धन-धान्य और समृद्धी का महापर्व है मकर संक्रांति
-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई
सूर्य भगवान अपने पुत्र शनि एवं अपनी दूसरी पत्नी छाया के शाप के कारण कोढ़ी हो गए थे। किन्तु पुन: अपने पुत्र यमराज के सार्थक प्रयत्न के द्वारा यह वरदान भी पा गए थे कि जो भी व्यक्ति भगवान सूर्य के चक्र स्वरूप अर्थात केवल चेहरे की पूजा करेगा उसका कुष्ठ रोग समाप्त हो जाएगा। भगवान सूर्य के कोप से उनकी पत्नी छाया एवं शनि का घर कुम्भ (राशि) जलकर राख हो गया था। एक समय में धन, सोना तथा हीरे जवाहरात से भरा रहने वाला कुम्भ अब धन-सम्मानरहित हो गया। कालान्तर में पुत्र-मोह एवं यमराज के बहुत समझाने-बुझाने पर जब भगवान सूर्य अपनी पत्नी छाया के घर (कुम्भ) पर पहुँचे। तब उनकी पत्नी एवं पुत्र ने उनकी पूजा-अर्चना की। वात्सल्य प्रेम में भरकर भगवान सूर्य ने बताया कि अब तो मेरे शाप एवं किरणों के कोप के कारण तुम्हारा घर निर्धन हो गया है। तथा मेरा दिया गया शाप व्यर्थ नहीं होगा। किन्तु दूसरा घर (मकर) जो मैने तुम्हें दिया है। वह सम्पन्न रहेगा तथा मेरे आते ही रत्न मणि आदि से भर जाएगा। निर्धनता के कारण शनि एवं उनकी माता ने भगवान सूर्य की पूजा मात्र तिल से ही की थी क्योंकि उनके पास और कोई अन्न या दूसरी चीज नहीं थी। तथा शनि एवं छाया के रंग के कारण उस तिल का रंग भी काला हो गया था। अत: भगवान सूर्य ने यह वरदान दिया कि जो भी व्यक्ति इस अवसर पर अर्थात् मकर राशि में मेरे जाने पर तिल आदि से मेरी पूजा करेगा। उसके दैहिक, दैविक एवं भौतिक ताप, कष्ट एवं विपदा का नाश होगा।
संक्रांति काल के मुख्य देवता मुहूत्र्त भेद से तीन हैं। प्रथम भगवान सूर्य, दूसरे भगवान शिव तथा तीसरे धनु राशि के स्वामी देवगुरु बृहस्पति। लक्ष्मी प्राप्ति व रोग नाश के लिए भगवान सूर्य, विपत्ति तथा शत्रु नाश के लिए भगवान शिव। यश-सम्मान एवं ज्ञान, विद्या आदि प्राप्ति के लिए देवगुरु बृहस्पति की पूजा संक्रांति काल में क्रम से विधि-विधान से करनी चाहिए। संक्रांति के दिन पूजा के लिए तीन ही चीजों की आवश्यकता भी पड़ती है। गोरस (दूध, दही, घी), तिल एवं पीतांबर (वस्त्र एवं यज्ञोपवीत अर्थात जनैऊ)। गोरस से भगवान सूर्य, तिल-गुड़ से भगवान शिव तथा वस्त्र से बृहस्पति की पूजा करनी चाहिए। यह वर्णन श्रीमद्भागवत एवं देवी पुराण में विशद रूप से दिया गया है। संक्रांति अथवा संक्रमण एक जगह से दूसरी जगह जाने को कहते हैं। इसी प्रकार एक ग्रह का एक राशि से दूसरी राशि पर जाने को संक्रांति कहते हैं। हमारे सौर मंडल के ग्रहों का बिम्ब अथवा आकृति सूर्य की अपेक्षा छोटी है। सूर्य सबसे ज्यादा चमकीला है। जिसके कारण इसका प्रभाव पृथ्वी पर सबसे ज्यादा पड़ता है। इसलिए इसकी संक्रांति पृथ्वी के लिए सबसे महत्वपूर्ण है।
क्या है संक्रांति का पुण्यकाल.?
मित्रों अब हम संक्रंाति के पुण्यकाल का निर्धारण करते हैं। पुण्यकाल उसे कहते हैं। जिसमें कोई कार्य करने से महती फल की प्राप्ति होती है। धर्मशास्त्र में संक्रांति के पुण्यकाल में स्नान, दान, जप आदि बहुत पुण्यप्रद होते हैं। किन्तु यदि रात में संक्रांति होती है। तो उसमें स्नान दानादि कृत्य बहुत अच्छा फल नहीं देते हैं। किन्तु इस वर्ष की संक्रांति दिन में होने के कारण इसका विशेष पुण्यकाल दिन में ही होगा। उसमें भी चूँकि अभिजित मुहूर्त में यह संक्रांति हो रही है। अत: इसका फल कोटिश: फल देने वाला होगा।
अर्थात् यदि अद्र्धरात्रि के बाद मकर की संक्रांति हो और अद्र्धरात्रि के पूर्व कर्क की संक्रांति हो तो क्रम से पर एवं पूर्व दिन में पुण्यकाल होता है। किन्तु यह संक्रांति दिन की है। अत: पुण्यकाल दिन में ही होगा।
मकर संक्रांति के पुण्यकाल में किए जाने वाले कृत्यों के बारे में लिखा है कि-
सूर्य की मकर संक्रांति के महापावन पुण्यकाल पर जो व्यक्ति एक प्रस्थ घी ( पाँच सेर) से सूर्य पिण्ड को स्नान कराता है तथा उसे ब्राह्मणों को दान दे देता है। तथा परिवार वाले ब्राह्मण को सवत्सा (दूध देने वाली बछड़े समेत) गाय दान करता है। वह सब पापों से छूटकर सूर्य लोक को जाकर बहुत समय तक सुख भोगता है। पुन: वहाँ से आकर प्रजा को आनन्द देने वाला राजा होता है। इसे रवि का घृत स्नान कहते हैं। इसके अलावा मकर संक्रांति के दिन घृत कम्बल दान की बड़ी महिमा बताई गई है। जैसे-
माघे मासि महादेवे य: कूर्याद् घृतकम्बलम्। स भुक्त्वा सकलान्भोगानन्ते मोक्षं च विन्दति।
नरा भूपतयो जाता घृतकम्बल दानत:। जातिस्मराश्च ते जाता मुक्ताश्चान्ते शिवार्चक:॥
अर्थात् माघ मास में जो घृत कम्बल करता है। वह अनेकों भोगों को भोग कर अन्त में मोक्ष पा जाता है। घृत कम्बल देने से मनुष्य राजा हो गए, वे शिव पूजकर जातिस्मर और मुक्त हो गए। घृत कम्बल का तात्पर्य घी एवं कम्बल नहीं होता है।
शिव रहस्य में कहा गया है कि गाय के उत्तम घी को लेकर उसे हल्का गर्म कर दें। पुन: उसे ठंडा होने दें। वह घी थोड़ी देर में जम जाएगा। यह वजन में साढ़े तीन सेर होना चाहिए। यही घृत का महाकम्बल कहा जाता है। इसका चौथाई घी शाम को मंदिर में ले जाए। पहले किसी अन्य घी से शिवलिंग को स्नान कराएँ। बाद में वह शिवलिंग पर रख दें। 20 पल बाद में उसे शिवलिंग से नीचे उतार लें। उसके बाद दोनों तिल, सरसों, बिल्वपत्र और सुवर्ण रंग के कमल के फूल से भगवान शिव की पूजा करें। आरती पूजन के बाद वह घी किसी ब्राह्मण को दान कर दें। मकर संक्रांति के दिन किया जाने वाला यही महाघृतकम्बल कहा जाता है।
-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.09827198828
-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई
सूर्य भगवान अपने पुत्र शनि एवं अपनी दूसरी पत्नी छाया के शाप के कारण कोढ़ी हो गए थे। किन्तु पुन: अपने पुत्र यमराज के सार्थक प्रयत्न के द्वारा यह वरदान भी पा गए थे कि जो भी व्यक्ति भगवान सूर्य के चक्र स्वरूप अर्थात केवल चेहरे की पूजा करेगा उसका कुष्ठ रोग समाप्त हो जाएगा। भगवान सूर्य के कोप से उनकी पत्नी छाया एवं शनि का घर कुम्भ (राशि) जलकर राख हो गया था। एक समय में धन, सोना तथा हीरे जवाहरात से भरा रहने वाला कुम्भ अब धन-सम्मानरहित हो गया। कालान्तर में पुत्र-मोह एवं यमराज के बहुत समझाने-बुझाने पर जब भगवान सूर्य अपनी पत्नी छाया के घर (कुम्भ) पर पहुँचे। तब उनकी पत्नी एवं पुत्र ने उनकी पूजा-अर्चना की। वात्सल्य प्रेम में भरकर भगवान सूर्य ने बताया कि अब तो मेरे शाप एवं किरणों के कोप के कारण तुम्हारा घर निर्धन हो गया है। तथा मेरा दिया गया शाप व्यर्थ नहीं होगा। किन्तु दूसरा घर (मकर) जो मैने तुम्हें दिया है। वह सम्पन्न रहेगा तथा मेरे आते ही रत्न मणि आदि से भर जाएगा। निर्धनता के कारण शनि एवं उनकी माता ने भगवान सूर्य की पूजा मात्र तिल से ही की थी क्योंकि उनके पास और कोई अन्न या दूसरी चीज नहीं थी। तथा शनि एवं छाया के रंग के कारण उस तिल का रंग भी काला हो गया था। अत: भगवान सूर्य ने यह वरदान दिया कि जो भी व्यक्ति इस अवसर पर अर्थात् मकर राशि में मेरे जाने पर तिल आदि से मेरी पूजा करेगा। उसके दैहिक, दैविक एवं भौतिक ताप, कष्ट एवं विपदा का नाश होगा।
संक्रांति काल के मुख्य देवता मुहूत्र्त भेद से तीन हैं। प्रथम भगवान सूर्य, दूसरे भगवान शिव तथा तीसरे धनु राशि के स्वामी देवगुरु बृहस्पति। लक्ष्मी प्राप्ति व रोग नाश के लिए भगवान सूर्य, विपत्ति तथा शत्रु नाश के लिए भगवान शिव। यश-सम्मान एवं ज्ञान, विद्या आदि प्राप्ति के लिए देवगुरु बृहस्पति की पूजा संक्रांति काल में क्रम से विधि-विधान से करनी चाहिए। संक्रांति के दिन पूजा के लिए तीन ही चीजों की आवश्यकता भी पड़ती है। गोरस (दूध, दही, घी), तिल एवं पीतांबर (वस्त्र एवं यज्ञोपवीत अर्थात जनैऊ)। गोरस से भगवान सूर्य, तिल-गुड़ से भगवान शिव तथा वस्त्र से बृहस्पति की पूजा करनी चाहिए। यह वर्णन श्रीमद्भागवत एवं देवी पुराण में विशद रूप से दिया गया है। संक्रांति अथवा संक्रमण एक जगह से दूसरी जगह जाने को कहते हैं। इसी प्रकार एक ग्रह का एक राशि से दूसरी राशि पर जाने को संक्रांति कहते हैं। हमारे सौर मंडल के ग्रहों का बिम्ब अथवा आकृति सूर्य की अपेक्षा छोटी है। सूर्य सबसे ज्यादा चमकीला है। जिसके कारण इसका प्रभाव पृथ्वी पर सबसे ज्यादा पड़ता है। इसलिए इसकी संक्रांति पृथ्वी के लिए सबसे महत्वपूर्ण है।
क्या है संक्रांति का पुण्यकाल.?
मित्रों अब हम संक्रंाति के पुण्यकाल का निर्धारण करते हैं। पुण्यकाल उसे कहते हैं। जिसमें कोई कार्य करने से महती फल की प्राप्ति होती है। धर्मशास्त्र में संक्रांति के पुण्यकाल में स्नान, दान, जप आदि बहुत पुण्यप्रद होते हैं। किन्तु यदि रात में संक्रांति होती है। तो उसमें स्नान दानादि कृत्य बहुत अच्छा फल नहीं देते हैं। किन्तु इस वर्ष की संक्रांति दिन में होने के कारण इसका विशेष पुण्यकाल दिन में ही होगा। उसमें भी चूँकि अभिजित मुहूर्त में यह संक्रांति हो रही है। अत: इसका फल कोटिश: फल देने वाला होगा।
अर्थात् यदि अद्र्धरात्रि के बाद मकर की संक्रांति हो और अद्र्धरात्रि के पूर्व कर्क की संक्रांति हो तो क्रम से पर एवं पूर्व दिन में पुण्यकाल होता है। किन्तु यह संक्रांति दिन की है। अत: पुण्यकाल दिन में ही होगा।
मकर संक्रांति के पुण्यकाल में किए जाने वाले कृत्यों के बारे में लिखा है कि-
सूर्य की मकर संक्रांति के महापावन पुण्यकाल पर जो व्यक्ति एक प्रस्थ घी ( पाँच सेर) से सूर्य पिण्ड को स्नान कराता है तथा उसे ब्राह्मणों को दान दे देता है। तथा परिवार वाले ब्राह्मण को सवत्सा (दूध देने वाली बछड़े समेत) गाय दान करता है। वह सब पापों से छूटकर सूर्य लोक को जाकर बहुत समय तक सुख भोगता है। पुन: वहाँ से आकर प्रजा को आनन्द देने वाला राजा होता है। इसे रवि का घृत स्नान कहते हैं। इसके अलावा मकर संक्रांति के दिन घृत कम्बल दान की बड़ी महिमा बताई गई है। जैसे-
माघे मासि महादेवे य: कूर्याद् घृतकम्बलम्। स भुक्त्वा सकलान्भोगानन्ते मोक्षं च विन्दति।
नरा भूपतयो जाता घृतकम्बल दानत:। जातिस्मराश्च ते जाता मुक्ताश्चान्ते शिवार्चक:॥
अर्थात् माघ मास में जो घृत कम्बल करता है। वह अनेकों भोगों को भोग कर अन्त में मोक्ष पा जाता है। घृत कम्बल देने से मनुष्य राजा हो गए, वे शिव पूजकर जातिस्मर और मुक्त हो गए। घृत कम्बल का तात्पर्य घी एवं कम्बल नहीं होता है।
शिव रहस्य में कहा गया है कि गाय के उत्तम घी को लेकर उसे हल्का गर्म कर दें। पुन: उसे ठंडा होने दें। वह घी थोड़ी देर में जम जाएगा। यह वजन में साढ़े तीन सेर होना चाहिए। यही घृत का महाकम्बल कहा जाता है। इसका चौथाई घी शाम को मंदिर में ले जाए। पहले किसी अन्य घी से शिवलिंग को स्नान कराएँ। बाद में वह शिवलिंग पर रख दें। 20 पल बाद में उसे शिवलिंग से नीचे उतार लें। उसके बाद दोनों तिल, सरसों, बिल्वपत्र और सुवर्ण रंग के कमल के फूल से भगवान शिव की पूजा करें। आरती पूजन के बाद वह घी किसी ब्राह्मण को दान कर दें। मकर संक्रांति के दिन किया जाने वाला यही महाघृतकम्बल कहा जाता है।
-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.09827198828
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