ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे,सम्पादक ''ज्योतिष का सूर्य'', राष्ट्रीय मासिक पत्रिका भिलाई, | दुर्ग छत्तीसगढ़, 9827198828 |
समुद्र की नीली चादर के शीतल आंचल में बसा उड़ीसा का पुरी, पूरी दुनिया में भगवान जगन्नाथ की मंदिर के लिए प्रसिध्दी पा चुका है। समुद्रतट के किनारे भगवान जगन्नाथ का भव्य मंदिर अपनी मनोहारी प्राकृतिक छटा के कारण धर्म और आस्था का केन्द्र बना हुआ है, पुरी के नीलमय समुद्र से गुजरने वाला समुद्री जहाज अपने यात्रियों सहित मंदिर के गगनचुम्बी गुम्बद और लहराती पताका को देख खुद को भाग्यशाली समझता है। महान तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित इस धार्मिक आस्था वाले मंदिर में भगवान जगन्नाथ सहित उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की काष्ठ की बनी मूर्तियाँ श्रध्दालुओं को अनायास ही आकर्षित एवं लोमहर्षित करती आ रही है। पुराणों में आयी कथा के अनुसार सभी मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा राजा इन्द्रद्युम्न ने मंत्रोच्चारण व विधि विधान से स्वयं की थी। प्रतिवर्ष आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की द्वितीया को निकलने वाली भगवान जगन्नाथ की यात्रा से पूर्व आज भी साफ-सफाई का जिम्मा राज परिवार ही उठा रहा है, इस यात्रा को च्च्गुण्डीच यात्राज्ज् भी कहा जाता है।
भारतीय प़ृष्ठ भूमि पर मनाये जाने वाले अनेक पर्व त्यौहार और मेलो में भगवान जगन्नाथ रथयात्रा अलग स्थान रखती है। एक तो मंदिर में स्थापित मूर्तियां काष्ठ अथवा लकड़ ी की बनी होती है, दूसरा यह कि प्रतिवर्ष नई मूर्तियों का निर्माण भगवान के रंग रूप में एकरूपता बनाये हुये है, जिसे स्वये भगवान की कृपा ही माना जा सकता है। नीम की पवित्र लकड़ी से बनी मूर्तियों में भगवान के अपूर्ण हाथो केे पीछे भी कथानक होने की जानकारी दी जा रही है। कहते है मंदिर निर्माण से पूर्व भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्ति निर्माण का कार्य जिस कारीगर को सौंपा गया था, उसने राजा के समक्ष शर्त रखी थी की वह अकेले बंद कमरे में भगवान का रूप गढ़ेगा और पूर्णता के बाद स्वयं दरवाजा खोल दर्शन करायेगा। इससे पूर्व यदि किसी ने दरवाजा खोलकर भगवान को गढते उसे देखा तो वह काम को वही पर रोक देगा। हुआ भी यही उत्सुकता वश राजा ने स्वयं दरवाजा खोल दिया उस समय भगवान के हाथों की हथेली का निर्माण नही किया जा सका था, यही कारण है कि अब तक भगवान की मूर्तियां हथेली विहिन है।
भगवान जगन्नाथ की यात्रा के लिये रथ का निर्माण केवल लकडिय़ों से ही किया जाता है। तीनों रथों में किसी भी प्रकार के लोहे के कीलों का उपयोग नही किया जाता है बल्कि लकड़ी से ही कील बनाये जाते है। अक्षय तृतीया अथवा भगवान परशुराम के जन्मदिन से भगवान के रथों का निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है। साथ ही रथ निर्माण के लिये उपयोग में लायी जाने वाली लकडिय़ा बसंत पंचमी के दिन से इकठ्ठा करना शुरू कर दिया जाता है। पुराने