ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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गुरुवार, 14 जुलाई 2011

कैसे चमकेगा आपका भाग्य ???


कैसे चमकेगा आपका भाग्य ???
''भाग्यम फलति सर्वदा न च विद्या न च पौरूषम''
भाग्य या किस्मत ऐसे शब्द हैं जिन पर सामान्यत: सभी लोग विश्वास करते हैं। कुछ लोग कर्मों के प्रभाव को अधिक महत्व देते हैं लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में कई बार अच्छे कर्मों के बाद भी दुख झेलना पड़ जाते हैं। ऐसे में भाग्य या किस्मत की बात कही जाती है। यदि कोई व्यक्ति अत्यधिक दुखों से परेशान हैं तो उसे ज्योतिष में बताए गए अचूक उपाय अपनाने चाहिए।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हर व्यक्ति की कुंडली में विभिन्न ग्रह दोषों के प्रभाव से दुखों की प्राप्ति होती है। यदि संबंधित ग्रह का उचित उपचार कर लिया जाए तो उसके बुरे प्रभावों से छुटकारा मिल सकता है। कुंडली में 9 ग्रह होते हैं जो अपनी अलग-अलग स्थितियों के अनुसार भाग्य का निर्माण करते हैं। इन 9 ग्रहों में 7 तो सामान्य ग्रह है लेकिन 2 ग्रह राहु और केतु छाया ग्रह हैं।
सामान्यत: राहु और केतु को अच्छा ग्रह नहीं माना जाता है। इनकी अलग-अलग स्थितियों से कई ग्रह दोष बनते हैं। यदि राहु अशुभ स्थिति में हो तो व्यक्ति को हमेशा ही दुखों का सामना करना पड़ता है। हर क्षेत्र में असफलता मिलती है और समाज, परिवार में सम्मान नहीं मिलता। ऐसे में राहु ग्रह के दोषों को कम करने के लिए लाल किताब में एक सटीक उपाय बताया गया है। इसके अनुसार किसी भी पवित्र नदी में खोटे सिक्के प्रवाहित करने होते हैं। ध्यान रहे नदी में बहता पानी होना चाहिए। रुके हुए पानी में सिक्के बहाने से लाभ प्राप्त नहीं होगा। इसके साथ प्रतिदिन हनुमान चालिसा का पाठ करें और शनिवार को शनि के निमित्त तेल का दान करें।
(निःशुल्क सेवा के लिए-मेल
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-ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे महाराज-09827198828

