💐 #हम_हिन्दू_बुत_परस्त_नहीं_हैं 💐
श्रीराम! कंकड़ पत्थर फेंककर मारने वाले एक पाषाणखण्डको सभी असभ्य तरीकेसे चाटने वाले मुश्लिम,, जिस किसी धातु या प्लास्टिकसे बने बध्यचिन्हको गलेमें लटकाने तथा जहां तहां उसी के स्टीकर , सीमेंट निर्मित बध्य स्तंभ की आकृति को बैठानेवाले क्रिश्चियन तथा कुछ सनकी बिगड़ैल भारतीय दलबाज भी हमेशा यह कहते रहतेहैं कि हिन्दू बुतपरस्त (मूर्तिपूजक) होतेहैं। अतः ये लोग बड़े मूर्ख और निंदनीय हैं।किंतु वास्तविकता यही है कि ये बेचारे खुद ही दयनीय बुद्धि विकलांग ही है।क्योंकि ये लोग इस रहस्यको नहीं समझते, और मात्सर्य बस संमझ भी नहीं सकते।अथच-
हम मूर्तिपूजक नहीं हैं, वल्कि मूर्तिमें प्रतिष्ठित देव श्रीभगवनकीही पूजा आराधना करतेहैं। जिस प्रकार पिता माता गुरुजनों की की गई सेवा और प्रणामादि उनके शरीर को नहीं बल्कि शरीर के अधिष्ठाता चेतन आत्माको ही होते हैं, शरीर के माध्यमसे शरीरी आत्माकी ही सेवा पूजा होती है, उस प्रकार प्रतिमा (मूर्ति)को माध्यम बनाकर उसमें अंतर्यामी रूपसे प्रतिष्ठित परमात्माकी ही सेवा पूजा होतीहै, प्रतिमाकी नहीं।।
साधारण अवस्थावाले जन मन बुद्धिसे अतीत परमात्मामें अपने मन बुद्धिको नहीं लगा पाते ,अतः ऐसे उपासकों के लिए प्रतिमा के माध्यमसे से समुचित व्यवस्था हो पाती है।गीताजीमें भगवान कहते हैं--
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेता स्ते में युक्ततमो मताः(गीता.१२-२)
अर्थात् जो लोग मेरे साकार स्वरूप(प्रतिमा)में मनको एकाग्र करके एकान्तरति होकर प्रेमके साथ पूजा करतेहैं वे मेरे श्रेष्ठ भक्तहैँ। जो व्यक्ति अव्यक्त (शुद्ध आत्मास्वरूप)की उपासना करता है,वह तभी प्राप्त कर सकताहै, जब कि उसकी सभी इन्द्रियाँ और मन बुद्धि पूर्ण रूपसे वश में हों, अन्यथा नहीं।वश में होने पर भी बड़ी मुश्किल से ही प्राप्ति होतींहै--क्लेशोधिकतरस्तेषाम् अयक्तासक्तचेतसाम्(गी.१२-५)।मेरा शरीर मेरी इन्द्रियाँ, इत्यादि प्रकार से असक्त जीव अव्यक्त स्वरूपको दुःखसे ही प्राप्त कर पाताहै।भगवान् के इन वचनोंसे यह सिद्ध होताहै कि जबतक इन्द्रियाँ पूर्ण वशमें न हो जायें, देहाभिमान नष्टहोकर पूर्ण वैरागयक़ी प्राप्ति न होजाये,तब तक अव्यक्त(निराकार आत्मास्वरूप)की उपासना संभव ही नहींहै।इस असुविधा के कारण ही महर्षियोंने साकार मूर्तिपूजाका सुगम निरापद उपाय बतायाहै।
जैसे किसी को अधिक सूर्य ताप लेना हो तो दो ही उपाय हैं--सूर्यके पास उड़कर चला जाये, अथवा न जसके तो आतिशी सीसा को लेकर सूर्यके सामने रखे ,और जहां पर उसका उत्ताप केंद्रित हो वहां से ही ले ले।इसी प्रकार जिस साधक के मन बुद्धि अत्यंत निर्मल ही हो चुके हों, वे भले सीधे ही अव्यक्त की उवासना करें, किन्तु सामान्य साधक को तो मूर्तिरूपी सीसे में प्रतिफलित परमात्माकी शक्ति को श्रद्धा आदि द्वारा प्रगट करके भगवान् की उपासना करना ही उपयुक्त है।।
#निवेदनम् - विषय की समाप्ति अग्रिम पोस्ट मे
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ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे
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शनिवार, 28 अक्तूबर 2017
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