रथों की लकडिय़ा मंदिर परिसर में ही नीलाम कर दी जाती है, जिसे श्रद्धालु खरीदनें के बाद अपने घरों के दरवाजे और खिड़किया बनाने में उपयोग में लाते है। ऐसा भी कहा जाता है कि मंदिर में स्थापित मूर्तियों का नवीन स्वरूप प्रतिवर्ष नही बनाया जाता है, बल्किी जिस वर्ष आषाढ़ मास में अधिक मास होता है, उसी वर्ष नई मूर्तियाँ गढ़ी जाती है। नई मूर्ति गढऩे का उत्सव नव कलेवर उत्सव के रूप में मनाया जाता है। भगवान की पूरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में ही च्च्कोयली बैकुण्ठज्ज् नामक स्थान पर भू-समाधि दे दी जाती है।
भगवान जगन्नाथ मंदिर में रथ यात्रा आयोजन के लिये 3 अलग-अलग भव्य रथों का निर्माण किया जाता है। ये रथ भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र एवं बहन सुभद्रा के लिये पहचान स्वरूप अलग-अलग रंग रोगन द्वारा सजाये जाते है। भाई बलभद्र के लिये तैयार रथ को च्च्पाल ध्वजज्ज् नाम दिया जाता है, और इसे लाल एवं हरे रंग से आकर्षक रूप प्रदान किया जाता है। इसी तरह बहन सुभद्रा के रथ को च्च्दर्प-दलनज्ज् नामकरण करते हुए लाल एवं नीले रंग से सजाया जाता है तथा भगवान जगन्नाथ के लिये तैयार रथ को च्च्नंदीघोषज्ज् नाम से जाना जाता है, जिसे लाल एवं पीले रंग से नयनाभिराम रूप प्रदान किया जाता है। रथयात्रा वाले दिन सबसे आगे भाई बलभद्र का रथ उसके बाद बीच में बहन सुभद्रा का रथ और अंत में भगवान जगन्नाथ का च्च्नंदीघोष रथज्ज् पूजा अर्चना के बाद मंदिर परिसर से रवाना किया जाता है। जगह-जगह लाखों की संख्या में भक्तजन भगवान की आरती और पूजा करते दिखाई पड़ते है। रथ को श्रध्दालु भक्त रस्सी के माध्यम से खींचते हुये चलाते है, जिसे अपना हाथ लगाने धर्मावलंबियों के बीच प्रतिस्पर्धा का स्वरूप भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन विधिविधान सहित तैयार किये गये रथ पर भगवान को विराजित किया जाता है, आकर्षक वस्त्रों और श्रृगांरित रूप में भगवान के परम दर्शन भक्तों को एक अलग अनुभूति का आनंद दिलाता प्रतीत होता है। भगवान को रथ में लाकर उचित स्थान देने की प्रक्रिया को च्च्पहोन्द्री महोत्सवज्ज् कहा जाता है। जब रथ पूर्ण रूप से सज-धज कर भगवान सहित यात्रा के लिये तैयार हो जाता है तब पुरी के राजा पालकी में आकर स्वयं प्रार्थना करते है तथा प्रतिकात्मक रूप से रथ मंडप को झाडू से साफ करते है। इस परम्परा को च्च्छर-पहनराज्ज् कहा जाता है। इस प्रकार तैयारी के साथ शुरू की गई महान रथयात्रा गुण्डीच मंदिर जाकर विराम पाती है, जहां भगवान अपनी बहन और भाई के साथ नवमी तिथि तक रहते है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को सभी रथों को मुख्य मंदिर की ओर दिशा देते हुये पुनर्यात्रा प्रारंभ होती है। इस वापसी यात्रा को च्च्बहुदा यात्राज्ज् कहा जाता है। रथों के मुख्य मंदिर पहुंचने के बाद उनमें से मूर्तियों को नही उतारा जाता है, बल्कि एक दिन प्रतिमाये रथों में ही रहती है। आगामी दिवस एकादशि तिथि पर जब प्रात:काल मंदिर के द्वार खोले जाते