ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

सूर्य पुत्र शनि काले क्यों हैं? 23 पर्यायवाची नामों का जप करें और शनि की कृपा प्राप्त करें।

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे

सूर्य पुत्र शनि काले क्यों हैं? 23 पर्यायवाची नामों का जप करें और शनि की कृपा प्राप्त करें।

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.)
सूर्यपुत्र श्री शनिदेव का जन्म महर्षि कश्यप के वंश  मे हुआ था इस लिए इनका गोत्र कश्यप है । यह  क्षत्रीय वर्ण और भगवान सूर्य तथा माता छाया के मध्य ज्येष्ठ मास की अमावस्या को सोराश्र्ट्र के शिंगनापुर में जन्म हुआ है ॥ (इनके जन्म स्थान को लेकर मतैक्य है) इनके भाई मृत्यु देव यमराज हैं और बहन पवित्र नदी यमुना और भद्रा है ॥ गिद्ध ओर भैंसा दोनों ही प्रिय वाहन है ॥ इनका विवाह चित्ररथ की कन्या से हुआ । सभी देवी-देवताओं में सूर्य का रूप परम तेजस्वी है। सूर्य की पूजा करने से भक्तों का रूप भी उनके जैसा ही तेजस्वी और गौर वर्ण हो जाता है। सूर्य देव सभी को तेज प्रदान करते हैं परंतु उनके पुत्र शनि का रूप श्याम वर्ण बताया गया है। सूर्य पुत्र होने के बाद भी शनि का रंग काला है, इस संबंध में शास्त्रों में कथा बताई गई है।
इस कथा के अनुसार सूर्य देव का विवाह प्रजापति दक्ष की पुत्री संज्ञा से हुआ। सूर्य का रूप परम तेजस्वी था, जिसे देख पाना सामान्य आंखों के लिए संभव नहीं था। इसी वजह से संज्ञा उनके तेज का सामना नहीं कर पाती थी। कुछ समय बाद देवी संज्ञा के गर्भ से तीन संतानों का जन्म हुआ। यह तीन संतान मनु, यम और यमुना के नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी संज्ञा के लिए सूर्य देव का तेज सहन कर पाना मुश्किल होता जा रहा था। इसी वजह से संज्ञा ने अपनी छाया को पति सूर्य की सेवा में लगा दिया और खुद वहां से चली गई। कुछ समय पश्चात संज्ञा की छाया के गर्भ से ही शनि देव का जन्म हुआ। क्योंकि छाया का स्वरूप काला ही होता है इसी वजह से शनि भी श्याम वर्ण हुए।
ये चंद्रमा परस्पर निकट होने के कारण अलग - अलग दृश्यमान नहीं है , पर ये स्वतंत्र रूप से मेरे चारो ओर घूमते है , मेरे चारो ओर वलय मैं चमकते चंद्रमा ऐसे लगते है जेसे की मैंने अपने कंठ मैं सफ़ेद मोतियों का हार पहन रखा है ॥
भगवान शनिदेव को लगभग कई नामों से पुकारा जाता है किन्तु मैं आप लोगों प्रमुख यत्किञ्चित नामों को आपके सामने रखने जा रहा हुँ। जो इन नामों का प्रतिदिन अथवा हर शनिवार को जप अथवा पाठ करता है उनको भगवान शनिदेव की अतिशय कृपा मिलती है, और वह सुखी, समृद्धि से युक्त हो जाता है। 1.शनेश्चराय , 2. सोराय , 3.कृष्णाय ,4. यम, 5.पिप्प्लाश्रय, 6. कोण्स्थ, 7. सोरि,8. शश्नेश्चर,9. कृष्ण रोदरांतक, 10. मंद ,11. पिंगल कंटक ,12. यमागज ,13. रविपुत्र ,14. सूर्यपुत्र, 15. दायातयज, 16. अकेसुवन, 17. असित सोकि, 18. निलिकाय , 19. नीलांजन , 20. निलकाय ,21. कुशांग , 22. कपिलाक्ष ,23. मंदगामी नाम से पुकारा जाता है

 कुछ रोचक जानकारियाँ भगवान शनिदेव की जुबानीः

शनिउवाचः मेरा आधिपत्य मकर तथा कुंभ राशि पे है । पुष्य, अनुराधा, उत्तराभाद्रपद मेरे नक्षत्र है , मैं पेर से विकलांग हूँ ॥ हाथ मैं मध्यमा अंगुली को शनि यानि की मेरी अंगुली कहा जाता है ॥ मेरा शुभ प्रिय रत्न नीलम ओर काले अश्व की नाल की अंगूठी इसी मैं पहनी जाती है ॥ मध्यमा अंगुली करे ठीक नीचे के स्थान को शनि पर्वत सामुद्रिक शास्त्र मैं बताया गया है , हथेली मैं इस पर्वत का उभरापन असाधाण प्रवृतियों का सूचक है ॥ वत्स ये भी ध्यान रखना की मध्यमा अंगुली को ही जो की मेरी है सामुद्रिक शास्त्र मैं भाग्य सूचक बताया गया है ॥

किसी की भी हथेली मैं भाग्य रेखा मेरे इसी पर्वत पे आके समाप्त होती है ॥ मेरा पर्वत अगर जातक की हथेली मैं उन्न्त ओर पुष्ट हो तो जातक सत्यवादी , दूसरों के मन की बाते जानने वाला , परोपकारी ,न्यायाधीश , जादूगर ओर तंत्र मैं रुचि रखने वाला, संपति या जमीन जायदाद का काम करने वाला , धातुओं , खनिज , लवण , रत्न आदि से संबन्धित कार्य करने वाला होता है ॥ अगर मेरा शनि पर्वत आपकी हथेली पे दबा हुआ है तो यह अपना विपरीत प्रभाव डालता है ।
शनि पर्वत का किसी जातक की हथेली पे ना होना असफलता का सूचक है
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.)

सोमवार, 2 जुलाई 2012

सावन में रुद्रपाठ से प्रसन्न होतें हैं भगवान शिव

सावन में रुद्रपाठ से प्रसन्न होतें हैं भगवान शिव

- ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई
 "वेद: शिव: शिवो वेद:" अर्थात् वेद ही शिव हैं और शिव ही वेद अत: शिव वेदस्वरूप हैं। वेद ही नारायण का साक्षात् रूप हैं- "वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुम"  इस तथ्य के अनुसार शिव-नारायण में कोई भेद नहीं हैं, क्योंकि वेदको परमात्मप्रभु का नि:श्वास माना गया है। वेद अपौरेषय व अनादि शास्वत सनातन है। शिव और रूद्र ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शिव को रूद्र इसलिए कहा गया है कि- यह रूद्र भगवान शिव रूत् यानि दु:ख को विनष्ट कर देते हैं-"रूतम् दु:खम्, द्रावयति- नाशयतीति रूद्र:"। जल आदि अलग-अलग द्रव्यों से रुद्रीपाठ करते हुए अभिषेक करने से शिव सभी मनोकामनाएं पूर्ण होतीं हैं। रूद्रपाठ के तीन मुख्य प्रभेदों का उल्लेख मेरुतंत्र में पाया जाता है
रुद्रीभरेकादशभि: लघुरुद्र: प्रकीर्तित:!
अनेन सिक्तं येर्लिंग ते न भास्करम् !!
रुद्रैकादशिनी के एक बार पारायण का नाम ही "लघुरूद्र" है! रूद्रपारायण इसी का नामांतर है! इस लघुरूद्र-विधि से लिंगाभिषेचन करनेवाला शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है!
लघुरूद्र के ग्यारह आवृत्तियों के समाहार-पाठ और जपको "महारुद्र" कहते है, जिससे जप-होमादि करने से दरिद्री भी भाग्यवान बन जाता है! महारुद्र के पाठपूर्वक किया गया होम सोमयाग का फल प्रदान करता है!  शिव पूजन और शिवलिंग को जल अर्पित करने की मुख्य तिथियाँ निम्नलिखित हैं :-
    पक्ष                                                 तिथि      वार      नक्षत्र               तारीख
श्रावण कृष्ण पक्ष     षष्ठी     सोमवार     पूर्वाभाद्रपद     9 जुलाई
श्रावण कृष्ण पक्ष     त्रयोदशी     सोमवार     मृगशिरा     16 जुलाई(सोमप्रदोष)
श्रावण कृष्ण पक्ष     चतुर्दशी     मंगलवार     आद्र्रा     17 जुलाई(मासशिवरात्रि)
श्रावण शुक्ल पक्ष     चतुर्थी     सोमवार     पूर्वाफाल्गुनी     23 जुलाई
श्रावण शुक्ल पक्ष     12/13     सोमवार     मूल     30 जुलाई (सोमप्रदोष)
श्रावण शुक्ल पक्ष     13/14     मंगलवार     पूर्वाषाढा़     31 जुलाई
श्रावण शुक्ल पक्ष     चतुर्दशी     बुधवार     उत्तराषाढ़ा     1 अगस्त (प्रात: 10:59 तक)
श्रावण पूर्णिमा     पूर्णिमा     बृहस्पतिवार     श्रवण     2 अगस्त (रक्षाबन्धन) श्रावणी पर्व

