मित्रों, सुप्रभात
ऊं नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय, च मयस्कराय च नमः शिवाय चशिवतराय च।
भगवान शिव, माँ पार्वती तथा विनायक आप सभी की मनोकामना पूर्ण करें.....शुद्ध लक्ष्मी का आपके घर आगमन हो....!
ऊं नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय, च मयस्कराय च नमः शिवाय चशिवतराय च।
भगवान शिव, माँ पार्वती तथा विनायक आप सभी की मनोकामना पूर्ण करें.....शुद्ध लक्ष्मी का आपके घर आगमन हो....!
छठपूजा का महत्त्व और कैसे करें छठपूजा.....
आईए आज इसी संदर्भ पर चर्चा करते हैं.....
सूर्यषष्ठी अर्थात छठ की पूजा अब बिहार से निकलकर दुनिया के कोने-कोने में पहुंच चुकी है। जहां-जहां बिहारी बसे हैं, अपने साथ अपने इस पारंपरिक त्यौहार को भी ले गए हैं। आस्था और श्रद्धा के इस महापर्व से बड़ा प्रकृति पूजा का दूसरा उदाहरण इतिहास में नहीं मिलता है।
तमाम सभ्यतओं में होती रही है सूर्य की पूजा
वैसे
तो दुनिया की तमाम सभ्यताओं में सूर्य पूजा का रिवाज रहा है, लेकिन छठ
पर्व के अलावा कहीं भी डूबते सूर्य की पूजा-अर्चना की परंपरा का इतिहास
नहीं मिलता है। छठ पर्व में पहले अस्ताचल सूर्य की पूजा होती है और उसके
अगले दिन उदयाचल सूर्य की।
छठ पूजा के पीछे की कथा
छठ
महापर्व बिहार के गंगा क्षेत्र अर्थात मगध से आरंभ हुआ। सूर्यषष्ठी व्रत
के विषय में देवभागवतपुराण में वर्णन मिलता है। इसके अनुसार, राजा
प्रियव्रत स्वायुभुष मुनि के पुत्र थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। विवाह के
लंबे अंतराल के बाद एक पुत्र उत्पन्न हुआ, लेकिन वह मरा हुआ पैदा हुआ।
राजा अपने नवजात पुत्र के शव को लेकर श्मशान भूमि पहुंचे और वहां विलाप
करने लगे। उनके विलाप को सुनकर वहां से गुजर रही एक देवी रुकी और राजन से
इस बारे में पूछा। राजा की व्यथा जानकर उस देवी ने कहा कि मैं ब्रह्मा जी
की पुत्री देवसेना हूं। मेरा विवाह गौरी-शंकर के पुत्र कार्तिकेय से हुआ
है। मैं सभी मातृकाओं में विख्यात स्कंध पत्नी हूं। मूल प्रकृति के छठे
अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं 'षष्ठी' कही जाती हूं। इतना कह देवसेना
ने राजा के मृत पुत्र को जीवित कर दिया और तत्पश्चात अंतर्धान हो गईं।
यह घटना शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन की है, अत: इसी दिन से षष्ठी देवी
की पूजा होने लगी। सूर्य की अराधना का यह पर्व छठ पूजा के नाम से विख्यात
हो गया।
छठ महापर्व की दूसरी कथा स्कंध के जन्म से जुड़ी है। इस कथा के अनुसार, गंगा ने एक स्कंधाकार बालक को जन्म दिया और उसे सरकंडे के वन में रख दिया। उस वन में छह कार्तिकाएं निवास करती थीं। उन सबसने स्कंध का लालन-पालन किया। इसी स्कंध का नाम कार्तिकेय पड़ा। यह छहों कार्तिकाएं कार्तिकेय की षष्ठ माताएं कहलाईं। इन्हें ही छठ माता या छठी मइया कहते हैं।
यह घटना जिस माह में घटित हुई उस माह का नाम कार्तिक पड़ा। प्राचीन में यह व्रत स्कंध षष्ठी के नाम से विख्यात था।
छठ महापर्व की तीसरी कथा भी कार्तिकेय से ही जुड़ी है। इस कथा के अनुसार, असुरों के नाश के लिए देवाताओं ने पार्वती व भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकेय को अपना सेनापति चुना था। माता पार्वती ने अपने पुत्र के विजयी कामना के लिए अस्ताचल सूर्य को अर्ध्य देकर पूजन किया और निर्जला व्रत धारण किया। कार्तिकेय के विजयी होकर लौटने पर उन्होंने उदयाचल सूर्य को जल एवं दूध से अर्ध्य देकर अपना व्रत तोड़ा था।
छठ महापर्व की दूसरी कथा स्कंध के जन्म से जुड़ी है। इस कथा के अनुसार, गंगा ने एक स्कंधाकार बालक को जन्म दिया और उसे सरकंडे के वन में रख दिया। उस वन में छह कार्तिकाएं निवास करती थीं। उन सबसने स्कंध का लालन-पालन किया। इसी स्कंध का नाम कार्तिकेय पड़ा। यह छहों कार्तिकाएं कार्तिकेय की षष्ठ माताएं कहलाईं। इन्हें ही छठ माता या छठी मइया कहते हैं।
यह घटना जिस माह में घटित हुई उस माह का नाम कार्तिक पड़ा। प्राचीन में यह व्रत स्कंध षष्ठी के नाम से विख्यात था।
