ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

!!विशेष सूचना!!
नोट: इस ब्लाग में प्रकाशित कोई भी तथ्य, फोटो अथवा आलेख अथवा तोड़-मरोड़ कर कोई भी अंश हमारे बगैर अनुमति के प्रकाशित करना अथवा अपने नाम अथवा बेनामी तौर पर प्रकाशित करना दण्डनीय अपराध है। ऐसा पाये जाने पर कानूनी कार्यवाही करने को हमें बाध्य होना पड़ेगा। यदि कोई समाचार एजेन्सी, पत्र, पत्रिकाएं इस ब्लाग से कोई भी आलेख अपने समाचार पत्र में प्रकाशित करना चाहते हैं तो हमसे सम्पर्क कर अनुमती लेकर ही प्रकाशित करें।-ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे, सम्पादक ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका,-भिलाई, दुर्ग (छ.ग.) मोबा.नं.09827198828
!!सदस्यता हेतु !!
.''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के 'वार्षिक' सदस्यता हेतु संपूर्ण पता एवं उपरोक्त खाते में 220 रूपये 'Jyotish ka surya' के खाते में Oriental Bank of Commerce A/c No.14351131000227 जमाकर हमें सूचित करें।

ज्योतिष एवं वास्तु परामर्श हेतु संपर्क 09827198828 (निःशुल्क संपर्क न करें)

आप सभी प्रिय साथियों का स्नेह है..

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

वगैर सात फेरों के लाई गयीं उज्ज्वला...तिवारी के पद प्रतिष्ठा को जलाकर भस्म कर सकती है


वगैर सात फेरों के लाई गयीं उज्ज्वला...तिवारी के
पद प्रतिष्ठा को जलाकर भस्म कर सकती है

कहा जाता है कि- मनुष्य को जीवन में बहुत संभल कर चलना चाहिए.। प्रतिष्ठित व्यक्तित्व को संभलने की जरुरत होती है।  स्वामी विवेकानन्द जी के साथ भी कई बार ऐसी घटनाएँ हुईं होंगी इस लिए उन्होंने...अधिक न बोलते हुए अथवा किसी वर्ग विशेष का नाम न लेते हुए उन्होंने मात्र यही कहा कि- ''पर्वत के शिखरों से गिरा व्क्ति एक बार उठने की कोशिश कर सकता है परन्तु चरित्र भ्रष्ट व्यक्ति समाज के नजरों से गिरा हुआ कदापि नहीं उठ सकता।'' उनकी बात आज प्रासंगिक है शायद इस बात का खयाल ''श्री एन.डी.तिवारी'' जी को रहता तो यह नौबत नहीं आती।
इस पूरे प्रसंग में एक दूसरा भी पहलु है, वह है...--शास्त्रों में स्त्री को सावित्री, पूज्या और यहां तक की - ''यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता''...कह कर और महत्त्व दिया गया। किन्तु साथ ही यह भी कहा गया कि स्त्री अग्नि से भी अधिक जलाने की क्षमता वाली ''अग्निशिखा'' भी कहा गया, अर्थात् यदि आग और तिनके को एक साथ रखोगे तो निश्चित ही आग की क्षमता उस तिनके अथवा काष्ठ से अधिक होती है अतः प्रभुत्त्वशाली आग उस काष्ठ रुपी तिवारी के पद-प्रतिष्ठा को जलाकर भस्म कर देगी। यदि उसी ''अग्निशिखा'' (उज्ज्वला शर्मा) रुपी स्त्री को अग्नि के सात फेरे लगाकर घर में देवी स्वरुप लाया जाय और उससे 'रोहित' जैसा पुत्र पैदा होगा तो इस प्रकार के कोर्ट के असंख्य फेरे नहीं लगाने पड़ेंगे। मित्रों किसी भी प्रकार की फिसलन न हो इसका हमेशा खयाल रखें नहीं तो आग में ममता नहीं होती पर सात फेरे लेकर बनी माँ  के अन्दर ममता अवश्य होती है। अतएव पुनः ऐसी घटना न हो उसके लिए कोर्ट का फैसला काबिले तारीफ है जो उभयपक्षी (स्त्री-पुरुष) वर्ग के मर्यादा हेतु संबल का काम करेगा। पं.विनोद चौबे
सत्यमेव जयते नानृतं
सत्येन पन्था विततो देवयानः |
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा
यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम् ||६||

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

...जब भगवान कृष्ण भी अपने ही परिजनों के सामने असहाय हुए..।

...जब भगवान कृष्ण भी अपने ही परिजनों के सामने असहाय हुए..।


मित्रों सुप्रभात, कहा जाता है कि - विश्व के सभी शक्तिशाली महान योद्धाओं पर आप विजय प्राप्त कर सकते हैं लेकिन अपनों से ही हार का सामना करना पड़ता है। भगवान कृष्ण भी अपनों से हार की इस पीड़ा को देवर्ष नारद से बताकर हम सभी को संदेश देना चाहते हैं कि- ऐसा मेरे भी साथ हुआ है अतः आप सभी मेरे भक्त इस परिस्थिति से घहड़ाएं नहीं बल्कि अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए, आत्महत्या करने के बजाय, समाधान कर धर्म का पालन करें।

कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । मित्रों, श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम बलराम था जो अपनी शक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे प्रद्युम्न अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष नारद के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा।
महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:
''अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम। वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥''
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥

''बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे। रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥''
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
जरूरत है, इस विषम परिस्थिति में अधर्म रुपी आत्महत्या, हिंसा के अलावा समाधान की आवश्यकता है। -ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई
(आपको कैसा लगा अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें)

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

देखना धर्मक्षेत्र में कुरुक्षेत्र सेंध न लगा दे...।भगवान शिव के विराट रुप का दर्शन

देखना धर्मक्षेत्र में कुरुक्षेत्र सेंध न लगा दे...।


''स्थित्यदनाभ्यां च ''।।1।3।7।.

 स्थित्यदनाभ्याम् - एक ही शरीर में साक्षी रुप से स्थित और दूसरे के द्वारा सुख- दुःखप्रद विषयका उपभोग बताया गया है, इसलिए, च- भी(जीवात्मा और परमात्मा का भेद सिद्ध होता है)। इसी आत्मा और परमात्मा का व्याख्या मुण्डकोपनिषद तथा श्वेताश्वरोपनिषद(4।6) में कहा गया है कि-
'' द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। 
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादुवत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।। ''
अर्थात एक साथ रहते हुए भी परस्पर सख्यभाव रखने वाले दो पक्षी (जीवात्मा और परमात्मा) एक ही शरीर रुपी वृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं। उन दोनों में से  एक (जीवात्मा) तो उस वृक्षके करमफलस्वरुप सुख-दुःखों का स्वाद ले लेकर (आसक्तिपूर्वक) उपभोग करता है, किन्तु दूसरा (परमात्मा) न खाता हुआ, न उपभोग करता हुआ केवल दर्शक के रुप में देखता रहता है। मित्रों इसी जीवात्मा और परमात्मा के पार्स्परिक द्वन्द्व युद्ध को महाभारत में धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र का होना बताया गया जैसा कि के श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है ...धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। अर्थात मनुष्य के के साथ दोनों ही क्षेत्र सदा रहते हैं परन्तु कर्मफलगत धर्मक्षेत्र की प्रबलता नाश का कारण बनता है और धर्मक्षेत्र की प्रबलता मनुष्य को मोक्ष प्रदान कर 84 लाख योनि के भ्रमण (जन्म-मरण) से मुक्त करता है। जरुरत है ..जीवन में धर्मक्षेत्र को प्रबल बनाने की।
- पं.विनोद चौबे

 आज हरियाली अमावश्या है तो आईए मित्रों अब भगवान शिव के विराट रुप का दर्शन करने का प्रयत्न करते हैं

