ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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बुधवार, 5 जुलाई 2017

.सरकारी स्कूलों और शिशु मंदिरों की बजाय मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों मे पढ़ा हुआ 12 वीं का छात्र पूछता है .what is veda ...?

...सरकारी स्कूलों और शिशु मंदिरों की बजाय मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों मे पढ़ा हुआ 12 वीं का छात्र पूछता है .what is veda ...?

Hrishikesh Tripathiफेसबुक पर श्री हृषिकेश त्रिपाठी जी ने बलराम पुर के कलेक्टर श्री अवनीश जी के द्वारा अपनी बीटिया का दाखिला सरकारी स्कूलों कराया इस विषय पर चर्चा चल रही थी की....तपाक़ से मैंने भी कुछ शब्द-सागर की धार प्रवाहीत की...जरा आप भी पढ़ें......

सर्वप्रथम तो श्री अवनीश जी को बहुत बहुत धन्यवाद की इन्होंने अपनी बीटिया का दाखिला सरकारी स्कूल में कराया.और उम्मीद है कि रमन सरकार छत्तीसगढ़ में विकास का आडम्बर छोड़ यहां की शिक्षण व्यवस्था को सुधारें.और परिवहन विभाग के पैरलर चल रहे अवैध वसूली चेकपोस्टो पर उस पर ध्यान देने की बजाय...यहां के शिक्षाकर्मियों पर ध्यान दें...क्योंकि उन शिक्षा कर्मियों को तीन तीन माह में ले देकर पेमेंट हो पाता है...श्री अवनीश जी ने अपनी बीटिया का सरकारी स्कूल में दाखिला कराने को रमन सरकार की उपलब्धि से बिल्कुल नहीं जोड़ा जाना चाहिये.और श्री हृषिकेश त्रिपाठी जी ने ऐसा नहीं किया इसकी हमें खुशी है.......हां इस बात का मैं समर्थन करता हुं की श्री अवनीश जी ने जो किया वह काब़िले तारीफ है उनके इस कदम से  जहां छत्तीसगढ़ में अफसरशाही बनाम लार्डशाही का खूब खेल चल रहा है वहीं इस सिस्टम को तमाचा है जो राजनीतिकऔर जातिगत, व सामाजिक वोटबैंक के आधार पर डीआईओएस तय किये जाते हैं ....मैं श्री अवनीश जी के इस कदम को दूसरे पहलु से लेना चाहता हुं वे स्वतः  उच्च अधिकारी हैं वे कुछ नया व समाज के हित में काम करने की जज्बा रखते हैं उन्होंने छत्तीसगढ़ की शासकीय शिक्षण-व्यवस्था को सुदृढ़ करनेने हेतु  रमन सरकार के  ध्यानाकर्षण के लिये इससे बेहतर कोई और मार्ग नहीं हो सकता...शायद चना फ्री, धान फ्री, फलाने फ्री, ढ़िमका फ्री की हैसियत से चुनाव जीतने वाले नेताओं की नींद टूट जाये.. ..अब थोड़ा सा डिफरेंट एंगल...श्री हृषिकेश त्रिपाठी जी....बात यह नहीं है की शासकीय अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में दाखिले लें या वे अधिकारी देश की आवाम को सरकारी स्कूलों में बच्चों के दाखिले के लिये प्रोत्साहित करें ...बल्कि सवाल इस बात की है की हमारे देश के भीड़ तंत्र ने आखिर प्राईवेट स्कूलों को इतना तवज्जो क्यों दिया करते हैं...वो भी तब जब ये प्राईवेट स्कूल घुड़सवारी से लेकर स्वीमिंग पुल तथा काला लाल पीला हरे रंग के प्रतिदिन वार के अनुसार स्कूल से तय किये गये पौष्टिक व्यंजनों से भरे बैग तथा दिन के हिसाब से उनके महंगे महंगे डीजाईनर ड्रेसेस ...की चकाचौंध के फेरे में हम जानबूझकर स्वयं को शोषण के सागर में गोते लगाने क्यों चले जाते हैं..इस विषय पर विचार करने की आवश्यकता है...क्या उस स्कूल में हमने नैतिक शिक्षा तथा वगैर ताम-झाम के विषयवार सतही ज्ञान या पारंगत पठन-पाठन की बजाय दिखावा..

के लिये भेजते हैं यह सोचते हुए की .देखो मेरा बच्चा 5000 इससे और भी अधिक रुपये महिने फीस वाले स्कूलों में पढ़ने जाता है...मेरा रूतबा है मैं बड़ा आदमी हुं...आदि स्टैण्डर्ड की सोच ने हमें जान-बूझकर .प्राईवेट स्कूलों में ढ़केलता है...दिलचस्प बात तो यह है कि यदि प्राईवेट स्कूलों मे ही दाखिला लेनी है तो हमारे देश में नैतिक शिक्षा तथा वगैर ताम-झाम के विषयवार पारंगतता प्रदाता एवं भारतीय प्रागैतिहासिकता को जीवंत बनाने/पढ़ाने/ बताने  व वाली देश की सबसे बड़ी गैर सरकारी शिक्षण-संस्थान सरस्वती शिशु मंदिर जो पूरे भारत में लगभग 110000 (एक लाख दश हजार ) की संख्या में हैं, ऐसी संस्थाओं में हम बच्चों को न भेजने के अलावां मीशनरियों द्वारा महंगे महंगे स्कूूलों में बच्चों को पढ़ने के लिये भेजते हैं और वो बच्चा जब उस स्कूल में केजी-1 से 12 वीं में पहुंचता है तो ....अपने पापा से पूछता है...पापा हमारे देश में वेद की बड़ी चर्चा होती है..what is veda ...?

लानत हो हमारे देश की मीडिया और धन्यवाद हो सोशल मीडिया ..जिन्होंने ऐसे महान शख्सियत को सुर्खियों में ला दिया...और जरा आप सोचिये ...हमें श्री अवनीश जी के इस कदम ने हमे स्वयं की समीक्षा करने को क्यों मजबूर किया.केवल अधिकारियों को ही क्यों, क्या हम सभी भारतीय लोगों को इस विषय पर सतही चिन्तन व मनन नहीं करना चाहिये....नमन ऐसे महान शख्सियत को धन्यवाद श्री अवनीश जी

- पण्डित विनोेद चौबे, संपादक- ''ज्योतिष का सूर्य''  राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई 

ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

रविवार, 2 जुलाई 2017

गोपालकृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जैसे ब्राह्मण होने चाहिये...

गोपालकृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जैसे ब्राह्मण होने चाहिये...

मित्रों, विगत दिनों 'अन्तर्नाद' के एक पूर्व सदस्य ने ''ब्राह्णों को भोजन न कराये जाने एवं पुराण अप्रमाणिक ग्रंथ है'' ऐसा उन्होंने आलेख प्रस्तुत किया जो उनके सतही ज्ञान का प्रदर्शन मात्र था!
इस प्रकार के ''छद्मवेषी और वेद विद्वेषी स्वयं को सनातन धर्म के पैरोकार मानते जरुर हैं ....परन्तु ये लोग ही सनातन धर्म को हानि पहुंचाने का कुटील प्रयास कर रहे हैं...ये लोग अवतारवाद एवं मूर्तिपूजा के विरोधी हैं, और यह बिल्कुल न्यायसंगत और वेदसम्मत भी है परन्तु उस स्थिति तक एक सामान्य साधक इतना शिघ्र वहीं पहुंच सकता, उसके लिये उसे एक सोपान यानी सीढी यानी स्टेप की आवश्यकता होती है, और वह है ''भक्ति मार्ग'' जिसे अपनाकर व्यक्ति राम और कृष्ण जैसे अवतारी देवों की पूजा की जानी चाहिये ताकि हमारे सनातनावलंबीयों को विखरने से बचाया जा सके! आईये अब चर्चा करते हैं'ब्राह्मणों के भोजन व ब्राह्मण पूजन की''    ....(आईए इस विषय पर विस्तृत चर्चा के लिये इस लिंक पर क्लीक करें......    http://ptvinodchoubey.blogspot.in/2017/07/blog-post.html?m=1   )                                               "" यदि जन्म से न हो कर कर्म से जाति मानी जाती तो फिर संस्कारहीन, वेद विमुख तथा पापी लोग पूर्व वाक्यों में ब्राह्मण, क्षत्रियादि (द्विज) क्यों कहे जाते? गौतम (न्याय) सूत्रो के भाष्य में भगवान वात्स्यायन लिखते हैं :

अहो खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इत्युक्‍ते कश्‍चिदाह यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपत् संभवति व्रात्येऽपि संभवेत् व्रात्योपि ब्राह्मण: सोऽप्यस्तु विद्याचरणसंपन्न:।

'देखो यह ब्राह्मण कैसा विद्या तथा आचरण से युक्‍त है - ऐसा सुन कर कोई छलवादी बोला कि यदि ब्राह्मण होने से ही उसमें विद्या और आचरण आ जाते हैं तो फिर संस्कारविहीन-पतित (व्रात्य)-में भी विद्या और आचरण क्यों नहीं होते? क्योंकि वह भी तो ब्राह्मण ही है?' इत्यादि (अ. 1, सू. 54)। अब क्या इतने पर भी संशय रह सकता है? अस्तु, फिर भी उसमें पूजनीयता या प्रतिष्ठा की योग्यता कभी भी नहीं हो सकती, क्योंकि जातिमात्र से कोई भी पूजनीय नहीं हो सकता।""

श्रुतिस्मृती उभे नेत्रे ब्राह्मणस्य प्रकीर्त्तिते।
    एकया रहित: काणो द्वाभ्यामंध उदाहृत:॥ (हारीत)

हिंदू समाज में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊँचा माना जाता है। यद्यपि संन्यासियों की प्रतिष्ठा सबसे बढ़ी-चढ़ी है तथापि हिंदूशास्त्रों के अनुसार दंड कोषाय, वस्त्रदि धारणपूर्वक संन्यास का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है, न कि इतर वर्णों को भी। अत: संन्यासियों की प्रतिष्ठा भी प्रकारांतर से ब्राह्मणों की ही प्रतिष्ठा समझी जानी चाहिए। अब विचारना यह है कि यह प्रतिष्ठा क्यों हुई, हिंदू समाज के ऊपर ब्राह्मणों की इतनी धाक क्यों जम गई, कि आज इस गए-गुजरे जमाने में भी ब्राह्मणों के नाम पर कट मरनेवाले लाखों मनुष्य पाए जाते हैं, ब्राह्मण नाममात्र से ही लोगों की श्रद्धासरित क्यों उमड़ पड़ती है, लोग डर के मारे काँप क्यों उठते हैं, तथा प्रतिदिन उनके खिलाने और पिलाने और देने-लेने में आज भी लाखों रुपए क्यों खर्च किए जाते हैं, जब कि अर्थाभाव के ही कारण सभी देशहित के कार्य रुके पड़े हैं - सार्वजनिक कार्यों के लिए देश के सच्चे नेताओं को दर-दर की खाक छाननी पड़ रही है! क्या कारण है कि संप्रति समाज पर ब्राह्मणों की इस सत्ता के लाखों विरोधियों के रहते हुए भी जनता की भक्‍ति अनेक अंशों में ज्यों की त्यों अटूट बनी हुई है। न केवल हिंदू जनता ने ही, वरन यजुर्वेद ने भी इनको सबसे ऊँची गद्दी दी है, क्योंकि विराट भगवान के मुख का स्थान ब्राह्मणों को दिया है। जैसा कि :

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्य: कृत:।
    उरू तदस्य यद्वैश्य: पद्‍भयां शूद्रो अजायत॥

'विराट् भगवान के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुआ, अथवा मुख स्थानीय हुआ, क्षत्रिय बाहु से या बाहुस्थानीय, वैश्य जंघा से अथवा जंघा स्थानीय और शूद्र पाँव से अथवा पाँवस्थानीय' (यजु. 32/12)। इसी प्रकार जब यजुर्वेद के ही 22वें अध्याय के 22वें मन्त्र में आशीर्वाद या प्रार्थना आई है तो सबसे प्रथम 'आ ब्रह्मन ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम्' द्वारा ब्रह्मतेजो युक्‍त ब्राह्मणों के ही हिंदू समाज में उत्पन्न होने की प्रार्थना की गई है, बाद को क्षत्रियादि की। इसी तरह 'पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसव: समिंधंतां पुनर्ब्रह्मणो वसुनीथ यज्ञै:' (यजु. 12/44) इत्यादि में भी आदित्य आदि देवताओं के बाद ब्राह्मणों का ही नाम लिया गया है। भगवान मनु भी लिखते हैं कि :

विधाता शासिता वक्‍ता मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।
    तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥

'शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करनेवाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता, वेदादि का वक्‍ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करनेवाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं' (मनु; 11-35)। इस सम्बन्ध में और भी अधिक विचार आगे मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदू समाज में ब्राह्मणों का स्थान प्रथम से ही ऊँचा है और सभी ने इसे स्वीकार किया है।

अब यदि इस प्रतिष्ठा, इस गौरव वा उच्च स्थान का कारण ढूँढ़ने चलते हैं तो बहुत दूर जाना नहीं पड़ता। जिन वाक्यों या प्रसंगों में प्रतिष्ठा दी गई है उन्हीं का पर्यालोचन हमें वास्तविक कारण तक निरबाधा पहुँचा देता है। यजुर्वेद के 22वें अध्याय का जो वाक्य पूर्व प्रदर्शित है उससे ही स्पष्ट है कि प्रतिग्रह, जमींदारी, कृषि, पंडागिरी या ढोंग से पेट पालने अथवा द्रव्य कमानेवाले नाममात्र के ब्राह्मणों की कामना नहीं की गई है; यह नहीं कहा गया है कि पेटपाल पांडे उत्पन्न हो कर ढाई सेर अन्न का एक ही बार निस्तार करें, किंतु ब्रह्मतेज: संपन्न ब्रह्मवर्चस्वी शंकर, व्यास, वसिष्ठादि सरीखे तरण तारण ब्राह्मणों के उत्पन्न होने की ही प्रार्थना है, जिनसे जगत का निस्तार हुआ, हो रहा है और होगा। तिलक तथा गोखले जैसे कर्मवीर ब्राह्मणों को ही हम सर्वदा से चाहते और मानते चले आए हैं। किसी की प्रतिष्ठा उसका मुख देख कर कोई नहीं करता और यदि कभी करता भी है तो सहस्रों में कोई। तिस पर भी वह चिरस्थायिनी नहीं हो सकती है। यजुर्वेद ने भी यदि भगवान का मुखरूपी स्थान ब्राह्मणों को दिया है तो केवल परान्नभोजी होने के कारण ही नहीं। जिस मुख से भोजन होता है उसी से प्रथम (भोजन से पूर्व) ही वेद शास्त्रो का पठन-पाठन तथा संसार को सदुपदेश हो लेता है। वही मस्तक ज्ञान का भंडार और सरस्वती का जीता-जागता मन्दिर है। वह ऐसा सरस्वती भवन है जिससे सहस्रों लाभ उठाते हैं और जहाँ चौबीस घंटे सरस्वती देवी की अविच्छिन्न आराधना होती रहती है। यदि पूर्वोक्‍त 12वें अध्याय वाला यजुर्वाक्य ब्राह्मणों का नाम लेता है तो साथ ही वह यह भी कहता है कि 'ब्राह्मणों यज्ञैस्त्वा समिंधान्ताम्' - हे अग्ने, तुम्हें ब्राह्मण लोग यज्ञों द्वारा उद्दीप्त करें। वह यज्ञयाग में जन्म व्यतीत करनेवाले ही कर्मपरायण ब्राह्मणों का नाम लेता है, न कि केवल पेटपरायणों का।

अतएव मनु भगवान ने भी पूर्वलिखित वाक्य द्वारा ब्राह्मणों का स्वाभाविक-जन्मसिद्ध-स्वरूप यही बतलाया है कि वह सत्कर्मों का अनुष्ठान करनेवाले तथा भूतों की हितकामनावाले होते हैं। वह कहते हैं कि सन्मार्ग का उपदेशक तथा पूर्वोक्‍त विशेषतायुक्‍त ही ब्राह्मण कहा जा सकता है। जो ऐसा हो वही पक्का-मानवीय-ब्राह्मण कहलाता है, न कि केवल ब्राह्मणी माता और ब्राह्मण पिता से जन्म होने के कारण ही वह पूज्य हो सकता है। वह ब्राह्मण भले ही कहलाए, क्योंकि जाति जन्म से ही मानी जाती है, न कि कर्मों से। अतएव पतितों-संस्कारहीनों तक को भी मनु ने स्पष्ट ही ब्राह्मण कह दिया है और जो अभी बचे हैं उन्हें ही ब्राह्मण ही कहा है। जैसा कि :

गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
    गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश:॥36॥
    ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्य्यं विप्रस्य पंचमे॥37॥

'गर्भ से आठवें वर्ष में ब्राह्मण का, ग्यारहवें में क्षत्रिय का और बारहवें में वैश्य का उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करे। परंतु यदि व्यास, वसिष्ठादि की तरह ब्रह्मतेजोयुक्‍त होने की इच्छा हो तो ब्राह्मण का पाँच ही वर्ष में कर डाले' (मनु. 2/36,37)। इन श्‍लोकों में संस्कारशून्य बच्चे को भी ब्राह्मण ही कहा है। इसी तरह क्षत्रिय आदि भी। 'अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत' यह वेद (ब्राह्मण) वाक्य भी तो संस्काररहित बच्चों को ब्राह्मण ही कहता है। जब संस्कार ही नहीं हुआ हो तो वेदादि का पढ़ना या वैदिक कर्म करना कब हो सकता है? आगे चल कर 10वें अध्याय में 'ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्यस्त्रायो वर्णा द्विजातय:' मनु. 10/3 आदि वाक्यों द्वारा ब्राह्मणादि तीन वर्णों का नाम द्विज बतलाया है और फिर 11वें अध्याय में भी-

येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि।
    तांश्‍चारयित्वात्रीन्कृच्छ्रान्यथाविध्युपनाययेत्॥191॥

प्रायश्‍चित्तं चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजा:।
    ब्राह्मणा च परित्यक्‍तास्तेषामप्येदादिशेत्॥192॥

'जिन द्विजों का गायत्री (उपनयन) संस्कार यथोचित समय पर विधिवत नहीं हुआ हो उनसे तीन प्रजापत्य व्रत कराके उनका विधिवत उपनयन करवावे। जो द्विज वेद के अध्ययन से वंचित तथा पापकर्मा हों, पर उसका प्रायश्‍चित्त करना चाहें, उनसे भी यही प्रजापत्य व्रत तीन बार करावे' (191-92)। यदि जन्म से न हो कर कर्म से जाति मानी जाती तो फिर संस्कारहीन, वेद विमुख तथा पापी लोग पूर्व वाक्यों में ब्राह्मण, क्षत्रियादि (द्विज) क्यों कहे जाते? गौतम (न्याय) सूत्रो के भाष्य में भगवान वात्स्यायन लिखते हैं :

अहो खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इत्युक्‍ते कश्‍चिदाह यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपत् संभवति व्रात्येऽपि संभवेत् व्रात्योपि ब्राह्मण: सोऽप्यस्तु विद्याचरणसंपन्न:।

'देखो यह ब्राह्मण कैसा विद्या तथा आचरण से युक्‍त है - ऐसा सुन कर कोई छलवादी बोला कि यदि ब्राह्मण होने से ही उसमें विद्या और आचरण आ जाते हैं तो फिर संस्कारविहीन-पतित (व्रात्य)-में भी विद्या और आचरण क्यों नहीं होते? क्योंकि वह भी तो ब्राह्मण ही है?' इत्यादि (अ. 1, सू. 54)। अब क्या इतने पर भी संशय रह सकता है? अस्तु, फिर भी उसमें पूजनीयता या प्रतिष्ठा की योग्यता कभी भी नहीं हो सकती, क्योंकि जातिमात्र से कोई भी पूजनीय नहीं हो सकता। अतएव विद्या तथा तप से विहीन होने पर भी, उसे ब्राह्मण कहते हुए भी, महाभाष्य में भगवान पतंजलि ने अपूजनीय तथा अमान्य ही ठहराया है। जैसा कि :