राशियों के अनुसार कैसे करें शिव-अभिषेक
भगवान सदाशिव को प्रसन्न करने के लिए पुराणों के अनुसार शिव के पंचाक्षर मंत्र ऊँ नम: शिवाय, लघु रूद्री से अभिषेक करें। शिवजी को बिल्वपत्र, धतूरे का फूल, कनेर का फूल, बेलफ ल, भांग चढ़ाकर पूजन करें।
मेष- शहद, गुड़, गन्ने का रस। लाल पुष्प चढ़ाएं।, वृषभ- कच्चे दूध, दही, श्वेत पुष्प।, मिथुन- हरे फलों का रस, मूंग, बिल्वपत्र। , कर्क- कच्चा दूध, मक्खन, मूंग, बिल्वपत्र। , सिंह- शहद, गुड़, शुद्ध घी, लाल पुष्प।, कन्या- हरे फलों का रस, बिल्वपत्र, मूंग, हरे व नीले पुष्प। ,तुला- दूध, दही, घी, मक्खन, मिश्री। , वृश्चिक- शहद, शुद्ध घी, गुड़़, बिल्वपत्र, लाल पुष्प।, धनु- शुद्ध घी, शहद, मिश्री, बादाम, पीले पुष्प, पीले फूल।, मकर- सरसों का तेल, तिल का तेल, कच्चा दूध, जामुन, नीले पुष्प।, कुंभ- कच्चा दूध, सरसों का तेल, तिल का तेल, नीले पुष्प।, मीन- गन्ने का रस, शहद, बादाम, बिल्वपत्र, पीले पुष्प, पीले फल।

                                         ।। मौलिकता प्रमाणीकरण ।।
मैं ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे प्रमाणित करता हूं कि 'सावन में रुद्रपाठ से प्रसन्न होतें हैं भगवान शिव
Ó मेरी अपनी रचना है। इस आलेख का प्रकाशन अभी तक किसी समाचार पत्र/पत्रिका में नहीं कराया गया है। आपकी लब्ध प्रतिष्ठिïत पत्रिका में प्रकाशन हेतु सादर पे्रेषित है। कृपया यथायोग्य स्थान प्रदान करने का कष्टï करें।
                                           
प्रमाणितकर्ता -(ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे , श्रीमद्भागवत कथावाचक एवं सम्पादक. "ज्योतिष का सूर्य " राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शंतिनगर भिलाई, मोबा.9827198828 )

आत्महत्या करना जन्मजन्मांतर चाण्डाल बनने को न्यौता देना है- पं.विनोद चौबे

आत्महत्या  करना  जन्मजन्मांतर  चाण्डाल  बनने  को  न्यौता  देना  है-  पं.विनोद  चौबे