बुधवार, 13 जुलाई 2011

ज्योतिष में भाग्योश गुरू की महिमा

ज्योतिष में भाग्योश गुरू की महिमा ( 15/7/2011गुरू पूर्णिमा पर विशेष)
वेद,पुराण,शास्त्र,उपनिषद इत्यादि सभी गुरू की महिमा अपरम्पार है। केवल आध्यात्म ही नहीं बल्कि ज्योतिष में भी यही कहा गया है कि आत्मिक उन्नति के लिए गुरू की सहयोग जरूरी है। वगैर इसके मनुष्य के आत्म कल्याण का द्वार नहीं खुल सकता।
सामान्य जीवन क्रम में माता,पिता और शिक्षा देने वाले गुरू को देव माना गया है और उनकी अभ्यर्थना, सेवा समान रूप से करते रहने का निर्देश दिया गया है। सामान्य अर्थ में हम एक शिक्षक को गुरू कह लेते हैं। साक्षरता का अभ्यास कराने वाले, दस्तकारी, कला, व्यायाम आदि क्रिया कौशलों को सीखाने वाले, आध्यात्म का मार्ग दिखाने वाले तथा ओर तो ओर असाधारण चातुर्य में प्रवीण हरफनमौला तीन तिकडमी आदमी को भी व्यंग्य भाव से "गुरू" कह दिया जाता है। अब यह तो प्रचलन की बात हुई--जिसमें नुक्ताचीनी करने की न तो गुंजाईश ही है ओर न ही कोई जरूरत। वैसे आज के इस युग में गुरूओं का वर्तमान स्वरूप कुछ ऎसी स्थिति में पहुँच चुका है कि जिसे देखकर कोई भी विचारशील व्यक्ति इसे अनावश्यक ही नहीं बल्कि अवांछनीय भी कह सकता है।
खैर हम बात करते हैं वैदिक ज्योतिष की, यहाँ जिस गुरू तत्व की महिमा और आवश्यकता का निरूपण किया गया है----वह इस प्रचलित विडम्बना के साथ कैसा भी कोई तालमेल नहीं रखता। इनमें सिर्फ शब्द साम्य भर है जब कि तात्विक अन्तर तो उनके बीच में जमीन आसमान जितना है। ग्रन्थों में वर्णित गुरू और आज के प्रचलित गुरू वस्तुत: एक दूसरे से सर्वदा भिन्न है।    
जिस गुरू ग्रह की महिमा का बखान वैदिक ज्योतिष में ग्रन्थकारों द्वारा किया गया है, "यत्पिण्डे च ब्राह्मंडे" के सिद्धान्तानुसार वह वस्तुत: हमारा मानवी अन्त:करण ही है। निरन्तर सदशिक्षण और उर्ध्वगमन का प्रकाश दे सकना इसी केन्द्र तत्व के लिए सम्भव है। इन्सान को जीवन में पग पग पर---क्षण प्रतिक्षण किसी न किसी समस्या से दोचार होना पडता ही रहता है। इनमें से किस समस्या का किस प्रकार समाधान किया जाए?---इसके मार्गदर्शन के लिए किसी व्यक्ति विशेष पर तो निर्भर रहा नहीं जा सकता, भले ही वो कितना भी विद्वान क्यूं न हो। और वैसे भी दूसरों की स्थिति में भिन्नता रहने से परामर्श का स्तर तो बदल ही जाता है-----इसलिए आवश्यक नहीं कि किसी के द्वारा दिया गया परामर्श हमेशा सही ही निकले। तो फिर वो गुरू (या कहें कि मार्गदर्शक) कौन है जिसके बारे में ये तक कहा जाता है कि वो डूबते हुए को उबार देता है-----वास्तव में वो गुरु है हमारा अन्त:करण।
अपने अन्त:करण(गुरू) को निरन्तर कुचलते रहने से, उसकी आवाज को अनसुनी करते रहने से आत्मा(सूर्य) की आवाज मन्द पडती जाती है। पग पग पर अत्यन्त आवश्यक और अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रकाश देते रहने का उसका क्रम शिथिल होने लगता है। आत्मा की अवज्ञा करते रहने वालों को ही दुर्बुद्धिग्रस्त और दुष्कर्मों में लिप्त पाया जाता है अन्यथा सजीव आत्मा की प्रेरणा सामान्य स्थिति में इतनी प्रखर होती है कि कुमार्ग का अनुसरण कर