भगवान शिव के विराट रुप का दर्शन

जगत पिता के नाम से हम भगवान शिव को पुकारते हैं। भगवान शिव को सर्वव्यापी व लोग कल्याण का प्रतीक माना जाता है जो पूर्ण ब्रह्म है। धर्मशास्त्रों के ज्ञाता ऐसा मानते हैं कि शिव शब्द की उत्पत्ति ''वंश कांतौ ''धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- सबको चाहने वाला और जिसे सभी चाहते है। शिव शब्द का ध्यान मात्र ही सबको अखंड, आनंद, परम मंगल, परम कल्याण देता है।
शिव भारतीय धर्म, संस्कृति, दर्शन ज्ञान को संजीवनी प्रदान करने वाले हैं। इसी कारण अनादि काल से भारतीय धर्म साधना में निराकार रूप में शिवलिंग की व साकार रूप में शिवमूर्ति की पूजा होती है। शिवलिंग को सृष्टि की सर्वव्यापकता का प्रतीक माना जाता है। भारत में भगवान शिव के अनेक ज्योतिलिंग सोमनाथ, विश्वनाथ, त्र्यम्बकेश्वर, वैधनाथस नागेश्वर, रामेश्वर, घुवमेश्वर हैं। ये देश के विभिन्न हिस्सों उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम में स्थित हैं, जो महादेव की व्यापकता को प्रकट करते हैं शिव को उदार ह्रदय अर्थात् भोले भंडारी कहा जाता है। कहते हैं ये थोङी सी पूजा-अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः इनके भक्तों की संख्या भारत ही नहीं विदेशों तक फैली है। यूनानी, रोमन, चीनी, जापानी संस्कृतियों में भी शिव की पूजा व शिवलिंगों के प्रमाण मिले हैं। भगवान शिव का महामृत्जुंजय मंत्र पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी को दीर्घायु, समृद्धि, शांति, सुख प्रदान करता रहा है और चिरकाल तक करता रहेगा। भगवान शिव की महिमा प्रत्येक भारतीय से जूङा है। मानव जाति की उत्पत्ति भी भगवान शिव से मानी जाती है। अतः भगवान शिव के स्वरूप को जानना प्रत्येक मानव के लिए जरूरी है।

जटाएं- शिव को अंतरिक्ष का देवता कहते हैं, अतः आकाश उनकी जटा का स्वरूप है, जटाएं वायुमंडल का प्रतीक हैं।

1चंद्र- चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन भोला, निर्मल, पवित्र, सशक्त है, उनका विवेक सदा जाग्रत रहता है। शिव का चंद्रमा उज्जवल है।

त्रिनेत्र- शिव को त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव के ये तीन नेत्र सत्व, रज, तम तीन गुणों, भूत, वर्तमान, भविष्य, तीन कालों स्वर्ग, मृत्यु पाताल तीन लोकों का प्रतीक है।

सर्पों का हार- सर्प जैसा क्रूर व हिसंक जीव महाकाल के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक वृत्ति का जीव है, जिसे शिव ने अपने अधीन कर रखा है।

त्रिशूल- शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशुल सृष्टि में मानव भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।

डमरू- शिव के एक हाथ में डमरू है जिसे वे तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्म रुप है।

मुंडमाला- शिव के गले में मुंडमाला है जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में कर रखा है।

छाल- शिव के शरीर पर व्याघ्र चर्म है, व्याघ्र हिंसा व अंहकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा व अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।

भस्म- शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से करते हैं। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है शरीर नश्वरता का प्रतीक है।

वृषभ- शिव का वाहन वृषभ है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ का अर्थ है, धर्म महादेव इस चार पैर वाले बैल की सवारी करते है अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्ष उनके अधीन है। सार रूप में शिव का रूप विराट और अनंत है, शिव की महिमा अपरम्पार है। ओंकार में ही सारी सृष्टि समायी हुई है। 


ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, 09827198828

शनिवार, 14 जुलाई 2012

आज हम हैं आभारी आपका, जो मिला आपका साथ,

''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका. 36 वाँ अंक
प्रिय पाठकों,
हम अपने लक्ष्य को केन्द्र बनाते हुए आकर्षक साज-सज्जा के साथ, सुवाच्य, पाठ्य सामग्रियों से भरपूर संयुक्तांक जून-जुलाई-2012 (36वाँ अंक) आपको समर्पित हैं। आपके द्वारा हमें समय समय पर सदैव प्रेम भरा सहयोग अनेकानेक विधाओं से मिलता रहा है। मैं आभारी हूँ उन देश के सुविख्यात साहित्यकार, पत्रकार एवं स्वतंत्र विचारक और हिन्दू संस्कृति का ताना - बाना बुनते हुए अपनी लेखनी से सरल शब्दों में लेख सामग्रीयाँ आप सभी को इस पत्रिका के माध्यम से देते रहे हैं। साथ ही आपने उन्हे सराहा भी।
अभी वर्तमान में श्रावण मास चल रहा है जिसमें भगवान शिव की आराधना अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि कहा गया है - भाभी मेट सकहिं त्रिपुरारी अर्थात् भाग्य को बनाने वाले ब्रह्मा में वह शक्ति नहीं है जो भाग्य को बदल दें। किन्तु भगवान शिव ही एक ऐसे देवाधिदेव महादेव हैं जो भाग्य को भी पलट सकते हैं।
अब बात करते हैं वैदिक परम्पराओं की-'वेद: शिव: शिवो वेद:'' अर्थात् वेद ही शिव हैं और शिव ही वेद अत: शिव वेदस्वरूप हैं। वेद ही नारायण का साक्षात् रूप हैं- ' वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुम'' इस तथ्य के अनुसार शिव-नारायण में कोई भेद नहीं हैं, क्योंकि वेदको परमात्मप्रभु का नि:श्वास माना गया है। वेद अपौरेषय व अनादि शास्वत सनातन है। शिव और रूद्र ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शिव को रूद्र इसलिए कहा गया है कि- यह रूद्र भगवान शिव रूत् यानि दु:ख को विनष्ट कर देते हैं- 'रूतम् दु:खम्, द्रावयति- नाशयतीति रूद्र:'' । अतएव अभी वर्तमान में सावन माहऔर  आगामी आने वाला भादो में अधिकमास दोनों माह में रुद्रीपाठ का विशेष महत्त्व को ध्यान में रखते हुए रूद्रीपाठ के विषय में रुचिप्रद विशेष सामग्री के अलावा देश में चल रहे सम-सामयिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य, सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक लेख अलग-अलग सन्दर्भों पर आलेख 'ज्योतिष का सूर्य' अपने परम्परा का निर्वाह करते हुए इस अंक में शामिल कर विगत तीन वर्षों से निरन्तर गतिशीलता पर कायम है, साथ ही आपके सराहना भरे पत्र हजारों की तादाद में हमारे लेखकों के साथ हमें भी गौरवान्वित होने को विवश कर देता है। आशा करता हूं कि इसी प्रकार आपका प्यार हमें मिलता रहेगा।
आज हम तीन वर्ष पूर्ण कर चौथे वर्ष की ओर चल पड़े हैं, जो अत्यन्त सौभाग्य और सुयोग का विषय है। इस अवसर पर मैं सम्पादक मण्डल के सभी सम्मानित सदस्यों को सहृदय धन्यवाद देते हुए, संरक्षक श्री विजय बघेल (संसदीय सचिव (गृह, जेल एवं सहकारिता), श्री के.के. झा एवं सलाहकार सम्पादक द्वय श्री बबन प्रसाद मिश्रजी, श्री संजय द्विवेदी और सलाहकार रविन्द्र सिंह ठाकुर , श्री नागेन्द्र प्रसाद मिश्र , श्री प्रमोद चौबे  सहित उन तमाम प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुपसे सहयोग करने वाले समस्त सहयोगियों का आभारी हूँ।
उपरोक्त इस खुशनुमा बेला में मैं काफी भावविभोर हो मात्र यही कहना चाहूंगा कि-

