12 जनवरी विवेकानंद जयंती पर विशेष ...
युगांतकारी संत की गौरव गाथा
० हिंदु धर्म के पर्याय और "युवा आदर्श" हैं
युगांतकारी संत की गौरव गाथा
० हिंदु धर्म के पर्याय और "युवा आदर्श" हैं
-स्वामी विवेकानंद
---ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.09827198828
भारत वर्ष को आध्यात्म और दर्शन शास्त्र की शिक्षा से जोडऩे वाले युवा क्रांति के विचारक नरेंद्र नाथ ने अपने अल्प जीवन में जिस मशाल का प्रज्ज्वलित किया। उसे आज की बदली परिस्थितियों में बुझे रूप में देखा जा रहा है। राष्ट्र प्रेम का जोश अपने रोम-रोम में जागृत रखने वाले युवा दर्शन शास्त्री ने अमेरिका के शिकागो शहर में जिस उत्साह और उमंग का आभास कराते हुए भारत वर्ष को सम्मान की शिखर ऊंचाई प्रदान की वह आज के युवकों के लिए प्रेरणादायी होनी चाहिए। विडंबना की बात यह है कि हम प्रतिवर्ष 12 जनवरी को अपने लाडले संत और दार्शनिक आचार्य नरेंद्रनाथ (स्वामी विवेकानंद) को याद करते हुए खानापूर्ति ही कर पा रहे हैं। उनके बताए मार्ग पर चलना तो दूर हम उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतार भी नहीं पा रहे हैं। यह भी सर्वविदित तथ्य है कि विश्व का प्रत्येक देश अपने विकास के लिए युवाओं की बाट जोह रहा है। यदि देश का युवा भटक गया तो विकास की राह भी भटक जाएगी। जरूरत है देश के युवा को सही दिशा प्रदान करने की। आज जब हम स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं, तब भी 65 वर्षों से विकासशील देश की कतार में ही खड़े हैं। हम अपने भारतवर्ष को विक सित देश की श्रेणी केवल युवाओं की बैशाखी के सहारे ही दिला सकते हैं।
मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में हमारे देश को आध्यात्म और दर्शन के साथ संस्कृति के संगम से अवलोकित करने वाले नरेंद्रनाथ ऐसे ही स्वामी विवेकानंद नहीं बन गए। बचपन सेह ही धर्म के मार्ग पर चलने वाले गुरुओं को सम्मान की दृष्टि से देखने वाले नरेंद्रनाथ ने वही किया जो सांस्कृतिक धरा भारतवर्ष की फिजा में रचा-बसा था। स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवन में सुख अर्जन को प्राथमिकता न देते हुए ज्ञान की शाखा को महत्वपूर्ण माना और फिर ज्ञान की प्राप्ति के लिए आजीवन प्रयास करते रहे। आत्म परिवर्तन की शिक्षा को सबसे बड़ी शिक्षा मानने वाले आचार्य नरेंद्रनाथ स्वयं के विचारों में सकारात्मक बदलाव को समाज के प्रति सदैव हितकर माना। इनका मानना था कि सुख में ही आनंदित करने की सत्य नहीं है, बल्कि लोगों के दुखों को देखकर भी उन्हें आनंदित करने की युक्ति हमें संतोष प्रदान कर सकती है। सबके प्रति मित्रता का भाव रखते हुए दीन-दुखियों के प्रति दया का भाव मानवीय गुणों में समाहित होना चाहिए। अपने स्कूली जीवन से ही वाक कला में निपुण नरेंद्रनाथ ने अपनी वाक पटुता से सभी को अभिभूत कर दिखाया। उनकी वाक कला ही आकर्षण थी, जिसके चलते पूरी दुनिया में लोग उन्हें सुनने के लिए लालायित रहा करते थे। सभ्यता का शब्दकोष स्वामी विवेकानंद जी की वाणी में बसता था।
सन् 1893 का शिकागो का धर्म सम्मेलन इस बात का साक्षी है कि स्वामी विवेकानंद जी सभी धर्मों के प्रति आदर और सम्मान की भावना रखते थे। यही कारण था कि शिकागों में 11 सितंबर से 27 सितंबर तक चलने वाले धर्म सम्मेलन के प्रत्येक दिन लोग केवल स्वामी विवेकानंद जी को ही सुनना चाहते थे। इतना ही नहीं मीडिया ने भी पूरे 17 दिन स्वामी जी को पूरी तरह समाचार पत्रों में स्थान देकर भारत वर्ष के युवा संत की वाणी को पूरे विश्व में पहुंचाया। विश्वभर से पहुंचे सारे वक्ताओं में स्वामी विवेकानंद नि: संदेह रूप से सर्वश्रेष्ठ वक्ता स्वीकार किए। इसी सम्मेलन में पहुंचे हार्वर्ड युनिवर्सिटी के प्रोफेसर राईट ने तो यहां तक कह डाला कि यहां उपस्थित सारे लोगों की सम्मिलित बुद्धिमता से भी तीव्र बुद्धि विवेकानंद में है। सारी दुनिया के बुद्धिमान लोग स्वामी विवेकानंद के वशीभूत होकर यहां तक कहने लगे कि भारतवर्ष में स्वामी विवेकानंद के होते हुए किसी अन्य चीज की जरूरत ही नहीं है।
स्वामी विवेकानंद जी ने युवाओं का आव्हान करते हुए उनमें ऊर्जा का संचार करते हुए कहा कि किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सबसे पहले स्वयं पर श्रद्धा का भाव उत्पन्न करें। ऐसा कहने के पीछे उनका तर्क भी बड़ा ही स्पष्ट रहा है, जब तक मनुष्य स्वयं पर श्रद्धा नहीं रखेगा, तब तक उसे संसार के किसी भी प्राणी पर श्रद्धा नहीं आएगी। धर्म और आध्यात्म पर आस्था रखने वाले ही चरित्र के नैतिक बल के आधार पर संसार पर विजय पा सकते हैं, और विकास के हर पायदान पर परचम लहराते हुए विकास की राह पर अग्रसर हो सकते हैं। अपने जीवन काल में स्वामी विवेकानंद ने सदैव ही युवा शक्ति और उनके नैतिक बल को प्रोत्साहन देने अनेक प्रकार से आव्हान करते हुए, राष्ट्र विकास में उस वर्ग की सहभागिता दर्ज कराने प्रयास किया। समय-समय पर युवा शक्ति को प्रेरणा देते हुए आत्मबल में वृद्धि करते रहना ही स्वामी जी का मुख्य कार्य रहा है। शिक्षा को विकास का द्वार स्वीकार करते हुए स्वामी जी ने इस बात का प्रचार-प्रसार भी किया कि अशिक्षा ही व अवगुण है, जो हमारे विकास में आड़े आ रही है। देश की कुल जन संख्या में बराबरी की हिस्सेदार महिलाओं के साक्षर होने पर उन्होंने बल दिया है। उनका मानना था कि जिस देश की नारी शिक्षा से वंचित होगी, उस देश का विकास सपने में भी पूरा नहीं होगा। शिक्षा के लिए जन जागृति फै लाते हुए विवेकानंद जी ने समाज में प्रचलित रूढ़ीवादी परम्पराओं को समाप्त करने भी अभियान चलाया। इसमें विशेष रूप से बाल विवाह का विरोध करते हुए नारी सबलता के कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित कराया। विधवा विवाह के पक्ष में खड़े होते हुए सति प्रथा जैसी कुरीतियों पर स्वामी जी ने प्रहार किया है।
शिकागो सम्मेलन में स्वामी जी के उद्गार हमें सदैव पे्ररणा देते रहेंगे, उन्हीं के शब्दों में 'मुझको ऐसे धर्मावलंबी होने का गौरव है, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सब धर्मों को मान्यता प्रदान करने की शिक्षा दी है। मुझे आप से यह निवेदन करते गर्व होता है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूं, जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंगे्रजी शब्द द्ग3ष्द्यह्वह्यद्बशठ्ठ का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने पर अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीडि़त और शरणागत जातियों तथा विभिन्न धर्मों के बहिष्कृत मतावलंबियों को आश्रय दिया। मुझे यह बतलाते गर्व होता है कि जिस वर्ष यहुदियों का पवित्र मंदिर रोमण जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया, उसी वर्ष कुछ अभिजात यहुदी आश्रय लेने दक्षिण भारत में आए और हमारी जाति ने उन्हें छाती से लगाकर शरण दी। ऐसे धर्म में जन्म लेने पर मुझे अभिमान है, जिसने पारसी जाति की रक्षा की और उसका पालन अब तक कर रहा है।
विवेकानंद जी की दैहिक मृत्यु के बाद भी वे हम सबके लिए आज भी जिंदा है, और जिंदा हैं उनकी शिक्षा, संस्कार एवं आध्यात्मिक जागरण। वे हमारे बीच सदैव जीवित रहेंगे, कारण यह कि उन्होंने भारतीयता को जागृत करने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। विवेकानंद जी ने अपने जीवन काल में भारतीय सभ्यता और विचारों की श्रेष्ठता को पूरे विश्व के सामने अभिव्यक्त किया। उन्होंने सर्व धर्म समभाव तथा मानव मात्र की सेवा का अनूठा संदेश पश्चिमी देशों को दिया। अपने व्यक्तित्व एवं परिश्रम द्वारा अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों, विचारों तथा शिक्षा को संपूर्ण संसार में पहुंचाया। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं कि 'स्वामी जी ने अपनी वाणी और कर्तव्य से भारतवासियों में यह अभिमान जगाया कि हम अत्यंत प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे धार्मिक ग्रंथ संसार में सबसे उन्नत और हमारा इतिहास सबसे महान है। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता पहले उत्पन्न हुई, राजनीतिक राष्ट्रीयता बाद में जन्मी और इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पिता स्वामी विवेकानंद ही हैं।
---ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.09827198828
भारत वर्ष को आध्यात्म और दर्शन शास्त्र की शिक्षा से जोडऩे वाले युवा क्रांति के विचारक नरेंद्र नाथ ने अपने अल्प जीवन में जिस मशाल का प्रज्ज्वलित किया। उसे आज की बदली परिस्थितियों में बुझे रूप में देखा जा रहा है। राष्ट्र प्रेम का जोश अपने रोम-रोम में जागृत रखने वाले युवा दर्शन शास्त्री ने अमेरिका के शिकागो शहर में जिस उत्साह और उमंग का आभास कराते हुए भारत वर्ष को सम्मान की शिखर ऊंचाई प्रदान की वह आज के युवकों के लिए प्रेरणादायी होनी चाहिए। विडंबना की बात यह है कि हम प्रतिवर्ष 12 जनवरी को अपने लाडले संत और दार्शनिक आचार्य नरेंद्रनाथ (स्वामी विवेकानंद) को याद करते हुए खानापूर्ति ही कर पा रहे हैं। उनके बताए मार्ग पर चलना तो दूर हम उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतार भी नहीं पा रहे हैं। यह भी सर्वविदित तथ्य है कि विश्व का प्रत्येक देश अपने विकास के लिए युवाओं की बाट जोह रहा है। यदि देश का युवा भटक गया तो विकास की राह भी भटक जाएगी। जरूरत है देश के युवा को सही दिशा प्रदान करने की। आज जब हम स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं, तब भी 65 वर्षों से विकासशील देश की कतार में ही खड़े हैं। हम अपने भारतवर्ष को विक सित देश की श्रेणी केवल युवाओं की बैशाखी के सहारे ही दिला सकते हैं।
मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में हमारे देश को आध्यात्म और दर्शन के साथ संस्कृति के संगम से अवलोकित करने वाले नरेंद्रनाथ ऐसे ही स्वामी विवेकानंद नहीं बन गए। बचपन सेह ही धर्म के मार्ग पर चलने वाले गुरुओं को सम्मान की दृष्टि से देखने वाले नरेंद्रनाथ ने वही किया जो सांस्कृतिक धरा भारतवर्ष की फिजा में रचा-बसा था। स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवन में सुख अर्जन को प्राथमिकता न देते हुए ज्ञान की शाखा को महत्वपूर्ण माना और फिर ज्ञान की प्राप्ति के लिए आजीवन प्रयास करते रहे। आत्म परिवर्तन की शिक्षा को सबसे बड़ी शिक्षा मानने वाले आचार्य नरेंद्रनाथ स्वयं के विचारों में सकारात्मक बदलाव को समाज के प्रति सदैव हितकर माना। इनका मानना था कि सुख में ही आनंदित करने की सत्य नहीं है, बल्कि लोगों के दुखों को देखकर भी उन्हें आनंदित करने की युक्ति हमें संतोष प्रदान कर सकती है। सबके प्रति मित्रता का भाव रखते हुए दीन-दुखियों के प्रति दया का भाव मानवीय गुणों में समाहित होना चाहिए। अपने स्कूली जीवन से ही वाक कला में निपुण नरेंद्रनाथ ने अपनी वाक पटुता से सभी को अभिभूत कर दिखाया। उनकी वाक कला ही आकर्षण थी, जिसके चलते पूरी दुनिया में लोग उन्हें सुनने के लिए लालायित रहा करते थे। सभ्यता का शब्दकोष स्वामी विवेकानंद जी की वाणी में बसता था।
सन् 1893 का शिकागो का धर्म सम्मेलन इस बात का साक्षी है कि स्वामी विवेकानंद जी सभी धर्मों के प्रति आदर और सम्मान की भावना रखते थे। यही कारण था कि शिकागों में 11 सितंबर से 27 सितंबर तक चलने वाले धर्म सम्मेलन के प्रत्येक दिन लोग केवल स्वामी विवेकानंद जी को ही सुनना चाहते थे। इतना ही नहीं मीडिया ने भी पूरे 17 दिन स्वामी जी को पूरी तरह समाचार पत्रों में स्थान देकर भारत वर्ष के युवा संत की वाणी को पूरे विश्व में पहुंचाया। विश्वभर से पहुंचे सारे वक्ताओं में स्वामी विवेकानंद नि: संदेह रूप से सर्वश्रेष्ठ वक्ता स्वीकार किए। इसी सम्मेलन में पहुंचे हार्वर्ड युनिवर्सिटी के प्रोफेसर राईट ने तो यहां तक कह डाला कि यहां उपस्थित सारे लोगों की सम्मिलित बुद्धिमता से भी तीव्र बुद्धि विवेकानंद में है। सारी दुनिया के बुद्धिमान लोग स्वामी विवेकानंद के वशीभूत होकर यहां तक कहने लगे कि भारतवर्ष में स्वामी विवेकानंद के होते हुए किसी अन्य चीज की जरूरत ही नहीं है।
स्वामी विवेकानंद जी ने युवाओं का आव्हान करते हुए उनमें ऊर्जा का संचार करते हुए कहा कि किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सबसे पहले स्वयं पर श्रद्धा का भाव उत्पन्न करें। ऐसा कहने के पीछे उनका तर्क भी बड़ा ही स्पष्ट रहा है, जब तक मनुष्य स्वयं पर श्रद्धा नहीं रखेगा, तब तक उसे संसार के किसी भी प्राणी पर श्रद्धा नहीं आएगी। धर्म और आध्यात्म पर आस्था रखने वाले ही चरित्र के नैतिक बल के आधार पर संसार पर विजय पा सकते हैं, और विकास के हर पायदान पर परचम लहराते हुए विकास की राह पर अग्रसर हो सकते हैं। अपने जीवन काल में स्वामी विवेकानंद ने सदैव ही युवा शक्ति और उनके नैतिक बल को प्रोत्साहन देने अनेक प्रकार से आव्हान करते हुए, राष्ट्र विकास में उस वर्ग की सहभागिता दर्ज कराने प्रयास किया। समय-समय पर युवा शक्ति को प्रेरणा देते हुए आत्मबल में वृद्धि करते रहना ही स्वामी जी का मुख्य कार्य रहा है। शिक्षा को विकास का द्वार स्वीकार करते हुए स्वामी जी ने इस बात का प्रचार-प्रसार भी किया कि अशिक्षा ही व अवगुण है, जो हमारे विकास में आड़े आ रही है। देश की कुल जन संख्या में बराबरी की हिस्सेदार महिलाओं के साक्षर होने पर उन्होंने बल दिया है। उनका मानना था कि जिस देश की नारी शिक्षा से वंचित होगी, उस देश का विकास सपने में भी पूरा नहीं होगा। शिक्षा के लिए जन जागृति फै लाते हुए विवेकानंद जी ने समाज में प्रचलित रूढ़ीवादी परम्पराओं को समाप्त करने भी अभियान चलाया। इसमें विशेष रूप से बाल विवाह का विरोध करते हुए नारी सबलता के कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित कराया। विधवा विवाह के पक्ष में खड़े होते हुए सति प्रथा जैसी कुरीतियों पर स्वामी जी ने प्रहार किया है।
शिकागो सम्मेलन में स्वामी जी के उद्गार हमें सदैव पे्ररणा देते रहेंगे, उन्हीं के शब्दों में 'मुझको ऐसे धर्मावलंबी होने का गौरव है, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सब धर्मों को मान्यता प्रदान करने की शिक्षा दी है। मुझे आप से यह निवेदन करते गर्व होता है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूं, जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंगे्रजी शब्द द्ग3ष्द्यह्वह्यद्बशठ्ठ का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने पर अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीडि़त और शरणागत जातियों तथा विभिन्न धर्मों के बहिष्कृत मतावलंबियों को आश्रय दिया। मुझे यह बतलाते गर्व होता है कि जिस वर्ष यहुदियों का पवित्र मंदिर रोमण जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया, उसी वर्ष कुछ अभिजात यहुदी आश्रय लेने दक्षिण भारत में आए और हमारी जाति ने उन्हें छाती से लगाकर शरण दी। ऐसे धर्म में जन्म लेने पर मुझे अभिमान है, जिसने पारसी जाति की रक्षा की और उसका पालन अब तक कर रहा है।
विवेकानंद जी की दैहिक मृत्यु के बाद भी वे हम सबके लिए आज भी जिंदा है, और जिंदा हैं उनकी शिक्षा, संस्कार एवं आध्यात्मिक जागरण। वे हमारे बीच सदैव जीवित रहेंगे, कारण यह कि उन्होंने भारतीयता को जागृत करने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। विवेकानंद जी ने अपने जीवन काल में भारतीय सभ्यता और विचारों की श्रेष्ठता को पूरे विश्व के सामने अभिव्यक्त किया। उन्होंने सर्व धर्म समभाव तथा मानव मात्र की सेवा का अनूठा संदेश पश्चिमी देशों को दिया। अपने व्यक्तित्व एवं परिश्रम द्वारा अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों, विचारों तथा शिक्षा को संपूर्ण संसार में पहुंचाया। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं कि 'स्वामी जी ने अपनी वाणी और कर्तव्य से भारतवासियों में यह अभिमान जगाया कि हम अत्यंत प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे धार्मिक ग्रंथ संसार में सबसे उन्नत और हमारा इतिहास सबसे महान है। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता पहले उत्पन्न हुई, राजनीतिक राष्ट्रीयता बाद में जन्मी और इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पिता स्वामी विवेकानंद ही हैं।
--ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.०९८२७१९८८२८ लेखक ''ज्योतिष का सूर्य''राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के संपादक हैं !!!
(किसी भी आलेख का कापी करना दंडनीय आपराध है ऐसा पाए जाने पर कार्यवाई की जाएगी)
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