ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

भगवान शिव की वेशभूषा के 15 रहस्य...

भगवान शिव की वेशभूषा के 15 रहस्य...

आपने भगवान शंकर का चित्र या मूर्ति देखी होगी। शिव की जटाएं हैं। उन जटाओं में एक चन्द्र चिह्न होता है। उनके मस्तक पर तीसरी आंख है। वे गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला लपेटे रहते हैं। उनके एक हाथ में डमरू, तो दूसरे में त्रिशूल है। वे संपूर्ण देह पर भस्म लगाए रहते हैं। उनके शरीर के निचले हिस्से को वे व्याघ्र चर्म से लपेटे रहते हैं। वे वृषभ की सवारी करते हैं और कैलाश पर्वत पर ध्यान लगाए बैठे रहते हैं।
चन्द्रमा : शिव का एक नाम 'सोम' भी है। सोम का अर्थ चन्द्र होता है। उनका दिन सोमवार है। चन्द्रमा मन का कारक है। शिव द्वारा चन्द्रमा को धारण करना मन के नियंत्रण का भी प्रतीक है। हिमालय पर्वत और समुद्र से चन्द्रमा का सीधा संबंध है।
चन्द्र कला का महत्व : मूलत: शिव के सभी त्योहार और पर्व चान्द्रमास पर ही आधारित होते हैं। शिवरात्रि, महाशिवरात्रि आदि शिव से जुड़े त्योहारों में चन्द्र कलाओं का महत्व है।
चन्द्रदेव से संबंध : भगवान शिव के सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के बारे में मान्यता है कि भगवान शिव द्वारा सोम अर्थात चन्द्रमा के श्राप का निवारण करने के कारण यहां चन्द्रमा ने शिवलिंग की स्थापना की थी। इसी कारण इस ज्योतिर्लिंग का नाम 'सोमनाथ' प्रचलित हुआ।
त्रिशूल : भगवान शिव के पास हमेशा एक त्रिशूल ही होता था। यह बहुत ही अचूक और घातक अस्त्र था। इसकी शक्ति के आगे कोई भी शक्ति ठहर नहीं सकती।
त्रिशूल 3 प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक भी है। इसमें 3 तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन।
त्रिशूल के 3 शूल सृष्टि के क्रमशः उदय, संरक्षण और लयीभूत होने का प्रतिनिधित्व करते भी हैं। शैव मतानुसार शिव इन तीनों भूमिकाओं के अधिपति हैं। यह शैव सिद्धांत के पशुपति, पशु एवं पाश का प्रतिनिधित्व करता है।
माना जाता है कि यह महाकालेश्वर के 3 कालों (वर्तमान, भूत, भविष्य) का प्रतीक भी है। इसके अलावा यह स्वपिंड, ब्रह्मांड और शक्ति का परम पद से एकत्व स्थापित होने का प्रतीक है। यह वाम भाग में स्थिर इड़ा, दक्षिण भाग में स्थित पिंगला तथा मध्य देश में स्थित सुषुम्ना नाड़ियों का भी प्रतीक है।
शिव का सेवक वासुकि : शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नाग कुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ था। नाग कुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। भगवान शिव के नागेश्वर ज्योतिर्लिंग नाम से स्पष्ट है कि नागों के ईश्वर होने के कारण शिव का नाग या सर्प से अटूट संबंध है। भारत में नागपंचमी पर नागों की पूजा की परंपरा है।
विरोधी भावों में सामंजस्य स्थापित करने वाले शिव नाग या सर्प जैसे क्रूर एवं भयानक जीव को अपने गले का हार बना लेते हैं। लिपटा हुआ नाग या सर्प जकड़ी हुई कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है।
नागों के प्रारंभ में 5 कुल थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शेषनाग (अनंत), वासुकि, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक। ये शोध के विषय हैं कि ये लोग सर्प थे या मानव या आधे सर्प और आधे मानव? हालांकि इन सभी को देवताओं की श्रेणी में रखा गया है, तो निश्‍चित ही ये मनुष्य नहीं होंगे।
नाग वंशावलियों में 'शेषनाग' को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही 'अनंत' नाम से भी जाना जाता है। ये भगवान विष्णु के सेवक थे। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकि हुए, जो शिव के सेवक बने। फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला। वासुकि का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से 'तक्षक' कुल चलाया था। उक्त पांचों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं।
उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कंबल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादि नाम से नागों के वंश हुए जिनके भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।
डमरू : सभी हिन्दू देवी और देवताओं के पास एक न एक वाद्य यंत्र रहता है। उसी तरह भगवान के पास डमरू था, जो नाद का प्रतीक है। भगवान शिव को संगीत का जनक भी माना जाता है। उनके पहले कोई भी नाचना, गाना और बजाना नहीं जानता था। भगवान शिव दो तरह से नृत्य करते हैं- एक तांडव जिसमें उनके पास डमरू नहीं होता और जब वे डमरू बजाते हैं तो आनंद पैदा होता है।
अब बात करते हैं नाद की। नाद अर्थात ऐसी ध्वनि, जो ब्रह्मांड में निरंतर जारी है जिसे 'ॐ' कहा जाता है। संगीत में अन्य स्वर तो आते-जाते रहते हैं, उनके बीच विद्यमान केंद्रीय स्वर नाद है। नाद से ही वाणी के चारों रूपों की उत्पत्ति मानी जाती है- 1. पर, 2. पश्यंती, 3. मध्यमा और 4. वैखरी।
आहत नाद का नहीं अपितु अनाहत नाद का विषय है। बिना किसी आघात के उत्पन्न चिदानंद, अखंड, अगम एवं अलख रूप सूक्ष्म ध्वनियों का प्रस्फुटन अनाहत या अनहद नाद है। इस अनाहत नाद का दिव्य संगीत सुनने से गुप्त मानसिक शक्तियां प्रकट हो जाती हैं। नाद पर ध्यान की एकाग्रता से धीरे-धीरे समाधि लगने लगती है। डमरू इसी नाद-साधना का प्रतीक है।
शिव का वाहन वृषभ : वृषभ शिव का वाहन है। वे हमेशा शिव के साथ रहते हैं। वृषभ का अर्थ धर्म है। मनुस्मृति के अनुसार 'वृषो हि भगवान धर्म:'। वेद ने धर्म को 4 पैरों वाला प्राणी कहा है। उसके 4 पैर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। महादेव इस 4 पैर वाले वृषभ की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनके अधीन हैं।
एक मान्यता के अनुसार वृषभ को नंदी भी कहा जाता है, जो शिव के एक गण हैं। नंदी ने ही धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना की थी।
जटाएं : शिव अंतरिक्ष के देवता हैं। उनका नाम व्योमकेश है अत: आकाश उनकी जटास्वरूप है। जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं। वायु आकाश में व्याप्त रहती है। सूर्य मंडल से ऊपर परमेष्ठि मंडल है। इसके अर्थ तत्व को गंगा की संज्ञा दी गई है अत: गंगा शिव की जटा में प्रवाहित है। शिव रुद्रस्वरूप उग्र और संहारक रूप धारक भी माने गए हैं।
गंगा : गंगा को जटा में धारण करने के कारण ही शिव को जल चढ़ाए जाने की प्रथा शुरू हुई। जब स्वर्ग से गंगा को धरती पर उतारने का उपक्रम हुआ तो यह भी सवाल उठा कि गंगा के इस अपार वेग से धरती में विशालकाय छिद्र हो सकता है, तब गंगा पाताल में समा जाएगी।
भभूत या भस्म : शिव अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। भस्म जगत की निस्सारता का बोध कराती है। भस्म आकर्षण, मोह आदि से मुक्ति का प्रतीक भी है। देश में एकमात्र जगह उज्जैन के महाकाल मंदिर में शिव की भस्म आरती होती है जिसमें श्मशान की भस्म का इस्तेमाल किया जाता है।
तीन नेत्र : शिव को 'त्रिलोचन' कहते हैं यानी उनकी तीन आंखें हैं। प्रत्येक मनुष्य की भौहों के बीच तीसरा नेत्र रहता है। शिव का तीसरा नेत्र हमेशा जाग्रत रहता है, लेकिन बंद। यदि आप अपनी आंखें बंद करेंगे तो आपको भी इस नेत्र का अहसास होगा।
संसार और संन्यास : शिव का यह नेत्र आधा खुला और आधा बंद है। यह इसी बात का प्रतीक है कि व्यक्ति ध्यान-साधना या संन्यास में रहकर भी संसार की जिम्मेदारियों को निभा सकता है।
त्र्यंबकेश्वर : त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के व्युत्पत्यर्थ के संबंध में मान्यता है कि तीन नेत्रों वाले शिवशंभू के यहां विराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्र) के ईश्वर कहा जाता है।

हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म : शिव अपनी देह पर हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म को धारण करते हैं। हस्ती अर्थात हाथी और व्याघ्र अर्थात शेर। हस्ती अभिमान का और व्याघ्र हिंसा का प्रतीक है अत: शिवजी ने अहंकार और हिंसा दोनों को दबा रखा है।
शिव का धनुष पिनाक : शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवराज को सौंप दिया गया था।
उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।
देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवराज को धनुष दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवराज थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।

शिव का चक्र : चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था। सुदर्शन चक्र का नाम भगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।
यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला।
त्रिपुंड तिलक : माथे पर भगवान शिव त्रिपुंड तिलक लगाते हैं। यह तीन लंबी धारियों वाला तिलक होता है। यह त्रिलोक्य और त्रिगुण का प्रतीक है। यह सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का प्रतीक भी है। यह त्रिपुंड सफेद चंदन का या भस्म का होता है।
त्रिपुंड दो प्रकार का होता है- पहला तीन धारियों के बीच लाल रंग का एक बिंदु होता है। यह बिंदु शक्ति का प्रतीक होता है। आम इंसान को इस तरह का त्रिपुंड नहीं लगाना चाहिए। दूसरा होता है सिर्फ तीन धारियों वाला तिलक या त्रिपुंड। इससे मन एकाग्र होता है।

कान में कुंडल : शिव कुंडल : हिन्दुओं में एक कर्ण छेदन संस्कार है। शैव, शाक्त और नाथ संप्रदाय में दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने की प्रथा है। कर्ण छिदवाने से कई प्रकार के रोगों से तो बचा जा ही सकता है साथ ही इससे मन भी एकाग्र रहता है। मान्यता अनुसार इससे वीर्य शक्ति भी बढ़ती है।
रुद्राक्ष : माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिव के आंसुओं से हुई थी। धार्मिक ग्रंथानुसार 21 मुख तक के रुद्राक्ष होने के प्रमाण हैं, परंतु वर्तमान में 14 मुखी के पश्चात सभी रुद्राक्ष अप्राप्य हैं। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है तथा रक्त प्रवाह भी संतुलित रहता है।
- ज्योतिष का सूर्य, भिलाई

बुधवार, 5 जुलाई 2017

जानिए राशियों से जुड़े नौकरी और व्यवसाय

         

जानिए राशियों से जुड़े नौकरी और व्यवसाय

हालॉकी कुण्डली के सम्यक परिक्षण के उपरान्त ही व्यवसाय का निर्धारण उचित रहेगा अत: किसी विशेषज्ञ से सलाह लेकर ही व्यवसाय आरंभ करें..वैसे नीचे मैं १२ राशियों का अलग-अलग स्वाभाविक व्यावसायिक क्षेत्रों की चर्चा कर रहा हुं.....               

