शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर
शोषण..ठगी.. कालाबाजारी
विश्व स्तर पर आज हमारा भारत देश हर तरह से संपन्न और प्रगतिशील माना जाता हैं। आज देश ने आकाश से बढ़कर ब्रह्माण्ड को छूने में कामयाबी हासिल की हैं। लेकिन इस पूरे प्रगतिशील दौर में आज भी देश में शिक्षा का स्तर पहले अधिक चिंताजनक बना हुआ है। आज भले ही हमारे पास हर एक किलोमीटर पर स्कूल और पाठशालाएं मौजूद हों लेकिन शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जारहा है। आज दौर में भले ही हमने ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल में दाखिला दिला दिया हो लेकिन शिक्षा के पैमानों में इन बच्चों की स्थिति और भी अधिक चिंताजनक हो गई है। देश में सभी के लिए मुफ्त शिक्षा का बिल भले ही पास हो गया हो लेकिन यह आधारभूत अधिकार अभी भी केवल कागजों पर ही है। वर्ष 2002 में संविधान बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देना को फंडामेंटल राइट में शामिल किया था। इसकी तरह काफी बहस के बाद शिक्षा का अधिकार बिल भीपास कर दिया था।
स्कूली शिक्षा की समस्याओं पर विचार करने के सिलसिले में जो कुछ प्रश्न बार-बार उठाए जाते हैं वे हैं- शिक्षकों की अनुपस्थिति, अभिभावकों की उदासीनता, सही पाठय़क्रम का अभाव, अध्यापन में खामियां इत्यादि। परंतु इन समस्याओं को अलग-अलग रूप में देखा नहीं जा सकता, क्योंकि इनकी जड़ें सारी व्यवस्था में फैली हैं। इसलिए व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाना जरूरी है। इसके लिए हमें स्कूली शिक्षा व्यवस्था की मूल समस्याओं पर गौर करना होगा। पहली मूल समस्या है प्रवेश (ऐक्सेस) की कमी। आजादी के 62 साल बाद भी हमारे देश में करोड़ों बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं। पूरे देश में यह संख्या 30 प्रतिशत से कम नहीं होगी। दाखिले का अनुपात (ग्रॉस एनरोलमेन्ट रेशियो) सूचक नहीं हो सकता। क्योंकि दाखिल बच्चों में से अधिकांश विभिन्न कारणों से बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। आधुनिकतम सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कक्षा 10 तक पहुंचते-पहुंचते 61 प्रतिशत बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी थी। प्रवेश की समस्या के समाधान के लिए सबसे पहला कार्य होना चाहिए – अतिरिक्त स्कूलों का निर्माण, अतिरिक्त शिक्षकों की बहाली और अतिरिक्त शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों का निर्माण। शिक्षा की दूसरी मूल समस्या है, इसकी अति निम्न गुणवत्ता। इसे बढ़ाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपाय है न्यूनतम मानकों (नौर्म्स) का निर्धारण कर उन्हें सभी स्कूलों में लागू करना। शिक्षा अधिकार विधेयक की अनुसूची में कुछ मानक निर्धारित किए गए हैं। परंतु ये नितान्त अपर्याप्त हैं। अनेक अत्यावश्यक मानकों का इसमें जिक्र ही नहीं है जैसे- जन आबादी से स्कूल की दूरी, प्रति स्कूल और प्रति क्लास में छात्रों की संख्या, कक्षाओं में फर्नीचर, पाठय़-उपकरण, प्रयोगशाला का स्तर, शिक्षकों की योग्यता, प्रशिक्षण, वेतनमान एवं सेवा की शर्ते इत्यादि। कुछ मानकों का जिक्र तो है पर उनका स्पष्ट उल्लेख करने के बदले कहा गया है, ‘जैसा सरकार निर्धारित करे।’ इसका मतलब यह भी हो सकता है कि अयोग्य शिक्षकों (पैरा टीचर्स) की बहाली और बहु कक्षा पढ़ाई का मौजूदा सिलसिला जारी रहेगा। फिर तो गुणवत्ता की बात करना भी फिजूल है।