है, तब भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा का श्रृंगार विभिन्न आभूषणों तथा शुध्द स्वर्ण के गहनों से किया जाता है। इस धार्मिक प्रक्रिया का सुनबेसा कहा जाता है। भगवान की बापसी के बाद भक्तजनों को वितरित किया जाने वाला महाप्रसाद मंदिर परिसर में ही तैयार किया जाता है। इस महाप्रसाद में अरहर की दाल, चांवल, साग,दही व खीर जैसे व्यंजनों को शामिल किया जाता है। इस प्रकार भगवान जगन्नाथ की पवित्र यात्रा हिन्दु धर्मावलम्बियों को पूरे 10 दिन जोड़े रखती है इस दौरान भक्तगण अपने घरों में पूजा पाठ आदि न करते हुये इन्ही आयोजनों में भागीदारी कर रहे होते है।
भारतीय प़ृष्ठ भूमि पर मनाये जाने वाले अनेक पर्व त्यौहार और मेलो में भगवान जगन्नाथ रथयात्रा अलग स्थान रखती है। एक तो मंदिर में स्थापित मूर्तियां काष्ठ अथवा लकड़ ी की बनी होती है, दूसरा यह कि प्रतिवर्ष नई मूर्तियों का निर्माण भगवान के रंग रूप में एकरूपता बनाये हुये है, जिसे स्वये भगवान की कृपा ही माना जा सकता है। नीम की पवित्र लकड़ी से बनी मूर्तियों में भगवान के अपूर्ण हाथो केे पीछे भी कथानक होने की जानकारी दी जा रही है। कहते है मंदिर निर्माण से पूर्व भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्ति निर्माण का कार्य जिस कारीगर को सौंपा गया था, उसने राजा के समक्ष शर्त रखी थी की वह अकेले बंद कमरे में भगवान का रूप गढ़ेगा और पूर्णता के बाद स्वयं दरवाजा खोल दर्शन करायेगा। इससे पूर्व यदि किसी ने दरवाजा खोलकर भगवान को गढते उसे देखा तो वह काम को वही पर रोक देगा। हुआ भी यही उत्सुकता वश राजा ने स्वयं दरवाजा खोल दिया उस समय भगवान के हाथों की हथेली का निर्माण नही किया जा सका था, यही कारण है कि अब तक भगवान की मूर्तियां हथेली विहिन है।
भगवान जगन्नाथ की यात्रा के लिये रथ का निर्माण केवल लकडिय़ों से ही किया जाता है। तीनों रथों में किसी भी प्रकार के लोहे के कीलों का उपयोग नही किया जाता है बल्कि लकड़ी से ही कील बनाये जाते है। अक्षय तृतीया अथवा भगवान परशुराम के जन्मदिन से भगवान के रथों का निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है। साथ ही रथ निर्माण के लिये उपयोग में लायी जाने वाली लकडिय़ा बसंत पंचमी के दिन से इकठ्ठा करना शुरू कर दिया जाता है। पुराने रथों की लकडिय़ा मंदिर परिसर में ही नीलाम कर दी जाती है, जिसे श्रद्धालु खरीदनें के बाद अपने घरों के दरवाजे और खिड़किया बनाने में उपयोग में लाते है। ऐसा भी कहा जाता है कि मंदिर में स्थापित मूर्तियों का नवीन स्वरूप प्रतिवर्ष नही बनाया जाता है, बल्किी जिस वर्ष आषाढ़ मास में अधिक मास होता है, उसी वर्ष नई मूर्तियाँ गढ़ी जाती है। नई मूर्ति गढऩे का उत्सव नव कलेवर उत्सव के रूप में मनाया जाता है। भगवान की पूरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में ही च्च्कोयली बैकुण्ठज्ज् नामक स्थान पर भू-समाधि दे दी जाती है।
