ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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मंगलवार, 18 जून 2013

शनि का प्रकोप: ग्रहों में न्याय देने वाले देव हैं शनिदेव (न्यायाधीश शनि)

शनि का प्रकोप: ग्रहों में न्याय देने वाले देव हैं शनिदेव (न्यायाधीश शनि)
-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, 9827198828
मानव के अंत:करण का प्रतीक शनि है. यह मनुष्य की बाह्यï चेतना और अंत: चेतना को मिलाने में सेतु का काम करता है. पुरुषार्थ चतुष्टïम धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति में भी शनि ग्रह की महती भूमिका रहती है. शनि के अतिरिक्त अन्य ग्रह तो दूसरी राशि एïवं ग्रहों के प्रभाव में पड़कर अपना फल देना भूल जाते हैं. लेकिन शनि अपनी मौलिकता को कभी भी नही भूलता है.
शनि वात प्रधान ग्रह है. आयुर्वेद में वात पित्त एवं कफ प्रकृति के अनेक रोगों का वर्णन मिलता है. इसके अतिरिक्त व्यापार, यात्रा, संचार माध्यम, न्यायपालिका, वकील चिकित्सा,चिकित्सालय, शेयर्स, सट्टïा, वायदा, काल्पनिक चिंतन, लेखन, अभिव्यक्ति, राजनीति, प्राचीन शिक्षा, पुरा मह्तव की वस्तुएं, इतिहास, रसायन, उद्योग धंधे वाहन, ट्रांसपोर्ट व्यवसाय, प्राचीन एवं परंपरागत कला, सेना एवं पुलिस के सामान्य सदस्य एवं सहायक उपकरण शास्त्र, विस्फोटक पदार्थ आदि के अतिरिक्त भी अनेक कार्यक्षेत्र यथा जमीन जायदाद, ठेकेदारी, संन्यासी व नौकरियां  शनि के अधीन रहती है. इसी के साथ मनोरोग, अस्थि रोग, वात रोग, जोड़ों के दर्द, नसों से संबंधी रोग, खून की कमी, खून में लौह तत्व की कमी, दमा, हृदय, कैंसर, क्षयरोग, दंत रोग, गुप्तरोग, ज्वर आदि भी शनि से नियंत्रित होते हैं. आयुर्वेद शास्त्र में शरीर की रचना में अन्न से रस, रस से रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा एवं शुक्र का निर्माण बताया गया है.
शनि अस्थि का कारक ग्रह है. आयुर्वेद एवं ज्योतिष शास्त्र में शनि के गुणधर्म प्रभाव रोग एवं निदान एवं जैसे ही होते हैं. मनुष्य के शरीर में रोग के होने के कारण, रोग निदान, रोग के लक्षण, औषधि, औषधि के प्रभाव एवं स्वभाव आदि सभी में एकरूपता दिखाई देती है.
आयुर्वेद एवं ज्योतिषशास्त्र में शनि की समान रूप से वर्णित किया गया है. जिन्हें पांच भागों में विभक्त किया गया है.
निष्पति साधम्र्य : -
ज्योतिष शास्त्र में शनि की उत्पत्ति सूर्य पत्नी छाया से मानी गई है. तथा इस अवतार की उत्पत्ति आयुर्वेद के अनुसार आकाश एवं वायु महाभूत से मानी गई है. छाया भी शीत प्रधान एïवं आकाश प्रधान है. अत: दोनों की उत्पत्ति एक ही स्थान से हुई है।
प्रकृति साधम्र्य : -
ज्योतिष शास्त्र में शनि की प्रकृति धूल धूसरित केश, मोटे दांत, कृश, दीर्घ आदि वर्णित है. वहीं आयुर्वेद में वात की प्रकृति बतलाई गई है.अष्टांगहृदय में कहा गया है.
दोषात्मका: स्फुटितघूसकेशगात्रा
स्थान साधम्र्य
ज्योतिष शास्त्र में शनि का स्थान शरीर में कमर, जंघा, पिंडली, कान एवं अस्थि आदि है. चरक संहिता में भी इन्ही स्थानों को वात प्रधान बताया गया है.
व्याधि साधम्र्य : -
आयुर्वेद में वात का स्थान विशेष रूप से अस्थि माना गया है. शनि वात प्रधान रोगों की उत्पत्ति करता है. आयुर्वेद में जिन रोगों का कारण वात को बताया गया है. उन्हें ही ज्योतिष शास्त्र में शनि के दुष्प्रभाव से होना बताया गया है. शनि के दुष्प्रभाव से केश, लोम, नख, दंत, जोड़ों आदि में रोग उत्पन्न होता है. आयुर्वेद वात विकार से ये स्थितियां उत्पन्न होती है.
प्रशमन एवं निदान साधम्र्य : -
ज्योतिष शास्त्र में शनि के दुष्प्रभावों से बचने के लिए दान आदि बताए गए हैं.
 भाषाश्च तैलं मिलेंन्दुनीलं तिल: कुलत्था महिषी च लोहम।
कृष्णा ध धेनु: प्रवदन्ति नूनं दुघय दानं रविन्दनाय॥
तेलदान, तेलपान, नीलम, लौहधारण आदि उपाय बताए गए हैं. वे ही आयुर्वेद में अष्टïागहृदय में कहे गये हैं. अत: चिकित्सक यदि ज्योतिष शास्त्र का सहयोग लें तो शनि के कारण उत्पन्न होने वाले विकारों को आसानी से पहचान सकते हैं. इस प्रकार शनि से उत्पन्न विकारों की चिकित्सा आसान हो जाएगी.
शनि ग्रह रोग के अतिरिक्त आम व्यवहार में भी बड़ा प्रभावी रहता है. लेकिन इसका डरावना चित्र प्रस्तुत किया जाता है. जबकि यह शुभफल प्रदान करने वाला ग्रह है. शनि की प्रसन्नता तेलदान, तेल की मालश करने से, हरी सब्जियों के सेवन एवं दान से, निर्धन एवं मजदूर लोगों की दुआओँ से होती है. मध्यमा अंगुली को तिल के तेल से भरे लोहे के पात्र में डुबोकर प्रत्येक शनिवार को निम्र शनि मंत्र का 108 जप करें तो शनि के सारे दोष दूर हो जाते हैं तथा मनोकामना पूर्ण हो जाती है. ढैया या साढ़े साती शनि होने पर भी पूर्ण शुभ फल प्राप्त होता है.
शनि मंत्र ऊँ प्रां प्रां स: शनयै नम:।

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