ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शुक्रवार, 21 जून 2013

पर्वतमालाओं की वादियों को मत देखो..केदरनाथ का दर्शन करो..और लौट आओ..नहीं तो महाविनाश तय है

पर्वतमालाओं की वादियों को मत देखो..केदरनाथ का दर्शन करो..और लौट आओ..नहीं तो महाविनाश तय है
Keoejneth(Old)

Pandit Vinod Choubey, 9827198828
  

मित्रों, नमस्कार
अभी बहुत बड़ी दैवीय विभिषिका से हजारों लासों की ढ़ेर बन चुका केदारनाथ में स्वयं प्रभु बाबा भोलेनाथ के अलावा और कोई शेष नहीं बचा, और जो लोग बच गये हैं, उनका कहना है मैने दूसरा जन्म लिया है, अर्थात् इतनी बड़ी त्रासदी का मंजर उनके आँखों में आज भी पानी भर देता है। किन्तु आश्चर्य का विषय तो यह है कि नाथ बचे हुए हैं। यह अपने आप में जरुर चौंकाने वाली बात है, लेकिन चौंकना इसलिए नहीं चाहिए क्योंकि संसार के निर्माण कर्ता स्वयं शम्भु का भला क्या बिगड़ सकता है। किन्तु आज के वास्तु शील्पियों की बढ़ते तादाद और उनका बढ़ता ताम-झाम, लोगों को अपनी ओर सहज ही खिंच लेता है और ये तथाकथित वास्तु विशेषज्ञ  बड़े बड़े दावे भी करने लगते हैं, कि मैं बहुत बड़ा वास्तु विशेषज्ञ हुँ, लेकिन वास्तवीकता तो यह है कि जिस वास्तु संविधान सूत्रों के साथ अपनी विशेषज्ञता श्री श्री आदि शंकराचार्य जी ने इस केदारनाथ बाबा भोलेनाथ की स्थापना कर किये थे। वह आज सभी वास्तु वैज्ञानिकों को सोचने को मजबूर कर दिया है। ज्ञात हो कि काल के गाल में बैठे महाकाल को बतौर जिर्णोद्धार भगवान आदि शंकराचार्य जी ने स्थापित की थी।, और आज वहाँ सबकुछ मिट गया बचा तो केवल नाथ की गर्भ गृह। इसका सारा श्रेय श्री श्री आदिशंकराचार्य जी को देना होगा। और जो मौतें हुईं हैं उनका सारा जिम्मा हम लोगों का है, जो चंद पैसों रुपयों के लालच में वहाँ 50 वर्षों से व्यापार कर रहे थे। साथ ही उन व्यापारियों का प्रोत्साहन हम बड़ी बज़ी खरीदी करके करते थे। देखते ही देखते लगातार धर्मशालाओं की संख्या बढ़ती चली गई और संख्या अनुमनित लगभग 90 पहुँच गईं। लोग बाबा का दर्शन अवश्य करने जाते थे, परन्तु साथ ही हिमालय क वादियों का कुछ देर रुक कर लुत्फ भी उठाते थे, बाद में यहाँ यह कहना लाज़मी होगा कि धिरे-धिरे मंदिर का दर्शन करना तो कम वादियों का दर्शन करना प्रमुख होता जा रहा था। जो आज कई हजार श्राद्धालुओं को अपना जान गंवाना पड़ा। हालाकि शास्त्र सम्मात शिव दर्शन में एक व्िषेष नियम है कि भगवान शिव की आधी प्रदक्षिणा की करनी चाहिए , जिसका सीछा अर्थ है कि बाकी मंदिरों की अपेक्षा शिवमंदिर में कम से कम रुकना चाहिए क्योंकि वे निष्णात पंथी शिव अकेले ही रहना पसंद करते हैं। लेकिन उनके विपरीत केदार नाथ में अधिक से अधिक लोग ऐसे दर्शनार्थी हैं जो वहाँ जाकर दो या तीन दिन रुकना चाहते हैं ताकि पर्वतमालाओं का भरपूर लुत्फ उठाया जा सके।
किन्तु ऐसा करने से निश्चित महाकाल की वक्र निगाहें जमिन्दोज करने को मजबूर कर देती है। या यूँ कहें कि अनावश्यक शिव की समीपता उनके तीसरे नेत्र को खोलने को मजबूर कर देती है।  और उस भयावह स्थिति से निपटना हमारे आपके कुबत की बात नहीं। शिव के प्रति समर्पण की भावना रखिये समिपता की नहीं। यदि समिपता रखना चाहते हैं प्योर धर्मध्वज वाहक नन्दी जैसा और माँ पार्वती तथा उद्योग के प्रतीक गणेश जैसा बनना पड़ेगा, यदि स्कन्द बनना चाहते हो तो निश्चित ही आपको कैसाश से क्रौंच पर्वत की आना होगा। अर्थात हम लोगों को भगवान शिव की समिपता कत्तई उचित नहीं है।
हालाकि जो हुआ वह बहुत गलत हुआ हमारी सभी संवेदनाएं उन धर्मभीरु तीर्थयात्रियों के साथ है। और जिनके परिजन कालकवलित हुए हैं उनको इश्वर शक्ति प्रदान करें कि वे इस दुःख की घड़ी को बर्दाश्त कर पायें।
आईए विकिपिडिया (hi.wikipedia.org/wiki/केदारनाथ_मन्दिर‎) से संलित किया हुआ केदारनाथ जी के बारे में कुछ अंश पढ़ने, व जानने की कोशिश करते हैं- उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ हैं, दोनो के दर्शनों का बड़ा ही माहात्म्य है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनापथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है।
इस मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसा ये १२-१३वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाय हुआ है जो १०७६-९९ काल के थे। एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है। फिर भी इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल मानते है कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं। १८८२ के इतिहास के अनुसार साफ अग्रभाग के साथ मंदिर एक भव्य भवन था जिसके दोनों ओर पूजन मुद्रा में मूर्तियाँ हैं। “पीछे भूरे पत्थर से निर्मित एक टॉवर है इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है। मंदिर के सामने तीर्थयात्रियों के आवास के लिए पण्डों के पक्के मकान है। जबकि पूजारी या पुरोहित भवन के दक्षिणी ओर रहते हैं। श्री ट्रेल के अनुसार वर्तमान ढांचा हाल ही निर्मित है जबकि मूल भवन गिरकर नष्ट हो गये।” केदारनाथ मन्दिर रुद्रप्रयाग जिले मे है!
यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हाँ ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी।

    इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं।
    पंचकेदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था। अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतध्र्यान हुए, तो उनके धड से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदारकहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, संपादक- '' ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका , भिलाई 9827198828

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