छठ महापर्व की तीसरी कथा भी कार्तिकेय से ही जुड़ी है। इस कथा के अनुसार, असुरों के नाश के लिए देवाताओं ने पार्वती व भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकेय को अपना सेनापति चुना था। माता पार्वती ने अपने पुत्र के विजयी कामना के लिए अस्ताचल सूर्य को अर्ध्य देकर पूजन किया और निर्जला व्रत धारण किया। कार्तिकेय के विजयी होकर लौटने पर उन्होंने उदयाचल सूर्य को जल एवं दूध से अर्ध्य देकर अपना व्रत तोड़ा था।
बिहार में कैसे आरंभ हुई छठ पूजा
जापान
से लेकर प्राचीन यूनान तक में सूर्य की पूजा का प्रमाण मिलता है। उगते
सूरज का देश जापान के लोग खुद को सूर्य पुत्र कहते हैं तो यूनान में हीलियस
नाम से सूर्य की पूजा होती है। भारत में सूर्य मंदिरों का निर्माण काल
पहली सदी से आरंभ हुआ है। उस समय यहां फारसी आए थे। उसी काल में इरान से मग
जातियां आई और वे मगध में बसीं। उन्हीं जातियों ने मगध में सूर्य की
उपासना आरंभ की।
इस ऐतिहासिक संदर्भ के अतिरिक्त पौराणिक संदर्भ में कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शांब ने सूर्य धामों का निर्माण कराया था। शांब कुष्ठ रोगी था। कुष्ठ से मुक्ति के लिए शांब ने 12 माह में 12 जगहों पर सूर्य उपासना केंद्र और उससे लगे तालाब का निर्माण कराया था। यथा- देवार्क, लोलार्क, उलार्क, कोणार्क, पुवयार्क, अंजार्क, पंडार्क, वेदार्क, मार्कंडेयार्क, दर्शनार्क, बालार्क व चाणर्क। शांब इन्हीं सूर्य उपासना केंद्रों में पूजा अर्चना कर व उससे लगे तालाब में स्नान कर कुष्ठ रोग से मुक्त हुआ था। आज भी छठ महापर्व करने वालों की आस्था है कि छठ मइया के प्रताप से कुष्ठ रोगी निरोग हो जाता है।
इस ऐतिहासिक संदर्भ के अतिरिक्त पौराणिक संदर्भ में कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शांब ने सूर्य धामों का निर्माण कराया था। शांब कुष्ठ रोगी था। कुष्ठ से मुक्ति के लिए शांब ने 12 माह में 12 जगहों पर सूर्य उपासना केंद्र और उससे लगे तालाब का निर्माण कराया था। यथा- देवार्क, लोलार्क, उलार्क, कोणार्क, पुवयार्क, अंजार्क, पंडार्क, वेदार्क, मार्कंडेयार्क, दर्शनार्क, बालार्क व चाणर्क। शांब इन्हीं सूर्य उपासना केंद्रों में पूजा अर्चना कर व उससे लगे तालाब में स्नान कर कुष्ठ रोग से मुक्त हुआ था। आज भी छठ महापर्व करने वालों की आस्था है कि छठ मइया के प्रताप से कुष्ठ रोगी निरोग हो जाता है।
चार दिनों तक चलता है यह महापर्व
चार
दिनों तक चलने वाला यह महापर्व बेहद आस्था, निष्ठा व पवित्रता के साथ
मनाया जाता है। छठ का प्रथम दिन चतुर्थी को नहाय-खाय से शुरू होता है। इस
दिन व्रती नहाने के बाद अरवा चावल के भात, चने का दाल, कददू की सब्जी का
भोजन करती हैं। प्याज-लहसन खाने की मनाही होती है। अगले दिन पंचमी को खरना
होता है, जिसमें व्रती दिन भर उपवास कर शाम को चंद्रमा डूबने से पूर्व
स्नान कर, लकड़ी के चूल्हे पर गुड़ की खीर व रोटी बनाकर पूजा कर प्रसाद
ग्रहण करती हैं। इस वक्त परिवार के सभी सदस्यों का रहना अनिवार्य होता
है।
षष्ठी को व्रती सारे दिन अन्न-जल का त्याग कर
स्नान
आदि करने के बाद प्रसाद बनाती हैं। इसमें विशेष कर ठेकुआ मुख्य होता है।
शाम को जलस्रोत में ध्यानमग्न खड़ी होकर सूर्य को अर्ध्य देती हैं।
तत्पश्चात डूबते सूर्य को अर्ध्य देते हुए व्रती प्रसाद लेकर हाथ उठाती
हैं। प्रसाद में ठेकुआ के अलावा सभी तरह के फल, गन्ना, डंठल युक्त
हल्दी-मूली, मिठाई आदि होता है। मन्नत के अनुसार, मिट्टी का हाथी व
कुर्वा लेकर भी हाथ उठाया जाता है। सूप व दउरा भी मन्नत के अनुसार ही तय
होता है। रात में घाट पर दीप जलाया जाता है। अगले दिन सुबह सप्तमी को
उदयाचल सूर्य को अर्ध्य देकर व्रत समाप्त किया जाता है। बिहार में इस
अवसर पर व्रती व उनके परिजन द्वारा बड़े सुंदर लोकगीत गाए जाते हैं जिसमें
षष्ठी माता व सूर्य देवता का स्तुतिगान होता है। व्रत के समापन पर प्रसाद
का वितरण होता है।षष्ठी को व्रती सारे दिन अन्न-जल का त्याग कर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें