सोने की चिड़ीया को लील गये भ्रष्ट अधिकारी व नेता
सुशासन और भ्रष्टाचार पर कौटील्य जी के संविधान-सूत्र
-पं.विनोद चौबे
लगभग देश के हर प्रांतों में एक के बाद एक कालेधन के धनाढ़्य चपरासीयों से लेकर बाबू और बड़े अफसरशाहियों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता के नये खुलासों ने एक बात तो जरूर साबीत कर दिया है कि नीचे से उपर तक लगभग अधिकांशतः कर्मचारी व नेता भ्रष्ट आचरण वाले हैं, जो भारत(सोने की चिड़ीया) को लीकर देश को गर्त में डालने पर अमादा हैं।सुशासन वर्तमान शब्दावलि है लेकिन यह तबसे चला आ रहा है जबसे मानव समाज का विकास हुआ है। सुशासन को महात्मा गांधी ने रामराज्य के आदर्भ राज्य के रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया था। गांधीजी का यह कथन है कि, ’’हम राज्य को रामराज्य तभी कह सकते हैं जब राजा और प्रजा दोनों सरल हो, जब राजा और प्रजा दोनों के हृदय पवित्र हों, जब दोनों त्यागवृत्ति रखते हों, भोगो का सुख उठाते हुए भी संकोच और संयम रखते हो, और जब दोनों के बीच पिता और पुत्र जैसे सम्बंध हों। हम यह बात भूल गये, इसलिए डेमोक्रेशी की बातें करते हैं। आज डेमोक्रेशी का जमाना है। मुझे नहीं मालूम इसका क्या अर्थ है किन्तु जहाँ प्रजा की आवाज सुनी जाती है, जहाँ प्रजा के प्रेम को मान्यता मिलता है, कहा जा सकता है कि वहाँ डेमोक्रेशी है।‘‘ गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरित मानस में लिखा है। दैहिक ’’दैविक भौतिक ताया। राम राज्य कांहू नहीं व्याया।‘‘ अर्थात् राम राज्य में मनुष्य शारीरिक, सांसारिक और दैवी परेशानी से मुक्त होता है। यहीं वर्तमान सुशासन का मूलमंत्र हो सकता है। सुशासन या ’रामराज्य‘ पर वर्तमान चित्तकों के अलावा प्राचीन काल से ही विचार किया गया है। पाश्चात्य और भारतीय चिन्तक इस सन्दर्भ में अपनी बात रखते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों में प्लेटों का आर्दश राज्य महत्त्वपूर्ण है। भारतीय परिवेश में सुशासन के निर्देशक तत्व प्राचीनकाल से अभी तक ज्यादा परिवर्तन नहीं हुए है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सुशासन के दस निर्देशक तत्व प्राप्त होते हैं। कौटिल्य कहता है कि, ’’राज राज्य का सेवक है जिसकी अपनी कोई व्यक्तिगत इच्छा नही होती ।‘‘ यह वर्तमान सुशासन के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव है क्योंकि आज के तृतीय विश्व के देशों में राजसेवक सामान्य जनता के सामने स्वामी के रूप में कार्य करते हैं। कौटिल्य भ्रष्ट अधिकारीयों के विरूद्ध दण्ड की बात करता है। एक कहावत है यथा राजा तथा प्रजा । कौटिल्य भी कहता है कि राजा का दिल ही प्रजा का शील है। राजा या राज्य के अधिकारी जैसें होंगे प्रजा भी वैसी ही होगी । इसी लिए राजकर्मचारीयों को अपने आचार का नैतिक स्तर ऊंचा रखने की बात की जाती है, ताकि वह संभाग जनता के लिए एक आर्दश हो सके। यदि अधिकारी आर्दशवान नही होगा तो शासन भी आर्दशमय नहीं रहेगा अर्थात आचरण की अभुद्धता पूरी व्यवस्था को पटरी से उतार ने वाली होती है। भ्रष्टाचार को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भ्रष्टाचार दो शहरों से मिलकर बना हैं - भ्रष्ट + आचाार अर्थात् आचार का भ्रष्ट होना । इसे शब्दों में कह सकते है कि व्यहवार का गलत होना या हमारे जीवन के कर्त्तव्यों का गलत होना अर्थात् अपनी भूमिका में गलत होना ।
दर असल तथ्यपरक दृष्टिकोंण से देखने की आवश्यकता है..सुशासन को महात्मा गांधी ने रामराय के आदर्भ राय के रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया था। गांधीजी का यह कथन है कि, ''हम राय को रामराय तभी कह सकते हैं जब राजा और प्रजा दोनों सरल हो, जब राजा और प्रजा दोनों के हृदय पवित्र हों, जब दोनों त्यागवृत्ति रखते हों, भोगो का सुख उठाते हुए भी संकोच और संयम रखते हो, और जब दोनों के बीच पिता और पुत्र जैसे सम्बंध हों। हम यह बात भूल गये, इसलिए डेमोक्रेसी की बातें करते हैं। आज डेमोक्रेसी का जमाना है। मुझे नहीं मालूम इसका क्या अर्थ है किन्तु जहाँ प्रजा की आवाज सुनी जाती है, जहाँ प्रजा के प्रेम को मान्यता मिलता है, कहा जा सकता है कि वहाँ डेमोक्रेसी है।'' गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरित मानस में लिखा है। दैहिक दैविक भौतिक ताया। राम राय कांहू नहीं व्याया। अर्थात् राम राय में मनुष्य शारीरिक, सांसारिक और दैवी परेशानी से मुक्त होता है।
यहीं वर्तमान सुशासन का मूलमंत्र हो सकता है। सुशासन या 'रामराय' पर वर्तमान चित्तकों के अलावा प्राचीन काल से ही विचार किया गया है। पाश्चात्य और भारतीय चिन्तक इस सन्दर्भ में अपनी बात रखते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों में प्लेटों का आर्दश राय महत्त्वपूर्ण है। भारतीय परिवेश में सुशासन के निर्देशक तत्व प्राचीनकाल से अभी तक यादा परिवर्तन नहीं हुए है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सुशासन के दस निर्देशक तत्व प्राप्त होते हैं। कौटिल्य कहता है कि, ''राज राय का सेवक है जिसकी अपनी कोई व्यक्तिगत इच्छा नही होती ।'' यह वर्तमान सुशासन के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव है क्योंकि आज के तृतीय विश्व के देशों में राजसेवक सामान्य जनता के सामने स्वामी के रूप में कार्य करते हैं। कौटिल्य भ्रष्ट अधिकारियों के विरूध्द दण्ड की बात करता है। एक कहावत है यथा राजा तथा प्रजा । कौटिल्य भी कहता है कि राजा का दिल ही प्रजा का शील है। राजा या राय के अधिकारी जैसें होंगे प्रजा भी वैसी ही होगी । इसी लिए राजकर्मचारियों को अपने आचार का नैतिक स्तर ऊंचा रखने की बात की जाती है, ताकि वह संभाग जनता के लिए एक आर्दश हो सके। यदि अधिकारी आर्दशवान नही होगा तो शासन भी आर्दशमय नहीं रहेगा अर्थात आचरण की अभुध्दता पूरी व्यवस्था को पटरी से उतार ने वाली होती है। भ्रष्टाचार को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भ्रष्टाचार आज आधुनिक समाज मे अधिक भी व्यापक हो गया हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भ्रष्टाचार अभी उत्पन्न हुआ है। यह प्राचीन काल से चला आ रहा है। हां, प्राचीन काल में इसका स्वरूप इतना व्यापक नही था। प्रारम्भ में आचरण की शुध्दता को एक आवश्यक अंग के रूप में माना जाता था, तभी कौटिल्य कहता है कि राजा का शील ही प्रजा का शील हैं, जैसा राजा होगा प्रजा भी वैसी ही होगी। इसलिए राजा को सर्वयुग सम्पन्न, निजीगिणु और इन्द्रियजमी होना चाहिए अर्थात प्राचीन काल में भ्रष्टाचार की सामाजिक मान्यता नहीं थी। मानव आचार या व्यहवार मानव को शुध्द रखने का प्रयास करता था। और शास्त्रों में उस बात की व्यवस्था है कि आचरण शुध्द हो ।