1-मेष: – पुलिस अथवा सेना की नौकरी, इंजीनियंिरंग, फौजदारी का वकील, सर्जन, ड्राइविंग, घड़ी का कार्य, रेडियो व टी.वी. का निर्माण या मरम्मत, विद्युत का सामान, कम्प्यूटर, जौहरी, अग्नि सम्बन्धी कार्य, मेकेनिक, ईंटों का भट्टा, किसी फैक्ट्री में कार्य, भवन निर्माण सामग्री, धातु व खनिज सम्बन्धी कार्य, नाई, दर्जी, बेकरी का कार्य, फायरमेन, कारपेन्टर।
2-वृषभ: – सौन्दर्य प्रसाधन, हीरा उद्योग, शेयर ब्रोकर, बैंक कर्मचारी, नर्सरी, खेती, संगीत, नाटक, फिल्म या टी.वी. कलाकार, पेन्टर, केमिस्ट, ड्रेस डिजाइनर, कृषि अथवा राजस्व विभाग की नौकरी, महिला विभाग, सेलटेक्स या आयकर विभाग की नौकरी, ब्याज से धन कमाने का कार्य, सजावट तथा विलासिता की वस्तुओं का निर्माण अथवा व्यापार, चित्रकारी, कशीदाकारी, कलात्मक वस्तुओं सम्बन्धी कार्य, फैशन, कीमती पत्थरों या धातु का व्यापार, होटल व बर्फ सम्बन्धी कारोबार।
3-मिथुन: – पुस्तकालय अध्यक्ष, लेखाकार, इंजीनियर, टेलिफोन आपरेटर, सेल्समेन, आढ़तिया, शेयर ब्रोकर, दलाल, सम्पादक, संवाददाता, अध्यापक, दुकानदार, रोडवेज की नौकरी, ट्यूशन से जीविका कमाने वाला, उद्योगपति, सचिव, साईकिल की दुकान, अनुवादक, स्टेशनरी की दुकान, ज्योतिष, गणितज्ञ, लिपिक का कार्य, चार्टड एकाउन्टेंट, भाषा विशेषज्ञ, लेखक, पत्रकार, प्रतिलिपिक, विज्ञापन प्रबन्धन, प्रबन्धन (मेनेजमेन्ट) सम्बन्धी कार्य, दुभाषिया, बिक्री एजेन्ट।

4-कर्क: – जड़ी-बूटिंयों का व्यापार, किराने का सामान, फलों के जड़ पौध सम्बन्धी कार्य, रेस्टोरेन्ट, चाय या काफी की दुकान, जल व कांच से सम्बन्धित कार्य, मधुशाला, लांड्री, नाविक, डेयरी फार्म, जीव विज्ञान, वनस्सपति विज्ञान, प्राणी विज्ञान आदि से सम्बन्धित कार्य, मधु के व्यवसाय, सुगन्धित पदार्थ व कलात्मक वस्तुओं से सम्बन्धित कार्य, सजावट की वस्तुएं, अगरबत्ती, फोटोग्राफी, अभिनय, पुरातत्व इतिहास, संग्रहालय, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता या सामाजिक संस्थाओं के कर्मचारी, अस्पताल की नौकरी, जहाज की नौकरी, मौसम विभाग, जल विभाग या जल सेना की नौकरी, जनरल मर्चेन्ट।
5-सिंह: – पेट्रोलियम, भवन निर्माण, चिकित्सक, राजनेता, औषधि निर्माण एवं व्यापार, कृषि से उत्पादित वस्तुएं, स्टाक एक्सचेंज, कपड़ा, रूई, कागज, स्टेशनरी आदि से सम्बन्धित व्यवसाय, जमीन से प्राप्त पदार्थ, शासक, प्रसाशक, अधिकारी, वन अधिकारी, राजदूत, सेल्स मैनेजर, ऊन के गरम कपड़ों का व्यापार, फर्नीचर व लकड़ी का व्यापार, फल व मेवों का व्यापार, पायलेट, पेतृक व्यवसाय।
6-कन्या: – अध्यापक, दुकान, सचिव, रेडियो या टी.वी. का उद्घोषक, ज्योतिष, डाक सेवा, लिपिक, बैकिंग, लेखा सम्बन्धी कार्य, स्वागतकर्ता, मैनेजर, बस ड्रायवर और संवाहक, जिल्दसाज, आशुलिपिक, अनुवादक, पुस्तकालय अध्यक्ष, कागज के व्यापारी, हस्तलेख और अंगुली के विशेषज्ञ, मनोवैज्ञानिक, अन्वेषक, सम्पादक, परीक्षक, कर अधिकारी, सैल्स मेन, शोध कार्य पत्रकारिता आदि।
7-तुला: – न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट, परामर्शदाता, फिल्म या टी.वी. से सम्बन्ध, फोटोग्राफर, फर्नीचर की दुकान, मूल्यवान वस्तुओं का विनिमय, धन का लेन-देन, नृत्य-संगीत या चित्रकला से सम्बन्धित कार्य, साज-सज्जा, अध्यापक, बैंक क्लर्क, एजेन्सी, दलाली, विलासिता की वस्तुएं, राजनेता, जन सम्पर्क अधिकारी, फैशन मॉडल, सामाजिक कार्यकर्ता, रेस्तरां का मालिक, चाय या काफी की दुकान, मूर्तिकार, कार्टूनिस्ट, पौशाक का डिजाइनर, मेकअप सहायक, केबरे प्रदर्शन।
8-वृश्चिक: – केमिस्ट, चिकित्सक, वकील, इंजीनियर, भवन निर्माण, टेलीफोन व बिजली का सामान, रंग, सीमेन्ट, ज्योतिषी और तांत्रिक, जासूसी का काम करने वाला, दन्त चिकित्सक, मेकेनिक, ठेकेदार, जीवन बीमा एजेन्ट, रेल या ट्रक कर्मचारी, पुलिस और सेना के कर्मचारी, टेलिफोन आपरेटर, समुद्री खाद्यान्नों के व्यापारी, गोता लगाकर मोती निकालने का काम, होटय या रेस्टोरेन्ट, चोरी या डकैती, शराब की फैक्ट्री, वर्कशाप का कार्य, कल-पुर्जो की दुकान या फैैक्ट्री, लोहे या स्टील का कार्य, तम्बाकू या सिगरेट का कार्य, नाई, मिष्ठान की दुकान, फायर बिग्रेड की नौकरी।
9-धनु: – बैंक की नौकरी, अध्यापन, किसी धार्मिक स्थान से सम्बन्ध, ऑडिट का कार्य, कम्पनी सेकेट्री, ठेकेदार, सट्टा व्यापार, प्रकाशक, विज्ञापन से सम्बन्धित कार्य, सेल्समेन, सम्पादक, शिक्षा विभाग में कार्य, लेखन, वकालात या कानून सम्बन्धी कार्य, उपदेशक, न्यायाधीश, धर्म-सुधारक, कमीशन ऐजेन्ट, आयात-निर्यात सम्बन्धी कार्य, प्रशासनाधिकारी, पशुओं से उत्पन्न वस्तुओं का व्यापार, चमड़े या जूते के व्यापारी, घोड़ों के प्रशिक्षक, ब्याज सम्बन्धी कार्य, स्टेशनरी विक्रेता।
10-मकर: – नेवी की नौकरी, कस्टम विभाग का कार्य, बड़ा व्यापार या उच्च पदाधिकारी, समाजसेवी, चिकित्सक, नर्स, जेलर या जेल से सम्बन्धित कार्य, संगीतकार, ट्रेवल एजेन्ट, पेट्रोल पम्प, मछली का व्यापार, मेनेजमेन्ट, बीमा विभाग, ठेकेदारी, रेडिमेड वस्त्र, प्लास्टिक, खिलौना, बागवानी, खान सम्बन्धी कार्य, सचिव, कृषक, वन अधिकारी, शिल्पकार, फैक्ट्री या मिल कारीगर, सभी प्रकार के मजदूर।
11 -कुम्भ: – शोध कार्य, शिक्षण कार्य, ज्योतिष, तांत्रिक, प्राकृतिक चिकित्सक, इंजीनियर या वैज्ञानिक, दार्शनिक, एक्स-रे कर्मचारी, चिकित्सकीय उपकरणों के विक्रेता, बिजली अथवा परमाणु शक्ति से सम्बन्धित कार्य, कम्प्यूटर, वायुयान, वैज्ञानिक, दूरदर्शन टैक्नोलोजी, कानूनी सलाहकार, मशीनरी सम्बन्धी कार्य, बीमा विभाग, ठेकेदार, लोहा, तांबा, कोयला व ईधन के विक्रेता, चौकीदार, शव पेटिका और मकबरा बनाने वाले, चमड़े की वस्तुओं का व्यापार।
12 -मीन: – लेखन, सम्पादन, अध्यापन कार्य, लिपिक, दलाली, मछली का व्यापार, कमीशन एजेन्ट, आयात-निर्यात सम्बन्धी कार्य, खाद्य पदार्थ या मिष्ठान सम्बन्धी कार्य, पशुओं से उत्पन्न वस्तुओं का व्यापार, फिल्म निर्माण, सामाजिक कार्य, संग्रहालय या पुस्तकालय का कार्य, संगीतज्ञ, यात्रा एजेन्ट, पेट्रोल और तेल के व्यापारी, समुद्री उत्पादों के व्यापारी, मनोरंजन केन्द्रों के मालिक, चित्रकार या अभिनेता, चिकित्सक, सर्जन, नर्स, जेलर और जेल के कर्मचारी, ज्योतिषी, पार्षद, वकील, प्रकाशक, रोकड़िया, तम्बाकू और किराना का व्यापारी, साहित्यकार।

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ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे, संपादक- "ज्योतिष का सूर्य" राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, सड़क-26, शांतिनगर भिलाई, जिला-दुर्ग (छ.ग.) मोबाईल नं- 09827198828

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.सरकारी स्कूलों और शिशु मंदिरों की बजाय मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों मे पढ़ा हुआ 12 वीं का छात्र पूछता है .what is veda ...?

