ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

सदा बसन्तम् हृदयारविन्द्रे भवम भवामि सहितं नमामि....

सदा बसन्तम् हृदयारविन्द्रे भवम भवामि सहितं नमामि....
बसन्त पंचमी के पावन पर्व पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ....।
भारत  अपनी  प्राकृतिक  शोभा  के  लिये  विश्व  विख्यात  है।  इसे  ऋतुओं  का  देश  कहा  जाता  है।ऋतु-  परिवर्तन   का   जो  सुन्दर  क्रम  हमारे  देश  में  है,  वह  अन्यत्र  दुर्लभ  है।बसन्त  ऋतु  की  शोभा  सबसे  निराली  है।  बसन्त  ऋतु  को  ऋतुराज  कहते  हैं क्योंकि  यह  ऋतु  सबसे  सुहावनी,  अद्भुत,  आकर्षक  और  मन  में  उमंग  भर  देने  वाली है।  सचमुच  बसन्त  की  बासन्ती  दुनिया  की  शोभा  ही  निराली  होती  है।  यह  ऋतु  प्रकृति  के  लिये  वरदान  बनकर  आती  है। प्रकृति  में  सर्वत्र  यौवन  के  दर्शन  होते  हैं।  सारा  वातावरण  सुवासित  हो  उठता  है। चम्पा,  माधवी,गुलाब,  चमेली आदि  की  सुन्दरता  मन  को  मोह  लेती  है। कोयल  की  ध्वनि  कानों  में  मिश्री  घोलती  है।  बसन्त  का  आगमन  मनुष्य  जगत  में  भी विशेष  उल्लास  एवं  उमंगों  का  संचार  करता  है।  कवि  एवं  कलाकार  इस  ऋतु से  विशेष  प्रभावित  होते  हैं।  उनकी  कल्पना  सजग  हो  उठती  है।  इस  ऋतु  एक  बड़ी  विशेषता  यह  है  कि  इन  दिनों  शरीर  में  नए  रक्त  का  संचार  होता  है।आहार- विहार  अगर  ठीक  रखा  जाए तो  स्वास्थ्य  की  उन्नति  होती  है। इस  ऋतु में  मीठी  और  तली  वस्तुएं  कम  ख़ानी  चसहिये। चटनी, कांजी, खटाई  आदि का  उपयोग  लाभदायक  है। इस  ऋतु  को  मधु  ऋतु  भी  कहा  गया  है। भगवान  श्रीकृष्ण  ने  गीता  में  कहा  है  कि  मैं  ऋतुओं  में  बसन्त  हूँ।   यह  ऋतु  केवल  प्राकृतिक  आन्नद  का  ही  स्रोत  नहीं  बल्कि  सामाजिक  आन्नद  का  भी  स्रोत  है।
‘बसन्त  भ्रमणं पथ्यम्’  अर्थात्  बसन्त  में  भ्रमण  करना  पथ्य  है।

पुरतःपश्य वसन्तः

प्रणय कामिनि कोमलहृदये,पुरतःपश्य वसन्तः,।
हा हतभाग्ये नववयशीले,निकषा चास्ति न कान्तः।।1
वहति समीरो मंदं मंदं,नीत्वा सौरभ खाद्यम्।
अतिकुलमाला मत्ता विपिने,जनयति गुंजा वाद्यम्।।
कोकिल कूजति रसालविटपे,मा भव भ्राता भ्रान्तः ।।2
धरा सज्जिता तस्याःवदने,दिव्या पीत शाटिका,
खगकुल कलरब गुंजित मधुरा,भव्या सुमन वाटिका।।
गगनं स्वच्छं धरा समृद्धा,भानुः प्रीत्या शान्तः।।3
गंगा नीरं पीत्वा तीरे,स्मृत्वा हर हर गंगे।
भाले भस्म कण्ठे माला,निवसन् साधु संगे।।
सरित् व¬रायाः कृपा प्रसादात्,शिष्टः कोपि न प्रान्तः4
प्रणयकामिनि कोमलहृदये,पुरतःपश्य वसन्तः।
हा हतभाग्ये नव वयशीले,निकषा चास्ति न कान्तः 
द्वारा - समर्थ श्री (संस्‍कृतगंगा फेसबुकवर्गे) 

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