सत्ता अहिंसा अस्तेय (चोरी नहीं करना) अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक धन का संग्रह नहीं) और ब्रह्मचर्य आचार के इन पांच नियमों का उल्लेख लगभग सभी शास्त्रों (गीता, वेदों, जैन ग्रन्थों, बौध्द ग्रन्थों वैष्णव ग्रन्थों योग आदि में मिल जाता है।) अस्तेय और अपरिग्रह व्यक्ति की आवश्यकताओं को कम करने का प्रयास करते है और सत्य, अहिंसा, और ब्रह्मचर्य नैतिक मूल्यों की सवारनें का प्रयास करते है। इस दृष्टि से नैतिक मूल्यों और सामाजिक मूल्य का श्रेष्ठ हो जाना सद्आचरण का कार्य है। भ्रष्टाचार के विरूध्द सदाचार को बढाने तथा राजा का अव्यवस्था और कुशासन से बचाने की बातें प्राचीन धर्म ग्रथों में कही गयी है। धर्मशास्त्रों में लिखा है कि यदि किसी अधिकारी की आमदनी थोडी और खर्च अधिक दिखायी दे तो समझ लेना चाहिए की वह राय के धन का अपहरण कर रहा है। इसी तरह अन्यत्र लिखा है कि यदि आमदनी जितनी है उतना ही व्यय दिखाई दे रहा है तो समझ लेना चाहिए कि वह न तो राजधन का गबन का काम करता है और न रिश्वत लेता है। लेकिन कौटिल्य कहता है कि धन का अपहरण करने वाला भी थोडा खर्च कर सकता है। अत: गुप्तचरों द्वारा इस कार्य का ठीक पता लगाना चाहिए। जो अधिकारी नियमित आय में कभी दिखता है - वह निश्चय ही राजधन में अपहरण करता है यदि उसकी अज्ञानता, प्रमाद एवं आलस्य के कारण - कमी हुई है तो उसे अपराध के अनुसार दुगुना, तिगुना, दण्ड दिया जाना चाहिए। यदि वह उस दुगुनी आय को राजकोष के लिए भेज देता है तो उतना दण्ड देना चाहिए। और यदि वह उस धन को राजकोष में जाया नहीं करके स्वयं खा जाता है तो उसे कठोर दण्ड देना चाहिए। एक अन्य स्थान पर कौटिल्य लिखता है कि यदि कोई अधिकारी राजकीय धन का गबन करके उसको अदा करने में असमर्थ हो तो वह धन क्रमश: उसके हिस्सेदार, उसके जामिन, उसके अधिनस्थ कर्मचारी, उसके पुत्र एवं भाई, उसकी स्त्री एवं लडकी अथवा उसके नौकर से वसूलना चाहिए। महाभारत के शांतिपर्व में भी लिखा है कि सोने आदि की खान, नमक अनाज आदि की मण्डी, नाव के घाट तथा हाथियों के पूथ् इन सब स्थानों पर होने वाली आय के निरीक्षण के लिए मंत्रियों को अथवा अपना हित चाहने वाले विश्वसनीय पुरूषों को राजा नियुक्त करें।
यहीं वर्तमान सुशासन का मूलमंत्र हो सकता है। सुशासन या 'रामराय' पर वर्तमान चित्तकों के अलावा प्राचीन काल से ही विचार किया गया है। पाश्चात्य और भारतीय चिन्तक इस सन्दर्भ में अपनी बात रखते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों में प्लेटों का आर्दश राय महत्त्वपूर्ण है। भारतीय परिवेश में सुशासन के निर्देशक तत्व प्राचीनकाल से अभी तक यादा परिवर्तन नहीं हुए है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सुशासन के दस निर्देशक तत्व प्राप्त होते हैं। कौटिल्य कहता है कि, ''राज राय का सेवक है जिसकी अपनी कोई व्यक्तिगत इच्छा नही होती ।'' यह वर्तमान सुशासन के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव है क्योंकि आज के तृतीय विश्व के देशों में राजसेवक सामान्य जनता के सामने स्वामी के रूप में कार्य करते हैं। कौटिल्य भ्रष्ट अधिकारियों के विरूध्द दण्ड की बात करता है। एक कहावत है यथा राजा तथा प्रजा । कौटिल्य भी कहता है कि राजा का दिल ही प्रजा का शील है। राजा या राय के अधिकारी जैसें होंगे प्रजा भी वैसी ही होगी । इसी लिए राजकर्मचारियों को अपने आचार का नैतिक स्तर ऊंचा रखने की बात की जाती है, ताकि वह संभाग जनता के लिए एक आर्दश हो सके। यदि अधिकारी आर्दशवान नही होगा तो शासन भी आर्दशमय नहीं रहेगा अर्थात आचरण की अभुध्दता पूरी व्यवस्था को पटरी से उतार ने वाली होती है। भ्रष्टाचार को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भ्रष्टाचार आज आधुनिक समाज मे अधिक भी व्यापक हो गया हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भ्रष्टाचार अभी उत्पन्न हुआ है। यह प्राचीन काल से चला आ रहा है। हां, प्राचीन काल में इसका स्वरूप इतना व्यापक नही था। प्रारम्भ में आचरण की शुध्दता को एक आवश्यक अंग के रूप में माना जाता था, तभी कौटिल्य कहता है कि राजा का शील ही प्रजा का शील हैं, जैसा राजा होगा प्रजा भी वैसी ही होगी। इसलिए राजा को सर्वयुग सम्पन्न, निजीगिणु और इन्द्रियजमी होना चाहिए अर्थात प्राचीन काल में भ्रष्टाचार की सामाजिक मान्यता नहीं थी। मानव आचार या व्यहवार मानव को शुध्द रखने का प्रयास करता था। और शास्त्रों में उस बात की व्यवस्था है कि आचरण शुध्द हो ।
सत्ता अहिंसा अस्तेय (चोरी नहीं करना) अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक धन का संग्रह नहीं) और ब्रह्मचर्य आचार के इन पांच नियमों का उल्लेख लगभग सभी शास्त्रों (गीता, वेदों, जैन ग्रन्थों, बौध्द ग्रन्थों वैष्णव ग्रन्थों योग आदि में मिल जाता है।) अस्तेय और अपरिग्रह व्यक्ति की आवश्यकताओं को कम करने का प्रयास करते है और सत्य, अहिंसा, और ब्रह्मचर्य नैतिक मूल्यों की सवारनें का प्रयास करते है। इस दृष्टि से नैतिक मूल्यों और सामाजिक मूल्य का श्रेष्ठ हो जाना सद्आचरण का कार्य है। भ्रष्टाचार के विरूध्द सदाचार को बढाने तथा राजा का अव्यवस्था और कुशासन से बचाने की बातें प्राचीन धर्म ग्रथों में कही गयी है। धर्मशास्त्रों में लिखा है कि यदि किसी अधिकारी की आमदनी थोडी और खर्च अधिक दिखायी दे तो समझ लेना चाहिए की वह राय के धन का अपहरण कर रहा है। इसी तरह अन्यत्र लिखा है कि यदि आमदनी जितनी है उतना ही व्यय दिखाई दे रहा है तो समझ लेना चाहिए कि वह न तो राजधन का गबन का काम करता है और न रिश्वत लेता है। लेकिन कौटिल्य कहता है कि धन का अपहरण करने वाला भी थोडा खर्च कर सकता है। अत: गुप्तचरों द्वारा इस कार्य का ठीक पता लगाना चाहिए। जो अधिकारी नियमित आय में कभी दिखता है - वह निश्चय ही राजधन में अपहरण करता है यदि उसकी अज्ञानता, प्रमाद एवं आलस्य के कारण - कमी हुई है तो उसे अपराध के अनुसार दुगुना, तिगुना, दण्ड दिया जाना चाहिए। यदि वह उस दुगुनी आय को राजकोष के लिए भेज देता है तो उतना दण्ड देना चाहिए। और यदि वह उस धन को राजकोष में जाया नहीं करके स्वयं खा जाता है तो उसे कठोर दण्ड देना चाहिए। एक अन्य स्थान पर कौटिल्य लिखता है कि यदि कोई अधिकारी राजकीय धन का गबन करके उसको अदा करने में असमर्थ हो तो वह धन क्रमश: उसके हिस्सेदार, उसके जामिन, उसके अधिनस्थ कर्मचारी, उसके पुत्र एवं भाई, उसकी स्त्री एवं लडकी अथवा उसके नौकर से वसूलना चाहिए। महाभारत के शांतिपर्व में भी लिखा है कि सोने आदि की खान, नमक अनाज आदि की मण्डी, नाव के घाट तथा हाथियों के पूथ् इन सब स्थानों पर होने वाली आय के निरीक्षण के लिए मंत्रियों को अथवा अपना हित चाहने वाले विश्वसनीय पुरूषों को राजा नियुक्त करें।