सकना मनुष्य के लिए संभव ही नहीं होता। इस आत्मिक प्रखरता को जागृ्त बनाए रखना ही गुरू का कार्य है। जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में पंचमे  पर गुरू (भाग्येश) की दृ्ष्टि हो तो ऎसा व्यक्ति मानवोचित चिन्तन कर्तृ्व्य से कभी विरत नहीं हो सकता। जैसे ही अचिन्त्य चिन्तन मन:क्षेत्र में(चन्द्रमा पर दूषित प्रभाववश) उभरता है, वैसे ही उसका प्रतिरोधी "गुरूत्व" उसके दुष्परिणामों के संबंध में सचेत करता है और भीतर ही भीतर (ग्रहों के सामूहिक प्रभाववश) एक अन्तर्द्वन्द उभरने लगता है। यदि अन्त:चेतना(गुरू) को कुचल कुचल कर मूर्च्छित न किया गया हो तो वह इतनी प्रखर होती है कि अचिन्त्य चिन्तन(राहू) के साथ विद्रोह खडा कर देती है और उस अवांछनीय विजातीय तत्व के पैर उखाड कर ही दम लेती है।
मानव के रक्त में विद्यमान श्वेतकण(केतु) शरीर में रोग विषाणुओं के प्रवेश करते ही उनसे लडने के लिए एकत्रित हो जाते हैं और उन विषाणुओं को पूरी तरह से खदेड देने तक प्रबल संघर्ष करते रहते हैं। रक्त को पहले से ही विषाक्त बना लिया गया हो तो बात दूसरी है अन्यथा ये श्वेत रक्त कण शरीर को रोगों के आक्रमण से बचाए रखने के अपने उत्तरदायित्व का पूरी तरह् से निर्वहण करते हैं। ठीक उसी प्रकार से चेतना के क्षेत्र में अन्त:करण(गुरू) द्वारा यही उत्तरदायित्व निभाया जाता है। अनैतिक और निकृ्ष्ट स्तर का कोई विचार(राहू) उस मस्तिष्क में देर तक अपने पैर नहीं जमा सकता; जिसका संरक्षण आन्तरिक "गुरू" सतर्कतापूर्वक कर रहा है। सदविचारों की रक्षा पंक्ति को भेदकर मानवी चेतना(चन्द्रमा) पर दुर्विचारों का आधिपत्य जम सकना तभी संभव होता है जब अन्तरात्मा(सूर्य) मूर्च्छित या मृ्तक स्थिति में पहुँचा दी गई हो।
आप सब भली भान्ती जानते हैं कि जीवन में कैसा भी कोई कुकर्म, अनैतिक कार्य करते समय हमारा अन्त:करण अपना विद्रोह अवश्य प्रकट करता है। यदि कुंडली में शनि शुभ प्रभाव में हुआ तो पैरों का कांपना, सूर्य के शुभ होने पर ह्रदय गति बढ जाना, मंगल शुभ होने पर पसीना आना, चन्द्र के शुभ होने से गला सूखना तथा केतु के शुभ होने से चक्कर आना इत्यादि ओर भी न जाने क्या क्या घटित होने लगता है। यदि ध्यानपूर्वक देखें तो अनैतिक कर्म की ओर कदम बढाते समय हमारे शरीर की भीतरी स्थिति कुछ ऎसी होती है कि मानो किसी निरीह पशु को वध करने के लिए ले जाते हुए कातर निरीह स्थिति में देखा जा रहा हो। सामान्य व्यक्तियों में से अधिकांश की आन्तरिक स्थिति ऎसी हो जाती है कि वे उस अवांछनीय कार्य को पूरा कर ही नहीं पाते, विचार अधूरा छोडकर या असफल होकर वापिस लौट आते हैं। वस्तुत: यह पराजय------यह असफलता हमारे शरीर में स्थित ग्रहों के सामूहिक प्रभाववश उत्पन हुए उस अन्तर्द्वन्द द्वारा ही की गई होती है, जो कुकृ्त्य न करने के पक्ष में प्रबल प्रतिपादन कर रहे थे। मन(चन्द्रमा), आत्मा(सूर्य),स्नायु(शनि),रक्त(मंगल) इत्यादि सभी अपने अपने तरीके से मानवी अन्त:करण(गुरू) के रक्षार्थ तत्पर रहते हैं।
"गुरू डूबते हुए को उबारते हैं" वाली उक्ति की सत्यता जीवन मे कुछ ऎसी ही परिस्थितियों के समय देखने को मिलती है।