 धमधा के धरमपुरा (बरहापुर) ग्राम में स्थित तिवारी कृषि फार्म हॉऊस में आयोजित श्रीमद् देवी भागवत कथा के छठवे दिन व्यासपीठ से ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे ने राजा  सत्यव्रत   की कथा सुनाते हुए बताया कि पूर्व  में सूर्यवंशी  राजा  सत्यव्रत  एवं  हरिश्चन्द्र आदि  राजाओं  के  राजधर्म  को आजके  राजनेता अनुकरण  करें तो निश्चित  ही  आज  भी  सतयुग  का सुख  और शांति के साथ  ही  साथ  देश   और  प्रदेश   समृद्ध  हो जायेगा।
राजा सत्यव्रत  ने  सदेह  स्वर्ग  जाने  के लिए  वशिष्ठजी  से  यज्ञ  करने  को  कहता है लेकिन  ऋषि  वशिष्ठ  राजा सत्यव्रत  को ऐसे  यज्ञ  करने  से मना कर  देने  पर  सत्यव्रत  ने दूसरे  किसी  ऋषि  से यज्ञ  करने  की  बात  करता  है  जिसे  मृत्युलोक  के  धर्मसूत्रों  के  अनुसार  विधि  व्यवस्था  का  अपमान  समझ  कर उस  राज-ा  सत्यव्रत  को  चाण्डाल  होने  का  शाप  दे देते  हैं,  और  राजा  सत्यव्रत  चाण्डाल  बन  जाता  है   और  वह अपने  पुत्र  हरिश्चन्द्र  को  राज्यभार  देकर  जंगल  चला  जाता  है।  वहाँ  राजा सत्यव्रत  को  विश्वामित्र  से  मुलाकात  होती  है  और  विश्वामित्र  ने  उस  राजा  को सदेह  स्वग्ग  लोक  भेजने  लिए 24  लाख  गायत्री  मंत्र  का  महापुरश्चरण  करते  हैं,  जिसके  बाद  वह  स्वर्गलोक  सदेह  जाता  है। लेकिन  जब  वह  राजा  सत्यव्रत  चाण्डाल  बन  गया  था  तब  वह  अपने  मन  में  विचार  किया  कि  यदि  मैं  अपने  आपको  मार  देता  हुँ  ,  तो  इसे  आत्महत्या  की  संज्ञा  दी  जायेगी  अतः  शास्त्रों  में  आत्महत्या  करने  से जन्म-जन्मांतर  चाण्डाल  होना  बताया  गया  है,
आत्महत्या भवेन्नूनं पुनर्जन्मनि जन्मनि।
श्वपचत्वं  च  शापश्च  हत्यादोषाद्भवेदपि।।
  अतएव  इस   जन्म  में वशिष्ठ  के  शाप से  केवल  एक  जन्म चाण्डाल  बना  हुँ, यदि मैं  आत्महत्या  करता  हुँ,  तो  मुझे  कई  जन्मों  तक  चाण्डाल  बनना  पड़ेगा।  
पं.चौबे  ने इस  दृष्टान्त  के  माध्यम  से  समाज  में  बढ़ती  आत्महत्याओं  लम्बी  फेहरिश्त  को  समूल  समाप्त  करने  के  लिए  आज  जरूरत  है  श्रीमद्देवीभागवत  के  इन  कथा  प्रसंगों   को   सुनकर  जीवन  में  उतारने  की।
आचार्य   पं. कृष्णदत्त  त्रिपाठी  ने  पंचांग  पूजन  के  अलावा  11  कन्याओं  का  पूजन  कराये। केशव  प्रसाद,  महेश   चौधरी  (लक्ष्मीकांत  प्यारेलाल)  एवं  बबलु  शुक्ल  ने सुन्दर  भजनों  से  शमा  बांधे  रक्खा।


कार्यक्रम  में  प्रमुख  रूप  से  डॉ.शम्भुदयाल  तिवारी,  जयप्रसाद  तिवारी (गुरूजी),  विजय प्रसाद  तिवारी  ,  गिरीशपति  तिवारी,  काशीराम  देवांगन, फिरन्ता  साहू (पूर्व  जनपद  सदस्य),  कुंवास  साहू,  लखन  वर्मा,  बीवीरसिंह  ठाकुर, नारद  यादव,  खेलन  यादव, रामनारायन  शर्मा, भगवन्ता  साहू,  गांधी  साहू,  लतेल  साहू  आदि  बड़ी संख्या  में श्ररद्धालु  उपस्थित  थे।






आजकल  के  राजनेताओं  को  राजा  हरिश्चन्द्र  राजधर्म  की  सीख  लेनी  चाहिए-  पं.विनोद  चौबे

