ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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गुरुवार, 31 मई 2018

चौबेजी कहिन:- 'डीप्रेशन' से उबरने के लिए 'अनमोल सूत्र' ! जब हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं तो फिर किस बात की चिंता?? 'चिंता' नहीं 'चिन्तन' अवश्य करें🐚 🌹🌷🚩🙏

आज 'चौबेजी कहिन' में आज मानस के पावन प्रसंग पर चर्चा करेंगे जिसका विषय है 'सोच' मित्रों भिलाई में आयोजित एक कार्यक्रम में जाना हुआ ! उक्त कार्यक्रम में 'डीप्रेशन' शब्द का जिक्र पूर्व वक्ता ने किया और उनके बाद मंच संचालक ने मुझे बोलने के लिए आमंत्रित किया मेरे मन में आया कि आज 'अवसाद' यानी 'डीप्रेशन' बड़ी समस्या है, इसी विषय पर बोलना बेहद जरूरी है, और हमने 'मुनि वशिष्ठ -भरत संवाद' को प्रस्तुत किया.. जो प्रस्तुत है अवश्य पढें..🙏

 मां कैकेई के कथनानुकूल रामवनगमन हो चुका है, राजा दशरथ की मृत्यु पश्चात्, भरत मां कौशल्या के सामने कातर भाव होकर कहते हैं, ‘मां, ये जो कुछ हुआ उसमें मेरी तनिक भी सहमति नहीं थी’ वहां उपस्थित मुनि वशिष्ठ भरत को बहुत समझाते हैं कि पिता की आज्ञा, राजकाज तथा प्रजा की देखभाल के लिए आपको राजगद्दी संभाल लेनी चाहिए। मगर 'सोचवश' भरत को यह बात अनुचित लगती है। उन्हें तो दोहरा आघात लगा है। राम का वियोग और पिता की मृत्यु…बड़े आहत हैं। अब वशिष्ठ उन्हें समझाते हैं जो बड़ा ही विचारोत्तेजक प्रसंग आप सभी 'चौबेजी कहिन'में अवश्य पढें।

हे भरत, भावी (भवितव्यता) प्रबल है। मनुष्य तो मात्र एक निमित्त भर है। उसके हाथ में कुछ नहीं है। परिस्थितियों पर उसका वश नहीं है – हानि-लाभ, जीवन-मृत्यु, यश-अपयश, यह विधाता के हाथ में ही है। जब इन पर तुम्हारा कोई वश नहीं ही नहीं तो फिर सोच क्यों? कुछ यही परिदृश्य महाभारत युद्ध के दौरान 'कृष्ण-अर्जुन' संवाद यानी गीता के 11वें अध्याय में मिलता है, जिसमें जीवन दर्शन का वह सूत्र है जो आज के तमाम उद्विग्न व्यथित लोगों को राह सुझा सकता है। हम नाहक ही चिंतामग्न हो जाते हैं, दुश्चिंताओं से घिर जाते हैं। जब हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं तो फिर किस बात की चिंता? करने वाला तो कोई और है, एक अदृश्य शक्ति। प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य को तटस्थ भाव, विरक्ति भाव से ही रहना चाहिए। यह हमारे आर्ष ग्रथों का एक प्रमुख विचार है। बहरहाल विषयांतर न हो जाए, इसलिए फिर लौटते हैं भरत की दशा पर…उन्हें वशिष्ठ फिर समझाते हैं।

वह ब्राह्मण सोचनीय है जो ज्ञानी नहीँ है। मात्र ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने से ही ब्राह्मण की पात्रता नहीँ हो जाती। संतकवि बालकाण्ड के शुरू में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि ‘बंदऊ प्रथम महीसुर चरना मोहजनित संशय सब हरना” कौन सा ब्राह्मण वन्दनीय है? जो मोह से उत्पन्न होने वाले सभी संशयों को दूर करने की क्षमता रखता हो। वह ब्राह्मण जो ज्ञानी नहीँ है और अपने इस ज्ञान धर्म को छोड़कर विषयों में आसक्त हो रहता है, वह सोचनीय है। वह राजा सोचनीय है जो नीति नहीँ जानता और जिसे प्रजा प्राणों सी प्यारी नहीँ है। और वह धनवान सोचनीय है जो कंजूस है जो अतिथि सत्कार और शिव भक्ति में रमा नहीँ है। वह संस्कारहीन मूढ़ व्यक्ति सोचनीय है जो ज्ञानियों का अपमान करता है और वाचाल है। मान-बड़ाई चाहता है और अपने ज्ञान का घमंड रखता है। यहां भी शूद्र के अर्थबोध के बारे में “जन्मना जायते शूद्रः संस्कारेत द्विज उच्यते” को ध्यान में रखना होगा।

आगे भी वशिष्ठ बताते हैं कि कैसे वह गृहस्थ सोच के योग्य है जो मोह में पड़कर कर्ममार्ग का त्याग कर देता है और किस तरह वह संन्यासी सोचनीय है जो दुनिया के प्रपंच में पड़कर ज्ञान-वैराग्य से हीन हो गया है। सोच तो उसका करना चाहिये जो चुगलखोर है, बिना कारण क्रोध करने वाला है, माता-पिता गुरु और भाई बंधुओं के साथ विरोध रखने वाला है। और वह सोचनीय है जो अपने ही उदर पोषण करने में लगा रहता है, निर्दयी है, दूसरों का अनिष्ट करता है। वशिष्ठ भरत को सांत्वना देते हुए कहते हैं कि हे भरत, राजा दशरथ तो किसी भांति सोचनीय नहीँ हैं अर्थात् वह उक्त श्रेणी के लोगों में नहीँ आते।

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