सावन के महीनेमें पांच शुक्रवार, पांच शनिवार और पांच रविवार

 सावन के महीनेमें   पांच शुक्रवार, पांच शनिवार और पांच रविवार
तीस साल बाद सावन में पड़ रहे पांच शुक्रवार, शनिवार और रविवार यानी ट्रिपल फाइव राजनीतिक दलों में उठापटक कर सकता है। यह योग सत्ता में परिवर्तन और भ्रष्टाचारियों का पर्दाफाश भी कर सकता है। इसके अलावा कृषि को फायदा और मानव जीवन में खुशहाली का भी योग बन रहा है। कर्क की संक्रांति और सावन का महीना एक ही दिन शुरू होने की वजह से होगा। 

सावन के महीने और कर्क की संक्रांति की शुरुआत एक साथ हो रही है। मेष लग्न के उदय में कर्क की संक्रांति लग रही है। चंद्रमा अपने ही नक्षत्र श्रवण में और शनि मकर राशि में रहेगा। यह स्थिति 14 जनवरी 2012 तक बनी रहेगी, जब तक सूर्य का उत्तरायण नहीं हो जाता।

भारतीय जन्मपत्री के हिसाब से 16 जुलाई 2011 से 14 जनवरी 2012 तक ऐसे योग बनेंगे, जिनमें पूरे देश में आमूलचूल परिवर्तन होंगे। ये परिवर्तन सीधे जनमानस को प्रभावित करेंगे।

क्योंकि शनि और बृहस्पति छठे व आठवें भाव में स्थित हैं, इसलिए सत्तारूढ़ दल, सरकारी मिशनरी और लोगों की कथनी करनी में भारी अंतर देखने को मिलेगा।

15 नवंबर 2011 में शनि उच्च होकर तुला राशि में प्रवेश करेगा और बृहस्पति से पूर्णदृष्टित होगा। यह समय ऐसा होगा जब शनि का विशेष प्रभाव न्यायपालिका पर पड़ेगा। 15 नवंबर 2011 के बाद शनि तुला राशि में प्रवेश करेगा तो पूरे विश्व को कर्म की तुलिका में तौलकर शीशे की तरह साफ कर देगा। ऐसा योग तीस साल बाद पड़ता है।

किसानों को होगा लाभ
जून और जुलाई हिन्दू कैलेंडर के अनुसार आषाढ़ का महीना कहलाता है। 16 जून से 15 जुलाई तक पांच गुरुवार और पांच शुक्रवार प़ड़ रहे हैं। जब पांच गुरुवार पड़ते हैं तो पश्चिमी देशों में उत्पात, युद्ध, परस्पर विद्रोह और वैमन्सय पैदा होता है।

शुक्र का फल धन-धान्य देने वाला और कृषक वर्ग की खुशहाली वाला होता है। इसके अलावा चंद्रमा और सूर्य की परस्पर दृष्टि सौर्यमंडल में भारी परिवर्तन का योग बना सकती है।

प्रकृति में परिवर्तन, वर्षा का विशेष योग है। चूंकि यह संक्रांति चंद्रमंडल में पड़ रही है, इसलिए कृषि योग्य वर्षा होगी। बाढ़, तूफान आदि नहीं आएंगे।

कब शुरू हो रही कर्क की संक्रांति
कर्क की संक्रांति और सावन का महीना 16 जुलाई 2011 रात 3.21 मिनट से 17 अगस्त 2011 की सुबह 11.48 तक रहेगा। मेष लग्न के उदय में कर्क की संक्रांति लग रही है। ऐसे में शंकर भगवान की पूजा का विशेष महत्व माना गया है।

सोमवार, 11 जुलाई 2011

गुरु पूर्णिमा

           गुरु पूर्णिमा

गुरु पूर्ण है, इसीलिए पूर्णिमा ही गुरु की तिथि है

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे महाराज भिलाई दुर्ग(छत्तीसगढ़)09827198828

गुरुब्रम्हा गुरु विष्णु गुरुदेवों महेश्वर :
गुरु साक्षात् परं ब्रम्ह तस्मै श्रीगुरवे नमः


गुरु एक वैदिक परंपरा है और कम से कम भारतीय परिवेश में इसका महत्त्व कभी कम नहीं हो सकता है . गुरु शिष्य की परंपरा हमारे देश में समृद्ध रही है . गुरु सदैव अपने ज्ञान दीप से जीवन में प्रग्रती के मार्ग को प्रशस्त करने का गुर सिखाने वाले और हमारी आभा की पहचान करने वाले और हमारे मनोविकारों को दूर करने में सहायक सिद्ध होते हैं . हमारी संस्कृति में गुरु को उच्चतम स्थान दिया गया है और उनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानकर उनके आदेश का अरक्षतः पालन किया जाता है . गुरु के वगैर करोड़ों पुण्य भी व्यर्थ हो जाते हैं .