 धमधा के धरमपुरा (बरहापुर) ग्राम में स्थित तिवारी कृषि फार्म हॉऊस में आयोजित श्रीमद् देवी भागवत कथा के छठवे दिन व्यासपीठ से ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे ने राजा  हरिश्चन्द्र   की कथा सुनाते हुए बताया 
आगे  श्री  चौबे  ने   राजा  हरिश्द्र का  उपाख्यान   सुनाते  हुए  बताये  की  जब  सत्यवादी  राजा  हरिश्चन्द्र  अपने  पत्नी, पुत्र   और  स्वयं  को  काशी  में  विक्रय  कर  दिये  और  कुछ  ही  दिनो  बाद  उनके  पुत्र  रोहित  को  सर्प  के  डँसने  से  मौत  हो  गई  और  उस  रोहित  के  मृत  शरीर  को  श्मसान  में  राजा  हरिश्चन्द्र  ने  कर  लेकर  लकड़ी  के  चिता  पर  जलाने  को  उद्दत  हुए  उस  समय  महामाया देवी  का  वहाँ प्राकट्य हो  जाता  है,  और  वहाँ  सभी  देवता  वहाँ  उपस्थित  हो  जाते  हैं,  माँ  की  कृपा  से  पुत्र  रोहित  जीवीत  हो  जाता  है,  और राजा  हरिश्चन्द्र  को  भगवान  विष्णु  के  दूत  वहाँ  विमान  लेकर आते  हैं, राजा  से  कहते  हैं  आप  अब  स्वर्गलोक  चलें।  ऐसा  कहने  पर  राजा  हरिश्चन्द्र  ने  कहाकि  मैं अपनी पत्नी शैव्या  के  साथ  ही  स्वर्गलोक  नहीं  जाऊंगा  बल्कि  अपने  राज्य  की  प्रजा  के  साथ  जाऊंगा,  नहीं  मैं  अकेले  स्वर्गलोक   न  जाकर  अपनी  प्रजा  की  सेवा  करूंगा।  इस  प्रकार  राजा  हरिश्चन्द्र   राजा  हरिश्चन्द्र  ने  अपनी  प्रजा  के  प्रति  वात्सल्यता   दिखाकर  आजके  राजनेताओं  को  राजधर्म  का  मार्ग  दिखाया,  जो  आज  के  राजनेताओं  के  लिए  प्रेरणा श्रोत  है।  जहाँ  एक  तरफ  देश  में  व्याप्त  भ्रष्टाचार  से  देश  की  अर्थव्यवस््था  चरमरा  गई  वहीं  यदि  प्रजावात्सलल्य  इन  नेताओं  में  होती  तो  आज  भ्रष्टाचार  रूपी  आसुरी  प्रवृत्ति  से  भारत  देश  परे  होकर  विश्वगुरू  बन  जाता।
आचार्य   पं. कृष्णदत्त  त्रिपाठी  ने  पंचांग  पूजन  के  अलावा  11  कन्याओं  का  पूजन  कराये। केशव  प्रसाद,  महेश   चौधरी  (लक्ष्मीकांत  प्यारेलाल)  एवं  बबलु  शुक्ल  ने सुन्दर  भजनों  से  शमा  बांधे  रक्खा।

कार्यक्रम  में  प्रमुख  रूप  से  डॉ.शम्भुदयाल  तिवारी,  जयप्रसाद  तिवारी (गुरूजी),  विजय प्रसाद  तिवारी  ,  गिरीशपति  तिवारी,  काशीराम  देवांगन, फिरन्ता  साहू (पूर्व  जनपद  सदस्य),  कुंवास  साहू,  लखन  वर्मा,  बीवीरसिंह  ठाकुर, नारद  यादव,  खेलन  यादव, रामनारायन  शर्मा, भगवन्ता  साहू,  गांधी  साहू,  लतेल  साहू  आदि  बड़ी संख्या  में श्ररद्धालु  उपस्थित  थे।

गुरू-पूर्णिमा

गुरू-पूर्णिमा

शिष्यों को विद्यादान करते गुरू व्यास

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।
'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु'
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। 

-:गुरु स्तुति:-

"अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥1!!

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥2!!

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरू साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नम:!!3!!

स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किञ्चित् सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥4!!

चिन्मयं व्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥5!!

सर्वश्रुति शिरोरत्न विराजित पदाम्बुजः।
वेदान्ताम्बुज सूर्याय तस्मै श्री गुरवे नमः॥6!!

चैतन्य शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निञ्जनः।
बिन्दु नाद कलातीतःतस्मै श्री गुरवे नमः॥7!!

ज्ञानशक्ति समारूढःतत्त्व माला विभूषितम्।
भुक्ति मुक्ति प्रदाता च तस्मै श्री गुरवे नमः॥8!!

अनेक जन्म सम्प्राप्त कर्म बन्ध विदाहिने।
आत्मज्ञान प्रदानेन तस्मै श्री गुरवे नमः॥9!!

शोषणं भव सिन्धोश्च ज्ञापनं सार संपदः।
गुरोर्पादोदकं सम्यक् तस्मै श्री गुरवे नमः॥10!!

न गुरोरधिकं त्तत्वं न गुरोरधिकं तपः।
तत्त्व ज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥11!!

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोर्पदम् ।
मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोर्कृपा॥12!!

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम्॥13!!

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं।
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद् गुरूं तन्नमामि॥14!!

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥15!!

