स्त्री पति की संपत्ति नहीं | |
डॉ प्रेरणा दूबे
संपत्ति शब्द का नाम सुनते ही मेरे मन में यह प्रश्न उठता है कि स्त्री पति की संपत्ति है क्या? तो पति भी स्त्री की संपत्ति हुआ। परंतु ऐसी बाते नहीं है। पुरूष प्रधान समाज में विवाहित स्त्री को संपत्ति माना जाता है। वह स्त्री को जिस प्रकार चाहे उपयोग करे या भोग करें। जिस प्रकार एक व्यक्ति किसी वस्तु के साथ ऐसा करता है। यदि वह ऐसा करता है तो भारतीय नहीं हो सकता है। क्योंकि भारतीय जीवन-दृष्टि में स्त्री पुरूष की संपत्ति न होकर सृष्टिक्रम के संचालन हेतु पुरूष की जीवन संगिनी तथा अधिस्ठात्री देवी है। वो पूज्य है, वरेण्य है, वो मां है, बहन है, बुआ है, किसी की स्त्री है, तो वो किसी पुरूष की संपत्ति कैसे हुई? पर भारत का संविधान ऐसा नहीं मानता। राजग सरकार ने जब संविधान समीक्षा की बात कहा था तो तथाकथित संविधानरक्षकों ने हो-हल्ला मचाया था कि वे अब भारतीय संविधान का गवाकरण करना चाहते हैं लेकिन आप देखें कि विवाहित स्त्री के संबंध में भारतीय में दंडविधान-497 क्या कहता है? इसमें दो बातें कही गयी है। प्रथम की यदि कोई स्त्री अपने पति की अनुमति या सहमति से किसी पर पुरूष के साथ समागम में शामिल होती है तो इसे व्यभिचारकी श्रेणी में नहीं माना जाएगा। वहीं यदि कोई पुरूष किसी विवाहित स्त्री से समागम करता है तथा इसके लिए उस स्त्री की पति से अनुमति हो तो समागम करने वाले पुरूष को स़जा नहीं होगी।
यहां सवाल यह उठता है कि स्त्री विवाहित पुरूष की संपत्ति हैं। वह जब चाहे अपने अर्धांगिनी को पर पुरूष को समागम के लिए दे सकता है। ऐसा क्यों? क्योंकि वो पुरूष की संपत्ति है। पुरूष उसे अपनी संपत्ति मानता है। कहा जाता है कि यहां बलात्कार कानून की रक्षा की गयी है।
इतिहास पर दृष्टि डालने पर ऐसा लगता है कि स्त्री को संपत्ति मानकर ही, बिना उसकी ईच्छा के युद्धिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगाया तथा वह उसे पांच पतियों में बांट दिया गया। यह पुरूष वर्चस्व रूपी सामंती मानसिकता की उपज है। न पुरूष स्त्री की संपत्ति है और न स्त्री पुरूष की। यह कि पुरूष या स्त्री जब चाहे। दोनों के ईच्छानुसार यौन समागम स्थापित करें। इस प्रकार के अभारतीय धाराओं ने पति-पत्नी रूपि पवित्र रिश्ते को कलंकित किया है। जो भारतीय स्त्रियों के लिए किसी भी रूप में ठीक नहीं कहा जा सकता। विवाहित स्त्री काग़ज, कलम, पेंसिल, नमक, चावल, दाल, गा़डी, दवा-दारू, पुस्तक, चादर, पंखा नहीं है कि पुरूष उसे अपनी इच्छानुसार किसी को दे दें। यदि भारत विश्वगुरू था तो यौन शुचिता के कारण था। एक पत्नीव्रत के कारण था। हम भारतीयों के आदर्श माता सीता, सावित्री, मीराबाई, कस्तूरबा, गिनी निवेदिता, लीलावती, गार्गी तथा लोपामुद्रा हैं तथा थीं।
हां, तो अब देखे धारा-497 में दूसरी बात क्या है? पति की अनुमति या उसकी मिली गत के बाद भी उसकी पत्नी के साथ कोई जबरन समागम करता है तो यह बलात्कार की श्रेणी में होगा। डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था बलात्कार और वादा-फरामोशी को छो़डकर नर-नारी के बीच सारे रिश्ते जाय़ज हैं लेकिन यहां तो स्त्री को संपति मानकर ही बलात्कार (गलत आचरण) के लिए विधान बनाए गए हैं। लेकिन नारी स्वतंत्रता की बातें यह है सहमति-असहमति पर भी विचार किया गया है। लेकिन यहां तक तो कहना ही है कि स्त्री भी पर पुरूष के साथ समागम करने के लिए स्वतंत्र है। मेरा मानना है कि किसी भी स्त्री को किसी पुरूष तथा किसी भी पुरूष को किसी भी महिला के साथ समागम के अधिकार को देना। भारतीय समाज में व्यभिचारको ब़ढावा देना होगा। इससे समाज में विकृतियां आती हैं। समाज का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जाता है। जिससे पारिवारिक विघटन को ब़ढावा मिलता है। स्वतंत्रता का मतलब स्वछंदता नहीं है कि फ्रॉयड के अनुसार लोग कामेच्छाओं की पूर्ति ऐन-केन प्रकारेण करें।
महानगरीय जीवन में पति की सहमति से स्त्री तथा स्त्री की सहमति से पुरूष यौन समागम के तरफ ब़ढते जा रहे हैं। कुछ वर्षों पहले ‘इंडिया टुड‘ तथा ‘आउटलुक‘ साप्ताहिक ने उपरोक्त खबरें प्रकाशित की थी जो भारत जैसे देश के लिए कलंकित करने वाली है। सहमति-असहमति का यह नमूना शुद्ध व्यभिचारकी श्रेणी में आता है। कानून का यह दृष्टिकोण पुरूषवादी, सामंती तथा संकीर्ण विचारों का निकृष्टतम रूप है।
जब विधि आयोग ने यह संशोधन प्रस्तावित किया कि व्याभिचार में शामिल स्त्री को भी दंडित किया जाना चाहिए तो महिला आयोग ने विरोध क्यों किया। क्योंकि सहमति-असहमति के द्वारा यौन समागम त्याज्य तथा अशोनीय नहीं है। इसके लिए क़डे कानून क्यों नहीं हो? महिला आयोग का यह कहना कि कानून में संशोधन करना महिलाओं को साथ जुल्म तथा मानवाविधार का हनन होगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने धारा-497 की आलोचना तो की है, व इसे संविधान विरूद्ध नहीं माना जाना चाहिए। विवाहेभार संबंध एक अपराध, एक अनैतिक तथा असंवैधानिक है। तथा तलाक मांगना भी व्यभिचारकी श्रेणी में ही आना चाहिए। कानून या प्रचलित प्रथा यौन शुचिता एवं विवाह संस्था की पवित्रता के लिए होने चाहिए न कि विवाहेभार संबंधों को ब़ढावा देने के लिए।
इस प्रकार के गलत कानूनों का विरोध रचनात्मक, बौद्धिक तथा आंदोलनात्मक स्तरों पर किया जाना चाहिए ताकि पुरूष वर्चस्वादी प्रवृतियों का विनाश हो तथा लैंगिक असमानता का नामो निशान मिट जाए।
-(pravakta .com se sabhar)
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