भगवान जगन्नाथ मंदिर में रथ यात्रा आयोजन के लिये 3 अलग-अलग भव्य रथों का निर्माण किया जाता है। ये रथ भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र एवं बहन सुभद्रा के लिये पहचान स्वरूप अलग-अलग रंग रोगन द्वारा सजाये जाते है। भाई बलभद्र के लिये तैयार रथ को च्च्पाल ध्वजज्ज् नाम दिया जाता है, और इसे लाल एवं हरे रंग से आकर्षक रूप प्रदान किया जाता है। इसी तरह बहन सुभद्रा के रथ को च्च्दर्प-दलनज्ज् नामकरण करते हुए लाल एवं नीले रंग से सजाया जाता है तथा भगवान जगन्नाथ के लिये तैयार रथ को च्च्नंदीघोषज्ज् नाम से जाना जाता है, जिसे लाल एवं पीले रंग से नयनाभिराम रूप प्रदान किया जाता है। रथयात्रा वाले दिन सबसे आगे भाई बलभद्र का रथ उसके बाद बीच में बहन सुभद्रा का रथ और अंत में भगवान जगन्नाथ का च्च्नंदीघोष रथज्ज् पूजा अर्चना के बाद मंदिर परिसर से रवाना किया जाता है। जगह-जगह लाखों की संख्या में भक्तजन भगवान की आरती और पूजा करते दिखाई पड़ते है। रथ को श्रध्दालु भक्त रस्सी के माध्यम से खींचते हुये चलाते है, जिसे अपना हाथ लगाने धर्मावलंबियों के बीच प्रतिस्पर्धा का स्वरूप भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन विधिविधान सहित तैयार किये गये रथ पर भगवान को विराजित किया जाता है, आकर्षक वस्त्रों और श्रृगांरित रूप में भगवान के परम दर्शन भक्तों को एक अलग अनुभूति का आनंद दिलाता प्रतीत होता है। भगवान को रथ में लाकर उचित स्थान देने की प्रक्रिया को च्च्पहोन्द्री महोत्सवज्ज् कहा जाता है। जब रथ पूर्ण रूप से सज-धज कर भगवान सहित यात्रा के लिये तैयार हो जाता है तब पुरी के राजा पालकी में आकर स्वयं प्रार्थना करते है तथा प्रतिकात्मक रूप से रथ मंडप को झाडू से साफ करते है। इस परम्परा को च्च्छर-पहनराज्ज् कहा जाता है। इस प्रकार तैयारी के साथ शुरू की गई महान रथयात्रा गुण्डीच मंदिर जाकर विराम पाती है, जहां भगवान अपनी बहन और भाई के साथ नवमी तिथि तक रहते है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को सभी रथों को मुख्य मंदिर की ओर दिशा देते हुये पुनर्यात्रा प्रारंभ होती है। इस वापसी यात्रा को च्च्बहुदा यात्राज्ज् कहा जाता है। रथों के मुख्य मंदिर पहुंचने के बाद उनमें से मूर्तियों को नही उतारा जाता है, बल्कि एक दिन प्रतिमाये रथों में ही रहती है। आगामी दिवस एकादशि तिथि पर जब प्रात:काल मंदिर के द्वार खोले जाते है, तब भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा का श्रृंगार विभिन्न आभूषणों तथा शुध्द स्वर्ण के गहनों से किया जाता है। इस धार्मिक प्रक्रिया का सुनबेसा कहा जाता है। भगवान की बापसी के बाद भक्तजनों को वितरित किया जाने वाला महाप्रसाद मंदिर परिसर में ही तैयार किया जाता है। इस महाप्रसाद में अरहर की दाल, चांवल, साग,दही व खीर जैसे व्यंजनों को शामिल किया जाता है। इस प्रकार भगवान जगन्नाथ की पवित्र यात्रा हिन्दु धर्मावलम्बियों को पूरे 10 दिन जोड़े रखती है इस दौरान भक्तगण अपने घरों में पूजा पाठ आदि न करते हुये इन्ही आयोजनों में भागीदारी कर रहे होते है।
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