...सरकारी स्कूलों और शिशु मंदिरों की बजाय मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों मे पढ़ा हुआ 12 वीं का छात्र पूछता है .what is veda ...?

Hrishikesh Tripathiफेसबुक पर श्री हृषिकेश त्रिपाठी जी ने बलराम पुर के कलेक्टर श्री अवनीश जी के द्वारा अपनी बीटिया का दाखिला सरकारी स्कूलों कराया इस विषय पर चर्चा चल रही थी की....तपाक़ से मैंने भी कुछ शब्द-सागर की धार प्रवाहीत की...जरा आप भी पढ़ें......

सर्वप्रथम तो श्री अवनीश जी को बहुत बहुत धन्यवाद की इन्होंने अपनी बीटिया का दाखिला सरकारी स्कूल में कराया.और उम्मीद है कि रमन सरकार छत्तीसगढ़ में विकास का आडम्बर छोड़ यहां की शिक्षण व्यवस्था को सुधारें.और परिवहन विभाग के पैरलर चल रहे अवैध वसूली चेकपोस्टो पर उस पर ध्यान देने की बजाय...यहां के शिक्षाकर्मियों पर ध्यान दें...क्योंकि उन शिक्षा कर्मियों को तीन तीन माह में ले देकर पेमेंट हो पाता है...श्री अवनीश जी ने अपनी बीटिया का सरकारी स्कूल में दाखिला कराने को रमन सरकार की उपलब्धि से बिल्कुल नहीं जोड़ा जाना चाहिये.और श्री हृषिकेश त्रिपाठी जी ने ऐसा नहीं किया इसकी हमें खुशी है.......हां इस बात का मैं समर्थन करता हुं की श्री अवनीश जी ने जो किया वह काब़िले तारीफ है उनके इस कदम से  जहां छत्तीसगढ़ में अफसरशाही बनाम लार्डशाही का खूब खेल चल रहा है वहीं इस सिस्टम को तमाचा है जो राजनीतिकऔर जातिगत, व सामाजिक वोटबैंक के आधार पर डीआईओएस तय किये जाते हैं ....मैं श्री अवनीश जी के इस कदम को दूसरे पहलु से लेना चाहता हुं वे स्वतः  उच्च अधिकारी हैं वे कुछ नया व समाज के हित में काम करने की जज्बा रखते हैं उन्होंने छत्तीसगढ़ की शासकीय शिक्षण-व्यवस्था को सुदृढ़ करनेने हेतु  रमन सरकार के  ध्यानाकर्षण के लिये इससे बेहतर कोई और मार्ग नहीं हो सकता...शायद चना फ्री, धान फ्री, फलाने फ्री, ढ़िमका फ्री की हैसियत से चुनाव जीतने वाले नेताओं की नींद टूट जाये.. ..अब थोड़ा सा डिफरेंट एंगल...श्री हृषिकेश त्रिपाठी जी....बात यह नहीं है की शासकीय अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में दाखिले लें या वे अधिकारी देश की आवाम को सरकारी स्कूलों में बच्चों के दाखिले के लिये प्रोत्साहित करें ...बल्कि सवाल इस बात की है की हमारे देश के भीड़ तंत्र ने आखिर प्राईवेट स्कूलों को इतना तवज्जो क्यों दिया करते हैं...वो भी तब जब ये प्राईवेट स्कूल घुड़सवारी से लेकर स्वीमिंग पुल तथा काला लाल पीला हरे रंग के प्रतिदिन वार के अनुसार स्कूल से तय किये गये पौष्टिक व्यंजनों से भरे बैग तथा दिन के हिसाब से उनके महंगे महंगे डीजाईनर ड्रेसेस ...की चकाचौंध के फेरे में हम जानबूझकर स्वयं को शोषण के सागर में गोते लगाने क्यों चले जाते हैं..इस विषय पर विचार करने की आवश्यकता है...क्या उस स्कूल में हमने नैतिक शिक्षा तथा वगैर ताम-झाम के विषयवार सतही ज्ञान या पारंगत पठन-पाठन की बजाय दिखावा..

के लिये भेजते हैं यह सोचते हुए की .देखो मेरा बच्चा 5000 इससे और भी अधिक रुपये महिने फीस वाले स्कूलों में पढ़ने जाता है...मेरा रूतबा है मैं बड़ा आदमी हुं...आदि स्टैण्डर्ड की सोच ने हमें जान-बूझकर .प्राईवेट स्कूलों में ढ़केलता है...दिलचस्प बात तो यह है कि यदि प्राईवेट स्कूलों मे ही दाखिला लेनी है तो हमारे देश में नैतिक शिक्षा तथा वगैर ताम-झाम के विषयवार पारंगतता प्रदाता एवं भारतीय प्रागैतिहासिकता को जीवंत बनाने/पढ़ाने/ बताने  व वाली देश की सबसे बड़ी गैर सरकारी शिक्षण-संस्थान सरस्वती शिशु मंदिर जो पूरे भारत में लगभग 110000 (एक लाख दश हजार ) की संख्या में हैं, ऐसी संस्थाओं में हम बच्चों को न भेजने के अलावां मीशनरियों द्वारा महंगे महंगे स्कूूलों में बच्चों को पढ़ने के लिये भेजते हैं और वो बच्चा जब उस स्कूल में केजी-1 से 12 वीं में पहुंचता है तो ....अपने पापा से पूछता है...पापा हमारे देश में वेद की बड़ी चर्चा होती है..what is veda ...?

लानत हो हमारे देश की मीडिया और धन्यवाद हो सोशल मीडिया ..जिन्होंने ऐसे महान शख्सियत को सुर्खियों में ला दिया...और जरा आप सोचिये ...हमें श्री अवनीश जी के इस कदम ने हमे स्वयं की समीक्षा करने को क्यों मजबूर किया.केवल अधिकारियों को ही क्यों, क्या हम सभी भारतीय लोगों को इस विषय पर सतही चिन्तन व मनन नहीं करना चाहिये....नमन ऐसे महान शख्सियत को धन्यवाद श्री अवनीश जी

- पण्डित विनोेद चौबे, संपादक- ''ज्योतिष का सूर्य''  राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, भिलाई 

ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

रविवार, 2 जुलाई 2017

गोपालकृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जैसे ब्राह्मण होने चाहिये...

गोपालकृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जैसे ब्राह्मण होने चाहिये...

मित्रों, विगत दिनों 'अन्तर्नाद' के एक पूर्व सदस्य ने ''ब्राह्णों को भोजन न कराये जाने एवं पुराण अप्रमाणिक ग्रंथ है'' ऐसा उन्होंने आलेख प्रस्तुत किया जो उनके सतही ज्ञान का प्रदर्शन मात्र था!
इस प्रकार के ''छद्मवेषी और वेद विद्वेषी स्वयं को सनातन धर्म के पैरोकार मानते जरुर हैं ....परन्तु ये लोग ही सनातन धर्म को हानि पहुंचाने का कुटील प्रयास कर रहे हैं...ये लोग अवतारवाद एवं मूर्तिपूजा के विरोधी हैं, और यह बिल्कुल न्यायसंगत और वेदसम्मत भी है परन्तु उस स्थिति तक एक सामान्य साधक इतना शिघ्र वहीं पहुंच सकता, उसके लिये उसे एक सोपान यानी सीढी यानी स्टेप की आवश्यकता होती है, और वह है ''भक्ति मार्ग'' जिसे अपनाकर व्यक्ति राम और कृष्ण जैसे अवतारी देवों की पूजा की जानी चाहिये ताकि हमारे सनातनावलंबीयों को विखरने से बचाया जा सके! आईये अब चर्चा करते हैं'ब्राह्मणों के भोजन व ब्राह्मण पूजन की''    ....(आईए इस विषय पर विस्तृत चर्चा के लिये इस लिंक पर क्लीक करें......    http://ptvinodchoubey.blogspot.in/2017/07/blog-post.html?m=1   )                                               "" यदि जन्म से न हो कर कर्म से जाति मानी जाती तो फिर संस्कारहीन, वेद विमुख तथा पापी लोग पूर्व वाक्यों में ब्राह्मण, क्षत्रियादि (द्विज) क्यों कहे जाते? गौतम (न्याय) सूत्रो के भाष्य में भगवान वात्स्यायन लिखते हैं :

अहो खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इत्युक्‍ते कश्‍चिदाह यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपत् संभवति व्रात्येऽपि संभवेत् व्रात्योपि ब्राह्मण: सोऽप्यस्तु विद्याचरणसंपन्न:।

'देखो यह ब्राह्मण कैसा विद्या तथा आचरण से युक्‍त है - ऐसा सुन कर कोई छलवादी बोला कि यदि ब्राह्मण होने से ही उसमें विद्या और आचरण आ जाते हैं तो फिर संस्कारविहीन-पतित (व्रात्य)-में भी विद्या और आचरण क्यों नहीं होते? क्योंकि वह भी तो ब्राह्मण ही है?' इत्यादि (अ. 1, सू. 54)। अब क्या इतने पर भी संशय रह सकता है? अस्तु, फिर भी उसमें पूजनीयता या प्रतिष्ठा की योग्यता कभी भी नहीं हो सकती, क्योंकि जातिमात्र से कोई भी पूजनीय नहीं हो सकता।""

श्रुतिस्मृती उभे नेत्रे ब्राह्मणस्य प्रकीर्त्तिते।
    एकया रहित: काणो द्वाभ्यामंध उदाहृत:॥ (हारीत)

