शुभ-लाभ का वैदिक और साइंटिफिक लाभ
अपने यहां भारत में ' शुभ-लाभ ' लिखने की परम्परा बहुत पुरानी है। व्यापारी अपनी दुकान और तिजोरी पर शुभ लाभ लिखते हैं। सामान्य गृहस्थ अपने प्रवेश द्वार पर शुभ लाभ लिखते हैं। इसके अलावा तमाम मंगलकार्यों , उत्सवों , पर्वों और त्यौहारों के शुभ अवसर पर भी इसका लेखन किया जाता है। कभी यह सोचा है कि ऐसा क्यों लिखा जाता है या इसे लिखने की परंपरा कैसे शुरू हुई होगी! आमतौर पर ' शुभ-लाभ ' के लेखन को आध्यात्मिक और आर्थिक समृद्धि के प्रतीक के रूप में जाना-पहचाना जाता है , क्योंकि पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक इसे लक्ष्मी यानी धन का शुभ चिन्ह माना जाता है।
व्याकरणकी दृष्टि से शुभ एक विशेषण है और लाभ वस्तुवाचक संज्ञा। इन दोनों के संयोग से बने इस शब्द मंत्र का आशय यह है कि लाभ का प्रतिफल शुभ अर्थात् कल्याणकारी ही होना चाहिए , तभी वह टिकाऊ होगा। लाभ हमारे सभी कार्यों का प्रेरणास्त्रोत है। हर आदमी चाहता है कि अपने श्रम के बदले वह ज्यादा से ज्यादा लाभ हासिल करे। परन्तु ज्यादातर मामलों में व्यक्ति यह भूल जाता है कि उसके लाभ प्राप्त करने की प्रक्रिया में दूसरों के ऊपर इसका क्या असर पड़ रहा होगा। वह प्रतिकूल भी तो हो सकता है। ऐसी ही स्थिति के लिए ' शुभ-लाभ ' का शुभ शब्द , लाभ पर एक लगाम की तरह है। यानी कर्ता के लिए यह एक चेतावनी है। यह चेतावनी शुभ कर्मों के लिए भी है। यानी जो कर्म करें , वह तो शुभ हो ही , उस कर्म से जो लाभ अर्जित करें , वह भी शुभ हो। भारतीय ऋषियों और वैज्ञानिकों ने इसे जीवन का कर्म सिद्धांत माना। इसलिए अपने देश में इस प्रतीक को हर वर्ग के लोग किसी न किसी रूप में अपनाते और धारण करते रहे हैं।
शुभ-लाभ की परम्परा यह स्पष्ट करती है कि लाभ शुभ भी हो सकता है , अशुभ भी। इसलिए हमें अपने और दूसरों के लिए हमेशा वही लाभ स्वीकार करने की आदत डालनी चाहिए , जो शुभ हो। मन , वाणी और कर्म में शुभता बनी रहे , इसकी तरफ हमेशा सजग बने रहने की जरूरत है। यह सजगता हमारे भीतर व्यक्तिवाची सोच या अहंकार के विस्तार को रोकती है। व्यक्तिवाची सोच अमूमन समाज के लिए फायदेमंद नहीं होती।
शुभ-लाभ का चिंतन समाजोन्मुखी है। इसका आशय यह है कि समाज में अच्छाई बढ़े और सबका विकास हो , इस रूप में भी इसे परम्परा में स्वीकार किया गया है। सत्य , न्याय , समता , शुचिता और सुख हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनें , इस बात को अमल में लाने के लिए ही इसे शुभ-लाभ के रूप में व्यक्त किया गया। यह सामान्य प्रतीक नहीं है , बल्कि इसका हमारे जीवन मूल्यों से अत्यंत गहरा संबंध है। दुनिया के हर मत-मजहब , वर्ग , जाति और सम्प्रदाय द्वारा कुछ विशेष प्रतीकों के जरिए शुभ-लाभ लेखन की परम्परा है। उनमें धार्मिक-आध्यात्मिक रूप से कुछ भिन्नता हो सकती है , परन्तु उनमें भी व्यक्ति , परिवार , समाज और विश्व समाज के कल्याण की भावना ही शामिल होती है।
हिन्दू समाज में अनिष्ट यानी अमंगल से बचने और मंगल की कामना के साथ शुभ-लाभ लेखन की परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है। हमारी जिन्दगी का हर कदम , कार्य और मंजिल सफलता में समाप्त हो , इसके लिए (हमारे लिए) शुभ और लाभ दोनों को एक-दूसरे का पूरक होना जरूरी माना गया है। असन्तुलित विकास हमारे व सारे समाज के लिए नुकसानदेह हो सकता है। लेकिन लाभ यानी विकास यदि संतुलित अर्थात् शुभ होगा तो समाज में शुभता यानी खुशहाली बढ़ती जाएगी।
पश्चिम की भौतिकवादी अंधी सोच ने लाभ को शुभ के साथ जोड़ कर देखने की मानवतावादी परम्परा के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी है। शुभ-लाभ की परम्परा जो हमारी जीवन शैली का अभिन्न अंग थी , वह हर स्तर पर कमजोर हो रही है। लाभ और सिर्फ लाभ का पलड़ा भारी होता जा रहा है। हमारे अर्थशास्त्री भी सिर्फ लाभ का तर्क देते हैं। पूरे समाज या समुदाय के लाभ का , कल्याणकारी लाभ का , शुभ लाभ का महत्व भुलाया जा रहा है। आर्थिक लाभ सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। यानी शुभ और लाभ की पूरकता खत्म होती जा रही है। दूसरों की उन्नति में अपनी उन्नति समझने की हमारी प्रवृत्ति लगभग खत्म हो चुकी है। इसीलिए समाज टूट रहा है और बिखर रहा है। उस बिखराव को हम अपने अर्जित लाभ से पाट नहीं सकते। वह क्षति अपूरणीय है। इसीलिए जरूरी है कि हम इस असंतुलन और अविकास को समझें और शुभ-लाभ की संतुलित अवधारणा का ही वरण करें।
