शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित में बनीं।।
डॉ. सुचित्रा शर्मा सहायक प्राध्यापक,शासकीय महाविद्यालय वैशाली नगर
शक्षा प्रत्येक समाज के चिंतन की सर्वोच्च प्राथमिकता है। समाज के सृजन और पालक के रूप में उसका संबंध भूत, वर्तमान और भविष्य के साथ त्रिआयामी है। हम गतिशील समाज के अंग हैं और परिवर्तन को नकार नहीं सकते, यह एक स्वाभाुिवक और नैतिक प्रक्रिया हो गई है जिसके अंतर्गत हम केवल यह कह सकते हैं कि आगामी कल आज से सर्वथा भिन्न होगा तथा कल तक जो भी समाज के लिए सार्थक व उपयोगी था, आवश्यक नहीं कि आज भी वैसा ही हो। इस दृष्टिकोण से शिक्षा विकासात्मक प्रक्रिया है। इसके समयबद्ध नियोजन से ही शिक्षा की गुणात्मक और परिमाणात्मक स्वरूपों में सही तालमेल बिठाया जा सकेगा।
शिक्षा प्रत्येक समाज के चिंतन की सर्वोच्च प्राथमिकता है। समाज के सृजन और पालक के रूप में उसका संबंध भूत, वर्तमान और भविष्य के साथ त्रिआयामी है। हम गतिशील समाज के अंग हैं और परिवर्तन को नकार नहीं सकते, यह एक स्वाभाुिवक और नैतिक प्रक्रिया हो गई है जिसके अंतर्गत हम केवल यह कह सकते हैं कि आगामी कल आज से सर्वथा भिन्न होगा तथा कल तक जो भी समाज के लिए सार्थक व उपयोगी था, आवश्यक नहीं कि आज भी वैसा ही हो। इस दृष्टिकोण से शिक्षा विकासात्मक प्रक्रिया है। इसके समयबद्ध नियोजन से ही शिक्षा की गुणात्मक और परिमाणात्मक स्वरूपों में सही तालमेल बिठाया जा सकेगा।
शिक्षा क्या है सभी जानते हैं परंतु इसके केवल औपचारिक अर्थ को समझ लेना काफी नहीं। सुकरात ने जीवन का मुख्य उददेश्य ज्ञान प्राप्त करना बताया, प्लेटो ने अच्छी आदतों के विकास को शिक्षा माना है जबकि अरस्तु ने चित्त की प्रसन्नता को शिक्षा का उद्देश्य माना है, बल्कि उन्होंने तो कहा कि बच्चा अपने अनुभव के आधार पर ही शिक्षा ग्रहण करता है। डान ड्यूई ने कहा कि शिक्षा का अर्थ है व्यक्ति में अंतर्निहित उन सभी योग्यताओं का विकास करना जिनसे वह अपने चारों ओर के परिवेश को अपने अनुसार मोड़ सके तथा अपनी योग्यताओं को चहुँदिशा विकसित कर सके। महात्मा गांधी, टैगोर, विवेकानंद सभी चिंतकों ने जीवन के सर्वांगीण विकास को शिक्षा मान अपनी व्याख्या की।
मानव जीवन को बदलने की संजीवनी
अत: शिक्षा अर्थात् मानव जीवन को बदलने वाली संजीवनी, जो मानव को समाज की मुख्य धारा से जोडऩे की ताकत देती है, यूं कहें कि यह एक ऐसा अस्त्र है जो हमारे जीवन से अज्ञानतारूपी अंधकार का नाश कर दिमाग को जागृत करता है। एक समय था जब शिक्षा के केन्द्र गुरूकुल हुआ करते थे, जहां रह कर बच्चा ज्ञान प्राप्त कर जीवन के लिए तैयार होता था। ऐसा नहीं कि हर बच्चा गुरू के आश्रम में प्रवेश पा जाये। गुरू द्वारा ली गई परीक्षा में पास होने पर ही वह उनसे विद्या ग्रहण करने का अधिकारी होता था। यह परीक्षा होती थी विद्यार्थी जीवन के लिए आवश्यक गुण जैसे त्याग, सहनशीलता, संयम, आत्म नियंत्रण, लगन की। इनमें सफल होने पर ही वह गुरू द्वारा प्रदत्त धर्म, लोक व्यवहार, शास्त्र व शास्त्रगत व्यवहार तथा प्रकृति के स्वरूप की सीख दक्षता हासिल कर जीवन के अगले पड़ाव की ओर उन्मुख होता था। संस्कार द्वारा गुरूकुल में प्रवेश और संस्कार द्वारा ही दीक्षित कहलाता था। कहने का तात्पर्य है कि विधिवत् शिक्षा सीधे न हासिल कर मानसिक व शारीरिक सक्षमता के बाद ही शिक्षित होता था। वह वास्तव में विद्या अर्जन थी जो उसे विधिवत ज्ञान के साथ जीवन के लिए आवश्यक गुणों से परिपूर्ण बनाती थी। वह विद्यार्थी कहलाता था परंतु आज वह शिक्षार्थी कहलाता है क्योंकि शिक्षा का अर्थ और लक्ष्य समय के साथ बदलते चले गया।
कथनी और करनी के बीच अंतर की कहानी
वर्तमान युग है उदारीकरण, वैश्वीकरण एवं निजीकरण का। इन त्रिप्रक्रियाओं ने सारी व्यवस्था को न केवल प्रभावित किया है बल्कि तमाम परिभाषाओं को बदल दिया है। हम जानते हैं कि विकास के आधारों में शिक्षा एक बहुत आवश्यक तत्व है, इसी पर सम्पूर्ण सामाजिक विकास टिका हुआ है। जनसंख्या का शिक्षित होना ही विकास को पोषित करता है, क्योंकि किसी भी देश की शिक्षा की स्थिति का सीधा संबंध उस देश की राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना से होता है। अत: शिक्षा एक ऐसा साधन है जो समय-सापेक्ष, देश-सापेक्ष और प्रगति-सापेक्ष है। हर युग में शिक्षा के मायने अलग-अलग रहे। यही नहीं आज तो हर देश में इसका अर्त अलग है। भारत में शिक्षा की कहानी-कथनी और करनी, कामना और कर्म, प्रयास और परिणामों के बीच अंतर की कहानी है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के अनुच्छेद 1.9 में लिखा है कि-शिक्षा इस समय भारत में चौराहे पर खड़ी है। न नैतिक विस्तार और न ही सुधार की वर्तमान गति और प्रकृति स्थिति के अपेक्षाओं के अनुरूप है। यह जान कर आश्चर्य होता है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र व दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश के पास शिक्षा की स्थिति विचारणीय है। ऐसा कोई शिक्षण संस्थान नहीं है जिसकी गिनती विश्व स्तर पर आंकी जा सके। यहीं पर शिक्षा में गुणवत्ता और परिमाण का अंतर स्पष्ट दिखाई देता है।
समिति व सिफारिश से दो राहे पर खड़ी शिक्षा
प्राचीन काल की शिक्षा पद्धति जितनी बुनियादी थी, आज की आधुनिक शिक्षा प्रणाली विभिन्नताओं को सिमेटे हुए है। कितने सरकारी प्रयास हुए और हो रहे हैं, समितियों या सिफारिशों ने शिक्षा के उद्देश्य को कहीं दोराहे पे ला खड़ा कर दिया है जिससे आम आदमी का नैतिक चरित्र व राष्ट्रीय चरित्र एक दूसरे से बिल्कुल अलग दिखता है। आजादी के बाद से शिक्षा में गुणवत्ता सुधार के लिए बने पंद्रह से ज्यादा कमीशन और समितियां। हजारों पेज के प्रतिवेदन, जिनका केन्द्रीय बिन्दु था सुधार कैसे हो? दिल्ली विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान के पूर्व प्रोफेसर रमाकांत अग्निहोत्री के अनुसार-भारत की शिक्षा प्रणाली में ऐसा लचीलापन और जीवन की विविधता नहीं है, जड़ता है। जोजिस पटरी पर आ गया, जीवन पर्यन्त वहीं रहेगा।
दरअसल विकास के लिए लगने वाली अनिवार्य सीढ़ी में शिक्षा एक ऐसा तत्व है जिसमें हमारा देश कई गुना पिछड़ा हुआ है। विदेशों में शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तनों के कारण भारतीय विद्वता का मूल्यांकन कम आंका जाता है। विकास के तमाम दावों के बावजूद हम क्यों फिसड्डी और नकलची हैं? हमारी शिक्षा व्यवस्था मूल उद्देश्यों से क्यों अलग है, इसका लक्ष्य वास्तव में क्या होना चाहिये, जैसे यक्ष प्रश्नों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। आंकड़े कुछ कहते हैं, विकास प्रक्रियाएं शिक्षा के क्षेत्र में जमीनी तौर पर अपना वर्चस्व नहीं कायम कर पायीं।