हिंदू समाज में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊँचा माना जाता है। यद्यपि संन्यासियों की प्रतिष्ठा सबसे बढ़ी-चढ़ी है तथापि हिंदूशास्त्रों के अनुसार दंड कोषाय, वस्त्रदि धारणपूर्वक संन्यास का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है, न कि इतर वर्णों को भी। अत: संन्यासियों की प्रतिष्ठा भी प्रकारांतर से ब्राह्मणों की ही प्रतिष्ठा समझी जानी चाहिए। अब विचारना यह है कि यह प्रतिष्ठा क्यों हुई, हिंदू समाज के ऊपर ब्राह्मणों की इतनी धाक क्यों जम गई, कि आज इस गए-गुजरे जमाने में भी ब्राह्मणों के नाम पर कट मरनेवाले लाखों मनुष्य पाए जाते हैं, ब्राह्मण नाममात्र से ही लोगों की श्रद्धासरित क्यों उमड़ पड़ती है, लोग डर के मारे काँप क्यों उठते हैं, तथा प्रतिदिन उनके खिलाने और पिलाने और देने-लेने में आज भी लाखों रुपए क्यों खर्च किए जाते हैं, जब कि अर्थाभाव के ही कारण सभी देशहित के कार्य रुके पड़े हैं - सार्वजनिक कार्यों के लिए देश के सच्चे नेताओं को दर-दर की खाक छाननी पड़ रही है! क्या कारण है कि संप्रति समाज पर ब्राह्मणों की इस सत्ता के लाखों विरोधियों के रहते हुए भी जनता की भक्‍ति अनेक अंशों में ज्यों की त्यों अटूट बनी हुई है। न केवल हिंदू जनता ने ही, वरन यजुर्वेद ने भी इनको सबसे ऊँची गद्दी दी है, क्योंकि विराट भगवान के मुख का स्थान ब्राह्मणों को दिया है। जैसा कि :

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्य: कृत:।
    उरू तदस्य यद्वैश्य: पद्‍भयां शूद्रो अजायत॥

'विराट् भगवान के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुआ, अथवा मुख स्थानीय हुआ, क्षत्रिय बाहु से या बाहुस्थानीय, वैश्य जंघा से अथवा जंघा स्थानीय और शूद्र पाँव से अथवा पाँवस्थानीय' (यजु. 32/12)। इसी प्रकार जब यजुर्वेद के ही 22वें अध्याय के 22वें मन्त्र में आशीर्वाद या प्रार्थना आई है तो सबसे प्रथम 'आ ब्रह्मन ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम्' द्वारा ब्रह्मतेजो युक्‍त ब्राह्मणों के ही हिंदू समाज में उत्पन्न होने की प्रार्थना की गई है, बाद को क्षत्रियादि की। इसी तरह 'पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसव: समिंधंतां पुनर्ब्रह्मणो वसुनीथ यज्ञै:' (यजु. 12/44) इत्यादि में भी आदित्य आदि देवताओं के बाद ब्राह्मणों का ही नाम लिया गया है। भगवान मनु भी लिखते हैं कि :

विधाता शासिता वक्‍ता मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।
    तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥

'शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करनेवाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता, वेदादि का वक्‍ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करनेवाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं' (मनु; 11-35)। इस सम्बन्ध में और भी अधिक विचार आगे मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदू समाज में ब्राह्मणों का स्थान प्रथम से ही ऊँचा है और सभी ने इसे स्वीकार किया है।

अब यदि इस प्रतिष्ठा, इस गौरव वा उच्च स्थान का कारण ढूँढ़ने चलते हैं तो बहुत दूर जाना नहीं पड़ता। जिन वाक्यों या प्रसंगों में प्रतिष्ठा दी गई है उन्हीं का पर्यालोचन हमें वास्तविक कारण तक निरबाधा पहुँचा देता है। यजुर्वेद के 22वें अध्याय का जो वाक्य पूर्व प्रदर्शित है उससे ही स्पष्ट है कि प्रतिग्रह, जमींदारी, कृषि, पंडागिरी या ढोंग से पेट पालने अथवा द्रव्य कमानेवाले नाममात्र के ब्राह्मणों की कामना नहीं की गई है; यह नहीं कहा गया है कि पेटपाल पांडे उत्पन्न हो कर ढाई सेर अन्न का एक ही बार निस्तार करें, किंतु ब्रह्मतेज: संपन्न ब्रह्मवर्चस्वी शंकर, व्यास, वसिष्ठादि सरीखे तरण तारण ब्राह्मणों के उत्पन्न होने की ही प्रार्थना है, जिनसे जगत का निस्तार हुआ, हो रहा है और होगा। तिलक तथा गोखले जैसे कर्मवीर ब्राह्मणों को ही हम सर्वदा से चाहते और मानते चले आए हैं। किसी की प्रतिष्ठा उसका मुख देख कर कोई नहीं करता और यदि कभी करता भी है तो सहस्रों में कोई। तिस पर भी वह चिरस्थायिनी नहीं हो सकती है। यजुर्वेद ने भी यदि भगवान का मुखरूपी स्थान ब्राह्मणों को दिया है तो केवल परान्नभोजी होने के कारण ही नहीं। जिस मुख से भोजन होता है उसी से प्रथम (भोजन से पूर्व) ही वेद शास्त्रो का पठन-पाठन तथा संसार को सदुपदेश हो लेता है। वही मस्तक ज्ञान का भंडार और सरस्वती का जीता-जागता मन्दिर है। वह ऐसा सरस्वती भवन है जिससे सहस्रों लाभ उठाते हैं और जहाँ चौबीस घंटे सरस्वती देवी की अविच्छिन्न आराधना होती रहती है। यदि पूर्वोक्‍त 12वें अध्याय वाला यजुर्वाक्य ब्राह्मणों का नाम लेता है तो साथ ही वह यह भी कहता है कि 'ब्राह्मणों यज्ञैस्त्वा समिंधान्ताम्' - हे अग्ने, तुम्हें ब्राह्मण लोग यज्ञों द्वारा उद्दीप्त करें। वह यज्ञयाग में जन्म व्यतीत करनेवाले ही कर्मपरायण ब्राह्मणों का नाम लेता है, न कि केवल पेटपरायणों का।

अतएव मनु भगवान ने भी पूर्वलिखित वाक्य द्वारा ब्राह्मणों का स्वाभाविक-जन्मसिद्ध-स्वरूप यही बतलाया है कि वह सत्कर्मों का अनुष्ठान करनेवाले तथा भूतों की हितकामनावाले होते हैं। वह कहते हैं कि सन्मार्ग का उपदेशक तथा पूर्वोक्‍त विशेषतायुक्‍त ही ब्राह्मण कहा जा सकता है। जो ऐसा हो वही पक्का-मानवीय-ब्राह्मण कहलाता है, न कि केवल ब्राह्मणी माता और ब्राह्मण पिता से जन्म होने के कारण ही वह पूज्य हो सकता है। वह ब्राह्मण भले ही कहलाए, क्योंकि जाति जन्म से ही मानी जाती है, न कि कर्मों से। अतएव पतितों-संस्कारहीनों तक को भी मनु ने स्पष्ट ही ब्राह्मण कह दिया है और जो अभी बचे हैं उन्हें ही ब्राह्मण ही कहा है। जैसा कि :

गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
    गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश:॥36॥
    ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्य्यं विप्रस्य पंचमे॥37॥

'गर्भ से आठवें वर्ष में ब्राह्मण का, ग्यारहवें में क्षत्रिय का और बारहवें में वैश्य का उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करे। परंतु यदि व्यास, वसिष्ठादि की तरह ब्रह्मतेजोयुक्‍त होने की इच्छा हो तो ब्राह्मण का पाँच ही वर्ष में कर डाले' (मनु. 2/36,37)। इन श्‍लोकों में संस्कारशून्य बच्चे को भी ब्राह्मण ही कहा है। इसी तरह क्षत्रिय आदि भी। 'अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत' यह वेद (ब्राह्मण) वाक्य भी तो संस्काररहित बच्चों को ब्राह्मण ही कहता है। जब संस्कार ही नहीं हुआ हो तो वेदादि का पढ़ना या वैदिक कर्म करना कब हो सकता है? आगे चल कर 10वें अध्याय में 'ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्यस्त्रायो वर्णा द्विजातय:' मनु. 10/3 आदि वाक्यों द्वारा ब्राह्मणादि तीन वर्णों का नाम द्विज बतलाया है और फिर 11वें अध्याय में भी-

येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि।
    तांश्‍चारयित्वात्रीन्कृच्छ्रान्यथाविध्युपनाययेत्॥191॥

प्रायश्‍चित्तं चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजा:।
    ब्राह्मणा च परित्यक्‍तास्तेषामप्येदादिशेत्॥192॥

'जिन द्विजों का गायत्री (उपनयन) संस्कार यथोचित समय पर विधिवत नहीं हुआ हो उनसे तीन प्रजापत्य व्रत कराके उनका विधिवत उपनयन करवावे। जो द्विज वेद के अध्ययन से वंचित तथा पापकर्मा हों, पर उसका प्रायश्‍चित्त करना चाहें, उनसे भी यही प्रजापत्य व्रत तीन बार करावे' (191-92)। यदि जन्म से न हो कर कर्म से जाति मानी जाती तो फिर संस्कारहीन, वेद विमुख तथा पापी लोग पूर्व वाक्यों में ब्राह्मण, क्षत्रियादि (द्विज) क्यों कहे जाते? गौतम (न्याय) सूत्रो के भाष्य में भगवान वात्स्यायन लिखते हैं :

अहो खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इत्युक्‍ते कश्‍चिदाह यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपत् संभवति व्रात्येऽपि संभवेत् व्रात्योपि ब्राह्मण: सोऽप्यस्तु विद्याचरणसंपन्न:।

'देखो यह ब्राह्मण कैसा विद्या तथा आचरण से युक्‍त है - ऐसा सुन कर कोई छलवादी बोला कि यदि ब्राह्मण होने से ही उसमें विद्या और आचरण आ जाते हैं तो फिर संस्कारविहीन-पतित (व्रात्य)-में भी विद्या और आचरण क्यों नहीं होते? क्योंकि वह भी तो ब्राह्मण ही है?' इत्यादि (अ. 1, सू. 54)। अब क्या इतने पर भी संशय रह सकता है? अस्तु, फिर भी उसमें पूजनीयता या प्रतिष्ठा की योग्यता कभी भी नहीं हो सकती, क्योंकि जातिमात्र से कोई भी पूजनीय नहीं हो सकता। अतएव विद्या तथा तप से विहीन होने पर भी, उसे ब्राह्मण कहते हुए भी, महाभाष्य में भगवान पतंजलि ने अपूजनीय तथा अमान्य ही ठहराया है। जैसा कि :

विद्या तपश्‍च योनिश्‍च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
    विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥

'विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जाएँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता' (पा. 51-115)। इसका आशय कैयट ने इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है :

योनिरिति ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जन्म। ब्राह्मणकारकमिति ब्राह्मणव्यपदेशस्य निमित्तामेतादित्यर्थ:। तप:श्रुताभ्यामिति नासौ परिपूर्णो ब्राह्मण:, जातिलक्षणैकदेशश्रयस्तु तत्रा ब्राह्मणशब्दप्रयोग:।