व्याकरणकी दृष्टि से शुभ एक विशेषण है और लाभ वस्तुवाचक संज्ञा। इन दोनों के संयोग से बने इस शब्द मंत्र का आशय यह है कि लाभ का प्रतिफल शुभ अर्थात् कल्याणकारी ही होना चाहिए , तभी वह टिकाऊ होगा। लाभ हमारे सभी कार्यों का प्रेरणास्त्रोत है। हर आदमी चाहता है कि अपने श्रम के बदले वह ज्यादा से ज्यादा लाभ हासिल करे। परन्तु ज्यादातर मामलों में व्यक्ति यह भूल जाता है कि उसके लाभ प्राप्त करने की प्रक्रिया में दूसरों के ऊपर इसका क्या असर पड़ रहा होगा। वह प्रतिकूल भी तो हो सकता है। ऐसी ही स्थिति के लिए ' शुभ-लाभ ' का शुभ शब्द , लाभ पर एक लगाम की तरह है। यानी कर्ता के लिए यह एक चेतावनी है। यह चेतावनी शुभ कर्मों के लिए भी है। यानी जो कर्म करें , वह तो शुभ हो ही , उस कर्म से जो लाभ अर्जित करें , वह भी शुभ हो। भारतीय ऋषियों और वैज्ञानिकों ने इसे जीवन का कर्म सिद्धांत माना। इसलिए अपने देश में इस प्रतीक को हर वर्ग के लोग किसी न किसी रूप में अपनाते और धारण करते रहे हैं।
शुभ-लाभ की परम्परा यह स्पष्ट करती है कि लाभ शुभ भी हो सकता है , अशुभ भी। इसलिए हमें अपने और दूसरों के लिए हमेशा वही लाभ स्वीकार करने की आदत डालनी चाहिए , जो शुभ हो। मन , वाणी और कर्म में शुभता बनी रहे , इसकी तरफ हमेशा सजग बने रहने की जरूरत है। यह सजगता हमारे भीतर व्यक्तिवाची सोच या अहंकार के विस्तार को रोकती है। व्यक्तिवाची सोच अमूमन समाज के लिए फायदेमंद नहीं होती।
शुभ-लाभ का चिंतन समाजोन्मुखी है। इसका आशय यह है कि समाज में अच्छाई बढ़े और सबका विकास हो , इस रूप में भी इसे परम्परा में स्वीकार किया गया है। सत्य , न्याय , समता , शुचिता और सुख हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनें , इस बात को अमल में लाने के लिए ही इसे शुभ-लाभ के रूप में व्यक्त किया गया। यह सामान्य प्रतीक नहीं है , बल्कि इसका हमारे जीवन मूल्यों से अत्यंत गहरा संबंध है। दुनिया के हर मत-मजहब , वर्ग , जाति और सम्प्रदाय द्वारा कुछ विशेष प्रतीकों के जरिए शुभ-लाभ लेखन की परम्परा है। उनमें धार्मिक-आध्यात्मिक रूप से कुछ भिन्नता हो सकती है , परन्तु उनमें भी व्यक्ति , परिवार , समाज और विश्व समाज के कल्याण की भावना ही शामिल होती है।
हिन्दू समाज में अनिष्ट यानी अमंगल से बचने और मंगल की कामना के साथ शुभ-लाभ लेखन की परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है। हमारी जिन्दगी का हर कदम , कार्य और मंजिल सफलता में समाप्त हो , इसके लिए (हमारे लिए) शुभ और लाभ दोनों को एक-दूसरे का पूरक होना जरूरी माना गया है। असन्तुलित विकास हमारे व सारे समाज के लिए नुकसानदेह हो सकता है। लेकिन लाभ यानी विकास यदि संतुलित अर्थात् शुभ होगा तो समाज में शुभता यानी खुशहाली बढ़ती जाएगी।
पश्चिम की भौतिकवादी अंधी सोच ने लाभ को शुभ के साथ जोड़ कर देखने की मानवतावादी परम्परा के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी है। शुभ-लाभ की परम्परा जो हमारी जीवन शैली का अभिन्न अंग थी , वह हर स्तर पर कमजोर हो रही है। लाभ और सिर्फ लाभ का पलड़ा भारी होता जा रहा है। हमारे अर्थशास्त्री भी सिर्फ लाभ का तर्क देते हैं। पूरे समाज या समुदाय के लाभ का , कल्याणकारी लाभ का , शुभ लाभ का महत्व भुलाया जा रहा है। आर्थिक लाभ सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। यानी शुभ और लाभ की पूरकता खत्म होती जा रही है। दूसरों की उन्नति में अपनी उन्नति समझने की हमारी प्रवृत्ति लगभग खत्म हो चुकी है। इसीलिए समाज टूट रहा है और बिखर रहा है। उस बिखराव को हम अपने अर्जित लाभ से पाट नहीं सकते। वह क्षति अपूरणीय है। इसीलिए जरूरी है कि हम इस असंतुलन और अविकास को समझें और शुभ-लाभ की संतुलित अवधारणा का ही वरण करें।
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