यूं  ही  बरसता रहे   सावन  की  बरसात,होता रहे 'ज्योतिष का सूर्य'  का अभिषेक।
शक्ति मिले हनुमन्त से, उदित सूर्य का हो प्रभात,
अज्ञान तिमिर को चीरता,  बीते बरस अनेक।।

दें हमें आशीष, हो गगनाधीन, आप करें आत्मसात,
ज्योतिषामयनम् चक्षु:, की दिव्य ज्योति हो अनेक।
आज हम हैं आभारी आपका, जो मिला आपका साथ,
हम बनें उनके अनुगामी, जो हैं सनातन ब्रह्म एक।।

ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदम् पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। इति शुभम् भवतु कल्याणम्।।

ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे , सम्पादक, ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका.

हमारी पत्रकारिता का प्रभाष पाठ

हमारी पत्रकारिता का प्रभाष पाठ

By संजय तिवारी
आज से छिहत्तर साल पहले वे पंढरीनाथ के पूत बनकर आये थे. तीन साल पहले पत्रकारिता के सपूत होकर चले गये. जिन्दगी भर दिमाग का काम दिल से किया इसलिए दिल जल्दी साथ छोड़ गया. कुछ साल पेसमेकर ने शरीर की गाड़ी चलाई लेकिन मशीन भी भला क्योंकर साथ देती? वे सब तो कबके साथ छोड़कर छिटक गये जो प्रभाष जोशी की पैदाइश थे तो मशीन को क्या पड़ी थी कि गाड़ी को हांकती रहती? प्रभाष जी ने भी तो मशीन से लंबा नाता रखने का इरादा छोड़ दिया था. मानों वे भी जिन्दगी से छिटककर दूर ही चले जाना चाहते थे. वे चले भी गये. जनम मरण के इन तिहत्तर सालों के बीच में बोया ज्यादा काटा कम. फिर भी तिहत्तर सालों बाद जब वे जम के जाजम पर लेटे तो पीछे पछाड़ खाकर गिरनेवालों की कमी न थी. पीत से भी परे श्वेत श्याम के बंटवारे में बंटती जाती पत्रकारिता का वह पितामह अपने जीते जी वह कर चुका था जिसके लिए इतिहास उसे पंढरीनाथ के पूत के रूप में शायद न जान पाये लेकिन पत्रकारिता के सपूत के रूप में जरूर याद रखेगी.
उनके आगे कौन था उसे भला हम कैसे देख सुन सकते हैं. वे कहां से आये और क्या क्या किया इसे भी परखने की परखनली जिनके पास हो वे परखें. लेकिन उनके जीवन के आखिरी दशक और सदी की शुरूआत में अक्सर उनसे देखा ताकी हो जाती थी. वे दिखते थे. झक सफेद कुर्ते धोती में. चौड़ी किनारी लगी हुई. एक हाथ में धोती का एक पहलू पकड़े मानों हर वक्त वे जंग लड़ने को तैयार हैं. चलते फिरते जिधर घूमते तो इस अंदाज में मानों असुरों को दंहजते हुए सरपट आगे सरक जाएंगे. धोती का यही पहलू पकड़े वे आखिर के लगभग पूरे दशक दोड़ लगाते रहे. उत्तर से दक्षिण. पूरब से पश्चिम. जहां जिसने बुला लिया वहां पहुंच गये. कहीं पत्रकारिता की पुकार तो कहीं आम आदमी की गुहार. उनके दिल में लगी मशीन भी उनको यह मनमानी करने से रोक न पाती थी. हो सकता है उसने कई दफा खतरे की लाल बत्ती जलाई हो लेकिन प्रभाष जी इस बत्ती को पार करने की हिमाकत से कभी कतराए नहीं. आखिर इस भागदौड़ से वहां कहां पहुंचना चाहते थे? वह क्या था जो छूटा जा रहा था और जिसे पकड़ने के लिए प्रभाष जी काया की उस माया से भी न बंधे रह सके जो उनके होने के लिए आखिरी जरूरी औजार था?