इसका तात्पर्य प्रथम ही कह चुके हैं। अतएव महाभाष्य के प्रारंभ (पस्पशाह्रिक) में ही लिखा गया है कि :

ब्राह्मणेनाकारणो धर्म: षडंगो वेदोऽधययो ज्ञेयश्‍च।

'यह न विचार कर कि वेदवेदांग के पढ़ने से हमें क्या मिलेगा किंतु अपना धर्म या कर्तव्य समझ कर - यह समझ कर कि ब्राह्मण होने के नाते ही हम उनके पढ़ने को बाध्य हैं -ब्राह्मण लोग छहों अंगों के सहित वेदों को पढ़ें और उनका अर्थ जानें'। संपूर्ण संसार का गुरु बनना कोई मामूली बात नहीं है कि जो ही चाहे वही बन जावे। महान या बड़ा बनने के लिए कुछ परिश्रम करना पड़ता है। काम से ही नाम व प्रतिष्ठा होती है, न कि केवल बातों से। बड़ी-बड़ी बातें करने से ही यदि काम चल जावे तो किसी को भी मगज मारने की आवश्यकता ही क्या थी? इसीलिए भागवतकार ने पंचम स्कंद में कह दिया है कि :

महत्सेवां द्वारमाहु विर्मुक्‍तेस्तमोद्वारं योषितां संगिसंगम्।
    महान्तस्ते समचित्त: प्रशान्ता विमन्यव: सुहृद: साधावो ये॥

'महान पुरुषों की सेवा से कल्याण की प्राप्ति होती है और स्त्री-सेवियों का संग अज्ञान या नरक का द्वार है। महान वही कहलाते हैं जो शत्रु-मित्र भाव से रहित, विषयवासनाविमुक्‍त, क्रोध न करनेवाले, दयालु एवं कोमल हृदय और परोपकारपरायण हुआ करते हैं।'

जिस मनु भगवान ने ब्राह्मणों को उच्च आसन दिया है उन्होंने यह भी कह दिया है कि -

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:।
    यश्‍च विप्रोऽनधयानस्त्रायस्ते नाम बिभ्रति॥157॥

यथा षण्ढोऽफल:स्त्रीषु यथा गौर्गविचाफला।
    यथाचाज्ञेऽफलंदानं तथा विप्रो नृचोऽफल:॥158॥

'जिस तरह काठ का हाथी और चमड़े के हरिण बेकार हैं - सिर्फ देखने के ही काम के हैं - उसी तरह जो ब्राह्मण वेद-शास्त्र का अध्ययन नहीं करता वह भी केवल नाममात्र का ही ब्राह्मण है। जैसे स्त्रियों के लिए नपुंसक, गाय के लिए गाय, और मूर्ख को दिया हुआ दान व्यर्थ है, वैसे ही वेदों का न पढ़ने और न जाननेवाला ब्राह्मण व्यर्थ है' (अ. 2/157-158)। फिर कहते हैं कि :

संमानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
    अमृतस्येव चाकांक्षेदवामानस्य सर्वदा॥162॥

तपोविशेषैर्विविधैर्व्रतैश्‍च विधिचोदित
    वेद: कृत्स्नोऽधिगंतव्य: सरहस्यो द्विजन्मना॥165॥

वेदमेव सदाभ्यसयेत्तपस्तप्स्यन द्विजोत्ताम:।
    वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य तप: परमिहोच्यते॥166॥

'जैसे विष से डरा करते हैं उसी प्रकार ब्राह्मण सदा ही आदर सत्कार से डरा करे और जिस तरह अमृत की इच्छा की जाती है वैसे ही तिरस्कार को नित्य चाहे। अनेक तरह के तप, नियम ओर व्रतादि कर के ब्राह्मण उपनिषदों के सहित संपूर्ण वेदों को यथावत पढ़े और जाने। जब कभी ब्राह्मण को तप करने की आवश्यकता हो तो केवल वेदों का ही अभ्यास (पाठ, विचारादि) किया करे; क्योंकि इस दुनिया में ब्राह्मण के लिए वेदाभ्यास ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है' (अ. 2/162/64)। दान के सम्बन्ध में तो और भी कड़ाईवाला नियम मनु जी ने कहा है। जैसा कि :

ब्राह्मणस्त्वनधीयानस्तृणाग्निरिवशाम्यति।
    तस्मैहव्यंनदातव्यं नहि भस्मनि हूयते॥

'पठन-पाठन से विमुख ब्राह्मण पुआल की आग की तरह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इसी से उसे देवपितृकार्य में कुछ नहीं देना चाहिए, क्योंकि राख या पुआल की अग्नि में हवन नहीं किया जाता।'(अ. 4/168)।

अतपास्त्वनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।190॥
    अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥

तस्मादविद्वान बिभियाद्यस्मात्तस्मात्प्रतिग्रहात्।191॥
    स्वल्पकेनाप्यऽविद्वान हि पंके गौरिव सीदति॥

न वार्यपि प्रयच्छेत्तु वैडालव्रतिके द्विजे।
    न बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि धर्मवित्॥191॥

'जो ब्राह्मण विद्या और तपस्या से रहित होकर भी प्रतिग्रह की इच्छा करता है वह दाता और दान के साथ ही वैसे ही नरक में डूब मरता है जैसे पत्थर की नाव अपने सवारों के साथ डूब जाती है। इसलिए मूर्ख ब्राह्मण सभी प्रकार के दान प्रतिग्रह से डरता रहे, क्योंकि वह थोड़ा भी लेने से कीचड़ में फँसी हुई गाय की तरह कष्ट पाता है। बकध्यानी, बिलारभक्‍त और वेद के न जाननेवाले ब्राह्मणों को धर्मज्ञ पुरुष पानी भी न दे' (अ. 4/190-92)।

त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्‍यर्जितं धनम्।193॥
    दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च॥

यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन।
    तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ॥194॥

'पूर्वोक्‍त तीनों प्रकार के ब्राह्मणों को धर्म से कमाया भी धन यदि दिया जावे तो परलोक में देने तथा लेनेवाले दोनों को नरक ले जाता है। जिस तरह पत्थर की नाव पर चढ़ कर पार जानेवाले पानी में डूब मरते हैं, उसी प्रकार मूर्ख दाता और मूर्ख लेनेवाला दोनों नरक में डूब जाया करते हैं।' (अ. 4/193-94)।

इस दान के विचार प्रसंग में याज्ञवल्क्य ने भी कहा है कि :

देशे काले उपायेन द्रव्यं श्रद्धासमन्वितम्।
    पात्रे प्रदीयते यत्तत्सकलं धर्मलक्षणम्॥

'उत्तम देश और उत्तम काल में शास्त्राक्‍त विधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक जो कुछ पदार्थ दान के योग्य (पात्र) पुरुष को दिया जाता है वही धर्म कहलाता है' (आचा. 6)। जब यह शंका हुई कि अच्छा, तो दान के योग्य पात्र किसे कहते हैं, तो स्वयमेव आगे चल कर दान प्रकरण में कहते हैं कि -

तपस्तप्त्वाऽसृजद् ब्रह्मा ब्राह्मणान्वेदगुप्तये।
    तृप्त्यर्थं पितृदेवानां धर्मसंरक्षणाय च॥

सर्वस्य प्रभवो विप्रा: श्रुताध्ययनशीलिन:।
    तेभ्य: क्रियापरा: श्रेष्ठास्तेभ्योऽप्यधयात्मवित्तमा:॥

न विद्यया केवलयां तपसा वापि पात्रता।
    यत्र वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रं प्रकीर्त्तितम्॥

'वेदों की रक्षा, पितरों तथा देवताओं की तृप्ति और धर्म के प्रचार के ही लिए ब्रह्मा ने तपस्या कर के ब्राह्मणों को उत्पन्न किया। वेदशास्त्रो के पठन-पाठन और विचार में समय बितानेवाले ब्राह्मण सभी लोगों से श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणों में भी शास्त्रोक्‍त धर्म के करनेवाले अन्यों से श्रेष्ठ हैं और उनसे भी श्रेष्ठ अध्यात्मत्व के ज्ञाता हैं। क्योंकि केवल शास्त्र पढ़ लेने से ही कोई दानपात्र नहीं हो सकता, अथवा केवल तप करने मात्र से भी नहीं, किंतु जिस पुरुष में विद्या, तप और शास्त्रोक्‍त कर्मों का अनुष्ठान एवं सदाचार रहता है वही दानपात्र है।' (198-200)।

गोभूतिलहिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम्।
    नापात्रे विदुषा किंचिदात्मन: श्रेय इच्छता॥

विद्यातपोभ्यां हीनेन न तु ग्राह्य: प्रतिग्रह:।
    गृह्‍णन प्रादातारमधो नयत्यात्मानमेव च॥

'गौ, भूमि, तिल, सुवर्णादि पदार्थ सत्कारपूर्वक दानपात्र को धर्मज्ञ पुरुष अपने कल्याण की इच्छा से दे, कुपात्र को कभी न दे। जिसमें विद्या और तप न हो वह प्रतिग्रह स्वीकार न करे। क्योंकि ऐसा करने से अपने साथ दाता को भी नरक मे ले जाता है।' (201-202)। भगवान हारीत ने भी ब्राह्मणों का यथार्थ स्वरूप यों कहा है :

श्रुतिस्मृती उभे नेत्रे ब्राह्मणस्य प्रकीर्त्तिते।
    एकया रहित: काणो द्वाभ्यामन्ध उदाहृत:॥

'वेद और स्मृतियाँ ये दोनों ब्राह्मण की आँखें हैं। यदि केवल वेद या स्मृति मात्र का ही ज्ञाता हो तो उसे काना समझना चाहिए। परंतु दोनों को ही न जानता हो तो अंधा कहलाता है।' मनु जी ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के कारणों के साथ-साथ उनके कर्तव्यों का वर्णन इस तरह किया है :

उत्तमांगोद्‍भवाज्ज्यैष्ठयाद् ब्रह्मणश्‍चैव धारणात्।
    सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मण: प्रभु:॥

तं हि स्वयम्भू: स्वादास्यात्तपस्तप्त्वादितोऽसृजत्।
    हव्यकव्याभिवाह्याय सर्वस्यास्य च गुप्तये॥