विद्या तपश्‍च योनिश्‍च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
    विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥

'विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जाएँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता' (पा. 51-115)। इसका आशय कैयट ने इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है :

योनिरिति ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जन्म। ब्राह्मणकारकमिति ब्राह्मणव्यपदेशस्य निमित्तामेतादित्यर्थ:। तप:श्रुताभ्यामिति नासौ परिपूर्णो ब्राह्मण:, जातिलक्षणैकदेशश्रयस्तु तत्रा ब्राह्मणशब्दप्रयोग:।

इसका तात्पर्य प्रथम ही कह चुके हैं। अतएव महाभाष्य के प्रारंभ (पस्पशाह्रिक) में ही लिखा गया है कि :

ब्राह्मणेनाकारणो धर्म: षडंगो वेदोऽधययो ज्ञेयश्‍च।

'यह न विचार कर कि वेदवेदांग के पढ़ने से हमें क्या मिलेगा किंतु अपना धर्म या कर्तव्य समझ कर - यह समझ कर कि ब्राह्मण होने के नाते ही हम उनके पढ़ने को बाध्य हैं -ब्राह्मण लोग छहों अंगों के सहित वेदों को पढ़ें और उनका अर्थ जानें'। संपूर्ण संसार का गुरु बनना कोई मामूली बात नहीं है कि जो ही चाहे वही बन जावे। महान या बड़ा बनने के लिए कुछ परिश्रम करना पड़ता है। काम से ही नाम व प्रतिष्ठा होती है, न कि केवल बातों से। बड़ी-बड़ी बातें करने से ही यदि काम चल जावे तो किसी को भी मगज मारने की आवश्यकता ही क्या थी? इसीलिए भागवतकार ने पंचम स्कंद में कह दिया है कि :

महत्सेवां द्वारमाहु विर्मुक्‍तेस्तमोद्वारं योषितां संगिसंगम्।
    महान्तस्ते समचित्त: प्रशान्ता विमन्यव: सुहृद: साधावो ये॥

'महान पुरुषों की सेवा से कल्याण की प्राप्ति होती है और स्त्री-सेवियों का संग अज्ञान या नरक का द्वार है। महान वही कहलाते हैं जो शत्रु-मित्र भाव से रहित, विषयवासनाविमुक्‍त, क्रोध न करनेवाले, दयालु एवं कोमल हृदय और परोपकारपरायण हुआ करते हैं।'

जिस मनु भगवान ने ब्राह्मणों को उच्च आसन दिया है उन्होंने यह भी कह दिया है कि -

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:।
    यश्‍च विप्रोऽनधयानस्त्रायस्ते नाम बिभ्रति॥157॥

यथा षण्ढोऽफल:स्त्रीषु यथा गौर्गविचाफला।
    यथाचाज्ञेऽफलंदानं तथा विप्रो नृचोऽफल:॥158॥

'जिस तरह काठ का हाथी और चमड़े के हरिण बेकार हैं - सिर्फ देखने के ही काम के हैं - उसी तरह जो ब्राह्मण वेद-शास्त्र का अध्ययन नहीं करता वह भी केवल नाममात्र का ही ब्राह्मण है। जैसे स्त्रियों के लिए नपुंसक, गाय के लिए गाय, और मूर्ख को दिया हुआ दान व्यर्थ है, वैसे ही वेदों का न पढ़ने और न जाननेवाला ब्राह्मण व्यर्थ है' (अ. 2/157-158)। फिर कहते हैं कि :

संमानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
    अमृतस्येव चाकांक्षेदवामानस्य सर्वदा॥162॥

तपोविशेषैर्विविधैर्व्रतैश्‍च विधिचोदित
    वेद: कृत्स्नोऽधिगंतव्य: सरहस्यो द्विजन्मना॥165॥

वेदमेव सदाभ्यसयेत्तपस्तप्स्यन द्विजोत्ताम:।
    वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य तप: परमिहोच्यते॥166॥

'जैसे विष से डरा करते हैं उसी प्रकार ब्राह्मण सदा ही आदर सत्कार से डरा करे और जिस तरह अमृत की इच्छा की जाती है वैसे ही तिरस्कार को नित्य चाहे। अनेक तरह के तप, नियम ओर व्रतादि कर के ब्राह्मण उपनिषदों के सहित संपूर्ण वेदों को यथावत पढ़े और जाने। जब कभी ब्राह्मण को तप करने की आवश्यकता हो तो केवल वेदों का ही अभ्यास (पाठ, विचारादि) किया करे; क्योंकि इस दुनिया में ब्राह्मण के लिए वेदाभ्यास ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है' (अ. 2/162/64)। दान के सम्बन्ध में तो और भी कड़ाईवाला नियम मनु जी ने कहा है। जैसा कि :

ब्राह्मणस्त्वनधीयानस्तृणाग्निरिवशाम्यति।
    तस्मैहव्यंनदातव्यं नहि भस्मनि हूयते॥

'पठन-पाठन से विमुख ब्राह्मण पुआल की आग की तरह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इसी से उसे देवपितृकार्य में कुछ नहीं देना चाहिए, क्योंकि राख या पुआल की अग्नि में हवन नहीं किया जाता।'(अ. 4/168)।

अतपास्त्वनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।190॥
    अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥

तस्मादविद्वान बिभियाद्यस्मात्तस्मात्प्रतिग्रहात्।191॥
    स्वल्पकेनाप्यऽविद्वान हि पंके गौरिव सीदति॥

न वार्यपि प्रयच्छेत्तु वैडालव्रतिके द्विजे।
    न बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि धर्मवित्॥191॥

'जो ब्राह्मण विद्या और तपस्या से रहित होकर भी प्रतिग्रह की इच्छा करता है वह दाता और दान के साथ ही वैसे ही नरक में डूब मरता है जैसे पत्थर की नाव अपने सवारों के साथ डूब जाती है। इसलिए मूर्ख ब्राह्मण सभी प्रकार के दान प्रतिग्रह से डरता रहे, क्योंकि वह थोड़ा भी लेने से कीचड़ में फँसी हुई गाय की तरह कष्ट पाता है। बकध्यानी, बिलारभक्‍त और वेद के न जाननेवाले ब्राह्मणों को धर्मज्ञ पुरुष पानी भी न दे' (अ. 4/190-92)।

त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्‍यर्जितं धनम्।193॥
    दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च॥

यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन।
    तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ॥194॥

'पूर्वोक्‍त तीनों प्रकार के ब्राह्मणों को धर्म से कमाया भी धन यदि दिया जावे तो परलोक में देने तथा लेनेवाले दोनों को नरक ले जाता है। जिस तरह पत्थर की नाव पर चढ़ कर पार जानेवाले पानी में डूब मरते हैं, उसी प्रकार मूर्ख दाता और मूर्ख लेनेवाला दोनों नरक में डूब जाया करते हैं।' (अ. 4/193-94)।

इस दान के विचार प्रसंग में याज्ञवल्क्य ने भी कहा है कि :

देशे काले उपायेन द्रव्यं श्रद्धासमन्वितम्।
    पात्रे प्रदीयते यत्तत्सकलं धर्मलक्षणम्॥

'उत्तम देश और उत्तम काल में शास्त्राक्‍त विधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक जो कुछ पदार्थ दान के योग्य (पात्र) पुरुष को दिया जाता है वही धर्म कहलाता है' (आचा. 6)। जब यह शंका हुई कि अच्छा, तो दान के योग्य पात्र किसे कहते हैं, तो स्वयमेव आगे चल कर दान प्रकरण में कहते हैं कि -

तपस्तप्त्वाऽसृजद् ब्रह्मा ब्राह्मणान्वेदगुप्तये।
    तृप्त्यर्थं पितृदेवानां धर्मसंरक्षणाय च॥

सर्वस्य प्रभवो विप्रा: श्रुताध्ययनशीलिन:।
    तेभ्य: क्रियापरा: श्रेष्ठास्तेभ्योऽप्यधयात्मवित्तमा:॥

न विद्यया केवलयां तपसा वापि पात्रता।
    यत्र वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रं प्रकीर्त्तितम्॥

'वेदों की रक्षा, पितरों तथा देवताओं की तृप्ति और धर्म के प्रचार के ही लिए ब्रह्मा ने तपस्या कर के ब्राह्मणों को उत्पन्न किया। वेदशास्त्रो के पठन-पाठन और विचार में समय बितानेवाले ब्राह्मण सभी लोगों से श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणों में भी शास्त्रोक्‍त धर्म के करनेवाले अन्यों से श्रेष्ठ हैं और उनसे भी श्रेष्ठ अध्यात्मत्व के ज्ञाता हैं। क्योंकि केवल शास्त्र पढ़ लेने से ही कोई दानपात्र नहीं हो सकता, अथवा केवल तप करने मात्र से भी नहीं, किंतु जिस पुरुष में विद्या, तप और शास्त्रोक्‍त कर्मों का अनुष्ठान एवं सदाचार रहता है वही दानपात्र है।' (198-200)।

गोभूतिलहिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम्।
    नापात्रे विदुषा किंचिदात्मन: श्रेय इच्छता॥

विद्यातपोभ्यां हीनेन न तु ग्राह्य: प्रतिग्रह:।
    गृह्‍णन प्रादातारमधो नयत्यात्मानमेव च॥

'गौ, भूमि, तिल, सुवर्णादि पदार्थ सत्कारपूर्वक दानपात्र को धर्मज्ञ पुरुष अपने कल्याण की इच्छा से दे, कुपात्र को कभी न दे। जिसमें विद्या और तप न हो वह प्रतिग्रह स्वीकार न करे। क्योंकि ऐसा करने से अपने साथ दाता को भी नरक मे ले जाता है।' (201-202)। भगवान हारीत ने भी ब्राह्मणों का यथार्थ स्वरूप यों कहा है :