ध्यानं सत्यं पूजा सत्यं सत्यं देवो निरञ्जनम्।
गुरिर्वाक्यं सदा सत्यं सत्यं देव उमापतिः॥"16!!

-:अर्थ और विवेचना:-

इस गुरू वंदना में गुरू के स्वरूप,शक्ति,सृजन और महत्व का सूक्ष्म रहस्य छिपा हैं।गुरू,ब्रह्मा है,गुरू विष्णु है,गुरूदेव महेश्वर है।गुरू साक्षात परम ब्रह्म है,उनको नमस्कार है।गुरू ब्रह्मा क्यों है?कारण कई जन्मों के बुरे संस्कारों से हमारे अन्दर बहुत सा विकार पैदा हो गया है।हम दैविक मार्ग पर चलेंगे,क्या उसके लिए हमारा शरीर,मन,बुद्धि तैयार है या नहीं।हम उस रास्ते चलेंगे जो सुनने में आसान लगता है लेकिन जब उस पर चलेंगे तो ऐसा प्रतीत होगा कि बहुत ही कठिन एवं दुर्गम रास्ता है।इस कारण से गुरू को भी ब्रह्मा के जैसे ही हमारे अंदर के विकार और गन्दगी को हटाकर बुद्धि को शुद्ध कर हमारे बिगड़े संस्कार को ठीक करना पड़ता है।यानि साधना,संयम,योग,जप द्वारा गुरू हमे चलने लायक बना देते है।गुरू विष्णु के जैसे हमारा पालन करेंगे वरना हम भौतिक कष्ट से मर्माहत होकर साधना क्या कर पायेंगे।कोइ भी साधक या संत हो भले ही वो त्यागी हो फिर भी जरूरत की चीज मिल जाये और किसी के सामने शर्म से सिर झुकाकर भिक्षा या दान न मांगना पड़े।इसके लिए गुरू बिष्णु जैसा बनकर साधना,मंत्र,तंत्र द्वारा या वर,आशिर्वाद देकर उस लायक बना देते है कि सब कुछ स्वतः प्राप्त होता रहे।गुरू विष्णु के समान है जब चाहे भक्त,साधक को पुष्ट बना दें ताकि उसे साधना मार्ग में कभी भी भौतिक विघ्न न सताये।गुरू महेश्वर यानि शिव है जिनके पास सारी शक्तियां विद्यमान है परन्तु दाता होते हुए भी कोई दिखावा नहीं है।वो सबका मालिक है।गुरू का यह रूप सदाशिव सदगुरू बनकर साधक और भक्त को दिव्य शक्ति प्रदान करवाते है।यहाँ जो भी करते हैं,गुरू ही करते है।कारण कैसी साधना,कौन सा मंत्र या क्या करना है यह गुरू कृपा से ही प्रदान होती है।ये अपने शिष्य को जगत के सारे रहस्य से परिचित कराके स्वयं और शक्ति की लीला का साक्षात्कार कराने के साथ ही आत्म दर्शन द्वारा साकार परमात्मा के परम ब्रह्म का ज्ञान कराते है।
व्यास जयन्ती ही गुरुपूर्णिमा है। गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। गुरुपरंपरा को ग्रहण लगाया तो सद्गुरु का लेबिल लगाकर धर्मभीरुता की आड़ में धंधा चलाने वाले ‘‘कालिनेमियों ने। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। ‘व्यास’ का शाब्दिक संपादक, वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। ‘‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’’ अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुत्व है। आगम-निगम-पुराण का निरंतर संपादन ही व्यास रूपी सद्गुरु शिष्य को परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार का माध्यम है। जिससे मिलती है सारूप्य मुक्ति। तभी कहा गया- ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।’’ आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनका मूल कारण है गुरु-शिष्य परंपरा का टूटना। श्रद्धावाॅल्लभते ज्ञानम्। आज गुरु-शिष्य में भक्ति का अभाव गुरु का धर्म ‘‘शिष्य को लूटना, येन केन प्रकारेण धनार्जन है’’ क्योंकि धर्मभीरुता का लाभ उठाते हुए धनतृष्णा कालनेमि गुरुओं को गुरुता से पतित करता है। यही कारण है कि विद्या का लक्ष्य ‘मोक्ष’ न होकर धनार्जन है। ऐसे में श्रद्धा का अभाव स्वाभाविक है। अन्ततः अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचारादि कदाचार बढ़ा। व्यासत्व यानी गुरुत्व अर्थात् संपादकत्व का उत्थान परमावश्यक है। 

