति सर्वतः |
कस्टम मदा मदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हती | | कठोपनिषद / वल्ली -२
भावार्थ -- वह इश्वर सर्व व्यापक होने से अचल होने पर भी दूर से दूर देश में पह ले से मोजूद है | निश्चल रहते हुए भी एक ही समय में सर्वत्र जाता है |
उस आनंद घन परमात्मा को मुझ से भिन्न कौन जानने में समर्थ है |
अशरीर शरीरेन वस्थे ष्व स्थितमू |
महान्तं विभु मात्मा नमू मत्वा धीरो न शोचति | | कठोपनिषद / वल्ली --२
वह इश्वर सब शरीरों में बिना शारीर के मोजूद है और चलायमान चीजों में स्थिर है | ऐसे महान सर्व व्यापक परमात्मा को जानकर धीर जन शोक रहित हो जाते है |
भयातू अग्निस्त पति भयात्त पति सूर्यः |
भयदिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचम | | कठोपनिषद / वल्ली ६/३
अर्थ :- उसी परमेश्वर के भय से अग्नि जलती है | उसी के कठोर नियम से सूर्य तपता है | उसी के भय से मेघ बरसते है ,और मृत्यु दौड़ - दौड़ कर नियत कार्य करती है |
परमात्मा के इसी स्वरुप का वर्णन श्री गोस्वामी तुलसी दस ने भी निम्न शब्दों में किया है --
बिनु पग चलहिं ,सुने बिनु काना |
बिन कर कर्म करे विधि नाना | |
आनादामृतमय परमात्मा के सामीप्य का अनुभव , और सर्वशक्तिमान ,व्,कर्म फल दाता होने का अहसास ही मनुष्य को अनेक अधर्मों से , पापों से बचाता है | इसी भाव को शायद पं हरिचंद अख्तर ने लिखा है --
जो ठोकर ही नहीं खाते ,वो सब कुछ हैं मगर वाअज |
वो जिनको दस्ते रहमत खुद सम्हाले और होते हैं | |
वाणी उस परमब्रह्म का स्वरुप वर्णन करने में असमर्थ है | तभी उपनिषद कर ऋषि नेति-नेति कह कर अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं |
बे हिजाबी यह की हर सूरत में जलवा आशकार
उस पे घूंघट यह की सूरत आज तक नादीदा है |
इश्वर अणु से भी सूक्षम और महान से भी महान है | इसी लिए वह नित्य है ,अमर है , अजर है , अभय है , और निर्अवयव है ,अकाय है |
भगवान
अब तक देवता और इश्वर विषय पर कुछ विचार किया गया | अब हम भगवान विषय पर कुछ विचार करेंगे |
वर्त्तमान स्थिति में भारत के हर प्रान्त में अनेक भगवान पैदा हो चुके हैं | जिधर देखिये उधर भगवान ही भगवान नज़र आते हैं | पुराणों में इस कलयुग की २८ वीं
चतुर्यगी में भगवान ( ईश्वर ) के दशावतार की चर्चा सुनते आये हैं | कहीं - कहीं दस से अधिक भी बताये गए हैं | किन्तु आज भगवानों की बाढ़ सी आयी हुई है |
विधाता ये दुनियां में क्या हो रहा है |
जिसे देखए वह खुदा हो रहा है | |
यथा हम धन वाले को धनवान , विद्या वाले को विद्यावान कहते हैं उसी प्रकार भग वाले को भगवान कहा जाता है | प्रथम भग शब्द पर विचार करें |
भग संस्कृत का शब्द है |
एश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यश स श्रियः |
ज्ञान वैराग्य यो श्चैव श ण णो भग इतिरणा | |
अर्थात -सम्पूर्ण एश्वर्य, धर्म , यश ,श्री ,ज्ञान और वैराग्य इन छः का नाम भग है | इन सब लक्षणों से भी अनंत गुण जिसमें हैं वह इश्वर ( परम भगवान ) है , किन्तु जिन महा मानवों में भग के उपरोक्त गुण पाए जाते हैं ,या वे संसार भर के लिए इन गुणों के चरम उत्कर्ष को अपने जीवन में धारण करते हुए आदर्श प्रस्तुत करते हैं उन्हें भी हम भगवान कह के संबोधित करते हैं | उपरोक्त गुणों से युक्त हो कर मानव जाति को अज्ञान, अत्याचार, भय ,शोषण से मुक्ति दिलाने वालों को भी भगवान माना गया है | जैसे भगवान राम , भगवान कृष्ण |
क्रमशः "देवता ईश्वर भगवान्" पुस्तक, लेखक श्री कान्तिलाल 'अग्निमित्र' आर्यापुरोहित से (संक्षिप्त में)
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