श्रुतिस्मृती उभे नेत्रे ब्राह्मणस्य प्रकीर्त्तिते।
    एकया रहित: काणो द्वाभ्यामन्ध उदाहृत:॥

'वेद और स्मृतियाँ ये दोनों ब्राह्मण की आँखें हैं। यदि केवल वेद या स्मृति मात्र का ही ज्ञाता हो तो उसे काना समझना चाहिए। परंतु दोनों को ही न जानता हो तो अंधा कहलाता है।' मनु जी ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के कारणों के साथ-साथ उनके कर्तव्यों का वर्णन इस तरह किया है :

उत्तमांगोद्‍भवाज्ज्यैष्ठयाद् ब्रह्मणश्‍चैव धारणात्।
    सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मण: प्रभु:॥

तं हि स्वयम्भू: स्वादास्यात्तपस्तप्त्वादितोऽसृजत्।
    हव्यकव्याभिवाह्याय सर्वस्यास्य च गुप्तये॥

'परमात्मा के उत्तम अंग (सिर) से उत्पन्न होने, वर्णों में ज्येष्ठ होने, और वेद शास्त्रों के ज्ञाता होने के कारण इस संपूर्ण सृष्टि का धर्म-विचार से ब्राह्मण ही स्वामी है। क्योंकि ब्रह्मा ने तपस्या कर के देवता तथा पितरों का अंश उनके पास पहुँचाने, एवं संपूर्ण सृष्टि की रक्षा के लिए उसे उत्पन्न किया है।' (अ. 1-93/94) यहाँ 'सर्वस्यास्य च गुप्तये' पद बड़े ही महत्व के हैं। इनका अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण केवल स्वार्थपरायण न हो, किंतु सभी लोगों के हित-अहित, सुख-दु:ख, उन्नति-अवनति तथा उनके कारणों का विचार करता रहे और लोगों के सुख-दु:खों को ही अपना सुख-दु:ख समझे। अतएव उनके निवारणार्थ कटिबद्ध रहे। सारांश, उसे देश का सच्चा नेता तथा हितैषी होना चाहिए। यदि राजनीतिक अवनति देखे तो उसके ही लिए यत्‍न करे। यदि सामाजिक अवनति हो तो उन सामाजिक दोषों के निर्मूल करने का यत्‍न करे जिनसे समाज की दुर्दशा हो रही हो और यदि धार्मिक ह्रास हो तो धर्म का यथावत प्रचार कर के गीता के सिद्धांतानुसार प्रजा की रक्षा करे। गीतावाला सिद्धांत ऐसा है:

अन्नाद्‍भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव:।
    यज्ञाद्‍भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्‍भव:॥

कर्म ब्रह्मोद्‍भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्‍भवम्।
    तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

'अन्न से प्राणियों की उत्पत्ति होती है, वृष्टि से अन्न की, यज्ञ से वृष्टि की, और यज्ञ की अंग-उपांग रूप क्रियाओं द्वारा, क्रियाओं का प्रतिपादिक वेद है, और वेद की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है। इसीलिए यद्यपि सभी वस्तुओं में परमात्मा की सत्ता है, तथापि यज्ञ यज्ञादि क्रियाकलाप में उसकी विशेष रूप से स्थिति है।' (गी. 3/14-15)। जिन दिनों ब्राह्मण हिंदू समाज के सच्चे नेता, तथा उपदेशक थे उन दिनों भारत सभी तरह से धन-धान्य, मान-प्रतिष्ठादि से संपन्न था और जगत का गुरु बनने का दावा गर्व के साथ करता था। उन्हीं दिनों का न कि आजकल की परम पतित अवस्था का स्मरण कर के, भगवान मनु को यह कहने का साहस हुआ था कि :

एतद्‍देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
    स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवा:॥

'ब्रह्मावर्त्त, ब्रह्मर्षि आदि देशों में उत्पन्न ब्राह्मणों से ही पृथ्वी के सभी मनुष्य अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें' (अ. 2/20)। इससे बढ़ कर और प्रतिष्ठा क्या हो सकती है कि समूचे संसार के मस्तक पर रख दिया? सारे संसार का शिरोमणि और गुरु बना दिया; सो भी अभिमान और अकड़ के साथ! यदि स्वप्न में भी मनु महाराज की यह धारणा होती कि सामान्यत: समूचे भारत तथा विशेषरूप से ब्राह्मणों की ऐसी पतितावस्था हो जावेगी जैसी आजकल हो रही है तो क्या यह पूर्वोक्‍त श्‍लोक उनके मुख से कभी भी निकलता? परंतु शायद वह यह असंभव-सा विचार मन में ला ही नहीं सके कि जो सातवें आसमान पर बैठा है कभी वह रसातल के भी नीचे चला जावेगा! सचमुच उस समय-उनके काल में जब कि देशोन्नति के भगवान भास्कर द्वादश कला युक्‍त होकर भारत गगन के मध्य में देदीप्यमान थे  ।।

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे
संपादक - ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई,  दूरभाष क्रमांक -९८२७१९८८२८

शनिवार, 1 जुलाई 2017

पुराणों ने पूर्व में ही सृष्टि के अधिष्ठाता विष्णु को 'White Hole एवं रुद्र Black Hole तथा ब्रह्मा को प्रजा सृजक बताया गया है.....(पार्ट-1)

पुराणों ने पूर्व में ही सृष्टि के अधिष्ठाता विष्णु को 'White Hole एवं रुद्र Black Hole तथा ब्रह्मा को प्रजा सृजक बताया गया है.....(पार्ट-1)

वेद को अप्रमाणित कहने वाले आसुरी प्रवृत्ति के फॉलोवरों तुम लोग पुराणों के सरल वाङमय को केवल राजा-रानी के कथा प्रसंगों का पुलिन्दा समझने की भूल मत करो....पुराण वेदों का भाष्य है जिसकी रोचकता के लिये कुछ पात्र सुनिश्चित किये जाते हैं और उन्हीं किरदारों के माध्यम से आज के साईंस से लाखों वर्ष पूर्व ब्रह्माण्डीय समस्त उन विषयों पर रिसर्च किया गया जिस पर आज का विज्ञान पहुंचने या समझने का प्रयास कर रहा है....अब देखिये ना ''महामशीन के माध्यम से सृष्टि के रहस्य को जानने हमारे आधुनिक वैज्ञानिक कितने बेताब हैं, किन्तु सफलता उनको मात्र 'ब्लेक होल' और 'व्हाईट होल' तक ही मिल पाई है, जिसकों लाखों वर्ष पूर्व पूरा वैज्ञानिक ऋषियों ने पुराणों में उल्लेखित कर दिया है ! आप सोच रहे होंगे की आचार्य पण्डित विनोद चौबे जी लाखों वर्ष पूर्व क्यों कह रहे हैं तो मैं जिम्मेदारी के साथ पुन: कह रहा हुं कि लाखों वर्ष पूर्व राम का अवतार हुआ साथ ही तमाम ऋषि वैज्ञानिकों का सानिध्य मिला और उन ऋषियों जो
बांस के खोखले छिद्र से आसमान को निहार कर सूर्य, चंद्र और मंगल आदि ग्रहों की दूरी से लेकर सृष्टि के रहस्यों का दस्तावेजीकरण किया वही आज "18 पुराण" के रुप मे मौजूद है तो आईये उसे आदरणीय माधवाचार्य जी एवं श्री राम शर्मा जी के अलग अलग शोधग्रंथो के अध्ययनोपरांत उस रहस्य को बताता हुं जो "पुराणों को कल्पनाओं का पुलिन्दा कहा करते थे उनके मुंह पर सहस्त्रों तमाचा जड़ता यह आलेख जिसको "अन्तर्नाद मंच पर कल यानी १ जुलाई २०१७ को हुये चर्चा से प्रेरित होकर आज प्रात: छत्तीसगढ के भिलाई स्थित शांतिनगर के अपने निवास वर्षा ऋतु का लाभ उठाते हुये मेढ़कों द्वारा '" पुराण अप्रमाणित है, और वेद प्रमाणित"" ऐसी टर्र टर्र की मण्डूक ध्वनि के प्रतिउत्तर में ''विद्-शंख-ध्वनि' का धामन कर रहा हुं....