'परमात्मा के उत्तम अंग (सिर) से उत्पन्न होने, वर्णों में ज्येष्ठ होने, और वेद शास्त्रों के ज्ञाता होने के कारण इस संपूर्ण सृष्टि का धर्म-विचार से ब्राह्मण ही स्वामी है। क्योंकि ब्रह्मा ने तपस्या कर के देवता तथा पितरों का अंश उनके पास पहुँचाने, एवं संपूर्ण सृष्टि की रक्षा के लिए उसे उत्पन्न किया है।' (अ. 1-93/94) यहाँ 'सर्वस्यास्य च गुप्तये' पद बड़े ही महत्व के हैं। इनका अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण केवल स्वार्थपरायण न हो, किंतु सभी लोगों के हित-अहित, सुख-दु:ख, उन्नति-अवनति तथा उनके कारणों का विचार करता रहे और लोगों के सुख-दु:खों को ही अपना सुख-दु:ख समझे। अतएव उनके निवारणार्थ कटिबद्ध रहे। सारांश, उसे देश का सच्चा नेता तथा हितैषी होना चाहिए। यदि राजनीतिक अवनति देखे तो उसके ही लिए यत्‍न करे। यदि सामाजिक अवनति हो तो उन सामाजिक दोषों के निर्मूल करने का यत्‍न करे जिनसे समाज की दुर्दशा हो रही हो और यदि धार्मिक ह्रास हो तो धर्म का यथावत प्रचार कर के गीता के सिद्धांतानुसार प्रजा की रक्षा करे। गीतावाला सिद्धांत ऐसा है:

अन्नाद्‍भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव:।
    यज्ञाद्‍भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्‍भव:॥

कर्म ब्रह्मोद्‍भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्‍भवम्।
    तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

'अन्न से प्राणियों की उत्पत्ति होती है, वृष्टि से अन्न की, यज्ञ से वृष्टि की, और यज्ञ की अंग-उपांग रूप क्रियाओं द्वारा, क्रियाओं का प्रतिपादिक वेद है, और वेद की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है। इसीलिए यद्यपि सभी वस्तुओं में परमात्मा की सत्ता है, तथापि यज्ञ यज्ञादि क्रियाकलाप में उसकी विशेष रूप से स्थिति है।' (गी. 3/14-15)। जिन दिनों ब्राह्मण हिंदू समाज के सच्चे नेता, तथा उपदेशक थे उन दिनों भारत सभी तरह से धन-धान्य, मान-प्रतिष्ठादि से संपन्न था और जगत का गुरु बनने का दावा गर्व के साथ करता था। उन्हीं दिनों का न कि आजकल की परम पतित अवस्था का स्मरण कर के, भगवान मनु को यह कहने का साहस हुआ था कि :

एतद्‍देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
    स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवा:॥

'ब्रह्मावर्त्त, ब्रह्मर्षि आदि देशों में उत्पन्न ब्राह्मणों से ही पृथ्वी के सभी मनुष्य अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें' (अ. 2/20)। इससे बढ़ कर और प्रतिष्ठा क्या हो सकती है कि समूचे संसार के मस्तक पर रख दिया? सारे संसार का शिरोमणि और गुरु बना दिया; सो भी अभिमान और अकड़ के साथ! यदि स्वप्न में भी मनु महाराज की यह धारणा होती कि सामान्यत: समूचे भारत तथा विशेषरूप से ब्राह्मणों की ऐसी पतितावस्था हो जावेगी जैसी आजकल हो रही है तो क्या यह पूर्वोक्‍त श्‍लोक उनके मुख से कभी भी निकलता? परंतु शायद वह यह असंभव-सा विचार मन में ला ही नहीं सके कि जो सातवें आसमान पर बैठा है कभी वह रसातल के भी नीचे चला जावेगा! सचमुच उस समय-उनके काल में जब कि देशोन्नति के भगवान भास्कर द्वादश कला युक्‍त होकर भारत गगन के मध्य में देदीप्यमान थे  ।।

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे
संपादक - ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलाई,  दूरभाष क्रमांक -९८२७१९८८२८

शनिवार, 1 जुलाई 2017

पुराणों ने पूर्व में ही सृष्टि के अधिष्ठाता विष्णु को 'White Hole एवं रुद्र Black Hole तथा ब्रह्मा को प्रजा सृजक बताया गया है.....(पार्ट-1)

पुराणों ने पूर्व में ही सृष्टि के अधिष्ठाता विष्णु को 'White Hole एवं रुद्र Black Hole तथा ब्रह्मा को प्रजा सृजक बताया गया है.....(पार्ट-1)

वेद को अप्रमाणित कहने वाले आसुरी प्रवृत्ति के फॉलोवरों तुम लोग पुराणों के सरल वाङमय को केवल राजा-रानी के कथा प्रसंगों का पुलिन्दा समझने की भूल मत करो....पुराण वेदों का भाष्य है जिसकी रोचकता के लिये कुछ पात्र सुनिश्चित किये जाते हैं और उन्हीं किरदारों के माध्यम से आज के साईंस से लाखों वर्ष पूर्व ब्रह्माण्डीय समस्त उन विषयों पर रिसर्च किया गया जिस पर आज का विज्ञान पहुंचने या समझने का प्रयास कर रहा है....अब देखिये ना ''महामशीन के माध्यम से सृष्टि के रहस्य को जानने हमारे आधुनिक वैज्ञानिक कितने बेताब हैं, किन्तु सफलता उनको मात्र 'ब्लेक होल' और 'व्हाईट होल' तक ही मिल पाई है, जिसकों लाखों वर्ष पूर्व पूरा वैज्ञानिक ऋषियों ने पुराणों में उल्लेखित कर दिया है ! आप सोच रहे होंगे की आचार्य पण्डित विनोद चौबे जी लाखों वर्ष पूर्व क्यों कह रहे हैं तो मैं जिम्मेदारी के साथ पुन: कह रहा हुं कि लाखों वर्ष पूर्व राम का अवतार हुआ साथ ही तमाम ऋषि वैज्ञानिकों का सानिध्य मिला और उन ऋषियों जो
बांस के खोखले छिद्र से आसमान को निहार कर सूर्य, चंद्र और मंगल आदि ग्रहों की दूरी से लेकर सृष्टि के रहस्यों का दस्तावेजीकरण किया वही आज "18 पुराण" के रुप मे मौजूद है तो आईये उसे आदरणीय माधवाचार्य जी एवं श्री राम शर्मा जी के अलग अलग शोधग्रंथो के अध्ययनोपरांत उस रहस्य को बताता हुं जो "पुराणों को कल्पनाओं का पुलिन्दा कहा करते थे उनके मुंह पर सहस्त्रों तमाचा जड़ता यह आलेख जिसको "अन्तर्नाद मंच पर कल यानी १ जुलाई २०१७ को हुये चर्चा से प्रेरित होकर आज प्रात: छत्तीसगढ के भिलाई स्थित शांतिनगर के अपने निवास वर्षा ऋतु का लाभ उठाते हुये मेढ़कों द्वारा '" पुराण अप्रमाणित है, और वेद प्रमाणित"" ऐसी टर्र टर्र की मण्डूक ध्वनि के प्रतिउत्तर में ''विद्-शंख-ध्वनि' का धामन कर रहा हुं....

संपूर्ण विश्व एक ही अखण्ड विज्ञानघन सत्ता का विकास है चाहे वह ब्रह्म कल्प हो या पद्मकल्प और वराहकल्प भारतीय वाङ्ग्मय में इस विज्ञानात्मक ब्रह्माण्डीय बिकास को कथा रूप के माध्यम से बड़े ही सहज भाव से स्पष्ट किया है यह अन्नतस्तारकित व्योमपथ ही क्षीर समुद्र है इसका मध्याकर्षण क्षेत्र ही उसकी संकर्षणात्मक शेषशय्या है या विश्वरूप से व्यापक व्यपनशील महासत्ता विष्लृ व्यापतौ धातु से निष्पन्न महाविष्णु है जो दिङ्निर्देशक की दृष्टि से आकाशगंगा का केंद्र भाग भी कहा जाता है । सृष्टि के आदिकारण या स्वेत महाविष्णु है यहाँ कमल नाल का रूपक ( आज के भौतिक वैज्ञानिक का बिचार ) साइफन ट्यूब की तरह है जिसके माध्यम से ब्रह्माण्डीय द्रब्य का निक्षेप व्योमपथ पर होता है विज्ञान आज व्हाइट होल के साथ साइफन सिस्टम की कल्पना कर रहा है जिससे विश्व द्रब्य का निक्षेप हुआ है इस नाल पर कमल यहाँ ब्रह्माण्डीय द्रब्य की प्रथम बिकासवस्था का संकेत है कमल पर बिराजमान ब्रह्मा सृष्टि से लेकर उसके पौरुषेय बिकास तक का संपूर्ण प्रतिनिधि है जो इस बहिर्भूत ब्रह्माण्डीय द्रब्य की चरम विकसित अवस्था के स्वरुप को स्पष्ट करता है ब्रह्मा के  चार मुख पौरुषेय प्रज्ञा के चतुर्मुखी  व सर्वतोमुखी बिकाश के सूचक है प्रतीकों से युक्त इनकी चार भुजाएं धर्म ,अर्थ,काम,मोक्ष, इन चारों अर्थो को स्पष्ट करती है ये भारतीय वाङ्ग्मय में पुरुषार्थ या पुरुष के अर्थरूप में सर्वत्र प्रसिद्ध है पुरुषार्थ का अर्थ है -- पुरुष की सक्रियता कर्मक्षमता के संदर्भ में व्यापक अर्थबोध जो उपयुक्त चारभागो में विभक्त ब्रह्मा के चारो हाथो द्वारा स्पष्ट किया गया है ।क्षीरसागर पर विश्वद्रब्य का वाचक महाविष्णु अकेले नही विश्वद्रब्य को परिणामोन्मुख करने वाली श्रीरूपा माहशक्ति वहां विद्यमान है देवऋषि नारद वीणा सहित वहां सन्मुख है नार ,का, अर्थ , जल  द का अर्थ है  देनेवाला । जगत और जीवन दोनों  का आधार जल है इस लिए यहाँ देवऋषि नारद इस विज्ञान कथा में प्रस्तुत है । विश्व का निर्माता और संचालकतत्व  नाद  है  सारीसृष्टि नादमुखर है संपूर्ण ब्रह्माण्ड संगीत से आपूरित है अतः देवऋषि के हाथ में वीणा अपने प्रतिकभुत विज्ञानर्थ को स्पष्ट करती है इस अन्तस्तारकित (interstellar) आकाशरूपी क्षीरसागर में मध्याकर्षण क्षेत्र स्वरुप शेषशय्या पर सोया हुआ महाविष्णु विशिष्ट प्रतीकों से युक्त है जिनमे एक तो नाभि से होता बहिर्भूत होता हुआ द्रब्यस्थानीय कमलनाल है जिस पर पूर्ण पुरुष ब्रह्मा है जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके विष्णु स्वयं अपने चार हाथो में चक्र, गदा, पद्म, और शंख से युक्त है विष्णु का सुदर्शन चक्र इन ब्रह्माण्डीय द्रव्यो की सर्वदा विद्यमान चक्रगति है वही विश्वद्रब्य को संपूर्ण ब्रह्माण्डीय बिकाश में बदलती है यही विष्णु के हाथ में घूमते हुए सुदर्शनचक्र का निदानभुत अर्थ है गदा सृष्टि के विकास में उत्पन्न होने वाली अवरोधक के अप्रसारण का प्रतिक है कमल ब्रह्माण्डीय संरचना का प्रतिक है नाभोगंगा के  बिस्तार को  वैज्ञानिक एक मुख्य प्रोजेक्शन थाल की तरह देखते है ऋषियों ने कोटि कोटि ब्रह्माण्डो की सर्वतोमुखी व्यापति को लक्ष्य में रख कर एक कमल की तरह देखा शंख जैव सृष्टि का प्रतिक है पृथ्वी के प्रारम्भिक बिकाश  के इतिहास में शंख प्रतिनिधि रूप है विष्णु के उदर से सम्भूत होने के कारण उपादान कारण की दृष्टि से सृष्टि के प्रत्येक कण को विष्णु कहा गया है पदार्थ की मौलिक स्वरुप की दृष्टि से इस # सर्वम # को सर्वं विष्णुमयं जगत् कहा जाता है यह विश्व महा विष्णु तत्व की समष्टि है विष्णु शब्द का व्याकरण  वा विज्ञानलभ्य अर्थ है -- एक अद्वितिय व्यापनशीलतत्व आकाशगंगा में फैले हुए अनेक छोटे बड़े तारे स्वयं हिरण्यगर्भ विष्णु है जो सृष्टि की संरचना में बिस्फोटक्रम से प्रवृत होते है ये सभी आदि हिरण्यगर्भ विष्णु से बहिर्भूत होते हुए तारो के रूप में प्रोद् भासित हो रहे है हमारा सूर्य भी एक मध्यम परिणाम हिरण्यगर्भ विष्णु है संरचनात्मक कालभेद के अनुसार इसके मण्डल की द्रब्यम्य स्थितियां बदलती रहती है उसी के अनुसार उसका वर्णभेद वा रंगभेद होता है