दशक भर की देखा ताकी में प्रभाष जोशी तो क्या समझ में आते, अलबत्ता यह जरूर लगता रहा कि शिखर से उतर यह आमदी सुस्ताने की बजाय नये नये शिखर गढ़ने की कोशिश कर रहा है. जहां पत्रकारिता अपने पराकाष्ठा पर पहुंचकर झंडा गाड़ देती है, प्रभाष जोशी उसके आगे के काम में लग गये थे. सबको खबर देनेवाला सबकी खबर ले रहा था. दहाड़े मार रहा था और दौड़ लगा रहा था. बता रहा था कि देखो, ये अखबार तुम्हें गुमराह कर सकते हैं. ये सरकारें तुम्हें गुमराह कर सकती है. ये बाजार तुम्हारा सौदा कर सकते हैं. तुम्हें समझना होगा कि तुम अखबार और बाजार दोनों के लिए औजार हो गये हो. सावधान हो जाओ. शब्द ब्रह्म नहीं रहा. शब्द नाद नहीं रहा. शब्द अपवाद भी नहीं रहा. शब्द अवसाद बनता जा रहा है तुम्हारे लिए. इसलिए उन शब्दों से सावधान रहो, जो तुम्हें सुनाये जा रहे हैं. उन अर्थों से सावधान रहो जो तुम्हें समझाए जा रहे हैं. मानों वे उसी अखबार के खिलाफ आंदोलन करने उतर पड़े थे जिसकी आधुनिक बुनियाद उन्होंने रखी.
तीन साल में तीन पांच करनेवाले बहुत सारे लोग प्रभाष जोशी की पत्रकारिता का आंकलन कर चुके हैं. कर रहे हैं. करते रहेंगे. लेकिन लगता नहीं कि प्रभाष जोशी की पत्रकारिता का आंकलन अगले तीस सालों में भी हो सकेगा. हमारी पत्रकारिता में प्रभाष जोशी जो बीज छींट गये हैं उनका वृक्ष हो जाना अभी भी शायद बाकी है. प्रभाष जोशी का जनसत्ता या उनके जनसत्ताइट वे बीज नहीं हैं जिससे प्रभाष परंपरा विकसित होगी. ये तो हल कुदाल थे जिसका इस्तेमाल प्रभाष जोशी ने बीज बोने के लिए किया. प्रभाष जोशी ने जनसत्ता के जरिए जो बीज बोये हैं, वे कहां कब वृक्ष बनकर आकार लेंगे यह समय बताएगा. लेकिन इतना निश्चित है कि वही बीज पत्रकारिता में प्रभाष जोशी की परंपरा बनेंगे.
इसे, जिसे हम आप पत्रकारिता कहते हैं उसका हिन्दी वाला हिस्सा बिना प्रभाष जोशी के कभी पूरा नहीं होगा. पूरा तो छोड़िए, शुरू ही नहीं होगा. सन तिरासी की सोलह नवंबर को उन्होंने भारत के अखबारी इतिहास में जिस जनसत्ता को लाकर पटका था उसने अपनी चंद सालों की चरम यात्रा में न जाने कितनों को पटखनी दी. चरम पर पहुंचकर जनसत्ता क्यों चरमराया यह तो शोध का विषय है लेकिन इस चरमराहट से पहले प्रभाष जोशी ने साहित्य के सांचे से पत्रकारिता की मूरत भी गढ़ ली थी और उसकी सूरत भी बना दी थी. सूरत ऐसी की जो देखता वह देखता रह जाता. पहुंच और प्रभाव के स्तर पर लगभग गर्त में जा चुके जनसत्ता के जनसत्ताइट पत्रकार ही नहीं, बल्कि पाठक आज भी मौजूद हैं जिनके लिए पत्रकारिता प्रभाष जोशी के जनसत्ता से शुरू होती है और प्रभाष जोशी के जनसत्ता पर ही खत्म हो जाती है. उनके लिए प्रभाष जोशी थे तो पत्रकारिता थी. प्रभाष जोशी नहीं हैं तो पत्रकारिता भी नहीं है. ये शायद अतिरेक पर होंगे लेकिन इतना तो तय है कि यह जो पत्रकारिता है, यह बिना प्रभाष पाठ के शुरू ही नहीं होती.