संपूर्ण विश्व एक ही अखण्ड विज्ञानघन सत्ता का विकास है चाहे वह ब्रह्म कल्प हो या पद्मकल्प और वराहकल्प भारतीय वाङ्ग्मय में इस विज्ञानात्मक ब्रह्माण्डीय बिकास को कथा रूप के माध्यम से बड़े ही सहज भाव से स्पष्ट किया है यह अन्नतस्तारकित व्योमपथ ही क्षीर समुद्र है इसका मध्याकर्षण क्षेत्र ही उसकी संकर्षणात्मक शेषशय्या है या विश्वरूप से व्यापक व्यपनशील महासत्ता विष्लृ व्यापतौ धातु से निष्पन्न महाविष्णु है जो दिङ्निर्देशक की दृष्टि से आकाशगंगा का केंद्र भाग भी कहा जाता है । सृष्टि के आदिकारण या स्वेत महाविष्णु है यहाँ कमल नाल का रूपक ( आज के भौतिक वैज्ञानिक का बिचार ) साइफन ट्यूब की तरह है जिसके माध्यम से ब्रह्माण्डीय द्रब्य का निक्षेप व्योमपथ पर होता है विज्ञान आज व्हाइट होल के साथ साइफन सिस्टम की कल्पना कर रहा है जिससे विश्व द्रब्य का निक्षेप हुआ है इस नाल पर कमल यहाँ ब्रह्माण्डीय द्रब्य की प्रथम बिकासवस्था का संकेत है कमल पर बिराजमान ब्रह्मा सृष्टि से लेकर उसके पौरुषेय बिकास तक का संपूर्ण प्रतिनिधि है जो इस बहिर्भूत ब्रह्माण्डीय द्रब्य की चरम विकसित अवस्था के स्वरुप को स्पष्ट करता है ब्रह्मा के  चार मुख पौरुषेय प्रज्ञा के चतुर्मुखी  व सर्वतोमुखी बिकाश के सूचक है प्रतीकों से युक्त इनकी चार भुजाएं धर्म ,अर्थ,काम,मोक्ष, इन चारों अर्थो को स्पष्ट करती है ये भारतीय वाङ्ग्मय में पुरुषार्थ या पुरुष के अर्थरूप में सर्वत्र प्रसिद्ध है पुरुषार्थ का अर्थ है -- पुरुष की सक्रियता कर्मक्षमता के संदर्भ में व्यापक अर्थबोध जो उपयुक्त चारभागो में विभक्त ब्रह्मा के चारो हाथो द्वारा स्पष्ट किया गया है ।क्षीरसागर पर विश्वद्रब्य का वाचक महाविष्णु अकेले नही विश्वद्रब्य को परिणामोन्मुख करने वाली श्रीरूपा माहशक्ति वहां विद्यमान है देवऋषि नारद वीणा सहित वहां सन्मुख है नार ,का, अर्थ , जल  द का अर्थ है  देनेवाला । जगत और जीवन दोनों  का आधार जल है इस लिए यहाँ देवऋषि नारद इस विज्ञान कथा में प्रस्तुत है । विश्व का निर्माता और संचालकतत्व  नाद  है  सारीसृष्टि नादमुखर है संपूर्ण ब्रह्माण्ड संगीत से आपूरित है अतः देवऋषि के हाथ में वीणा अपने प्रतिकभुत विज्ञानर्थ को स्पष्ट करती है इस अन्तस्तारकित (interstellar) आकाशरूपी क्षीरसागर में मध्याकर्षण क्षेत्र स्वरुप शेषशय्या पर सोया हुआ महाविष्णु विशिष्ट प्रतीकों से युक्त है जिनमे एक तो नाभि से होता बहिर्भूत होता हुआ द्रब्यस्थानीय कमलनाल है जिस पर पूर्ण पुरुष ब्रह्मा है जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके विष्णु स्वयं अपने चार हाथो में चक्र, गदा, पद्म, और शंख से युक्त है विष्णु का सुदर्शन चक्र इन ब्रह्माण्डीय द्रव्यो की सर्वदा विद्यमान चक्रगति है वही विश्वद्रब्य को संपूर्ण ब्रह्माण्डीय बिकाश में बदलती है यही विष्णु के हाथ में घूमते हुए सुदर्शनचक्र का निदानभुत अर्थ है गदा सृष्टि के विकास में उत्पन्न होने वाली अवरोधक के अप्रसारण का प्रतिक है कमल ब्रह्माण्डीय संरचना का प्रतिक है नाभोगंगा के  बिस्तार को  वैज्ञानिक एक मुख्य प्रोजेक्शन थाल की तरह देखते है ऋषियों ने कोटि कोटि ब्रह्माण्डो की सर्वतोमुखी व्यापति को लक्ष्य में रख कर एक कमल की तरह देखा शंख जैव सृष्टि का प्रतिक है पृथ्वी के प्रारम्भिक बिकाश  के इतिहास में शंख प्रतिनिधि रूप है विष्णु के उदर से सम्भूत होने के कारण उपादान कारण की दृष्टि से सृष्टि के प्रत्येक कण को विष्णु कहा गया है पदार्थ की मौलिक स्वरुप की दृष्टि से इस # सर्वम # को सर्वं विष्णुमयं जगत् कहा जाता है यह विश्व महा विष्णु तत्व की समष्टि है विष्णु शब्द का व्याकरण  वा विज्ञानलभ्य अर्थ है -- एक अद्वितिय व्यापनशीलतत्व आकाशगंगा में फैले हुए अनेक छोटे बड़े तारे स्वयं हिरण्यगर्भ विष्णु है जो सृष्टि की संरचना में बिस्फोटक्रम से प्रवृत होते है ये सभी आदि हिरण्यगर्भ विष्णु से बहिर्भूत होते हुए तारो के रूप में प्रोद् भासित हो रहे है हमारा सूर्य भी एक मध्यम परिणाम हिरण्यगर्भ विष्णु है संरचनात्मक कालभेद के अनुसार इसके मण्डल की द्रब्यम्य स्थितियां बदलती रहती है उसी के अनुसार उसका वर्णभेद वा रंगभेद होता है

नाभोभौतिक विज्ञान (astrophysics) के आचार्य अनन्त दूरियों पर विस्तीर्ण इन हिरण्यगर्भो के वर्ण भेद द्वारा इनके द्रब्यमय क्रियात्मक स्वरुप को निर्धारण करता है भारतीय पुराण परम्परा के अनुसार विष्णु स्वेतवर्ण विशिष्ट है तत्वतः स्वेत होते हुए भी वे कालद्रब्य के फलस्वरूप उपाधिभेद से कभी रक्त वर्ण तो कभी कृष्णवर्ण प्रतीत होते है इस वर्ण परिवर्तन के अनुसार उस एक ही तत्व के तीन नाम है

१-स्वेतवर्ण -- विष्णु
२- रक्तवर्ण -- ब्रह्मा
३- कृष्णवर्ण --शिव  वा रूद्र

भागवत पुराण के अनुसार यही उस एक तत्व की वर्ण व्यवस्था वा रंगभेद स्थिति है

स त्वम त्रिलोकस्थितये विभर्षि शुक्लम् खलु वर्णात्मन ।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णम् च वर्णं तमसा जनात्यये ।।
यह स्वेतवर्ण विष्णु ही विज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो white hole  का परम भारस्वरूप है जिससे हिरण्यगर्भ की सृष्टि होती है कृष्णवर्ण रूद्र ही  black hole  का पर्याय है जो अपने ही भीतर सब कुछ निगल लेता है यही  black hole  कालान्तर में स्वेत विष्णु white hole के रूप में पुनः प्रस्तुत होता है श्रुति में यह विज्ञान बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा गया है यह रूद्र ही सभी शक्ति स्वरुप देवो को उतपन्न करता है

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः । हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥श्वेताश्वर उपनिषद ४/ १२ ॥
रूद्र को विश्व के आधारतत्व के रूप में ग्रहण करते हुए श्रुति उसके क्रियात्मक स्वरुप का उल्लेख इस प्रकार करती है वह रूद्र अपनी नियामक शक्ति द्वारा सभी लोको का नियमन करता हुआ अन्य का आश्रय नही लेता वह संहार रूप वा संकोच रूप होकर  सभी जीवो के भीतर संस्थित है वही प्रलयकाल में इन सब को अपने भीतर समेट लेता है यहाँ मन्त्र में रूद्र की क्रियात्मक अवस्था को स्पष्ट करने के लिए संचुकोच क्रिया विशेषतया ध्यान देने योग्य है संचुकोच का शाब्दिक अर्थ है - अपने में संकुचित कर लिया जो black hole की प्रमुख क्रियात्मक अवस्था है

एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः । प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ॥श्वेताश्वरौपनिषत्  ३/२।।
अंतिम पंक्ति का संकेत white hole के सृजन अर्थ में है पिछले मन्त्र में इसे शब्दतः स्पष्ट कर दिया गया है
#हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्वम #
अर्थात प्रलय के पूर्व रूद्र ने ही हिरण्यगर्भ को उतपन्न किया था यह देखाजाय तो रूद्र की घोर मूर्ति है श्रुति में अघोर मूर्ति का नाम विष्णु है इसे यों भी कहा जा सकता है विष्णु ही अवर्ण (वर्णरहित) या कृष्णमूर्ति रूद्र है कृष्णवर्ण दृष्टि का अविषय होने के कारण अवर्ण कृष्ण या ब्लैक है यही अर्थ है यहाँ उपनिषद में स्पष्ट हुआ है रूद्र अवर्ण या कृष्ण वर्ण होते हुए भी निहित अर्थ वाला है -अर्थात प्रयोजन युक्त वाला है इस लिए सृष्टि के प्रयोजन काल में अनेक प्रकार के शक्तियों के सर्जनात्मक समन्वय के द्वारा अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो वह ब्रह्मा - विष्णु आदि विभिन्न भेदो से भेद्य नही है अन्त में वह रूद्र ही इस विश्व को अपने भीतर विलीन कर लेता है यहाँ व्येति पद -वी + एती जिसका अर्थ है विलीन हो जाना या विशेष रूप से लीन हो जाना  निम्नमंत्र का स्पष्ट एवम संक्षिप्त अर्थ है जो रंग रूप आदि से रहित होकर भी छिपे हुए प्रयोजन से युक्त होने के कारण विविध शक्तियों के सम्बन्ध से विश्व के प्रारम्भ में अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है एवम अन्त में संपूर्ण उसमे विलीन हो जाता है वह परम देव् एक है वह हमें शुभ बुद्धि से युक्त करे ।
य एकोSवर्ण बहुदाशक्तियोगाद् वर्णानानेकान निहितार्थों दधाती ।
वी चैती चान्तो विश्वमादौ स देव्: स न बुद्धया शुभाया संयुक्तु ।।

(पार्ट-2) क्रमश:

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे,

संपादक - 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलााई

MOBIL NO.9827198828

पुराणों पूर्व में ही सृष्टि के अधिष्ठाता विष्णु को 'White Hole एवं रुद्र Black Hole तथा ब्रह्मा को प्रजा सृजक बताया गया है.....(पार्ट-1)


वेद को अप्रमाणित कहने वाले आसुरी प्रवृत्ति के फॉलोवरों या पुराणों के सरल वाङमय को केवल राजा-रानी के कथा प्रसंगों का पुलिन्दा समझने की भूल मत करो....पुराण वेदों का भाष्य है जिसकी रोचकता के लिये कुछ पात्र सुनिश्चित किये जाते हैं और उन्हीं किरदारों के माध्यम से आज के साईंस से लाखों वर्ष पूर्व ब्रह्माण्डीय समस्त उन विषयों पर रिसर्च किया गया जिस पर आज का विज्ञान पहुंचने या समझने का प्रयास कर रहा है....अब देखिये ना ''महामशीन के माध्यम से सृष्टि के रहस्य को जानने हमारे आधुनिक वैज्ञानिक कितने बेताब हैं, किन्तु सॆफलता उनको मात्र ब्लेक होल और व्हाईट होल तक ही मिल पाई है, जिसकों लाखों वर्ष पूर्व पूरा वैज्ञानिक ऋषियों ने पुराणों में उल्लेखित कर दिया है ! आप सोच रहे होंगे की महाराज लाखों वर्ष पूर्व क्यों कह रहे हैं तो मैं जिम्मेदारी के साथ पुन: कह रहा हुं कि लाखों वर्ष पूर्व राम का अवतार हुआ साथ ही तमाम ऋषि वैज्ञानिकों का सानिध्य मिला और उन ऋषियों जो द


बांस के खोखले छिद्र से आसमान को निहार कर सूर्य, चंद्र और मंगल आदि ग्रहों की दूरी से लेकर सृष्टि के रहस्यों का दस्तावेजी करण किया वह आज "18 पुराण" के रुप में मौजूद है तो आईये उसे आदरणीय माधवाचार्य जी एवं श्री राम शर्मा जी के अलग अलग शोधग्रंथो के अध्ययनोपरांत उस रहस्य को बताता हुं जो "पुराणों को कल्पनाओं का पुलिन्दा कहा करते थे उनके मुंह पर सहस्त्रों तमाचा जड़ता यह आलेख जिसको "अन्तर्नाद मंच पर कल यानी १ जुलाई २०१७ को हुये चर्चा से प्रेरित होकर आज प्रात: छत्तीसगढ के भिलाई स्थित शांतिनगर के अपने निवास वर्षा ऋतु का लाभ उठाते हुये मेढ़कों द्वारा '" पुराण अप्रमाणित है, और वेद प्रमाणित"" ऐसी टर्र टर्र की मण्डूक ध्वनि के प्रतिउत्तर में ''विद्-शंख-ध्वनि' का धामन कर रहा हुं.... आज के न


 


संपूर्ण विश्व एक ही अखण्ड विज्ञानघन सत्ता का विकास है चाहे वह ब्रह्म कल्प हो या पद्मकल्प और वराहकल्प भारतीय वाङ्ग्मय में इस विज्ञानात्मक ब्रह्माण्डीय बिकास को कथा रूप के माध्यम से बड़े ही सहज भाव से स्पष्ट किया है यह अन्नतस्तारकित व्योमपथ ही क्षीर समुद्र है इसका मध्याकर्षण क्षेत्र ही उसकी संकर्षणात्मक शेषशय्या है या विश्वरूप से व्यापक व्यपनशील महासत्ता विष्लृ व्यापतौ धातु से निष्पन्न महाविष्णु है जो दिङ्निर्देशक की दृष्टि से आकाशगंगा का केंद्र भाग भी कहा जाता है । सृष्टि के आदिकारण या स्वेत महाविष्णु है यहाँ कमल नाल का रूपक ( आज के भौतिक वैज्ञानिक का बिचार ) साइफन ट्यूब की तरह है जिसके माध्यम से ब्रह्माण्डीय द्रब्य का निक्षेप व्योमपथ पर होता है विज्ञान आज व्हाइट होल के साथ साइफन सिस्टम की कल्पना कर रहा है जिससे विश्व द्रब्य का निक्षेप हुआ है इस नाल पर कमल यहाँ ब्रह्माण्डीय द्रब्य की प्रथम बिकासवस्था का संकेत है कमल पर बिराजमान ब्रह्मा सृष्टि से लेकर उसके पौरुषेय बिकास तक का संपूर्ण प्रतिनिधि है जो इस बहिर्भूत ब्रह्माण्डीय द्रब्य की चरम विकसित अवस्था के स्वरुप को स्पष्ट करता है ब्रह्मा के  चार मुख पौरुषेय प्रज्ञा के चतुर्मुखी  व सर्वतोमुखी बिकाश के सूचक है प्रतीकों से युक्त इनकी चार भुजाएं धर्म ,अर्थ,काम,मोक्ष, इन चारों अर्थो को स्पष्ट करती है ये भारतीय वाङ्ग्मय में पुरुषार्थ या पुरुष के अर्थरूप में सर्वत्र प्रसिद्ध है पुरुषार्थ का अर्थ है -- पुरुष की सक्रियता कर्मक्षमता के संदर्भ में व्यापक अर्थबोध जो उपयुक्त चारभागो में विभक्त ब्रह्मा के चारो हाथो द्वारा स्पष्ट किया गया है ।क्षीरसागर पर विश्वद्रब्य का वाचक महाविष्णु अकेले नही विश्वद्रब्य को परिणामोन्मुख करने वाली श्रीरूपा माहशक्ति वहां विद्यमान है देवऋषि नारद वीणा सहित वहां सन्मुख है नार ,का, अर्थ , जल  द का अर्थ है  देनेवाला । जगत और जीवन दोनों  का आधार जल है इस लिए यहाँ देवऋषि नारद इस विज्ञान कथा में प्रस्तुत है । विश्व का निर्माता और संचालकतत्व  नाद  है  सारीसृष्टि नादमुखर है संपूर्ण ब्रह्माण्ड संगीत से आपूरित है अतः देवऋषि के हाथ में वीणा अपने प्रतिकभुत विज्ञानर्थ को स्पष्ट करती है इस अन्तस्तारकित (interstellar) आकाशरूपी क्षीरसागर में मध्याकर्षण क्षेत्र स्वरुप शेषशय्या पर सोया हुआ महाविष्णु विशिष्ट प्रतीकों से युक्त है जिनमे एक तो नाभि से होता बहिर्भूत होता हुआ द्रब्यस्थानीय कमलनाल है जिस पर पूर्ण पुरुष ब्रह्मा है जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके विष्णु स्वयं अपने चार हाथो में चक्र, गदा, पद्म, और शंख से युक्त है विष्णु का सुदर्शन चक्र इन ब्रह्माण्डीय द्रव्यो की सर्वदा विद्यमान चक्रगति है वही विश्वद्रब्य को संपूर्ण ब्रह्माण्डीय बिकाश में बदलती है यही विष्णु के हाथ में घूमते हुए सुदर्शनचक्र का निदानभुत अर्थ है गदा सृष्टि के विकास में उत्पन्न होने वाली अवरोधक के अप्रसारण का प्रतिक है कमल ब्रह्माण्डीय संरचना का प्रतिक है नाभोगंगा के  बिस्तार को  वैज्ञानिक एक मुख्य प्रोजेक्शन थाल की तरह देखते है ऋषियों ने कोटि कोटि ब्रह्माण्डो की सर्वतोमुखी व्यापति को लक्ष्य में रख कर एक कमल की तरह देखा शंख जैव सृष्टि का प्रतिक है पृथ्वी के प्रारम्भिक बिकाश  के इतिहास में शंख प्रतिनिधि रूप है विष्णु के उदर से सम्भूत होने के कारण उपादान कारण की दृष्टि से सृष्टि के प्रत्येक कण को विष्णु कहा गया है पदार्थ की मौलिक स्वरुप की दृष्टि से इस # सर्वम # को सर्वं विष्णुमयं जगत् कहा जाता है यह विश्व महा विष्णु तत्व की समष्टि है विष्णु शब्द का व्याकरण  वा विज्ञानलभ्य अर्थ है -- एक अद्वितिय व्यापनशीलतत्व आकाशगंगा में फैले हुए अनेक छोटे बड़े तारे स्वयं हिरण्यगर्भ विष्णु है जो सृष्टि की संरचना में बिस्फोटक्रम से प्रवृत होते है ये सभी आदि हिरण्यगर्भ विष्णु से बहिर्भूत होते हुए तारो के रूप में प्रोद् भासित हो रहे है हमारा सूर्य भी एक मध्यम परिणाम हिरण्यगर्भ विष्णु है संरचनात्मक कालभेद के अनुसार इसके मण्डल की द्रब्यम्य स्थितियां बदलती रहती है उसी के अनुसार उसका वर्णभेद वा रंगभेद होता है



नाभोभौतिक विज्ञान (astrophysics) के आचार्य अनन्त दूरियों पर विस्तीर्ण इन हिरण्यगर्भो के वर्ण भेद द्वारा इनके द्रब्यमय क्रियात्मक स्वरुप को निर्धारण करता है भारतीय पुराण परम्परा के अनुसार विष्णु स्वेतवर्ण विशिष्ट है तत्वतः स्वेत होते हुए भी वे कालद्रब्य के फलस्वरूप उपाधिभेद से कभी रक्त वर्ण तो कभी कृष्णवर्ण प्रतीत होते है इस वर्ण परिवर्तन के अनुसार उस एक ही तत्व के तीन नाम है


१-स्वेतवर्ण -- विष्णु

२- रक्तवर्ण -- ब्रह्मा

३- कृष्णवर्ण --शिव  वा रूद्र


भागवत पुराण के अनुसार यही उस एक तत्व की वर्ण व्यवस्था वा रंगभेद स्थिति है


स त्वम त्रिलोकस्थितये विभर्षि शुक्लम् खलु वर्णात्मन ।

सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णम् च वर्णं तमसा जनात्यये ।।

यह स्वेतवर्ण विष्णु ही विज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो white hole  का परम भारस्वरूप है जिससे हिरण्यगर्भ की सृष्टि होती है कृष्णवर्ण रूद्र ही  black hole  का पर्याय है जो अपने ही भीतर सब कुछ निगल लेता है यही  black hole  कालान्तर में स्वेत विष्णु white hole के रूप में पुनः प्रस्तुत होता है श्रुति में यह विज्ञान बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा गया है यह रूद्र ही सभी शक्ति स्वरुप देवो को उतपन्न करता है


यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः । हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥श्वेताश्वर उपनिषद ४/ १२ ॥

रूद्र को विश्व के आधारतत्व के रूप में ग्रहण करते हुए श्रुति उसके क्रियात्मक स्वरुप का उल्लेख इस प्रकार करती है वह रूद्र अपनी नियामक शक्ति द्वारा सभी लोको का नियमन करता हुआ अन्य का आश्रय नही लेता वह संहार रूप वा संकोच रूप होकर  सभी जीवो के भीतर संस्थित है वही प्रलयकाल में इन सब को अपने भीतर समेट लेता है यहाँ मन्त्र में रूद्र की क्रियात्मक अवस्था को स्पष्ट करने के लिए संचुकोच क्रिया विशेषतया ध्यान देने योग्य है संचुकोच का शाब्दिक अर्थ है - अपने में संकुचित कर लिया जो black hole की प्रमुख क्रियात्मक अवस्था है


एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः । प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ॥श्वेताश्वरौपनिषत्  ३/२।।

अंतिम पंक्ति का संकेत white hole के सृजन अर्थ में है पिछले मन्त्र में इसे शब्दतः स्पष्ट कर दिया गया है

#हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्वम #

अर्थात प्रलय के पूर्व रूद्र ने ही हिरण्यगर्भ को उतपन्न किया था यह देखाजाय तो रूद्र की घोर मूर्ति है श्रुति में अघोर मूर्ति का नाम विष्णु है इसे यों भी कहा जा सकता है विष्णु ही अवर्ण (वर्णरहित) या कृष्णमूर्ति रूद्र है कृष्णवर्ण दृष्टि का अविषय होने के कारण अवर्ण कृष्ण या ब्लैक है यही अर्थ है यहाँ उपनिषद में स्पष्ट हुआ है रूद्र अवर्ण या कृष्ण वर्ण होते हुए भी निहित अर्थ वाला है -अर्थात प्रयोजन युक्त वाला है इस लिए सृष्टि के प्रयोजन काल में अनेक प्रकार के शक्तियों के सर्जनात्मक समन्वय के द्वारा अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो वह ब्रह्मा - विष्णु आदि विभिन्न भेदो से भेद्य नही है अन्त में वह रूद्र ही इस विश्व को अपने भीतर विलीन कर लेता है यहाँ व्येति पद -वी + एती जिसका अर्थ है विलीन हो जाना या विशेष रूप से लीन हो जाना  निम्नमंत्र का स्पष्ट एवम संक्षिप्त अर्थ है जो रंग रूप आदि से रहित होकर भी छिपे हुए प्रयोजन से युक्त होने के कारण विविध शक्तियों के सम्बन्ध से विश्व के प्रारम्भ में अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है एवम अन्त में संपूर्ण उसमे विलीन हो जाता है वह परम देव् एक है वह हमें शुभ बुद्धि से युक्त करे ।

य एकोSवर्ण बहुदाशक्तियोगाद् वर्णानानेकान निहितार्थों दधाती ।

वी चैती चान्तो विश्वमादौ स देव्: स न बुद्धया शुभाया संयुक्तु ।।



(पार्ट-2) क्रमश:


-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे,


संपादक - 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिवगर, भिलााई


MOBIL NO.9827198828

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गुरुवार, 29 जून 2017

मिसाल 'एक विवाह ऐसा भी'.

मिसाल 'एक विवाह ऐसा भी'....

आप चौंकिये मत मैं किसी फिल्माये गये फिल्म या सीरीयल की बात नहीं कर रहा बल्कि मैं बात कर रहा हुं ! भिलाई के चौहान (क्षत्रिय) परिवार द्वारा ''रॉयल ग्रीन्स'' में आयोजित  वैवाहिक कार्यक्रम का !

भव्य सजावट, पुष्प गुच्छों बेहतरीन शोभा  जो मन को सहज ही आकर्षित कर रही थीं, सूट-बूट धारी लोगों का आना-जाना बड़ी संख्या में लगा हुआ था, मैं स्वयं श्री अनिल सिंह चौहान(अमृता के पिता) यही दो लोग पजामा-कुर्ता में घूम घूम कर छटा को देख रहे थे उसी  समय चौहान जी के मोबाईल में एक फोन आता है और वह बातचीत में मशगूल हो जाते हैं तत्क्षण   सूट-बूट में कॉफी लेकर एक नवजवान आया और मुझे कॉफी दिया मैं कॉफी का लुत्फ ले ही रहा था कि - अचानक कुछ दिव्यांगों का प्रवेश हुआ ! उस राजशाही  ठाट- बाट की व्यवस्था में दिव्यांगों प्रवेश हुआ ...मैं चकित था..आखिर इस भव्य आयोजन में सैकड़ों की संख्या में दिव्यांगों की क्या आवश्यकता?  मेरे मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक था, क्योंकि प्राय: आमतौर पर आजकल के 'वेस्टर्न कल्चर' के पैरोकार समाज में ऐसा दृश्य किसी आश्चर्य से कम नहीं ! मैंने श्री चौहान जी के इकलौते पुत्र अनिमेष(वर्तमान में कनाड़ा में इंजीनियर है) से पूछा ये दिव्यांग यहां किस लिये बुलाये गये हैं 'अनिमेष' ने कहा कि इसके बारे में पूर्ण रुप से हमारे पिताजी ही बता पायेगें क्योंकि मैं तो कनाडा में ही रहता हुं मैं कल ही आया हुं.... मुझे ऑरेंजमेंट के बारे में बहुत कुछ पता नहीं है आदरणीय आचार्य जी ! मैंने अनिमेष के मित्र 'नज़ीर' भाई को बुलाकर उनसे जानकारी लेना चाही उन्होंने कहा महाराज जी मैं चौहान अंकल को बुलाता हुं.वही बता पायेंगे उसके बाद चौहान जी से इस विषय पर विस्तृत चर्चा हुई उन्होंने जो बताया उसे आप लोगों के समक्ष रख रहा हुं.... भारतीय संस्कृति से ओत-प्रोत अनिल सिंह चौहान एवं श्रीमती राजलक्ष्मी सिंह की पुत्री "अमृता" और श्री ठाकुर सिंह वर्मा एवं श्रीमती उमा सिंह वर्मा मुंबई के पुत्र "सागर" का छत्तीसगढ में दुर्ग में शिवनाथ नदी के तट पर स्थित 'रॉयल ग्रीन्स' में आयोजित विवाह समारोह था ! मुझे लगा की सामान्यत: हर माता पिता एवं वर वधु की इच्छा के मुताबिक... 

कन्या वरयते रुपं माता वित्तं पिता श्रुतम् बान्धवा: कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरेजना: विवाह के समय कन्या सुन्दर पती चाहती है| उसकी माताजी सधन जमाइ चाहती है। उसके पिताजी ज्ञानी जमाइ चाहते है|तथा उसके बन्धु अच्छे परिवार से नाता जोडना चाहते है। परन्तु बाकी सभी लोग केवल अच्छा खाना चाहते है।

और बढियां भोजन होगा तो अधिक से अधिक व्हीआईपी, व्हीव्हीआईपी कैटगरी के भारी संख्या में आगन्तुक भी होंगे, बेहतरीन साज-सज्जा तथा बेहिसाब खर्च भी होंगे ऐसी इच्छा हर मां बाप एवं  हर भावी वर एवं वधू के होते हैं

किंतु ..."अमृता" अपने पिता अनिल सिंह एवं अपनी मां से बोली ''पापा हमारे विवाह में ढेर सारे अतिथि आयेंगे उनका उत्तमोत्तम व्यवहारानुकूल उनका आतिथ्य सत्कार भी होगा  किन्तु हमारी ईच्छा है कि हमारे विवाह में ''दिव्यांग भोज'' भी कराया जाय ! बीटिया की मनमुताबिक श्री अनिल सिंह चौहान ने भिलाई के सुपेला स्थित ' मूक-बधिर'' स्कूल के सैकड़ों दिव्यांगों को आमंत्रित करके विवाह स्थल 'रॉयल ग्रीन्स'  में ही  अमृता और सागर ने स्वयं अपने हाथों से भोजन परोसकर उन दिव्यांगों को प्रेम व श्रद्धावनत् हो  भोजन  कराया जो आजकल के आयातीत वेस्टर्न कल्चर के पक्षधर युवाओं एवं नवयुवतियों के लिये प्रेरणादायी है...यहां यह कहना लाज़मी होगा 'मिसाल एक विवाह ऐसा भी' जिसकी अवधारणा भारत के हर नवयुवक एवं नवयुवतियों को करना चाहिये ! 

जहां एक ओर अनाप-शनाप खर्चिली शादियों में वफे सिस्टम या मैं अपनी भाषा में कहुं तो ''वफैलो सिस्टम'' के भोजन में अधिकाधिक तरह तरह के व्यंजन होने से अनाज (भोजन) नुकसान होता है वैसे ही बड़े आसानी से फेंक दिया जाता है जैसे किसी अनयूज्ड सामानों को कुड़े के ढेर में हम फेंक देते हैं आप कल्पना किजीये की हम कितने गरीब व असहाय तथा नि:शक्त जनों के भोजन को बेतरतीब जीवन शैली में फटकों की भांति उड़ा देते हैं.....यदि एक जून की रोटी आपको ना मिले तो आपके उपर क्या गुजरेगा! अमृता व सागर उन हर भारतीयों के लिये प्रेरक हैं जिन्होने कभी स्वयं के अलावां कभी दिव्यांगों के दु:ख दर्द को अहसास न किया हो...जिन्होंने न ही जीवन जीने की शैली मान लिया है! उम्मीद है आप में से भी कोई 'अमृता' और 'सागर' बनकर समाज के उस वर्ग की चिन्ता करेगा, जिनको आपकी आवश्यकता है ! फिलहाल इस स्टोरी के मुख्य किरदार 'अमृता और सागर' को नव दाम्पत्य जीवन की ढेर सारी शुभकामनाएं...!

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्री मासिक पत्रिका,  सड़क- 26, शांतिनगर, भिलाई, दुर्ग (छत्तीसगढ.) मोबा.नं. 9827198828

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गुरुवार, 22 जून 2017

वेद और वैदिक वांङमय का संक्षिप्त परिचय अवश्य पढें.....

वेद और वैदिक वांङमय का संक्षिप्त परिचय अवश्य पढें.....

