हमारी पत्रकारिता का प्रभाष पाठ
By संजय तिवारीआज से छिहत्तर साल पहले वे पंढरीनाथ के पूत बनकर आये थे. तीन साल पहले पत्रकारिता के सपूत होकर चले गये. जिन्दगी भर दिमाग का काम दिल से किया इसलिए दिल जल्दी साथ छोड़ गया. कुछ साल पेसमेकर ने शरीर की गाड़ी चलाई लेकिन मशीन भी भला क्योंकर साथ देती? वे सब तो कबके साथ छोड़कर छिटक गये जो प्रभाष जोशी की पैदाइश थे तो मशीन को क्या पड़ी थी कि गाड़ी को हांकती रहती? प्रभाष जी ने भी तो मशीन से लंबा नाता रखने का इरादा छोड़ दिया था. मानों वे भी जिन्दगी से छिटककर दूर ही चले जाना चाहते थे. वे चले भी गये. जनम मरण के इन तिहत्तर सालों के बीच में बोया ज्यादा काटा कम. फिर भी तिहत्तर सालों बाद जब वे जम के जाजम पर लेटे तो पीछे पछाड़ खाकर गिरनेवालों की कमी न थी. पीत से भी परे श्वेत श्याम के बंटवारे में बंटती जाती पत्रकारिता का वह पितामह अपने जीते जी वह कर चुका था जिसके लिए इतिहास उसे पंढरीनाथ के पूत के रूप में शायद न जान पाये लेकिन पत्रकारिता के सपूत के रूप में जरूर याद रखेगी.
उनके आगे कौन था उसे भला हम कैसे देख सुन सकते हैं. वे कहां से आये और क्या क्या किया इसे भी परखने की परखनली जिनके पास हो वे परखें. लेकिन उनके जीवन के आखिरी दशक और सदी की शुरूआत में अक्सर उनसे देखा ताकी हो जाती थी. वे दिखते थे. झक सफेद कुर्ते धोती में. चौड़ी किनारी लगी हुई. एक हाथ में धोती का एक पहलू पकड़े मानों हर वक्त वे जंग लड़ने को तैयार हैं. चलते फिरते जिधर घूमते तो इस अंदाज में मानों असुरों को दंहजते हुए सरपट आगे सरक जाएंगे. धोती का यही पहलू पकड़े वे आखिर के लगभग पूरे दशक दोड़ लगाते रहे. उत्तर से दक्षिण. पूरब से पश्चिम. जहां जिसने बुला लिया वहां पहुंच गये. कहीं पत्रकारिता की पुकार तो कहीं आम आदमी की गुहार. उनके दिल में लगी मशीन भी उनको यह मनमानी करने से रोक न पाती थी. हो सकता है उसने कई दफा खतरे की लाल बत्ती जलाई हो लेकिन प्रभाष जी इस बत्ती को पार करने की हिमाकत से कभी कतराए नहीं. आखिर इस भागदौड़ से वहां कहां पहुंचना चाहते थे? वह क्या था जो छूटा जा रहा था और जिसे पकड़ने के लिए प्रभाष जी काया की उस माया से भी न बंधे रह सके जो उनके होने के लिए आखिरी जरूरी औजार था?
दशक भर की देखा ताकी में प्रभाष जोशी तो क्या समझ में आते, अलबत्ता यह जरूर लगता रहा कि शिखर से उतर यह आमदी सुस्ताने की बजाय नये नये शिखर गढ़ने की कोशिश कर रहा है. जहां पत्रकारिता अपने पराकाष्ठा पर पहुंचकर झंडा गाड़ देती है, प्रभाष जोशी उसके आगे के काम में लग गये थे. सबको खबर देनेवाला सबकी खबर ले रहा था. दहाड़े मार रहा था और दौड़ लगा रहा था. बता रहा था कि देखो, ये अखबार तुम्हें गुमराह कर सकते हैं. ये सरकारें तुम्हें गुमराह कर सकती है. ये बाजार तुम्हारा सौदा कर सकते हैं. तुम्हें समझना होगा कि तुम अखबार और बाजार दोनों के लिए औजार हो गये हो. सावधान हो जाओ. शब्द ब्रह्म नहीं रहा. शब्द नाद नहीं रहा. शब्द अपवाद भी नहीं रहा. शब्द अवसाद बनता जा रहा है तुम्हारे लिए. इसलिए उन शब्दों से सावधान रहो, जो तुम्हें सुनाये जा रहे हैं. उन अर्थों से सावधान रहो जो तुम्हें समझाए जा रहे हैं. मानों वे उसी अखबार के खिलाफ आंदोलन करने उतर पड़े थे जिसकी आधुनिक बुनियाद उन्होंने रखी.
तीन साल में तीन पांच करनेवाले बहुत सारे लोग प्रभाष जोशी की पत्रकारिता का आंकलन कर चुके हैं. कर रहे हैं. करते रहेंगे. लेकिन लगता नहीं कि प्रभाष जोशी की पत्रकारिता का आंकलन अगले तीस सालों में भी हो सकेगा. हमारी पत्रकारिता में प्रभाष जोशी जो बीज छींट गये हैं उनका वृक्ष हो जाना अभी भी शायद बाकी है. प्रभाष जोशी का जनसत्ता या उनके जनसत्ताइट वे बीज नहीं हैं जिससे प्रभाष परंपरा विकसित होगी. ये तो हल कुदाल थे जिसका इस्तेमाल प्रभाष जोशी ने बीज बोने के लिए किया. प्रभाष जोशी ने जनसत्ता के जरिए जो बीज बोये हैं, वे कहां कब वृक्ष बनकर आकार लेंगे यह समय बताएगा. लेकिन इतना निश्चित है कि वही बीज पत्रकारिता में प्रभाष जोशी की परंपरा बनेंगे.