आज के समय में गुरु शिष्य परंपरा का वह स्वरुप और आस्था का स्वरुप और दिनोंदिन हो रही नैतिक मूल्यों में कमी और शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर व्यवसायीकरण के कारण बदल गया है . यदि गुरु और शिष्य अपने पद की गरिमा के अनुरूप उचित समयानुसार आचरण करें तो गुरु का शिष्य के ऊपर स्नेहाशीष सदैव बना रहेगा और शिष्य निरंतर प्रग्रती के मार्ग पर अग्रसर होता रहेगा .

ज्ञान पथ पर चलने के लिए गुरु और शिष्य दोनों की नितांत आवश्यकता होती है . गुरु के बिना ज्ञान और जीवन में सफलता अधूरी है . गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर गुरूजी के चरणों में नमन करता हूँ के वे जीवन के घनघोर अँधेरे पथ को अपने ज्ञान से आलोकित करें .
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।

शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी।
बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।
गुरु पूर्णिमा है। यह वो अवसर है, जिसकी प्रतीक्षा दुनिया के सभी अध्यात्म प्रेमी और आत्मज्ञान के साधक बेसब्री से करते हैं। आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि यानि कि पूर्णिमा ही गुरु पूर्णिमा के रूप जगत प्रसिद्ध है। इसी दिन से संन्यासी चातुर्मास प्रारंभ करते हैं। वे एक स्थान पर रुक जाते हैं, धर्म की शिक्षा देने के लिए। यही दिन वेदों का विभाजन करने वाले महर्षि वेद व्यास का जन्मदिन भी है और कालगणना की महत्वपूर्ण इकाई मन्वंतर का आदि दिन भी।

गुरु पूर्ण है, इसीलिए पूर्णिमा ही गुरु की तिथि है।
हम बड़े कैसे बनें, यह भी गुरु के मार्गदर्शन से ही संभव है। वरना मार्ग भटकने का अंदेशा है। मार्ग न भटकें इसीलिए गुरु का दर्शन और मार्गदर्शन आवश्यक है। गुरु से कुछ लिया है तो देना भी होगा। गुरु चूंकि गुरु है, इसलिए वे लेंगे तो कुछ नहीं पर हम आभार तो व्यक्त कर ही सकते हैं। गुरु पूर्णिमा आषाढ़ के समापन के साथ आभार का पर्व है। गुरु के प्रति आभार का और आशीर्वाद प्राप्त करने का। ताकि हम जीवन में कुछ बन सके। गुरु की कृपा से,आषाढ़ के अंतिम दिन।

...इसलिए मनाते हैं गुरु पूर्णिमा

भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।
गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हर धर्मावलंबी अपने गुरु के प्रति श्रद्धा और आस्था प्रगट करता है। जीवन में सफलता के लिए हर व्यक्ति गुरु के रुप में श्रेष्ठ मार्गदर्शक, सलाहकार, समर्थक और गुणी व्यक्ति के संग की चाहत रखता है। इसलिए वह गुरु के रुप में किसी संत, अध्यात्मिक व्यक्तित्व या किसी कार्य विशेष में दक्ष और गुणी व्यक्ति को चुनना चाहता है।
क्योंकि गुरु की महिमा ही ऐसी है कि ईश्वर की तरह गुरु हर जगह मौजूद है। सिर्फ चाहत और दृष्टि चाहिए गुरु को पाने और देखने की।
जगद्गुरु दत्तात्रेय ऐसे ही शिष्य के रुप में भी प्रसिद्ध हैं। जिनके अनेक गुरु हुए। जबकि उन्होनें किसी से गुरु दीक्षा नहीं पाई थी। आखिर यह कैसे संभव हुआ।

गुरु दत्तात्रेय ने समस्त जगत में मौजूद हर वनस्पति, प्राणियों, ग्रह-नक्षत्रों को अपना गुरु माना। जिनकी प्रकृति और गुणों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इनकी संख्या २४ थी। इनमें प्रमुख रुप से पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, सूर्य, चंद्र, कबूतर, मधुमक्खी, हाथी, अजगर, पतंगा, हिरण, मछली, गरुड़, मकड़ी, बालक, वैश्या, कन्या, बाण प्रमुख थे। जिनसे उन्होंने कोई गुरु मंत्र और शिक्षा नहीं ली। मात्र इनकी गति, प्रकृति, गुणों को देखकर अपनी दृष्टि और विचार से शिक्षा पाई और आत्म ज्ञान पा लिया।
इससे ही श्री दत्तात्रेय जगद्गुरु बन गए।
गुरु दत्तात्रेय ने जगत को बताया कि मात्र देहधारी कोई मनुष्य या देवता ही गुरु नहीं होता। बल्कि पूरे जगत की हर रचना में गुरु मौजूद है। यहां तक कि स्वयं के अंदर भी। जिनको देखना और जानना बहुत जरुरी है।
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे महाराज भिलाई दुर्ग(छत्तीसगढ़)09827198828

रविवार, 10 जुलाई 2011

ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका !! प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका !!!!

ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका !! प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका  !!!!
इस संपूर्ण जड एवं चेतन संसार के कण कण में ईश्‍वर व्याप्त हैं, हिन्दू धर्म ने इस मूल तत्व को आदि काल में ही जान लिया था, वेद एवं पूराण ३३ करोड देवी देवतों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं जो कि मानव, पशू, नरपशु, ग्रह, नक्षत्र, वनस्पति तथा जलाशय इत्यादि हर रूप में व्याप्त हैं, पर इनके शिखर पर हैं त्रिदेव … ब्रह्मा, विष्णु एवं सदाशिव, इनमे शापित होने के कारण ब्रह्मा की पुजा नहीं होती तथा जगत में विष्णु तथा सदाशिव ही पूजे जाते हैं,