क्योंकि हमारे आपके बीच से ही कोई महापुरूष विधायक, मंत्री और लाल अथवा पीली बत्तीधारी होते हैं..लेकिन पद पर आसीन होने के बाद अपने आपको उसी भ्रष्टाचार के काल कोठरी में सहज ही आबद्ध हो जाते हैं..इसका कारण क्या है और इससे बचने के उपाय क्या हैआदि संदर्भों पर विचार किया जाना चाहिए..मेरे अनुसार..कोई भी मंत्री अथवा नेता भ्रष्ट नही होता उन नेताओं को जनता ही भ्रष्ट बनाती है क्योंकि चुनकर जाने के बाद उस पार्टी के कार्यकर्ताओं और उस क्षेत्र में रहने वाले आम नागरिकों के की अपेक्षाएं..इतनी बढ़ जाती हैं कि नेता जी के कोटे में मिला करोंड़ों रूपये भी कम पड़ जाता है...और उसकी पूर्ती के लिए उस नेता को इधर उधर हाथ पैर तो मारना ही पड़ता है चुंकी अगला चुनाव भी जीत कर आना है इसलिए अतीरीक्त धन की आवश्यकता होती है और साथ ही पार्टी के आलाकमान तक चुनावी फंड भी पहुंचाना रहता ही है.कुल मिलाकर हमें और आपको ही इस भ्रष्टाचार से अपने आप में ही स्वाभाविक परीवर्तन की लड़ाई लड़नी होगी।
अब बात की जाय भ्रष्ट अधिकारियों की तो इनके उपर एक के बाद एक नेता और मंत्रीयों की घुड़की इनके फोनों में प्रायः सुनी जाती है अर्थात इन पर ट्रान्सफर और नौकरी जाने के खतरे इनको इतना परेशान करते हैं कि ये इन अनिश्चितताओं से बचने का सरल उपाय मंत्रीयों और नेताओं के इशारे पर चलना ही बेहतर समझते हैं और यहीं से शुरूआत होती हैं इन पीली बत्तीधारी नौकरशाहों का भ्रष्टाचार और इनके आदत में ही अपना स्थायी निवास बना लेता है। एक दिन उन्हीं राजनेताओं के दलाल छुटभैय्ये नेताओं के शिकायत पर इन नौकरशाहों के घर लोकायुक्त का छापा पड़ता है..कुल मिलाकर हमें इनसे बचने के लिए..श्रीराम शर्मा आचार्य जी की बात..हम सुधरेंगे जग सुधरेगा..को अपनाना होगा और कबीर जी इस वाणी को सदैव याद रखना होगा..बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलीया कोय..तो निश्चित ही इस भ्रष्टाचार रूपी राक्षस से बचा जा सकता है ..क्योंकि आज जो इस भ्रष्टाचार के विरोध में हैं क्या वह पद मिलने के बाद भी इस राक्षस से बच पैयेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं हैं। जरूरत है हमें स्वयं सुधार लाने के बजाय खुद सुधरने की।
अब बात की जाय भ्रष्ट अधिकारियों की तो इनके उपर एक के बाद एक नेता और मंत्रीयों की घुड़की इनके फोनों में प्रायः सुनी जाती है अर्थात इन पर ट्रान्सफर और नौकरी जाने के खतरे इनको इतना परेशान करते हैं कि ये इन अनिश्चितताओं से बचने का सरल उपाय मंत्रीयों और नेताओं के इशारे पर चलना ही बेहतर समझते हैं और यहीं से शुरूआत होती हैं इन पीली बत्तीधारी नौकरशाहों का भ्रष्टाचार और इनके आदत में ही अपना स्थायी निवास बना लेता है। एक दिन उन्हीं राजनेताओं के दलाल छुटभैय्ये नेताओं के शिकायत पर इन नौकरशाहों के घर लोकायुक्त का छापा पड़ता है..कुल मिलाकर हमें इनसे बचने के लिए..श्रीराम शर्मा आचार्य जी की बात..हम सुधरेंगे जग सुधरेगा..को अपनाना होगा और कबीर जी इस वाणी को सदैव याद रखना होगा..बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलीया कोय..तो निश्चित ही इस भ्रष्टाचार रूपी राक्षस से बचा जा सकता है ..क्योंकि आज जो इस भ्रष्टाचार के विरोध में हैं क्या वह पद मिलने के बाद भी इस राक्षस से बच पैयेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं हैं। जरूरत है हमें स्वयं सुधार लाने के बजाय खुद सुधरने की।
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