ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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सोमवार, 11 जुलाई 2011

गुरु पूर्णिमा

           गुरु पूर्णिमा

गुरु पूर्ण है, इसीलिए पूर्णिमा ही गुरु की तिथि है

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे महाराज भिलाई दुर्ग(छत्तीसगढ़)09827198828

गुरुब्रम्हा गुरु विष्णु गुरुदेवों महेश्वर :
गुरु साक्षात् परं ब्रम्ह तस्मै श्रीगुरवे नमः


गुरु एक वैदिक परंपरा है और कम से कम भारतीय परिवेश में इसका महत्त्व कभी कम नहीं हो सकता है . गुरु शिष्य की परंपरा हमारे देश में समृद्ध रही है . गुरु सदैव अपने ज्ञान दीप से जीवन में प्रग्रती के मार्ग को प्रशस्त करने का गुर सिखाने वाले और हमारी आभा की पहचान करने वाले और हमारे मनोविकारों को दूर करने में सहायक सिद्ध होते हैं . हमारी संस्कृति में गुरु को उच्चतम स्थान दिया गया है और उनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानकर उनके आदेश का अरक्षतः पालन किया जाता है . गुरु के वगैर करोड़ों पुण्य भी व्यर्थ हो जाते हैं .

आज के समय में गुरु शिष्य परंपरा का वह स्वरुप और आस्था का स्वरुप और दिनोंदिन हो रही नैतिक मूल्यों में कमी और शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर व्यवसायीकरण के कारण बदल गया है . यदि गुरु और शिष्य अपने पद की गरिमा के अनुरूप उचित समयानुसार आचरण करें तो गुरु का शिष्य के ऊपर स्नेहाशीष सदैव बना रहेगा और शिष्य निरंतर प्रग्रती के मार्ग पर अग्रसर होता रहेगा .

ज्ञान पथ पर चलने के लिए गुरु और शिष्य दोनों की नितांत आवश्यकता होती है . गुरु के बिना ज्ञान और जीवन में सफलता अधूरी है . गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर गुरूजी के चरणों में नमन करता हूँ के वे जीवन के घनघोर अँधेरे पथ को अपने ज्ञान से आलोकित करें .
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।

शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी।
बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।
गुरु पूर्णिमा है। यह वो अवसर है, जिसकी प्रतीक्षा दुनिया के सभी अध्यात्म प्रेमी और आत्मज्ञान के साधक बेसब्री से करते हैं। आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि यानि कि पूर्णिमा ही गुरु पूर्णिमा के रूप जगत प्रसिद्ध है। इसी दिन से संन्यासी चातुर्मास प्रारंभ करते हैं। वे एक स्थान पर रुक जाते हैं, धर्म की शिक्षा देने के लिए। यही दिन वेदों का विभाजन करने वाले महर्षि वेद व्यास का जन्मदिन भी है और कालगणना की महत्वपूर्ण इकाई मन्वंतर का आदि दिन भी।

गुरु पूर्ण है, इसीलिए पूर्णिमा ही गुरु की तिथि है।
हम बड़े कैसे बनें, यह भी गुरु के मार्गदर्शन से ही संभव है। वरना मार्ग भटकने का अंदेशा है। मार्ग न भटकें इसीलिए गुरु का दर्शन और मार्गदर्शन आवश्यक है। गुरु से कुछ लिया है तो देना भी होगा। गुरु चूंकि गुरु है, इसलिए वे लेंगे तो कुछ नहीं पर हम आभार तो व्यक्त कर ही सकते हैं। गुरु पूर्णिमा आषाढ़ के समापन के साथ आभार का पर्व है। गुरु के प्रति आभार का और आशीर्वाद प्राप्त करने का। ताकि हम जीवन में कुछ बन सके। गुरु की कृपा से,आषाढ़ के अंतिम दिन।

...इसलिए मनाते हैं गुरु पूर्णिमा

भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।
गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हर धर्मावलंबी अपने गुरु के प्रति श्रद्धा और आस्था प्रगट करता है। जीवन में सफलता के लिए हर व्यक्ति गुरु के रुप में श्रेष्ठ मार्गदर्शक, सलाहकार, समर्थक और गुणी व्यक्ति के संग की चाहत रखता है। इसलिए वह गुरु के रुप में किसी संत, अध्यात्मिक व्यक्तित्व या किसी कार्य विशेष में दक्ष और गुणी व्यक्ति को चुनना चाहता है।
क्योंकि गुरु की महिमा ही ऐसी है कि ईश्वर की तरह गुरु हर जगह मौजूद है। सिर्फ चाहत और दृष्टि चाहिए गुरु को पाने और देखने की।
जगद्गुरु दत्तात्रेय ऐसे ही शिष्य के रुप में भी प्रसिद्ध हैं। जिनके अनेक गुरु हुए। जबकि उन्होनें किसी से गुरु दीक्षा नहीं पाई थी। आखिर यह कैसे संभव हुआ।

गुरु दत्तात्रेय ने समस्त जगत में मौजूद हर वनस्पति, प्राणियों, ग्रह-नक्षत्रों को अपना गुरु माना। जिनकी प्रकृति और गुणों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इनकी संख्या २४ थी। इनमें प्रमुख रुप से पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, सूर्य, चंद्र, कबूतर, मधुमक्खी, हाथी, अजगर, पतंगा, हिरण, मछली, गरुड़, मकड़ी, बालक, वैश्या, कन्या, बाण प्रमुख थे। जिनसे उन्होंने कोई गुरु मंत्र और शिक्षा नहीं ली। मात्र इनकी गति, प्रकृति, गुणों को देखकर अपनी दृष्टि और विचार से शिक्षा पाई और आत्म ज्ञान पा लिया।
इससे ही श्री दत्तात्रेय जगद्गुरु बन गए।
गुरु दत्तात्रेय ने जगत को बताया कि मात्र देहधारी कोई मनुष्य या देवता ही गुरु नहीं होता। बल्कि पूरे जगत की हर रचना में गुरु मौजूद है। यहां तक कि स्वयं के अंदर भी। जिनको देखना और जानना बहुत जरुरी है।
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे महाराज भिलाई दुर्ग(छत्तीसगढ़)09827198828

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