"अन्तर्नाद" व्हाट्सएप ग्रुप के साथियों आज हम युग ऋषि वरेण्य श्रीराम शर्मा आचार्य जी के उद्धरणों को आपके समक्ष रखना चाहता हुं......सम्भवत: आप लोगों को रुचिकर अवश्य लगेगा..........
  ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का पूर्व मों एक ही स्वरुप था 'वेद' यानी
ऋग्वेद ही आर्षवेद है! ऋक् जिसका अर्थ है-प्रार्थना अथवा स्तुति, यजुः का तात्पर्य है यज्ञ-यज्ञादि का विधान, साम-शान्ति अथवा मंगल स्थापित करने वाला गान है और अथर्व में धर्म दर्शन के अतिरिक्त लोक-जीवन के सामान्यक्रम में काम आने वाली ढेरों-उपयोगी सामग्री भरी पड़ी है।

भाष्यकार महीधर के अनुसार-प्रत्येक ‘वेद’ से जो वांग्मय विकसित हुआ, अध्ययन की सुविधा के लिए उसे पुनः चार भागों में वर्गीकृत किया गया (1) संहिता (2) ब्राह्मण (3) आरण्यक और (4) उपनिषद्। संहिता में वैदिक स्तुतियाँ संग्रहित हैं। ब्राह्मण में मंत्रों की व्याख्या और उनके समर्थन में प्रवचन दिए हुए हैं, आरण्यक में वानप्रस्थियों के लिए उपयोगी आरण्यगान और विधि-विधान है। उपनिषदों में दार्शनिक व्याख्याओं का प्रस्तुतीकरण है। कालक्रम के प्रवाह में इस वर्गीकरण का लोप हो जाने के कारण इनमें से प्रत्येक को स्वतन्त्र मान लिया गया और आज स्थिति यह है कि ‘वेद’ शब्द सिर्फ संहिता के अर्थों में प्रयुक्त होता है।

जबकि वर्गीकरण-का तात्पर्य अस्तित्व का बिखराव नहीं उसका सुव्यवस्थित उपयोग है। जिसके क्रम में वैदिक अध्ययन कई शाखाओं में विकसित हुआ। ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ थीं शाकल वाष्कल, आश्वलायन, शाँखायन और माँडूक्य। इनमें अब शाकल शाखा ही उपलब्ध है। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन और कात्य दो शाखाएँ। कृष्ण यजुर्वे की उपलब्ध शाखाएँ इस समय चार हैं तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक, और कठ। सामवेद की दो शाखाएँ हैं कौथुमी और राणायनीय। अथर्ववेद की उपलब्ध शाखाओं के नाम पैप्पलाद तथा शोनक हैं।

संहिताओं के विवेचन क्रम में अध्ययन करने पर ऋग्वेद संहिता में दस मंडलों का पता लगता है। जिनमें 85 अनुवाद और अनुवाक समूह में 1028 सूक्त हैं। सूक्तों के बहुत से भेद किए गए हैं यथा-महासूक्त क्षुद्र, सूक्त, ऋषिसूक्त, छन्दसूक्त, और देवतासूक्त। वेदज्ञ मनीषियों के अनुसार ऋग्वेद के मंत्रों की संख्या 10,402 से 10,628 तक है। यजुर्वेद के दो भाग है-शुक्ल और कृष्ण इनमें कृष्ण यजुर्वेद संहिता को तैत्तिरीय संहिता भी कहते हैं।

मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार इसको 109 शाखाएँ थीं, जिनमें मात्र 12 शाखाएँ और 14 उपशाखाएँ ही उपलब्ध हैं। इस संहिता में कुल सात अष्टक हैं 700 अनुवादों वाले इस ग्रन्थ में अश्वमेध, अग्निहोम, राजसूय अतिरात्र आदि यज्ञों का वर्ण है। इसमें 18000 मंत्र मिलते हैं। शुक्ल यजुर्वेद की संहिता के माध्यन्दिनी भी कहते हैं। इसमें 40 अध्याय 290 अनुवाक और अनेक काण्ड हैं। यहाँ दर्शपौर्णभास, वाजपेय आदि यज्ञों का वर्णन है।

सामवेद के पूर्व और उत्तर दो भाग हैं। पूर्व संहिता को छन्द, आर्चिक और सप्त साम नामों से भी अभिहित किया गया है। इसके छः प्रपाठक हैं। सामवेद की उत्तर संहिता को उत्तरार्धिक या आरण्यगान भी कहा गया है। अथर्ववेद की मंत्र संख्या 12,300 हैं। जिसका अति न्यून अंश आजकल प्राप्त है। इसकी नौ शाखाएँ पैप्पल, दान्त, प्रदान्त स्नात, रौत, ब्रह्मदत्त शौनक, दैवीदर्शनी और चरण विद्या में से केवल शौनक शाखा ही आज रह पाई है। इसमें 20 काण्ड हैं।

संहिताओं के पश्चात ब्राह्मणों का स्थान आता है । इनके विषय को चार भागों में बाँटा गया है। विधिश्माग, अर्थवादभाग, उपनिषदभाग और आख्यानभाग। विधिभाग में यज्ञों के विधान का वर्णन है। इसमें अर्थमीमाँसा और शब्दों की निष्पत्ति भी बतायी गयी है। अर्थवाद में यज्ञों में महात्म्य को समझाने के लिए प्ररोचनात्मक विषयों का वर्णन है। ब्राह्मणों के उपनिषद् भाग में ब्राह्मण के विषय में विचार किया गया है। आख्यान भाग में प्राचीन ऋषिवंशों, आचार्य वंशों और राजवंशों की कथाएँ वर्णित हैं।

प्रत्येक वैदिक संहिता के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं ऐतरेय और कौषीतकि। यजुर्वेद के भी दो ब्राह्मण है कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तिरीय ब्राह्मण और शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण। सामवेद की कौथुमीय शाखा के ब्राह्मण ग्रन्थ चालीस अध्यायों में विभक्त हैं। इसकी जैमिनीय शाखा के दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जैमिनीय ब्राह्मण और जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण। इन्हें क्रमशः आर्षेय और छान्दोग्य ब्राह्मण भी कहते हैं। अथर्ववेद की भी शाखाएँ हैं किन्तु एक ही ब्राह्मण उपलब्ध है गोपथब्राह्मण।

आरण्यकों की विषय वस्तु सायणाचार्य के शब्दों में लोकसेवी वानप्रस्थों की प्रशिक्षण सामग्री है। मुख्य आरण्यक ग्रन्थों के क्रम में ऋग्वेद में ऐतरेय और कौषीतकि आरण्यक मिलते हैं। यजुर्वेद में कृष्ण यजुर्वेद का एक आरण्यक है तैत्तिरीय आरण्यक। जिसके दस काण्डों में आरणीय विधि का प्रतिपादन हुआ है बृहदारण्यशुक्ल यजुर्वेद का है। सामवेद में सिर्फ छान्दोग्य आरण्यक मिलता है। जो छः प्रपाठकों में विभाजित है।

‘वेद’ का चरमोत्कर्ष उपनिषदों में मिलता है। अन्तिम भाग होने के कारण इसे ‘वेदान्त’ की संज्ञा भी प्राप्त है। उपनिषदों ने ही स्वयं इस शब्द की व्याख्या सूचित की है “यदा वै बली भवति अथ उत्थाता भवति, उत्तिष्ठन परिचरिता भवति, परिचरन, उपसत्ता भवति, उपसीदन द्रष्ट भवति, श्रोता भवति, मन्ता भवति, बोद्धा भवति, कर्ता भवति, विज्ञाता भवति (छान्दोग्य 7/8/1) जब मनुष्य बलवान होता है तब वह उठकर खड़ा होता है। उठकर खड़ा होने पर गुरु की सेवा करता है। फिर वह गुरु के पास (उप) जाकर बैठता है। (सद) पास जाकर बैठने पर वह गुरु का जीवन ध्यान से देखता है। उसका व्याख्यान सुनता है उसे मनन करता है, समझ लेता है और उसके अनुसार आचरण करता है। उसमें उसे विज्ञान यानि अपरोक्ष अनुभूति का लाभ होता है ‘उप’ ‘नि’ ये दो उपसर्ग और ‘सद’ धातु से बने इस शब्द की इस व्याख्या में ‘नि’ अर्थात् निष्ठ से की व्याख्या छूट गई है जिसका उल्लेख एक दूसरी जगह हुआ है। “ब्रह्मचारी आचार्यकुलवासी अत्यन्तम् आत्मानम् आचार्यकुले अवसादयन्” (छान्दोग्य 2/23/1) ब्रह्मचर्यपूर्वक गुरु के पास रहकर (उप) गुरु सेवा में अपने आपको विशेष रूप से (नि) खपाने वाला (सद) जो रहस्यभूत विद्या प्राप्त करता है वह है उपनिषद् ।

इन दोनों पर्यायों के इकट्ठा करके देखें तो (1) आत्मबल (2) उत्थान (3) ब्रह्मचर्य (4) गुरु सेवा में शरीर को खपा देना (5) गुरु (हृदय) सान्निध्य (6) जीवन निरीक्षण (7) श्रवण (8) मनन (9) अवबोधन (10) आचरण (11) अनुभूति-इतना सारा भाव-इस छोटे शब्द में निहित है। इनकी संख्या कितनी है? इस संदर्भ में भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग विवरण प्राप्त होते हैं। मुक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों की सूची है। उपनिषद्वाक्य महाकोश में 223 उपनिषद् ग्रन्थों को नामोल्लेख हुआ है। इनकी वेदों से अभिन्नता और प्राचीनता को दृष्टि में रखकर विचार करें 108 उपनिषदों की सूची ही सार्थक लगती है। अन्य के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि मध्ययुग में विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिए इनकी रचना की गई इन 108 उपनिषदों में भी अपनी विशेष गहनता के कारण ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वेतर कुछ अधिक ही महत्वपूर्ण हैं।
-''ज्योतिष का सूर्य '' राष्ट्रीय
मासिक पत्रिका, भिलाई