प्रवेश एवं गुणवत्ता, इन दोनों समस्याओं का असली कारण है वित्त का अभाव। शिक्षा अधिकार विधेयक से संलग्न वित्तीय स्मरण-पत्र में कहा गया है, ‘विधेयक को अमल में लाने के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधनों का परिणाम निर्धारित करना फिलहाल संभव नहीं है।’ यह कथन गलत है। पिछले 10 वर्षो में भारत के हर बच्चे को नि:शुल्क प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने में जो खर्च होगा उसका कई बार अनुमान लगाया जा चुका है। 1999 में तापस मजूमदार समिति ने बताया कि इसके लिएअगले 10 वर्षों में 1,37,000 करोड़ अतिरिक्त रकम लगेगी। 2005 में शिक्षा-परामर्श बोर्ड (केब) के एक विशेषज्ञ दल ने अनुमान लगाया था कि इस पर 6 साल तक प्रतिवर्ष न्यूनतम 53,500 करोड़ और अधिकतम 73 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त व्यय होगा। फिलहाल प्रारंभिक शिक्षा के लिए सर्वशिक्षा अभियान के माध्यम से धनराशि उपलब्ध कराई जाती है। दसवीं पंचवर्षीय योजना की तुलना में करीब दोगुनी वृद्धि के बाद भी ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में सर्वशिक्षा अभियान के लिए प्रतिवर्ष करीब 30,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है। इस रकम से न तो देश के सभी बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलाया जा सकता है और न गुणवत्ता में विशेष परिवर्तन लाया जा सकता है।
हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था की तीसरी मूल समस्या है, इसमें व्याप्त असमानता और भेदभाव। देश के सामाजिक वर्गीकरण के साथ-साथ हमारे यहां स्कूलों का भी वर्गीकरण है, जिसके मुताबिक धनी और विशिष्ट वर्ग के बच्चे ज्यादा फी वाले अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं, और गरीब व निम्न वर्ग के बच्चे जिनकी संख्या कुल स्कूली छात्रों का करीब 80 प्रतिशत है। इसके चलते देश का सामाजिक विभाजन और भी बढ़ता जा रहा है। सभी स्कूलों में न्यूनतम मानक लागू करना न केवल शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ा सकता है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था में मौजूद भेदभाव को मिटाने में भी मदद कर सकता है। भेदभाव मिटाने का दूसरा उपाय है पड़ोस के स्कूल के सिद्धांत को लागू करना जिसके मुताबिक हर स्कूल को उसके लिए निर्धारित पोषक क्षेत्र अथवा पड़ोस के सभी बच्चों को दाखिला देना होगा। इसका भी शिक्षाधिकार विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। बल्कि, स्कूलों के वर्तमान वर्गीकरण को कायम रखने की व्यवस्था है।
देश के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का अधिकार देने के बाद सरकार अब माध्यमिक शिक्षा का अधिकार भी देने जा रही है। मानव संसाधन विकास के अनुसार आने वाले पाँच वर्षों में माध्यमिक शिक्षा को भी बच्चों के मौलिक आधार के रूप में शामिल किया जा सकता है। जिसके तहत बच्चों के लिए माध्यमिक शिक्षा भी अनिवार्य व मुफ्त होगी। उल्लेखनीय है कि संसद ने पहले ही 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा बिल पारित किया था। इसके तहत शिक्षा बच्चों का मौलिक अधिकार बन गई थी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मुताबिक 2013 या 2015 तक सरकार बच्चों के लिए माध्यमिक शिक्षा भी मुफ्त व अनिवार्य कर सकती है। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून को लागू करने में सरकार को पाँच साल में एक लाख 71 हजार 484 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ेंगे और पाँच लाख दस हजार शिक्षकों को भर्ती करना पड़ेगा। इसी वर्ष 27 अगस्त को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून भारत के गजट में प्रकाशित हो गया। लेकिन अभी यह कानून लागू नहीं हुआ है।
हालांकि देश के 86वां संविधान संशोधन के अनुच्छेद 21(क) में शिक्षा को जोड़कर मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार 6 से 14 आयु समूह के बच्चों तक सीमित कर दिया था। यह बिल इसी अनुच्छेद के तहत लाया गया है। वर्ष १९५0 में जब संविधान ने सरकार को 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने के निर्देश दिए थे, तब के सामाजिक-आर्थिक हालात आज से एकदम अलग थे। आज १२वीं कक्षा की परीक्षा पास किए बगैर रोजगार की बात तो दूर, आईटीआई व पॉलीटेक्निक या फिर अन्य किसी व्यावसायिक कोर्स में भी दाखिला नहीं मिल सकता, तो फिर देश के बच्चों को आजादी के बाद हर साल इंतजार करवाकर कौन-सा मौलिक अधिकार दिया जा रहा है?
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी सहभागिता (पीपीपी) का सिद्धांत लागू करने की नीति बन चुकी है। यानी अब सार्वजनिक धन का उपयोग सरकार शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण के लिए करने जा रही है। कुछ प्रदेश सरकारों ने तो सरकारी स्कूलों को निजी कंपनियों को देने के लिए टेंडर तक जारी करने या फिर अन्य तरीकों से सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है।अप्रैल2009 में योजना आयोग ने स्कूली शिक्षा को सार्वजनिक-निजी सहभागिता के सांचे में ढालने के लिए एक बैठक बुलाई थी, जिसमें १८ कॉपरेरेट घरानों के प्रतिनिधि मौजूद थे, एक भी शिक्षाविद् या शिक्षक नहीं था। शिक्षा को कारोबार में बदलने की इस घोषित सरकारी नीति के चलते इस बिल का खोखलापन अपने आप जाहिर हो जाता है।
वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीति की तर्ज पर बने इस सरकारी बिल के पैरोकार सरकार के बाहर भी हैं। उनका कहना है कि यह बिल निजी स्कूलों की भी जवाबदेही तय करता है। उनका इशारा उस प्रावधान की ओर है, जो निजी स्कूलों में कमजोर वर्गो और वंचित समुदायों के बच्चों के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करता है। इनकी फीस सरकार की ओर से दी जाएगी। इससे बड़ा फूहड़ मजाक और क्या हो सकता था। एक, आज 6-14 आयु समूह के लगभग 20 करोड़ बच्चों में से ४ करोड़ बच्चे निजी स्कूलों में हैं। इनके 25 फीसदी यानी महज एक करोड़ बच्चों के लिए यह प्रावधान होगा। शेष बच्चों का क्या होगा? दूसरा, सब जानते हैं कि निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा अन्य कई प्रकार के शुल्क लिए जाते हैं, जिसमें कम्प्यूटर, पिकनिक, डांस आदि शामिल है। यह सब और इन स्कूलों के अभिजात माहौल के अनुकूल कीमती पोशाकें गरीब बच्चे कहां से लाएंगे? इनके बगैर वे वहां पर कैसे टिक पाएंगे? तीसरा, यदि किसी तरह वे 8वीं कक्षा तक टिक भी गए, तो उसके बाद उनका क्या होगा? ये बच्चे फिर सड़कों पर आ जाएंगे जबकि उनके साथ पढ़े हुए फीस देने वाले बच्चे १२वीं कक्षा पास करके आईआईटी व आईआईएम या विदेशी विश्वविद्यालयों की परीक्षा देंगे। इन सवालों का एक ही जवाब था- समान स्कूल प्रणाली जिसमें प्रत्येक स्कूल (निजी स्कूलों समेत) पड़ोसी स्कूल होगा।
सुप्रीम कोर्ट के उन्नीकृष्णन फैसले (1993) के अनुसार अनुच्छेद ४१ के मायने हैं कि शिक्षा का अधिकार 14 वर्ष की आयु में खत्म नहीं होता, वरन सैकंडरी व उच्चशिक्षा तक जाता है। फर्क इतना है कि 14 वर्ष की आयु तक की शिक्षा के लिए सरकार पैसों की कमी का कोई बहाना नहीं कर सकती, जबकि सैकंडरी व उच्चशिक्षा को देते वक्त उसकी आर्थिक क्षमता को ध्यान में रखा जा सकता है। जनता को उम्मीद थी कि यह बिल उच्चशिक्षा के दरवाजे प्रत्येक बच्चे के लिए समानता के सिद्धांत पर खोल देगा। तभी तो रोजगार के लिए सभी समुदायों के बच्चे बराबरी से होड़ कर पाएंगे और साथ में भारत की अर्थव्यवस्था में समान हिस्सेदारी के हकदार बनेंगे। क्या ऐसे कानून के लिए और आधी सदी तक इंतजार किया जाए या संसद पर जन-दबाव बनाकर इसी बिल में यथोचित संशोधन करवाने के लिए कमर कसी जाए?
इन सभी सरकारी आंकड़ों से शिक्षा की कार्यशैली से तो आम जनता को भ्रमित किया जा सकता है ।पर शिक्षा के लिए शिक्षायोजना अधिकार का क्रियांवयन होना जरूरी है.सिर्फ शिक्षा का मौलिक अधिकार का कानून सरकारी दस्तावेजों से ही नहीं मिल सकताहै। सरकारी और गैर सरकारी संगठनो को अब जड़ चेतनके साथ जुडकर शुरूआत करनी होगी। आम जनता की भागीदारी के लिए मीड़िया को भी सामने आना होगा लोगों को जागरूक और प्रोत्साहित करना होगा। शिक्षा के इस अधिकार को पूरी तरह से सफल बनाने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है।
1. शिक्षित युवाओं को शिक्षक बननेकी राह में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए एवं उचित ट्रेनिंग और आय देना चाहिए।
2. सरकार को स्कूली पाठ्यक्रम में अधिक गुणवत्ता के साथ शिक्षा की उचित व्यवस्था पर केंद्रित होना चाहिए।
3. इस चुनौती को जन भागीदारी,मीड़िया, और गैर सरकारी संगठनों द्वारा एक साथ मिलकर किया जाना चाहिए।
4. सिर्फ शहरों और जिलो तक ही सीमित ना रह कर गांवों और छोटे कस्बों तक शिक्षा के सही मायनों को पहुचाना होगा। शिक्षा नीति के सही क्रियान्वयन की आवश्यकता है।
स्कूली शिक्षा की समस्याओं पर विचार करने के सिलसिले में जो कुछ प्रश्न बार-बार उठाए जाते हैं वे हैं- शिक्षकों की अनुपस्थिति, अभिभावकों की उदासीनता, सही पाठय़क्रम का अभाव, अध्यापन में खामियां इत्यादि। परंतु इन समस्याओं को अलग-अलग रूप में देखा नहीं जा सकता, क्योंकि इनकी जड़ें सारी व्यवस्था में फैली हैं। इसलिए व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाना जरूरी है। इसके लिए हमें स्कूली शिक्षा व्यवस्था की मूल समस्याओं पर गौर करना होगा। पहली मूल समस्या है प्रवेश (ऐक्सेस) की कमी। आजादी के 62 साल बाद भी हमारे देश में करोड़ों बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं। पूरे देश में यह संख्या 30 प्रतिशत से कम नहीं होगी। दाखिले का अनुपात (ग्रॉस एनरोलमेन्ट रेशियो) सूचक नहीं हो सकता। क्योंकि दाखिल बच्चों में से अधिकांश विभिन्न कारणों से बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। आधुनिकतम सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कक्षा 10 तक पहुंचते-पहुंचते 61 प्रतिशत बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी थी। प्रवेश की समस्या के समाधान के लिए सबसे पहला कार्य होना चाहिए – अतिरिक्त स्कूलों का निर्माण, अतिरिक्त शिक्षकों की बहाली और अतिरिक्त शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों का निर्माण। शिक्षा की दूसरी मूल समस्या है, इसकी अति निम्न गुणवत्ता। इसे बढ़ाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपाय है न्यूनतम मानकों (नौर्म्स) का निर्धारण कर उन्हें सभी स्कूलों में लागू करना। शिक्षा अधिकार विधेयक की अनुसूची में कुछ मानक निर्धारित किए गए हैं। परंतु ये नितान्त अपर्याप्त हैं। अनेक अत्यावश्यक मानकों का इसमें जिक्र ही नहीं है जैसे- जन आबादी से स्कूल की दूरी, प्रति स्कूल और प्रति क्लास में छात्रों की संख्या, कक्षाओं में फर्नीचर, पाठय़-उपकरण, प्रयोगशाला का स्तर, शिक्षकों की योग्यता, प्रशिक्षण, वेतनमान एवं सेवा की शर्ते इत्यादि। कुछ मानकों का जिक्र तो है पर उनका स्पष्ट उल्लेख करने के बदले कहा गया है, ‘जैसा सरकार निर्धारित करे।’ इसका मतलब यह भी हो सकता है कि अयोग्य शिक्षकों (पैरा टीचर्स) की बहाली और बहु कक्षा पढ़ाई का मौजूदा सिलसिला जारी रहेगा। फिर तो गुणवत्ता की बात करना भी फिजूल है।