विष्णु के भक्त वैष्णव कहलाते हैं तथा शिव भक्त शैव्य ! पर वास्तव में अन्य कुछ धर्म एंव समुदाय के विपरीत वैष्णव तथा शैव्य हिन्दू धर्म में संघर्ष का कारण नहीं होते! वस्तुतः शैव्य विष्णू को भी पुजते हैं तथा वैष्णव शिव को भी पूजते हैं| तो वैष्णव तथा शैव्य सिर्फ अपने प्रमूख ईष्ट की मान्यता में एक दूसरे से अलग हैं| वैष्णव भगवान विष्णु को सव देवों में श्रेष्ठ मानता है तथा उन्हे त्रिदेवों से उपर परमेश्वर मानता है, तो शैव्य देवाधिदेव सर्वेश्वर शिव को परमेश्वर जानता है| यह आदि काल से चली आ रही परंपरा है| स्वंय वेद एवं पूराण अनेक उदाहरण प्रस्तूत करते हैं जिसमे शिव तथा विष्णु एक दूसरे अपना ही स्वरूप तथा परस्पर आदर्श बतलाते हैं|
पर विघटन प्रकृति का नियम है| वेदोत्तर काल में इस मान्यता में भी अंतर आया| और शैव्य एंव वैष्णव परंपरा का एक कट्‍टर स्वरूप सामने आया … “वीर शैव्य” तथा “वीर वैष्णव”| वीर वैष्णव का अधिक समय शिव तथा शैव्यों के द्वेष में ही बीतता है| वे शैव्यों के साथ संपर्क नहीं बढाते, वे शिव को नहीं पूजते, यहां तक की वे कभी कभी तो वे शैव्यों से जल भी ग्रहण नहीं करते| ठीक उसी प्रकार वीर शैव्य विष्णु तथा वैष्णवों से द्वेष को अपना परम कर्तव्य जानते हैं| वास्तव में ये शैव्य तथा वैष्णव न होकर “वीर” मात्र रह जाते हैं तथा एक दूसरे के विरोधी होने के बाद भी एक ही परंपरा का अनुसरण करते हैं| ये ज्ञान शुन्य होते हैं तथा अपने ही इष्ट के मूल रूप को नहीं जान पाते हैं| संपूर्ण जीवन साधना के बाद भी इन्हे दिव्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता तथा इनकी द्वेष भावना बहुदा इनके ही नाश का कारण सिद्ध होती है| वास्तव में ये अपने इष्ट को प्रसन्न करने की अपेक्षा उन्हे भी अप्रसन्न कर देते हैं|
प्रजापती दक्ष का शिव विरोधी होने के कारण सर्वनाश हूआ, यद्यपि वे विष्णू भगवान की शरण में था| ठीक उसी प्रकार परम शिव भक्त होने के बाद भी ॠषि कागभूषंडी को अपने ही इष्ट का क्रोधभाजन बनना पडा तथा उनकी सिद्धियां नष्ट हूईं| कारण उन्होंने भगवान विष्णू के अवतार श्री राम का अनादर किया तथा तथा अपने तत्वज्ञानी गूरू लोमेश को वैष्णव जान उनकी अवहेलना की| वास्तव में लोमेश जैसे ज्ञानी ही परंज्ञान के अधिकारी होते हैं|
यथार्थ में ईश्‍वर एक हैं| वही परम कल्यानकारी तथा सर्वसमुद्भवकारण हैं| शिव का अर्थ होता है कल्यान| अतः जो कल्यानकारी है वही शिव हैं, उही परमात्मा हैं| परमात्मा का कोई स्वरूप नहीं होता| वे शुन्य सामान हैं| रूद्र का अर्थ होता है शुन्य, स्वरूप का ना होना| अतः रूद्र ही परमेश्वर हैं| निराकार परमेश्वर समय, काल तथा कारण के अनुसार अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं|
शिवपूराण के अनुसार शिव जी ने ही सृष्टी के संपादन के लिए स्वंय से शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति के एका से का विष्णू स्वरूप धारण हूआ| विष्णू से ब्रह्मा की उत्पत्ती हूई| ब्रह्मा ने सृजन, विष्णु ने सुपालन का कार्यभार ग्रहण किया| फिर सृष्टी के पूनरसृजन के हेतू विलय की आवश्यकता होने पर शिव ने ही महादेव रूप धारण कर विलय का कार्य अपने हाथों में लिया|
विष्णुपूराण के अनुसार परमेश्‍वर ही ब्रह्मा बन कर सृष्टी की रचना करते हैं, वे ही विष्णू बन कर सृष्टी का सुपालन करते हैं, तथा आयू के शेष हो जाने पर वे ही सदाशिव बन कर संहार करते हैं| वास्तव में वे एक ही हैं तथा ये विभिन्न नाम किसी व्यक्ति सामान देवों के नही वरण उन पदों तथा उपाद्धीयों के हैं जिन्हे धारण करण ईश्‍वर अपना कार्य कर रहे होते हैं| यह ठीक उसी प्रकार है जैसे हम एक हैं पर कोई हमें पूत्र जानता है तो कोई पिता, कोई शिष्य जानता है तो कोई गूरु, तथा हम ही किसी के लिए मित्र होते हैं, किसी के लिए शत्रू | और अनेकों के लिए तो हम कूछ होते भी नहीं| पर इन सब के मध्य हम एक ही होते हैं|
तो फिर विवाद कैसा? कौन ब्रह्मा, विष्णु, महेश? कौन शिव, कौन शक्ति? जब वे एक ही हैं तो क्या अंतर पडता है यदि कोई उन्हे विष्णु के नाम से जाने तो कोई शिव के नाम से जाने तथा कोई शक्ति के नाम से?
ईश्वर एक हैं| वे तीन त्रिदेवों अथवा ३३ करोड देवताओं में ही नहीं, अपितू संपूर्ण सृष्टी के कण कण में व्याप्‍त हैं| वे हमारे नश्‍‍वर शरीर के अन्दर की आत्मा हैं| वे हमारे सदविचार हैं|
ब्रह्मा कर्ता हैं, विष्णू कार्य तथा कार्यफल हैं, शिव कारण हैं| त्रिदेव एक वृक्ष के सामन हैं| ब्रह्म उस वृक्ष के तना हैं, विष्णु उस वृक्ष के विस्तार है, डालिया, पत्ते, पूष्प तथा फल सामान हैं| सदाशिव उस वृक्ष के जड हैं|
शिव जी की आरती इसी तत्व को संबोधित है| वास्तव में ये त्रिगूण शिव जी की आरती है जिसमे स्पष्ट शब्दों में उलेखित है …
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका|
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका||
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