नाभोभौतिक विज्ञान (astrophysics) के आचार्य अनन्त दूरियों पर विस्तीर्ण इन हिरण्यगर्भो के वर्ण भेद द्वारा इनके द्रब्यमय क्रियात्मक स्वरुप को निर्धारण करता है भारतीय पुराण परम्परा के अनुसार विष्णु स्वेतवर्ण विशिष्ट है तत्वतः स्वेत होते हुए भी वे कालद्रब्य के फलस्वरूप उपाधिभेद से कभी रक्त वर्ण तो कभी कृष्णवर्ण प्रतीत होते है इस वर्ण परिवर्तन के अनुसार उस एक ही तत्व के तीन नाम है

१-स्वेतवर्ण -- विष्णु
२- रक्तवर्ण -- ब्रह्मा
३- कृष्णवर्ण --शिव  वा रूद्र

भागवत पुराण के अनुसार यही उस एक तत्व की वर्ण व्यवस्था वा रंगभेद स्थिति है

स त्वम त्रिलोकस्थितये विभर्षि शुक्लम् खलु वर्णात्मन ।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णम् च वर्णं तमसा जनात्यये ।।
यह स्वेतवर्ण विष्णु ही विज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो white hole  का परम भारस्वरूप है जिससे हिरण्यगर्भ की सृष्टि होती है कृष्णवर्ण रूद्र ही  black hole  का पर्याय है जो अपने ही भीतर सब कुछ निगल लेता है यही  black hole  कालान्तर में स्वेत विष्णु white hole के रूप में पुनः प्रस्तुत होता है श्रुति में यह विज्ञान बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा गया है यह रूद्र ही सभी शक्ति स्वरुप देवो को उतपन्न करता है

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः । हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥श्वेताश्वर उपनिषद ४/ १२ ॥
रूद्र को विश्व के आधारतत्व के रूप में ग्रहण करते हुए श्रुति उसके क्रियात्मक स्वरुप का उल्लेख इस प्रकार करती है वह रूद्र अपनी नियामक शक्ति द्वारा सभी लोको का नियमन करता हुआ अन्य का आश्रय नही लेता वह संहार रूप वा संकोच रूप होकर  सभी जीवो के भीतर संस्थित है वही प्रलयकाल में इन सब को अपने भीतर समेट लेता है यहाँ मन्त्र में रूद्र की क्रियात्मक अवस्था को स्पष्ट करने के लिए संचुकोच क्रिया विशेषतया ध्यान देने योग्य है संचुकोच का शाब्दिक अर्थ है - अपने में संकुचित कर लिया जो black hole की प्रमुख क्रियात्मक अवस्था है

एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः । प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ॥श्वेताश्वरौपनिषत्  ३/२।।
अंतिम पंक्ति का संकेत white hole के सृजन अर्थ में है पिछले मन्त्र में इसे शब्दतः स्पष्ट कर दिया गया है
#हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्वम #
अर्थात प्रलय के पूर्व रूद्र ने ही हिरण्यगर्भ को उतपन्न किया था यह देखाजाय तो रूद्र की घोर मूर्ति है श्रुति में अघोर मूर्ति का नाम विष्णु है इसे यों भी कहा जा सकता है विष्णु ही अवर्ण (वर्णरहित) या कृष्णमूर्ति रूद्र है कृष्णवर्ण दृष्टि का अविषय होने के कारण अवर्ण कृष्ण या ब्लैक है यही अर्थ है यहाँ उपनिषद में स्पष्ट हुआ है रूद्र अवर्ण या कृष्ण वर्ण होते हुए भी निहित अर्थ वाला है -अर्थात प्रयोजन युक्त वाला है इस लिए सृष्टि के प्रयोजन काल में अनेक प्रकार के शक्तियों के सर्जनात्मक समन्वय के द्वारा अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो वह ब्रह्मा - विष्णु आदि विभिन्न भेदो से भेद्य नही है अन्त में वह रूद्र ही इस विश्व को अपने भीतर विलीन कर लेता है यहाँ व्येति पद -वी + एती जिसका अर्थ है विलीन हो जाना या विशेष रूप से लीन हो जाना  निम्नमंत्र का स्पष्ट एवम संक्षिप्त अर्थ है जो रंग रूप आदि से रहित होकर भी छिपे हुए प्रयोजन से युक्त होने के कारण विविध शक्तियों के सम्बन्ध से विश्व के प्रारम्भ में अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है एवम अन्त में संपूर्ण उसमे विलीन हो जाता है वह परम देव् एक है वह हमें शुभ बुद्धि से युक्त करे ।
य एकोSवर्ण बहुदाशक्तियोगाद् वर्णानानेकान निहितार्थों दधाती ।
वी चैती चान्तो विश्वमादौ स देव्: स न बुद्धया शुभाया संयुक्तु ।।

(पार्ट-2) क्रमश:

-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे,

संपादक - 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिनगर, भिलााई

MOBIL NO.9827198828

पुराणों पूर्व में ही सृष्टि के अधिष्ठाता विष्णु को 'White Hole एवं रुद्र Black Hole तथा ब्रह्मा को प्रजा सृजक बताया गया है.....(पार्ट-1)


वेद को अप्रमाणित कहने वाले आसुरी प्रवृत्ति के फॉलोवरों या पुराणों के सरल वाङमय को केवल राजा-रानी के कथा प्रसंगों का पुलिन्दा समझने की भूल मत करो....पुराण वेदों का भाष्य है जिसकी रोचकता के लिये कुछ पात्र सुनिश्चित किये जाते हैं और उन्हीं किरदारों के माध्यम से आज के साईंस से लाखों वर्ष पूर्व ब्रह्माण्डीय समस्त उन विषयों पर रिसर्च किया गया जिस पर आज का विज्ञान पहुंचने या समझने का प्रयास कर रहा है....अब देखिये ना ''महामशीन के माध्यम से सृष्टि के रहस्य को जानने हमारे आधुनिक वैज्ञानिक कितने बेताब हैं, किन्तु सॆफलता उनको मात्र ब्लेक होल और व्हाईट होल तक ही मिल पाई है, जिसकों लाखों वर्ष पूर्व पूरा वैज्ञानिक ऋषियों ने पुराणों में उल्लेखित कर दिया है ! आप सोच रहे होंगे की महाराज लाखों वर्ष पूर्व क्यों कह रहे हैं तो मैं जिम्मेदारी के साथ पुन: कह रहा हुं कि लाखों वर्ष पूर्व राम का अवतार हुआ साथ ही तमाम ऋषि वैज्ञानिकों का सानिध्य मिला और उन ऋषियों जो द


बांस के खोखले छिद्र से आसमान को निहार कर सूर्य, चंद्र और मंगल आदि ग्रहों की दूरी से लेकर सृष्टि के रहस्यों का दस्तावेजी करण किया वह आज "18 पुराण" के रुप में मौजूद है तो आईये उसे आदरणीय माधवाचार्य जी एवं श्री राम शर्मा जी के अलग अलग शोधग्रंथो के अध्ययनोपरांत उस रहस्य को बताता हुं जो "पुराणों को कल्पनाओं का पुलिन्दा कहा करते थे उनके मुंह पर सहस्त्रों तमाचा जड़ता यह आलेख जिसको "अन्तर्नाद मंच पर कल यानी १ जुलाई २०१७ को हुये चर्चा से प्रेरित होकर आज प्रात: छत्तीसगढ के भिलाई स्थित शांतिनगर के अपने निवास वर्षा ऋतु का लाभ उठाते हुये मेढ़कों द्वारा '" पुराण अप्रमाणित है, और वेद प्रमाणित"" ऐसी टर्र टर्र की मण्डूक ध्वनि के प्रतिउत्तर में ''विद्-शंख-ध्वनि' का धामन कर रहा हुं.... आज के न


 


संपूर्ण विश्व एक ही अखण्ड विज्ञानघन सत्ता का विकास है चाहे वह ब्रह्म कल्प हो या पद्मकल्प और वराहकल्प भारतीय वाङ्ग्मय में इस विज्ञानात्मक ब्रह्माण्डीय बिकास को कथा रूप के माध्यम से बड़े ही सहज भाव से स्पष्ट किया है यह अन्नतस्तारकित व्योमपथ ही क्षीर समुद्र है इसका मध्याकर्षण क्षेत्र ही उसकी संकर्षणात्मक शेषशय्या है या विश्वरूप से व्यापक व्यपनशील महासत्ता विष्लृ व्यापतौ धातु से निष्पन्न महाविष्णु है जो दिङ्निर्देशक की दृष्टि से आकाशगंगा का केंद्र भाग भी कहा जाता है । सृष्टि के आदिकारण या स्वेत महाविष्णु है यहाँ कमल नाल का रूपक ( आज के भौतिक वैज्ञानिक का बिचार ) साइफन ट्यूब की तरह है जिसके माध्यम से ब्रह्माण्डीय द्रब्य का निक्षेप व्योमपथ पर होता है विज्ञान आज व्हाइट होल के साथ साइफन सिस्टम की कल्पना कर रहा है जिससे विश्व द्रब्य का निक्षेप हुआ है इस नाल पर कमल यहाँ ब्रह्माण्डीय द्रब्य की प्रथम बिकासवस्था का संकेत है कमल पर बिराजमान ब्रह्मा सृष्टि से लेकर उसके पौरुषेय बिकास तक का संपूर्ण प्रतिनिधि है जो इस बहिर्भूत ब्रह्माण्डीय द्रब्य की चरम विकसित अवस्था के स्वरुप को स्पष्ट करता है ब्रह्मा के  चार मुख पौरुषेय प्रज्ञा के चतुर्मुखी  व सर्वतोमुखी बिकाश के सूचक है प्रतीकों से युक्त इनकी चार भुजाएं धर्म ,अर्थ,काम,मोक्ष, इन चारों अर्थो को स्पष्ट करती है ये भारतीय वाङ्ग्मय में पुरुषार्थ या पुरुष के अर्थरूप में सर्वत्र प्रसिद्ध है पुरुषार्थ का अर्थ है -- पुरुष की सक्रियता कर्मक्षमता के संदर्भ में व्यापक अर्थबोध जो उपयुक्त चारभागो में विभक्त ब्रह्मा के चारो हाथो द्वारा स्पष्ट किया गया है ।क्षीरसागर पर विश्वद्रब्य का वाचक महाविष्णु अकेले नही विश्वद्रब्य को परिणामोन्मुख करने वाली श्रीरूपा माहशक्ति वहां विद्यमान है देवऋषि नारद वीणा सहित वहां सन्मुख है नार ,का, अर्थ , जल  द का अर्थ है  देनेवाला । जगत और जीवन दोनों  का आधार जल है इस लिए यहाँ देवऋषि नारद इस विज्ञान कथा में प्रस्तुत है । विश्व का निर्माता और संचालकतत्व  नाद  है  सारीसृष्टि नादमुखर है संपूर्ण ब्रह्माण्ड संगीत से आपूरित है अतः देवऋषि के हाथ में वीणा अपने प्रतिकभुत विज्ञानर्थ को स्पष्ट करती है इस अन्तस्तारकित (interstellar) आकाशरूपी क्षीरसागर में मध्याकर्षण क्षेत्र स्वरुप शेषशय्या पर सोया हुआ महाविष्णु विशिष्ट प्रतीकों से युक्त है जिनमे एक तो नाभि से होता बहिर्भूत होता हुआ द्रब्यस्थानीय कमलनाल है जिस पर पूर्ण पुरुष ब्रह्मा है जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके विष्णु स्वयं अपने चार हाथो में चक्र, गदा, पद्म, और शंख से युक्त है विष्णु का सुदर्शन चक्र इन ब्रह्माण्डीय द्रव्यो की सर्वदा विद्यमान चक्रगति है वही विश्वद्रब्य को संपूर्ण ब्रह्माण्डीय बिकाश में बदलती है यही विष्णु के हाथ में घूमते हुए सुदर्शनचक्र का निदानभुत अर्थ है गदा सृष्टि के विकास में उत्पन्न होने वाली अवरोधक के अप्रसारण का प्रतिक है कमल ब्रह्माण्डीय संरचना का प्रतिक है नाभोगंगा के  बिस्तार को  वैज्ञानिक एक मुख्य प्रोजेक्शन थाल की तरह देखते है ऋषियों ने कोटि कोटि ब्रह्माण्डो की सर्वतोमुखी व्यापति को लक्ष्य में रख कर एक कमल की तरह देखा शंख जैव सृष्टि का प्रतिक है पृथ्वी के प्रारम्भिक बिकाश  के इतिहास में शंख प्रतिनिधि रूप है विष्णु के उदर से सम्भूत होने के कारण उपादान कारण की दृष्टि से सृष्टि के प्रत्येक कण को विष्णु कहा गया है पदार्थ की मौलिक स्वरुप की दृष्टि से इस # सर्वम # को सर्वं विष्णुमयं जगत् कहा जाता है यह विश्व महा विष्णु तत्व की समष्टि है विष्णु शब्द का व्याकरण  वा विज्ञानलभ्य अर्थ है -- एक अद्वितिय व्यापनशीलतत्व आकाशगंगा में फैले हुए अनेक छोटे बड़े तारे स्वयं हिरण्यगर्भ विष्णु है जो सृष्टि की संरचना में बिस्फोटक्रम से प्रवृत होते है ये सभी आदि हिरण्यगर्भ विष्णु से बहिर्भूत होते हुए तारो के रूप में प्रोद् भासित हो रहे है हमारा सूर्य भी एक मध्यम परिणाम हिरण्यगर्भ विष्णु है संरचनात्मक कालभेद के अनुसार इसके मण्डल की द्रब्यम्य स्थितियां बदलती रहती है उसी के अनुसार उसका वर्णभेद वा रंगभेद होता है



नाभोभौतिक विज्ञान (astrophysics) के आचार्य अनन्त दूरियों पर विस्तीर्ण इन हिरण्यगर्भो के वर्ण भेद द्वारा इनके द्रब्यमय क्रियात्मक स्वरुप को निर्धारण करता है भारतीय पुराण परम्परा के अनुसार विष्णु स्वेतवर्ण विशिष्ट है तत्वतः स्वेत होते हुए भी वे कालद्रब्य के फलस्वरूप उपाधिभेद से कभी रक्त वर्ण तो कभी कृष्णवर्ण प्रतीत होते है इस वर्ण परिवर्तन के अनुसार उस एक ही तत्व के तीन नाम है


१-स्वेतवर्ण -- विष्णु

२- रक्तवर्ण -- ब्रह्मा

३- कृष्णवर्ण --शिव  वा रूद्र


भागवत पुराण के अनुसार यही उस एक तत्व की वर्ण व्यवस्था वा रंगभेद स्थिति है


स त्वम त्रिलोकस्थितये विभर्षि शुक्लम् खलु वर्णात्मन ।

सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णम् च वर्णं तमसा जनात्यये ।।

यह स्वेतवर्ण विष्णु ही विज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो white hole  का परम भारस्वरूप है जिससे हिरण्यगर्भ की सृष्टि होती है कृष्णवर्ण रूद्र ही  black hole  का पर्याय है जो अपने ही भीतर सब कुछ निगल लेता है यही  black hole  कालान्तर में स्वेत विष्णु white hole के रूप में पुनः प्रस्तुत होता है श्रुति में यह विज्ञान बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा गया है यह रूद्र ही सभी शक्ति स्वरुप देवो को उतपन्न करता है


यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः । हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥श्वेताश्वर उपनिषद ४/ १२ ॥

रूद्र को विश्व के आधारतत्व के रूप में ग्रहण करते हुए श्रुति उसके क्रियात्मक स्वरुप का उल्लेख इस प्रकार करती है वह रूद्र अपनी नियामक शक्ति द्वारा सभी लोको का नियमन करता हुआ अन्य का आश्रय नही लेता वह संहार रूप वा संकोच रूप होकर  सभी जीवो के भीतर संस्थित है वही प्रलयकाल में इन सब को अपने भीतर समेट लेता है यहाँ मन्त्र में रूद्र की क्रियात्मक अवस्था को स्पष्ट करने के लिए संचुकोच क्रिया विशेषतया ध्यान देने योग्य है संचुकोच का शाब्दिक अर्थ है - अपने में संकुचित कर लिया जो black hole की प्रमुख क्रियात्मक अवस्था है


एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः । प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ॥श्वेताश्वरौपनिषत्  ३/२।।

अंतिम पंक्ति का संकेत white hole के सृजन अर्थ में है पिछले मन्त्र में इसे शब्दतः स्पष्ट कर दिया गया है

#हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्वम #

अर्थात प्रलय के पूर्व रूद्र ने ही हिरण्यगर्भ को उतपन्न किया था यह देखाजाय तो रूद्र की घोर मूर्ति है श्रुति में अघोर मूर्ति का नाम विष्णु है इसे यों भी कहा जा सकता है विष्णु ही अवर्ण (वर्णरहित) या कृष्णमूर्ति रूद्र है कृष्णवर्ण दृष्टि का अविषय होने के कारण अवर्ण कृष्ण या ब्लैक है यही अर्थ है यहाँ उपनिषद में स्पष्ट हुआ है रूद्र अवर्ण या कृष्ण वर्ण होते हुए भी निहित अर्थ वाला है -अर्थात प्रयोजन युक्त वाला है इस लिए सृष्टि के प्रयोजन काल में अनेक प्रकार के शक्तियों के सर्जनात्मक समन्वय के द्वारा अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो वह ब्रह्मा - विष्णु आदि विभिन्न भेदो से भेद्य नही है अन्त में वह रूद्र ही इस विश्व को अपने भीतर विलीन कर लेता है यहाँ व्येति पद -वी + एती जिसका अर्थ है विलीन हो जाना या विशेष रूप से लीन हो जाना  निम्नमंत्र का स्पष्ट एवम संक्षिप्त अर्थ है जो रंग रूप आदि से रहित होकर भी छिपे हुए प्रयोजन से युक्त होने के कारण विविध शक्तियों के सम्बन्ध से विश्व के प्रारम्भ में अनेक रूप और रंग धारण कर लेता है एवम अन्त में संपूर्ण उसमे विलीन हो जाता है वह परम देव् एक है वह हमें शुभ बुद्धि से युक्त करे ।

य एकोSवर्ण बहुदाशक्तियोगाद् वर्णानानेकान निहितार्थों दधाती ।

वी चैती चान्तो विश्वमादौ स देव्: स न बुद्धया शुभाया संयुक्तु ।।



(पार्ट-2) क्रमश:


-ज्योतिषाचार्य पण्डित विनोद चौबे,


संपादक - 'ज्योतिष का सूर्य' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शांतिवगर, भिलााई


MOBIL NO.9827198828

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