ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

!!विशेष सूचना!!
नोट: इस ब्लाग में प्रकाशित कोई भी तथ्य, फोटो अथवा आलेख अथवा तोड़-मरोड़ कर कोई भी अंश हमारे बगैर अनुमति के प्रकाशित करना अथवा अपने नाम अथवा बेनामी तौर पर प्रकाशित करना दण्डनीय अपराध है। ऐसा पाये जाने पर कानूनी कार्यवाही करने को हमें बाध्य होना पड़ेगा। यदि कोई समाचार एजेन्सी, पत्र, पत्रिकाएं इस ब्लाग से कोई भी आलेख अपने समाचार पत्र में प्रकाशित करना चाहते हैं तो हमसे सम्पर्क कर अनुमती लेकर ही प्रकाशित करें।-ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे, सम्पादक ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका,-भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.09827198828
!!सदस्यता हेतु !!
.''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के 'वार्षिक' सदस्यता हेतु संपूर्ण पता एवं उपरोक्त खाते में 220 रूपये 'Jyotish ka surya' के खाते में Oriental Bank of Commerce A/c No.14351131000227 जमाकर हमें सूचित करें।

ज्योतिष एवं वास्तु परामर्श हेतु संपर्क 09827198828 (निःशुल्क संपर्क न करें)

आप सभी प्रिय साथियों का स्नेह है..

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

अश्वमेध का पुत्रकामेष्टि का वैदिक व सैद्धांतिक रूप :

अश्वमेध का पुत्रकामेष्टि रूप :