प्रवेश एवं गुणवत्ता, इन दोनों समस्याओं का असली कारण है वित्त का अभाव। शिक्षा अधिकार विधेयक से संलग्न वित्तीय स्मरण-पत्र में कहा गया है, ‘विधेयक को अमल में लाने के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधनों का परिणाम निर्धारित करना फिलहाल संभव नहीं है।’ यह कथन गलत है। पिछले 10 वर्षो में भारत के हर बच्चे को नि:शुल्क प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने में जो खर्च होगा उसका कई बार अनुमान लगाया जा चुका है। 1999 में तापस मजूमदार समिति ने बताया कि इसके लिएअगले 10 वर्षों में 1,37,000 करोड़ अतिरिक्त रकम लगेगी। 2005 में शिक्षा-परामर्श बोर्ड (केब) के एक विशेषज्ञ दल ने अनुमान लगाया था कि इस पर 6 साल तक प्रतिवर्ष न्यूनतम 53,500 करोड़ और अधिकतम 73 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त व्यय होगा। फिलहाल प्रारंभिक शिक्षा के लिए सर्वशिक्षा अभियान के माध्यम से धनराशि उपलब्ध कराई जाती है। दसवीं पंचवर्षीय योजना की तुलना में करीब दोगुनी वृद्धि के बाद भी ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में सर्वशिक्षा अभियान के लिए प्रतिवर्ष करीब 30,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है। इस रकम से न तो देश के सभी बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलाया जा सकता है और न गुणवत्ता में विशेष परिवर्तन लाया जा सकता है।
हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था की तीसरी मूल समस्या है, इसमें व्याप्त असमानता और भेदभाव। देश के सामाजिक वर्गीकरण के साथ-साथ हमारे यहां स्कूलों का भी वर्गीकरण है, जिसके मुताबिक धनी और विशिष्ट वर्ग के बच्चे ज्यादा फी वाले अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं, और गरीब व निम्न वर्ग के बच्चे जिनकी संख्या कुल स्कूली छात्रों का करीब 80 प्रतिशत है। इसके चलते देश का सामाजिक विभाजन और भी बढ़ता जा रहा है। सभी स्कूलों में न्यूनतम मानक लागू करना न केवल शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ा सकता है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था में मौजूद भेदभाव को मिटाने में भी मदद कर सकता है। भेदभाव मिटाने का दूसरा उपाय है पड़ोस के स्कूल के सिद्धांत को लागू करना जिसके मुताबिक हर स्कूल को उसके लिए निर्धारित पोषक क्षेत्र अथवा पड़ोस के सभी बच्चों को दाखिला देना होगा। इसका भी शिक्षाधिकार विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। बल्कि, स्कूलों के वर्तमान वर्गीकरण को कायम रखने की व्यवस्था है।
देश के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का अधिकार देने के बाद सरकार अब माध्यमिक शिक्षा का अधिकार भी देने जा रही है। मानव संसाधन विकास के अनुसार आने वाले पाँच वर्षों में माध्यमिक शिक्षा को भी बच्चों के मौलिक आधार के रूप में शामिल किया जा सकता है। जिसके तहत बच्चों के लिए माध्यमिक शिक्षा भी अनिवार्य व मुफ्त होगी। उल्लेखनीय है कि संसद ने पहले ही 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा बिल पारित किया था। इसके तहत शिक्षा बच्चों का मौलिक अधिकार बन गई थी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मुताबिक 2013 या 2015 तक सरकार बच्चों के लिए माध्यमिक शिक्षा भी मुफ्त व अनिवार्य कर सकती है। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून को लागू करने में सरकार को पाँच साल में एक लाख 71 हजार 484 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ेंगे और पाँच लाख दस हजार शिक्षकों को भर्ती करना पड़ेगा। इसी वर्ष 27 अगस्त को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून भारत के गजट में प्रकाशित हो गया। लेकिन अभी यह कानून लागू नहीं हुआ है।
हालांकि देश के 86वां संविधान संशोधन के अनुच्छेद 21(क) में शिक्षा को जोड़कर मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार 6 से 14 आयु समूह के बच्चों तक सीमित कर दिया था। यह बिल इसी अनुच्छेद के तहत लाया गया है। वर्ष १९५0 में जब संविधान ने सरकार को 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने के निर्देश दिए थे, तब के सामाजिक-आर्थिक हालात आज से एकदम अलग थे। आज १२वीं कक्षा की परीक्षा पास किए बगैर रोजगार की बात तो दूर, आईटीआई व पॉलीटेक्निक या फिर अन्य किसी व्यावसायिक कोर्स में भी दाखिला नहीं मिल सकता, तो फिर देश के बच्चों को आजादी के बाद हर साल इंतजार करवाकर कौन-सा मौलिक अधिकार दिया जा रहा है?
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी सहभागिता (पीपीपी) का सिद्धांत लागू करने की नीति बन चुकी है। यानी अब सार्वजनिक धन का उपयोग सरकार शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण के लिए करने जा रही है। कुछ प्रदेश सरकारों ने तो सरकारी स्कूलों को निजी कंपनियों को देने के लिए टेंडर तक जारी करने या फिर अन्य तरीकों से सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है।अप्रैल2009 में योजना आयोग ने स्कूली शिक्षा को सार्वजनिक-निजी सहभागिता के सांचे में ढालने के लिए एक बैठक बुलाई थी, जिसमें १८ कॉपरेरेट घरानों के प्रतिनिधि मौजूद थे, एक भी शिक्षाविद् या शिक्षक नहीं था। शिक्षा को कारोबार में बदलने की इस घोषित सरकारी नीति के चलते इस बिल का खोखलापन अपने आप जाहिर हो जाता है।
वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीति की तर्ज पर बने इस सरकारी बिल के पैरोकार सरकार के बाहर भी हैं। उनका कहना है कि यह बिल निजी स्कूलों की भी जवाबदेही तय करता है। उनका इशारा उस प्रावधान की ओर है, जो निजी स्कूलों में कमजोर वर्गो और वंचित समुदायों के बच्चों के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करता है। इनकी फीस सरकार की ओर से दी जाएगी। इससे बड़ा फूहड़ मजाक और क्या हो सकता था। एक, आज 6-14 आयु समूह के लगभग 20 करोड़ बच्चों में से ४ करोड़ बच्चे निजी स्कूलों में हैं। इनके 25 फीसदी यानी महज एक करोड़ बच्चों के लिए यह प्रावधान होगा। शेष बच्चों का क्या होगा? दूसरा, सब जानते हैं कि निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा अन्य कई प्रकार के शुल्क लिए जाते हैं, जिसमें कम्प्यूटर, पिकनिक, डांस आदि शामिल है। यह सब और इन स्कूलों के अभिजात माहौल के अनुकूल कीमती पोशाकें गरीब बच्चे कहां से लाएंगे? इनके बगैर वे वहां पर कैसे टिक पाएंगे? तीसरा, यदि किसी तरह वे 8वीं कक्षा तक टिक भी गए, तो उसके बाद उनका क्या होगा? ये बच्चे फिर सड़कों पर आ जाएंगे जबकि उनके साथ पढ़े हुए फीस देने वाले बच्चे १२वीं कक्षा पास करके आईआईटी व आईआईएम या विदेशी विश्वविद्यालयों की परीक्षा देंगे। इन सवालों का एक ही जवाब था- समान स्कूल प्रणाली जिसमें प्रत्येक स्कूल (निजी स्कूलों समेत) पड़ोसी स्कूल होगा।
सुप्रीम कोर्ट के उन्नीकृष्णन फैसले (1993) के अनुसार अनुच्छेद ४१ के मायने हैं कि शिक्षा का अधिकार 14 वर्ष की आयु में खत्म नहीं होता, वरन सैकंडरी व उच्चशिक्षा तक जाता है। फर्क इतना है कि 14 वर्ष की आयु तक की शिक्षा के लिए सरकार पैसों की कमी का कोई बहाना नहीं कर सकती, जबकि सैकंडरी व उच्चशिक्षा को देते वक्त उसकी आर्थिक क्षमता को ध्यान में रखा जा सकता है। जनता को उम्मीद थी कि यह बिल उच्चशिक्षा के दरवाजे प्रत्येक बच्चे के लिए समानता के सिद्धांत पर खोल देगा। तभी तो रोजगार के लिए सभी समुदायों के बच्चे बराबरी से होड़ कर पाएंगे और साथ में भारत की अर्थव्यवस्था में समान हिस्सेदारी के हकदार बनेंगे। क्या ऐसे कानून के लिए और आधी सदी तक इंतजार किया जाए या संसद पर जन-दबाव बनाकर इसी बिल में यथोचित संशोधन करवाने के लिए कमर कसी जाए?
इन सभी सरकारी आंकड़ों से शिक्षा की कार्यशैली से तो आम जनता को भ्रमित किया जा सकता है ।पर शिक्षा के लिए शिक्षायोजना अधिकार का क्रियांवयन होना जरूरी है.सिर्फ शिक्षा का मौलिक अधिकार का कानून सरकारी दस्तावेजों से ही नहीं मिल सकताहै। सरकारी और गैर सरकारी संगठनो को अब जड़ चेतनके साथ जुडकर शुरूआत करनी होगी। आम जनता की भागीदारी के लिए मीड़िया को भी सामने आना होगा लोगों को जागरूक और प्रोत्साहित करना होगा। शिक्षा के इस अधिकार को पूरी तरह से सफल बनाने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है।
1. शिक्षित युवाओं को शिक्षक बननेकी राह में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए एवं उचित ट्रेनिंग और आय देना चाहिए।
2. सरकार को स्कूली पाठ्यक्रम में अधिक गुणवत्ता के साथ शिक्षा की उचित व्यवस्था पर केंद्रित होना चाहिए।
3. इस चुनौती को जन भागीदारी,मीड़िया, और गैर सरकारी संगठनों द्वारा एक साथ मिलकर किया जाना चाहिए।
4. सिर्फ शहरों और जिलो तक ही सीमित ना रह कर गांवों और छोटे कस्बों तक शिक्षा के सही मायनों को पहुचाना होगा। शिक्षा नीति के सही क्रियान्वयन की आवश्यकता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें