ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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सोमवार, 2 जुलाई 2012

गुरू-पूर्णिमा

गुरू-पूर्णिमा

शिष्यों को विद्यादान करते गुरू व्यास

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।
'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु'
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। 

-:गुरु स्तुति:-

"अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥1!!

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥2!!

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरू साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नम:!!3!!

स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किञ्चित् सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥4!!

चिन्मयं व्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥5!!

सर्वश्रुति शिरोरत्न विराजित पदाम्बुजः।
वेदान्ताम्बुज सूर्याय तस्मै श्री गुरवे नमः॥6!!

चैतन्य शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निञ्जनः।
बिन्दु नाद कलातीतःतस्मै श्री गुरवे नमः॥7!!

ज्ञानशक्ति समारूढःतत्त्व माला विभूषितम्।
भुक्ति मुक्ति प्रदाता च तस्मै श्री गुरवे नमः॥8!!

अनेक जन्म सम्प्राप्त कर्म बन्ध विदाहिने।
आत्मज्ञान प्रदानेन तस्मै श्री गुरवे नमः॥9!!

शोषणं भव सिन्धोश्च ज्ञापनं सार संपदः।
गुरोर्पादोदकं सम्यक् तस्मै श्री गुरवे नमः॥10!!

न गुरोरधिकं त्तत्वं न गुरोरधिकं तपः।
तत्त्व ज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥11!!

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोर्पदम् ।
मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोर्कृपा॥12!!

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम्॥13!!

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं।
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद् गुरूं तन्नमामि॥14!!

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥15!!

ध्यानं सत्यं पूजा सत्यं सत्यं देवो निरञ्जनम्।
गुरिर्वाक्यं सदा सत्यं सत्यं देव उमापतिः॥"16!!

-:अर्थ और विवेचना:-

इस गुरू वंदना में गुरू के स्वरूप,शक्ति,सृजन और महत्व का सूक्ष्म रहस्य छिपा हैं।गुरू,ब्रह्मा है,गुरू विष्णु है,गुरूदेव महेश्वर है।गुरू साक्षात परम ब्रह्म है,उनको नमस्कार है।गुरू ब्रह्मा क्यों है?कारण कई जन्मों के बुरे संस्कारों से हमारे अन्दर बहुत सा विकार पैदा हो गया है।हम दैविक मार्ग पर चलेंगे,क्या उसके लिए हमारा शरीर,मन,बुद्धि तैयार है या नहीं।हम उस रास्ते चलेंगे जो सुनने में आसान लगता है लेकिन जब उस पर चलेंगे तो ऐसा प्रतीत होगा कि बहुत ही कठिन एवं दुर्गम रास्ता है।इस कारण से गुरू को भी ब्रह्मा के जैसे ही हमारे अंदर के विकार और गन्दगी को हटाकर बुद्धि को शुद्ध कर हमारे बिगड़े संस्कार को ठीक करना पड़ता है।यानि साधना,संयम,योग,जप द्वारा गुरू हमे चलने लायक बना देते है।गुरू विष्णु के जैसे हमारा पालन करेंगे वरना हम भौतिक कष्ट से मर्माहत होकर साधना क्या कर पायेंगे।कोइ भी साधक या संत हो भले ही वो त्यागी हो फिर भी जरूरत की चीज मिल जाये और किसी के सामने शर्म से सिर झुकाकर भिक्षा या दान न मांगना पड़े।इसके लिए गुरू बिष्णु जैसा बनकर साधना,मंत्र,तंत्र द्वारा या वर,आशिर्वाद देकर उस लायक बना देते है कि सब कुछ स्वतः प्राप्त होता रहे।गुरू विष्णु के समान है जब चाहे भक्त,साधक को पुष्ट बना दें ताकि उसे साधना मार्ग में कभी भी भौतिक विघ्न न सताये।गुरू महेश्वर यानि शिव है जिनके पास सारी शक्तियां विद्यमान है परन्तु दाता होते हुए भी कोई दिखावा नहीं है।वो सबका मालिक है।गुरू का यह रूप सदाशिव सदगुरू बनकर साधक और भक्त को दिव्य शक्ति प्रदान करवाते है।यहाँ जो भी करते हैं,गुरू ही करते है।कारण कैसी साधना,कौन सा मंत्र या क्या करना है यह गुरू कृपा से ही प्रदान होती है।ये अपने शिष्य को जगत के सारे रहस्य से परिचित कराके स्वयं और शक्ति की लीला का साक्षात्कार कराने के साथ ही आत्म दर्शन द्वारा साकार परमात्मा के परम ब्रह्म का ज्ञान कराते है।
व्यास जयन्ती ही गुरुपूर्णिमा है। गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। गुरुपरंपरा को ग्रहण लगाया तो सद्गुरु का लेबिल लगाकर धर्मभीरुता की आड़ में धंधा चलाने वाले ‘‘कालिनेमियों ने। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। ‘व्यास’ का शाब्दिक संपादक, वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। ‘‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’’ अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुत्व है। आगम-निगम-पुराण का निरंतर संपादन ही व्यास रूपी सद्गुरु शिष्य को परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार का माध्यम है। जिससे मिलती है सारूप्य मुक्ति। तभी कहा गया- ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।’’ आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनका मूल कारण है गुरु-शिष्य परंपरा का टूटना। श्रद्धावाॅल्लभते ज्ञानम्। आज गुरु-शिष्य में भक्ति का अभाव गुरु का धर्म ‘‘शिष्य को लूटना, येन केन प्रकारेण धनार्जन है’’ क्योंकि धर्मभीरुता का लाभ उठाते हुए धनतृष्णा कालनेमि गुरुओं को गुरुता से पतित करता है। यही कारण है कि विद्या का लक्ष्य ‘मोक्ष’ न होकर धनार्जन है। ऐसे में श्रद्धा का अभाव स्वाभाविक है। अन्ततः अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचारादि कदाचार बढ़ा। व्यासत्व यानी गुरुत्व अर्थात् संपादकत्व का उत्थान परमावश्यक है। 

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