इसे, जिसे हम आप पत्रकारिता कहते हैं उसका हिन्दी वाला हिस्सा बिना प्रभाष जोशी के कभी पूरा नहीं होगा. पूरा तो छोड़िए, शुरू ही नहीं होगा. सन तिरासी की सोलह नवंबर को उन्होंने भारत के अखबारी इतिहास में जिस जनसत्ता को लाकर पटका था उसने अपनी चंद सालों की चरम यात्रा में न जाने कितनों को पटखनी दी. चरम पर पहुंचकर जनसत्ता क्यों चरमराया यह तो शोध का विषय है लेकिन इस चरमराहट से पहले प्रभाष जोशी ने साहित्य के सांचे से पत्रकारिता की मूरत भी गढ़ ली थी और उसकी सूरत भी बना दी थी. सूरत ऐसी की जो देखता वह देखता रह जाता. पहुंच और प्रभाव के स्तर पर लगभग गर्त में जा चुके जनसत्ता के जनसत्ताइट पत्रकार ही नहीं, बल्कि पाठक आज भी मौजूद हैं जिनके लिए पत्रकारिता प्रभाष जोशी के जनसत्ता से शुरू होती है और प्रभाष जोशी के जनसत्ता पर ही खत्म हो जाती है. उनके लिए प्रभाष जोशी थे तो पत्रकारिता थी. प्रभाष जोशी नहीं हैं तो पत्रकारिता भी नहीं है. ये शायद अतिरेक पर होंगे लेकिन इतना तो तय है कि यह जो पत्रकारिता है, यह बिना प्रभाष पाठ के शुरू ही नहीं होती.
साठ और सत्तर के दशक में उधर जब लोकतंत्र नवनिर्माण का ककहरा शुरू कर रहा था तो जरूरी था कि पठन पाठन की उस विधा को भी नया आयाम मिलता जिसने आजादी के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी. खुद भवानी बाबू प्रभाष जोशी के अग्रज थे. गांधी के बाद के गांधी बिनोबा भी मौजूद थे. मेल मिलाप और संयोग से पहले गांधीवादी विचार और प्रचार ही शुरू हुआ लेकिन प्रभाष जोशी इस पगडंडी पर बहुत देर चल न पाये. हो सकता है वे यह समझ चुके हों कि विचार को सिर्फ धारा नहीं चाहिए. वे उस धारा को सहस्रार तक ले जाने के लिए मानों सुषुम्ना बन गये थे. पत्रकारिता और विचार की इड़ा पिंगड़ा के बीच उन्होंने जो सुषुम्ना स्वरूप अख्तियार किया वह आजाद भारत में वैसा ही था जैसा गुलाम भारत में गांधी का आंदोलन. गांधी भी तो सबको समाहित करते थे. नरम गरम सबका चरम आखिर गांधी पर जाकर मिल ही जाता था. प्रभाष जोशी ने भी जो मूरत गढ़ी उसमें भी तो सबको अपना ही अक्स नजर आता था. जो देखता, कहता अरे, यह तो 'अपन' है.
लेकिन पत्रकारिता पर प्रभाष पाठ की यह त्रिवेणी तब तक संगम न बनेगी जब तक इसमें राजेन्द्र माथुर और उदयन शर्मा शामिल नहीं हो जाते. हमारी आधुनिक हिन्दी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर और उदयन शर्मा ऐसी इड़ा पिंगड़ा हैं जो सुषुम्ना के साथ साथ सहस्रार तक पहुंचते हैं. हिन्दी की आधुनिक राष्ट्रीय पत्रकारिता के मूल में प्रभाष जोशी के अलावा राजेन्द्र माथुर और उदयन शर्मा भी मौजूद हैं. माथुर साहब और पंडित जी की पत्रकारिता कुछ अर्थों में एकांगी जरूर थी, लेकिन बिना उनके बात कभी पूरी नहीं होगी. प्रभाष जोशी इन दोनों का समन्वय बन गये थे. माथुर साहब और पंडित जी दोनों जहां आ आकर ठिठक गये प्रभाष जोशी उस बाधा को भी सरपट पार कर गये थे. शायद इसीलिए वे हमारी राष्ट्रीय पत्रकारिता के पितामह बने नजर आते हैं. कोई तीन दशक में अखबारी पत्रकारिता ने जो पुराण निर्मित किया है उसमें प्रभाष जोशी का पाठ प्रस्थान भी है और मध्यान्ह भी हैं. प्रस्थान इस अर्थ में कि यहां से हमने हिन्दी पत्रकारिता में राष्ट्र देखा था और मध्यान्ह इसलिए क्योंकि राष्ट्र का समग्र दर्शन सिर्फ और सिर्फ प्रभाष जोशी की पत्रकारिता में ही होता है. वह राष्ट्र जो जन जन में बसता है. वह राष्ट्र जिसका धर्म एक है, भाव एक है और स्वभाव एक है. और इसी विचार विन्दु पर प्रभाष जोशी हमारी पत्रकारिता के ऐसी त्रिवेणी बन जाते हैं जिसमें डूबने वाला पार लग जाता है. क्यों? गलत बोलता हूं?
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