साठ और सत्तर के दशक में उधर जब लोकतंत्र नवनिर्माण का ककहरा शुरू कर रहा था तो जरूरी था कि पठन पाठन की उस विधा को भी नया आयाम मिलता जिसने आजादी के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी. खुद भवानी बाबू प्रभाष जोशी के अग्रज थे. गांधी के बाद के गांधी बिनोबा भी मौजूद थे. मेल मिलाप और संयोग से पहले गांधीवादी विचार और प्रचार ही शुरू हुआ लेकिन प्रभाष जोशी इस पगडंडी पर बहुत देर चल न पाये. हो सकता है वे यह समझ चुके हों कि विचार को सिर्फ धारा नहीं चाहिए. वे उस धारा को सहस्रार तक ले जाने के लिए मानों सुषुम्ना बन गये थे. पत्रकारिता और विचार की इड़ा पिंगड़ा के बीच उन्होंने जो सुषुम्ना स्वरूप अख्तियार किया वह आजाद भारत में वैसा ही था जैसा गुलाम भारत में गांधी का आंदोलन. गांधी भी तो सबको समाहित करते थे. नरम गरम सबका चरम आखिर गांधी पर जाकर मिल ही जाता था. प्रभाष जोशी ने भी जो मूरत गढ़ी उसमें भी तो सबको अपना ही अक्स नजर आता था. जो देखता, कहता अरे, यह तो 'अपन' है.
लेकिन पत्रकारिता पर प्रभाष पाठ की यह त्रिवेणी तब तक संगम न बनेगी जब तक इसमें राजेन्द्र माथुर और उदयन शर्मा शामिल नहीं हो जाते. हमारी आधुनिक हिन्दी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर और उदयन शर्मा ऐसी इड़ा पिंगड़ा हैं जो सुषुम्ना के साथ साथ सहस्रार तक पहुंचते हैं. हिन्दी की आधुनिक राष्ट्रीय पत्रकारिता के मूल में प्रभाष जोशी के अलावा राजेन्द्र माथुर और उदयन शर्मा भी मौजूद हैं. माथुर साहब और पंडित जी की पत्रकारिता कुछ अर्थों में एकांगी जरूर थी, लेकिन बिना उनके बात कभी पूरी नहीं होगी. प्रभाष जोशी इन दोनों का समन्वय बन गये थे. माथुर साहब और पंडित जी दोनों जहां आ आकर ठिठक गये प्रभाष जोशी उस बाधा को भी सरपट पार कर गये थे. शायद इसीलिए वे हमारी राष्ट्रीय पत्रकारिता के पितामह बने नजर आते हैं. कोई तीन दशक में अखबारी पत्रकारिता ने जो पुराण निर्मित किया है उसमें प्रभाष जोशी का पाठ प्रस्थान भी है और मध्यान्ह भी हैं. प्रस्थान इस अर्थ में कि यहां से हमने हिन्दी पत्रकारिता में राष्ट्र देखा था और मध्यान्ह इसलिए क्योंकि राष्ट्र का समग्र दर्शन सिर्फ और सिर्फ प्रभाष जोशी की पत्रकारिता में ही होता है. वह राष्ट्र जो जन जन में बसता है. वह राष्ट्र जिसका धर्म एक है, भाव एक है और स्वभाव एक है. और इसी विचार विन्दु पर प्रभाष जोशी हमारी पत्रकारिता के ऐसी त्रिवेणी बन जाते हैं जिसमें डूबने वाला पार लग जाता है. क्यों? गलत बोलता हूं?