जो अश्वमेध यज्ञ, पुत्र कामेष्टि यज्ञ के सैद्धांतिकता पर सवाल उठाने वाले मूर्खों इस लेख को अवश्य पढ़ें......
रघुवंश द्वितीय सर्ग में दिलीप की सन्तान के लिये पुत्रकामेष्टि यज्ञ का वर्णन है। इत्थं व्रतं धारयतः प्रजार्थं समं महिष्या महनीय कीर्त्तेः।
सप्तव्यतीयुस्त्रिगुणानि तस्य दिनानि दीनोद्धरणोचितस्य॥ (रघुवंश २/२५)
सन्तानकामाय तथेति कामं राज्ञे प्रतिश्रुत्य पयस्विनी सा।
दुग्ध्वा पयः पत्रपुटे मदीयं पुत्रोपभुङ्क्ष्वेति तमादिदेश॥(रघुवंश २/६५)
रघुवंश का पूरा द्वितीय सर्ग पुत्रकामेष्टि यज्ञ का वर्णन है, अतः इसमें वैदिक वर्णन अधिक हैं। पुत्रकामेष्टि यज्ञ को रामायण में अश्वमेध यज्ञ कहा गया है। अश्व शब्द का भौतिक अर्थ घोड़ा है जिसका प्रयोग गाड़ी खींचने में होता है। अतः सभी विश्वों में अश्व वह शक्ति है जिससे कोई वस्तु चलती है। प्राजापत्य काल ब्रह्माण्ड का अक्ष भ्रमण काल है जिसे मन्वन्तर कहा गया है। उसे बनाने वाला प्रजापति अश्व है। सभी क्रियाओं का नियन्त्रक ईश्वर भी अश्व है। सूर्य शक्ति का मूल स्रोत होने से अश्व है। पृथ्वी पर समुद्री हवाओं से जहाज चलते थे, ये वायु से शक्ति की याचना करने के कारण याचक (महाराष्ट्र तथा ओडिशा में नाविकों की उपाधि) कहलाते थे-इनको आज भी अंग्रेजी में याच कहते हैं। ये समुद्री हवायें अश्व हैं, जहा ये शान्त या कम शक्ति की हैं वह भद्राश्व-वर्ष था (कोरिआ, जापान)। इसे अंग्रेजी में (horse latitude) कहते हैं, जिसका वही अर्थ है। राज्य के यातायात तथा संचार व्यवस्था अश्वमेध यज्ञ है। उसकी बाधा राजा ही दूर कर सकता है, अतः यह यज्ञ राजा का दयित्व है। शरीर के भीतर प्राण का संचार अश्व है, उसकी रुकावटों को दूर करना अश्वमेध यज्ञ है। दशरथ को वृद्ध वयस में सन्तान उत्पत्ति करनी थी अतः उनके शरीर का प्राण सञ्चार ठीक करना जरूरी था, अतः उनके लिये अश्वमेध यज्ञ हुआ। यज्ञ गौ है, उसका उत्पाद भूरि-शृङ्ग है, अतः यज्ञकर्त्ता को ऋष्यशृङ्ग कहा गया है। रघुवंश में दिलीप के पुत्रजन्म के लिये अश्वमेध यज्ञ हुआ क्योंकि उनको यक्ष्मा था।
दिलीपस्तु महातेजा यज्ञैर्बहुभिरिष्टवान्। त्रिंशद् वर्षसहस्राणि राजा राज्यमकारयत्॥८॥
अगत्वा निश्चयं राजा तेषामुद्धरणं प्रति। व्याधिना नरशार्दूल कालधर्ममुपेयिवान्॥९॥ (रामायण १/४२)
यहां भगीरथ के पिता का नाम दिलीप है।
दिलीप, रघु, अज, दशरथ यह क्रम ठीक है किन्तु उनके बीच कई राजाओं को इस काव्य में छोड़ दिया गया है। वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड, अध्याय ११० में इनका वर्णन है-
विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवस्वतः स्वयम्। सतु प्रजापतिः पूर्वमिक्ष्वाकुस्तु मनोः सुतः॥६॥
इक्ष्वाकोस्तु सुतः श्रीमान् कुक्षिरित्येव विश्रुतः। कुक्षेरात्मजो वीरो विकुक्षिरुदपद्यत॥८॥
विकुक्षेस्तु महातेजा बाणः पुत्रः प्रतापवान्। बाणस्य च महाबाहुरनरण्यो महातपा॥९॥
अनरण्यान्महाराज पृथू राजा बभूव ह। तस्मात् पृथोर्महातेजास्त्रिशङ्कुरुदपद्यत॥११॥
त्रिशङ्कोरभवत् सूनुर्धुन्धुमारो महायशाः॥१२
धुन्धुमारान्महातेजा युवनाश्वो व्यजायत। युवनाश्वसुतः श्रीमान् मान्धाता समपद्यत॥१३॥
मान्धातुस्तु महातेजाः सुसन्धिरुदपद्यत। सुसन्धेरपि पुत्रौ द्वौ ध्रुवसन्धिः प्रसेनजित्।।१४॥