मंगलवार, 19 जून 2012

हिन्दू धर्म की संस्कृति झलकती है रथयात्रा के महा पर्व में..ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, दुर्ग छत्तीसगढ़, 9827198828


ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे,सम्पादक ''ज्योतिष का सूर्य'', राष्ट्रीय मासिक पत्रिका  भिलाई,दुर्ग छत्तीसगढ़, 9827198828
समुद्र की नीली चादर के शीतल आंचल में बसा उड़ीसा का पुरी, पूरी दुनिया में भगवान जगन्नाथ की मंदिर के लिए प्रसिध्दी पा चुका है। समुद्रतट के किनारे भगवान जगन्नाथ का भव्य मंदिर अपनी मनोहारी प्राकृतिक छटा के कारण धर्म और आस्था का केन्द्र बना हुआ है, पुरी के नीलमय समुद्र से गुजरने वाला समुद्री जहाज अपने यात्रियों सहित मंदिर के गगनचुम्बी गुम्बद और लहराती पताका को देख खुद को भाग्यशाली समझता है। महान तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित इस धार्मिक आस्था वाले मंदिर में भगवान जगन्नाथ सहित उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की काष्ठ की बनी मूर्तियाँ श्रध्दालुओं को अनायास ही आकर्षित एवं लोमहर्षित करती आ रही है। पुराणों में आयी कथा के  अनुसार सभी मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा राजा इन्द्रद्युम्न ने मंत्रोच्चारण व विधि विधान से स्वयं की थी। प्रतिवर्ष आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की द्वितीया को निकलने वाली भगवान जगन्नाथ की यात्रा से पूर्व आज भी साफ-सफाई का जिम्मा राज परिवार ही उठा रहा है, इस यात्रा को च्च्गुण्डीच यात्राज्ज् भी कहा जाता है।
    भारतीय प़ृष्ठ भूमि पर मनाये जाने वाले अनेक पर्व त्यौहार और मेलो में भगवान जगन्नाथ रथयात्रा अलग स्थान रखती है। एक तो मंदिर में स्थापित मूर्तियां काष्ठ अथवा लकड़ ी की बनी होती है, दूसरा यह कि प्रतिवर्ष नई मूर्तियों का निर्माण भगवान के रंग रूप में एकरूपता बनाये हुये है, जिसे स्वये भगवान की कृपा ही माना जा सकता है। नीम की पवित्र लकड़ी से बनी मूर्तियों में भगवान के अपूर्ण हाथो केे पीछे भी कथानक होने की जानकारी दी जा रही है। कहते है मंदिर निर्माण से पूर्व भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्ति निर्माण का कार्य जिस कारीगर को सौंपा गया था, उसने राजा के समक्ष शर्त रखी थी की वह अकेले बंद कमरे में भगवान का रूप गढ़ेगा और पूर्णता के बाद स्वयं दरवाजा खोल दर्शन करायेगा। इससे पूर्व यदि किसी ने दरवाजा खोलकर भगवान को गढते उसे देखा तो वह काम को वही पर रोक देगा। हुआ भी यही उत्सुकता वश राजा ने स्वयं दरवाजा खोल दिया उस समय भगवान के हाथों की हथेली का निर्माण नही किया जा सका था, यही कारण है कि अब तक भगवान की मूर्तियां हथेली विहिन है।
    भगवान जगन्नाथ की यात्रा के लिये रथ का निर्माण केवल लकडिय़ों से ही किया जाता है। तीनों रथों में किसी भी प्रकार के लोहे के कीलों का उपयोग नही किया जाता है बल्कि लकड़ी से ही कील बनाये जाते है। अक्षय तृतीया अथवा भगवान परशुराम के जन्मदिन से भगवान के रथों का निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है। साथ ही रथ निर्माण के लिये उपयोग में लायी जाने वाली लकडिय़ा बसंत पंचमी के दिन से इकठ्ठा करना शुरू कर दिया जाता है। पुराने रथों की लकडिय़ा मंदिर परिसर में ही नीलाम कर दी जाती है, जिसे श्रद्धालु खरीदनें के बाद अपने घरों के दरवाजे और खिड़किया बनाने में उपयोग में लाते है। ऐसा भी कहा जाता है कि मंदिर में स्थापित मूर्तियों का नवीन स्वरूप प्रतिवर्ष नही बनाया जाता है, बल्किी जिस वर्ष आषाढ़ मास में अधिक मास होता है, उसी वर्ष नई मूर्तियाँ गढ़ी जाती है। नई मूर्ति गढऩे का उत्सव नव कलेवर उत्सव के रूप में मनाया जाता है। भगवान की पूरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में ही च्च्कोयली बैकुण्ठज्ज् नामक स्थान पर भू-समाधि दे दी जाती है।
