ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

!!विशेष सूचना!!
नोट: इस ब्लाग में प्रकाशित कोई भी तथ्य, फोटो अथवा आलेख अथवा तोड़-मरोड़ कर कोई भी अंश हमारे बगैर अनुमति के प्रकाशित करना अथवा अपने नाम अथवा बेनामी तौर पर प्रकाशित करना दण्डनीय अपराध है। ऐसा पाये जाने पर कानूनी कार्यवाही करने को हमें बाध्य होना पड़ेगा। यदि कोई समाचार एजेन्सी, पत्र, पत्रिकाएं इस ब्लाग से कोई भी आलेख अपने समाचार पत्र में प्रकाशित करना चाहते हैं तो हमसे सम्पर्क कर अनुमती लेकर ही प्रकाशित करें।-ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे, सम्पादक ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका,-भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.09827198828
!!सदस्यता हेतु !!
.''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के 'वार्षिक' सदस्यता हेतु संपूर्ण पता एवं उपरोक्त खाते में 220 रूपये 'Jyotish ka surya' के खाते में Oriental Bank of Commerce A/c No.14351131000227 जमाकर हमें सूचित करें।

ज्योतिष एवं वास्तु परामर्श हेतु संपर्क 09827198828 (निःशुल्क संपर्क न करें)

आप सभी प्रिय साथियों का स्नेह है..

शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण- सूर्पणखा संवाद


!! आनंदमयी सुप्रभात !!

बात कहने के शब्द एक हों, परन्तु उस शब्दों, वाक्यों को बोलने वाले के भाव के अनुरुप अर्थ निकाला जाता है, देखीए इस रोचक प्रसंग में सूर्पणखा और लक्ष्मण दोनो एक ही श्लोक बोल रहे किन्तु दोनों के भाव अलग हैं !

पंचवटी में शूर्पणखा जब मनमोहक रूप बनाकर श्रीराम से प्रणययाचना करती है, तब वह सीताजी की निंदा करते हुए श्रीराम से कहती है-

     "इमां विरूपामसतीं करालां निर्णतोदरीम्।

      अनेन सह ते भात्रा भक्षयिष्यामि मानुषीम्।।"

अर्थात्- "यह सीता कुरूप,ओछी, असम अंगों वाली ,धँसे पेट वाली और मानवी है।इसे मैं तुम्हारे भाई के साथ ही खा जाउंगी।" 

तब भगवान राम परिहास करते हुए उसे लक्ष्मण जी के पास भेज देते हैं।फिर लक्ष्मणजी पुनः उसे यह कहते हुए श्रीराम के पास भेज देते हैं-

      "एतां विरुपामसतीं करालां निर्णतोदरीम्।

       भार्या वृद्धां परित्यज्य त्वामेवैष भजिष्यति।"

यहाँ लक्ष्मण ने उन्हीं शब्दों को दुहराया है जिन्हें शूर्पणखा ने सीताजी के लिए प्रयुक्त किया है किन्तु लक्ष्मणजी की दृष्टि में इनका अर्थ भिन्न है- विरूपा- अर्थात विशिष्ट रूप वाली, असती-जिसके समान सती कोई नहीं है, कराला-शरीर गठन के अनुसार ऊँचे नीचे अंगों वाली और निर्णतोदरी अर्थात् पतली कमर वाली है।ऐसी भार्या को छोड़कर वह तुम्हें ही ग्रहण करेंगे।इस प्रकार सूर्पनखा के ही शब्दों को चतुराई से प्रशंसा के अर्थ में प्रयुक्त कर लक्ष्मण जी पुनः उसे श्रीराम के पास भेज देते हैं।

राम-लक्ष्मण का यह परिहास न समझकर मुर्ख सूर्पनखा मोहित होकर कभी इधर कभी उधर जाती है और अंत में  क्रोधित होकर सीताजी को मारने के प्रयास में अपने नाक-कान कटवा बैठती है।और यहीं राम-रावण का संग्राम सुनिश्चित हो जाता है !

- आचार्य पण्डित विनोद चौबे

संपादक- 'ज्योतिष का सूर्य'

राष्ट्रीय मासिक पत्रिका भिलाई

 मोबाईल नं. 9827198828

http://ptvinodchoubey.blogspot.in/2017/10/blog-post_7.html?m=1

कोई टिप्पणी नहीं: