ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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सोमवार, 27 जून 2011

बन्द पाश्चात्य संस्कृति का प्रहार भारतीय संस्कृति पर


शराब की बोतलों में बन्द पाश्चात्य संस्कृति का प्रहार भारतीय संस्कृति पर(सवाल है नारी जगत की अश्मिता का)- पं विनोद चौबे मित्रों आज कई दिनों से उत्तर प्रदेश में हो रहे स्त्रीयों पर अत्याचार और लड़कीयों द्वारा रेव पार्टीयों में शराब पीना सम्पूर्ण देश की संस्कृति को को हिला कर रख दिया है । आखिरकार भारत की संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति की पड़ती छाप  देश की संस्कृति को कहाँ तक ले जायेगी, क्या नारियों ने  अपना अस्तीत्व खो दिया है अथवा नारियों पर हो रहे जुल्म कहीं वासना पिपासु राक्षसों के द्वारा इन सम्मानित नारी जगत को कामुक, अश्लीलता के माला में पिरोकर अपनी हवस का शिकार तो नहीं बना रहे हैं। ऐसे तमाम प्रश्न मेरे मन में आज सुबह से ही हिलकोरे मार रहे हैं , लेकिन मैं बस इतना ही आप लोगों से कहना चाहूंगा कि --यदि बारिश से बचना हो तो छाता का सहारा लेना ही उचित होगा कुछ नारी दर्शन आपको शास्त्रों के माध्यम से आप तोगों के सामने रखने का प्रयास कर रहा हुं।
भारतवर्ष में सदा से स्त्रियों का समुचित मान रहा है। उन्हें पुरुषों की अपेक्षा अधिक पवित्र माना जाता रहा है। स्त्रियों को बहुधा ‘देवी’ संबोधन से संबोधित किया जाता है। नाम के पीछे उनकी जन्म-जात उपाधि ‘देवी’ प्रायः जुडी रहती है। शांति देवी, गंगादेवी, दया देवी आदि ‘देवी’ शब्द पर कन्याओं के नाम रखे जाते हैं। जैसे पुरुष बी.ए. शास्त्री, साहित्यरत्न आदि उपाधियाँ उत्तीर्ण करने पर अपने नाम के पीछे उस पदवी को लिखते हैं वैसे ही कन्याएँ अपने जन्मजात ईश्वर की प्रदत्त दैवी गुणों, दैवी विचारों, दिव्य विशेषताओं के कारण अलंकृत होती हैं।
देवताओं और महापुरुषों के साथ उनकी अर्धांगिनियों के नाम भी जुड़े हैं सीताराम, राधेश्याम, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश, मायाब्रह्म, सावित्री सत्यवान आदि नामों में नारी का पहला और नर का दूसरा स्थान है। पतिव्रता, दया, करुणा, सेवा, सहानुभूति, स्नेह, वात्सल्य, उदारता, भक्ति-भावना, आदि गुणों में नर की अपेक्षा नारी को सभी विचारवानों ने बढ़ा-चढ़ा माना है।
इसलिए धार्मिक, आध्यात्मिक और ईश्वर-प्राप्ति संबंधी कार्यों में नारी का सर्वत्र स्वागत किया गया है और उसे उनकी महानता के अनुकूल प्रतिष्ठा दी गई है। वेदों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के मंत्रदृष्टा जिस प्रकार अनेक ऋषि हैं वैसे ही अनेक ऋषिकाएँ भी हैं। ईश्वरीय-ज्ञान वेद, महान आत्मा वाले व्यक्तियों पर प्रकट हुआ है और उनने उन मंत्रों को प्रकट किया। इस प्रकार जिन पर वेद प्रकट हुए उन मंत्रों को दृष्टाओं को ‘ऋषि’ कहते हैं। ऋषि केवल पुरुष ही नहीं हुए हैं, ऋषि अनेक नारियाँ भी हुई हैं। ईश्वर ने नारियों के अंतःकरण में उसी प्रकार वेद-ज्ञान प्रकाशित किया जैसे कि पुरुष के अंतःकरण में, क्योंकि प्रभु के लिए दोनों ही संतान समान हैं। महान् दयालु, न्यायकारी और निष्पक्ष प्रभु भला अपनी ही संतान में नर-नारी का पक्षपात करके अनुचित भेद-भाव कैसे कर सकते हैं ?
ऋग्वेद 10।85 के संपूर्ण मंत्रों की ऋषिकाएँ ‘‘सूर्या सावित्री’’ है। ऋषि का अर्थ निरुत्तर में इस प्रकार किया है ‘‘ऋषिदर्शनात् स्तोमान् ददर्शेति ऋषियो मन्त्र दृष्टारः।’’ अर्थात् मंत्रों का दृष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है।
ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची ब्रह्म देवता के 24 अध्याय में इस प्रकार है—
घोषा गोधा विश्ववारा अपालोपनिषन्नित्।
ब्रह्म जाया जहुर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति।।84।।
इन्द्राणी चेन्द्र माता चा सरमा रोमशोर्वशी।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शाश्वती।।85।।
श्रीलछमीः सार्पराज्ञी वाकश्रद्धा मेधाचदक्षिण।
रात्रि सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरितः।।86।।
अर्थात्—घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, जुहू, आदिति, इन्द्राणी, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा, यमी, शाश्वती, सूर्या, सावित्री आदि ब्रह्मवादिनी हैं।
ऋग्वेद के 10-134, 10-39, 19-40, 8-91, 10-5, 10-107, 10-109, 10-154, 10-159, 10-189, 5-28, 9-91 आदि सूक्तों की मंत्र दृष्टा यह ऋषिकाएँ हैं।
ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह यज्ञ करती और कराती थीं। वे यज्ञ-विद्या, ब्रह्म-विद्या में पारंगत थीं। कई नारियाँ तो इस संबंध में अपने पिता तथा पति का मार्ग दर्शन करती थीं।

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