    भगवान जगन्नाथ मंदिर में रथ यात्रा आयोजन के लिये 3 अलग-अलग भव्य रथों का निर्माण किया जाता है। ये रथ भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र एवं बहन सुभद्रा के लिये पहचान स्वरूप अलग-अलग रंग रोगन द्वारा सजाये जाते है। भाई बलभद्र के लिये तैयार रथ को च्च्पाल ध्वजज्ज् नाम दिया जाता है, और इसे लाल एवं हरे रंग से आकर्षक रूप प्रदान किया जाता है। इसी तरह बहन सुभद्रा के रथ को च्च्दर्प-दलनज्ज् नामकरण करते हुए लाल एवं नीले रंग से सजाया जाता है तथा भगवान जगन्नाथ के लिये तैयार रथ को च्च्नंदीघोषज्ज् नाम से जाना जाता है, जिसे लाल एवं पीले रंग से नयनाभिराम रूप प्रदान किया जाता है। रथयात्रा वाले दिन सबसे आगे भाई बलभद्र का रथ उसके बाद बीच में बहन सुभद्रा का रथ और अंत में भगवान जगन्नाथ का च्च्नंदीघोष रथज्ज् पूजा अर्चना के बाद मंदिर परिसर से रवाना किया जाता है। जगह-जगह लाखों की संख्या में भक्तजन भगवान की आरती और पूजा करते दिखाई पड़ते है। रथ को श्रध्दालु भक्त रस्सी के माध्यम से खींचते हुये चलाते है, जिसे अपना हाथ लगाने धर्मावलंबियों के बीच प्रतिस्पर्धा का स्वरूप भी स्पष्ट रूप से  दिखाई पड़ता है।
    आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन विधिविधान सहित तैयार किये गये रथ पर भगवान को विराजित किया जाता है, आकर्षक वस्त्रों और श्रृगांरित रूप में भगवान के परम दर्शन भक्तों को एक अलग अनुभूति का आनंद दिलाता प्रतीत होता है। भगवान को रथ में लाकर उचित स्थान देने की प्रक्रिया को च्च्पहोन्द्री महोत्सवज्ज् कहा जाता है। जब रथ पूर्ण रूप से सज-धज कर भगवान सहित यात्रा के लिये तैयार हो जाता है तब पुरी के राजा पालकी में आकर स्वयं प्रार्थना करते है तथा प्रतिकात्मक रूप से रथ मंडप को झाडू से साफ करते है। इस परम्परा को च्च्छर-पहनराज्ज् कहा जाता है। इस प्रकार तैयारी के साथ शुरू की गई महान रथयात्रा गुण्डीच मंदिर जाकर विराम पाती है, जहां भगवान अपनी बहन और भाई के साथ नवमी तिथि तक रहते है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को सभी रथों को मुख्य मंदिर की ओर दिशा देते हुये पुनर्यात्रा प्रारंभ होती है। इस वापसी यात्रा को च्च्बहुदा यात्राज्ज् कहा जाता है। रथों के मुख्य मंदिर पहुंचने के बाद उनमें से मूर्तियों को नही उतारा जाता है, बल्कि एक दिन प्रतिमाये रथों में ही रहती है। आगामी दिवस एकादशि तिथि पर जब प्रात:काल मंदिर के द्वार खोले जाते है, तब भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा का श्रृंगार विभिन्न आभूषणों तथा शुध्द स्वर्ण के गहनों से किया जाता है। इस धार्मिक प्रक्रिया का सुनबेसा कहा जाता है। भगवान की बापसी के बाद भक्तजनों को वितरित किया जाने वाला महाप्रसाद मंदिर परिसर में ही तैयार किया जाता है। इस महाप्रसाद में अरहर की दाल, चांवल, साग,दही व खीर जैसे व्यंजनों को शामिल किया जाता है। इस प्रकार भगवान जगन्नाथ की पवित्र यात्रा हिन्दु धर्मावलम्बियों को पूरे 10 दिन जोड़े रखती है इस दौरान भक्तगण अपने घरों में पूजा पाठ आदि न करते हुये इन्ही आयोजनों में भागीदारी कर रहे होते है।