दिन ब दिन पनपता रहा निजी स्कूलों का कारोबार
कुछ कारणों पर विचार करें, हमारी शिक्षा व्यवस्था परीक्षा केन्द्रित व नौकरी केन्द्रित है, कमीशन पर कमीशन बिठाने के बाद भी इस व्यवस्था को हम अपने राष्ट्र के अनुकूल नहीं बना पाये। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियां समीचीन हैं :-
शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित में बनीं।।
किन्तु आज तो नौकरी पाने के उद्देश्य में भी हमारी शिक्षा सहायक नहीं हो रही। शहर की बात न भी करें तो गांव में शिक्षा व्यवस्था कितनी बदहाल है, उससे निजी स्कूलों की अवधारणा का कारोबार पनपा अर्थात सरकारी तंत्र के बजाय निजी तंत्र में फैली। अवलोकन से एक बात और सामने आयी कि निम्न-मध्यम वर्गीय तथा श्रमिक वर्ग के बच्चे शालाओं का सामना करने के लिए यथेष्ट रूप से तैयार नहीं होते क्योंकि शालाओं से मिलने वाला अनुभव उनके घर के अनुभवों से बिल्कुल विपरीत होता था। इसीलिए उन्हें शाला से कम से कम अर्हताओं के साथ निकाला जाता है। वे कम से कम वांछनीय नौकरियां पाते हैं और श्रमिक वर्गीय ही बने रहते हैं। टालकॉट पारसन्स (समाजशास्त्री) ने अपने अध्ययन में पाया कि इसी शालेयकरण की प्रक्रिया के कारण कुछ छात्रों की पहचान शैक्षणिक असफलता के रूप में की गई। विल्सन व ब्रायन ने अपने अध्ययन में पाया कि विद्यार्थियों ने महसूस किया कि जो विषय वे पढ़ते हैं, श्रमिक बाजार में भविष्य के साथ, उसका कोई संबंध नहीं है। वहीं दूसरी ओर मध्यम वर्गीय और उच्च वर्गीय छात्र अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाये रखते हुए थोड़ी सी मेहनत से सफलता प्राप्त कर लेते हैं।
विषमता से दूर सामाजिक सरोकार से जोडऩा जरूरी
अत: यह स्पष्ट है कि शिक्षा तबी अपने आयामों को छू पायेगी जब वह इन विषमताओं से परे हो, सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हो। व्यक्तिगत स्वार्थ से बाहर जाकर राष्ट्रीय हित से जुड़े, वरना राष्ट्रीय विकास के हमारे सभी स्वप्न आकाश कुसुम की तरह रहेंगे। कहने को हमारे देश में लोकतंत्र है, किन्तु हमारी शैक्षिक विचारधाराएं निरूत्तर व्यक्तिपरक होती जा रही हैं। नई सोच, नई बातों का होना लाजिमी है परंतु ऐसा न हो कि हमारी परम्पराओं की जड़ें खोखली होती जायें।
भारत में शिक्षा का भावी रूप भले ही पेचीदा हो, राष्ट्रीय चेतना व सांस्कृतिक प्रसार में नकारात्मक होती जा रही है किन्तु यही अवसर है आत्मावलोकन और दिशा परिवर्तन का। अपने शैक्षिक पिरामिड की बुनियाद को सुदृढ़ बना ही हम अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल होंगे। शिक्षा के सभी स्तरों प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा पर सुदृढ़ नियोजन, समय-समय पर पुनरावलोकन व विश्लेषण, राष्ट्रीय शिक्षा नीति का समाज व परम्पराओं से संबंध, मूल्य शिक्षा, परीक्षा में परिवर्तन, शिक्षकों की स्थिति व आवश्यकता का विश्लेषण आदि ऐसे कई तत्वों पर पुनर्चर्चा करें तो शिक्षा समाज से जुड़ेगी। शिक्षा, शिक्षार्थी और अभिभावक का त्रिकोण सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को प्रदूषित होने से बचा पायेगा।
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ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे
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