यशस्वी ध्रुवसन्धेस्तु भरतो रिपुसूदनः। भरतात् तु महाबाहोरसितो नाम जायत॥१५॥
यह असित हैहय तथा यवनों से पराजित होकर वन में चले गये। पुराणों में इनका नाम बाहु है। वन में इनके पुत्र राजा सगर हुये-असमञसस्तु पुत्रोऽभूत् सागरस्येति नः श्रुतम्।।२६॥
अंशुमानस्तु पुत्रोऽभूदसमञ्जस्य वीर्यवान्। दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः॥२७॥
भगीरथात्ककुत्स्थश्च ककुत्स्था येन तु स्मृताः। ककुत्स्थस्य तु पुत्रोऽभूद् रघुर्येन तु राघवाः॥२८॥
रघोस्तु पुत्र तेजस्वी प्रवृद्धः पुरुषादकः। कल्माषपादः सौदास इत्येवं प्रथितो भुवि॥२९॥
कल्माषपादपुत्रोऽभूच्छङ्खणस्त्विति नः श्रुतम्॥३०॥
शङ्खणस्य तु पुत्रोऽभूच्छूरः श्रीमान् सुदर्शनः। सुदर्शनस्याग्निवर्ण अग्निवर्णस्य शीघ्रगः॥३१॥
शीघ्रगस्य मरुः पुत्रो मरोः पुत्रः प्रशुश्रुवः। प्रशुश्रुवस्य पुत्रोऽभूदम्बरीषो महामतिः॥३२।
अम्बरीषस्यपुत्रोऽभून्नहुषः सत्यविक्रमः। नहुषस्य च नाभागः पुत्रः परमधार्मिकः॥३३॥
अजश्च सुव्रतश्चैव नाभागस्य सुतावुभौ। अजस्य चैव धर्मात्मा राजा दशरथः सुतः॥३४॥
तस्य ज्येष्ठोऽसि दायादो राम इत्यभिविश्रुतः॥३५॥
विश्व के सभी निर्माण ३ प्रकार के ७ द्वारा हुये हैं जो मूल वेद अथर्व की प्रथम पङ्क्ति है। इसी का यज्ञ रूप पुरुष-सूक्त में कहा गया है-
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः॥ (अथर्व १/१/१)
विश्व के १३ स्तर हैं, सभी में ३ प्रकार के ७ तत्त्व होंगे। विश्व निर्माण का क्रम है-७ लोक, ८ दिव्य सृष्टि, ६ पार्थिव सृष्टि-अतः ७८६ से कार्य का आरम्भ किया जाता है। इसका शब्द-संकेत बिस्मिल्ला है जिसका अथर्व देश अरब में अधिक प्रयोग होता था। ७-७ लोक आकाश में, पृथ्वी पर तथा शरीर के भीतर ( ७ कोष) हैं। पुरुष सूक्त में पुरुषरूपी पशु को ही बान्ध कर ३ गुणा ७ समिधा द्वारा निर्माण हुआ-
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्तसमिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥(ऋक् १०/९०/१५)
पुत्रकामेष्टि का अश्वमेध रूप में वर्णन-
पुत्रार्थं हय (=अश्व) मेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम॥ तदहं यष्टुमिच्छामि हयमेधेन कर्मणा॥ (रामायण १/१२/९)
इसमें २१ स्तम्भ विभिन्न ३ प्रकार के काष्ठों के बनते हैं (रामायण १/१४/२२-२७)-
एकविंशति यूपास्ते एकविंशत्यरत्नयः। वासोभिरेकविंशद्भिरेकैकं समलंकृताः॥२५॥
यहा रघुवंश में २१ दिनात्मक यज्ञ को ३ गुणा ७ कहा गया है।
वेद तथा कल्पसूत्रों में ४ पत्नियों के कार्य कहे गये हैं जो वस्तुतः एक ही पत्नी के ४ प्रकार कर्म हैं-महिषी, परिवृक्ता, ववाता, पालागली।
होताध्वर्युस्तथोद्गाता हस्तेन समयोजयन्। महिष्या परिवृत्त्याथ वावातामपरां तथा॥ (रामायण १/१४/३५)
यहां भी पत्नी के ४ कर्म दिखाये गये हैं- सुदक्षिणा द्वारा गन्ध-माला का अर्पण (श्लोक १), गाय के पीछे अनुगमन (श्लोक २), लौटने पर स्वागत (श्लोक २०) तथा अन्त में राजा के साथ नन्दिनी का दुग्ध पान। अन्य अश्व तथा अश्वमेध हैं-
अथ योऽसौ (सूर्यः) तपतीं एषो अश्वः श्वेतो रूपं कृत्वा -- (ऐतरेय ब्राह्मण ६/३५)
वारुणो ह्यश्वः। (शतपथ ब्राह्मण ७/५/२/१८)
अश्वो मनुष्यान् अवहत्। (शतपथ ब्राह्मण १०/६/४/१)
ईश्वरो वा अश्वः (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/८/९/३ आदि)
राष्ट्रं वा अश्वमेधः। (शतपथ ब्राह्मण १३/१/६/३, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/८/९/४)
श्रीर्वै राष्ट्रमश्वमेधः। (शतपथ ब्राह्मण १३/२/९/२, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/७/१)
यजमानो वा अश्वमेधः। (शतपथ ब्राह्मण १३/२/२/१)
प्राणापानौ वा एतौ देवानाम्। यदर्काश्वमेधौ। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/२१/३)
एष (अश्वमेधः) वै ब्रह्मवर्चसी नाम यज्ञः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/१९/३)
भृगु-अङ्गिरा से निर्माण-अथ नयन समुत्थं ज्योतिरत्रेरिवद्यौः सुरसरिदिव तेजो वह्निनिष्ठ्यूतमैशम्।
नरपतिकुलभूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी गुरुभिरभिनिविष्टं लोकपालानुभावैः॥ (रघुवंश २/७५)
आकाश में नयन सूर्य है। उससे निकला तेज अङ्गिरा है। सूर्य के आकर्षण के कारण ग्रह अपनी कक्षा में रहते हंई तथा पदार्थ को ग्रहण करते हैं। यह भृगु गुण है। भृगु तथा अङ्गिरा-दोनों के कारण जीवन चक्र चल रहा है। जहां दोनों का समन्वय हो रहा वह वह चन्द्र कक्षा का क्षेत्र है। यहां मिलन होने के कारण यह अत्रि (अत्र = यहां) है। अथवा भृगु, अङ्गिरा दोनों के ३-३ भाग हैं, सन्तुलन गुण वाला अत्रि एक ही है। इसके ३ (त्रि) भाग नहीं है, अतः यह अत्रि हुआ। इस प्रकार आकाश में अत्रि या उनके नेत्र द्वारा चन्द्र की उत्पत्ति हुई। सूर्य तेजके स्रोत रूप में वृषा (वर्षा करने वाला) या पुरुष है। आकर्षण या भृगु द्वारा यह सुरसरि (आकाशगङ्गा) का पदार्थ ग्रहण करता है, ग्रहण करनेवाला पदार्थ या क्षेत्र स्त्री है, चन्द्र मण्डल के केन्द्रमें स्थित पृथ्वी इस प्रकार माता है। इसी प्रकार स्त्री के गर्भ में पुरुष का शुक्र तथा स्त्री का रज मिलने से पुत्र का जन्म होता है। इस प्रकार दोनों जन्मों में समानता दिखायी गयी है।
चक्षोः सूर्यो अजायत (पुरुष सूक्त १३, ऋक् १०/९०/१३)
अङ्गारेभ्योऽङ्गिरसः (समभवन्। (शतपथ ब्राह्मण ४/५/१/८)
ताभ्यः श्रान्ताभ्यस्तप्ताभ्यः संतप्ताभ्यो यद्रेत आसीत्तदभृज्यत यदभृज्यत तस्माद् भृगुः समभवत् (गोपथ पूर्व १/३)
अग्निः आदित्य-यम-एते अङ्गिरस--- वायुरापश्चन्द्रमा इत्येते भृगवः। (गोपथ पूर्व २/९)
तद्धैतद्देवाः। रेतः (वाचः सकाशात्पतितं गर्भं) चर्मन्वा यस्मिन्वा बभ्रुस्तद्ध स्म पृच्छन्त्यत्रेव त्यादिति ततोऽत्रिः सम्बभूव॥ (शतपथ ब्राह्मण १/४/५/१३)
वागेवात्रिर्वाचा ह्यन्नमद्यतेऽत्तिर्ह वै नामैतद्यदत्रिरिति। (शतपथ ब्राह्मण १४/५/२/२)
ततोऽर्चिभ्यो भृगुर्जज्ञे अङ्गारेभ्योऽङ्गिरा ऋषिः॥३॥ प्रजापति सुतौ दृष्ट्वा हृष्टा वागभ्यभाषत।
आभ्यामृषिस्तृतीयोऽपि भवत्वत्रैव मे सुतः॥४॥ (बृहद्देवता)
(मित्रों यह आलेख श्री अरुण उपाध्याय जी, रिटायर्ड आईएस अधिकारी हैं, जिसका प्रचारार्थ हमने संकलन करके आपके समक्ष प्रस्तुत किया है, मुझे विश्वास है आप लोगों को अच्छा जरुर लगा होगा)

- आचार्य पण्डित विनोद चौबे
संपादक- ''ज्योतिष का सूर्य''
राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.)
मोबाईल नं 9827198828


कोई टिप्पणी नहीं: