ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शुक्रवार, 2 मार्च 2012

नवमम् सिद्धीदात्री च (माँ के 9 रूप और साधना)


मां दुर्गा का प्रथम स्वरूप शैलपुत्री
मां दुर्गा अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्रीके रूप में जानी जाती हैं। पर्वतराजहिमालय के यहां जन्म लेने से भगवती को शैलपुत्रीकहा गया। भगवती का वाहन वृषभ है, उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है। इस स्वरूप का पूजन आज के दिन किया जाएगा। किसी एकांत स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोएं और उस पर कलश स्थापित करें। कलश पर मूर्ति स्थापित करें। कलश के पीछे स्वास्तिकऔर उसके युग्म पा‌र्श्व में त्रिशूल बनाएं।

ध्यान:-
वंदे वांच्छितलाभायाचंद्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढांशूलधरांशैलपुत्रीयशस्विनीम्॥
पूणेंदुनिभांगौरी मूलाधार स्थितांप्रथम दुर्गा त्रिनेत्रा।
पटांबरपरिधानांरत्नकिरीटांनानालंकारभूषिता॥
प्रफुल्ल वदनांपल्लवाधरांकांतकपोलांतुंग कुचाम्।
कमनीयांलावण्यांस्मेरमुखीक्षीणमध्यांनितंबनीम्॥

स्तोत्र:-
प्रथम दुर्गा त्वहिभवसागर तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
त्रिलोकजननींत्वंहिपरमानंद प्रदीयनाम्।
सौभाग्यारोग्यदायनीशैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन।
भुक्ति, मुक्ति दायनी,शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन।
भुक्ति, मुक्ति दायिनी शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥

कवच:-
ओमकार:में शिर: पातुमूलाधार निवासिनी।
हींकार,पातुललाटेबीजरूपामहेश्वरी॥
श्रीकार:पातुवदनेलज्जारूपामहेश्वरी।
हूंकार:पातुहृदयेतारिणी शक्ति स्वघृत॥
फट्कार:पातुसर्वागेसर्व सिद्धि फलप्रदा।
शैलपुत्रीके पूजन से मूलाधार चक्र जागृत होता है, जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं।
मां दुर्गा का द्वितीय स्वरूप ब्रह्मचारिणी
मां दुर्गा अपने द्वितीय स्वरूप में ब्रह्मचारिणी के रूप में जानी जाती हैं।
दधानाकरपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलम्
देवी प्रसीदतुमयिब्रह्म ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
भगवती दुर्गा की नौ शक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। ब्रह्म का अर्थ है, तपस्या, तप का आचरण करने वाली भगवती, जिस कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा गया, वेदस्तत्वंतपो ब्रह्म, वेद, तत्व और ताप [ब्रह्म] अर्थ है ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यन्त भव्य है, इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बायें हाथ में कमण्डल रहता है।

ध्यान:-
वन्दे वांच्छितलाभायचन्द्रर्घकृतशेखराम्।
जपमालाकमण्डलुधराब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णास्वाधिष्ठानास्थितांद्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
धवल परिधानांब्रह्मरूपांपुष्पालंकारभूषिताम्॥
पद्मवंदनापल्लवाराधराकातंकपोलांपीन पयोधराम्।
कमनीयांलावण्यांस्मेरमुखीनिम्न नाभि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र:-
तपश्चारिणीत्वंहितापत्रयनिवारिणीम्।
ब्रह्मरूपधराब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
नवचक्रभेदनी त्वंहिनवऐश्वर्यप्रदायनीम्।
धनदासुखदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रियात्वंहिभुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदामानदा,ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्।
कवच:-
त्रिपुरा में हृदयेपातुललाटेपातुशंकरभामिनी।
अर्पणासदापातुनेत्रोअर्धरोचकपोलो॥
पंचदशीकण्ठेपातुमध्यदेशेपातुमहेश्वरी॥
षोडशीसदापातुनाभोगृहोचपादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातुब्रह्मचारिणी॥
भगवती दुर्गाचंद्रघण्टा का ध्यान, स्तोत्र और कवच का पाठ करने से मणिपुर चक्र जाग्रत हो जाता है। जिससे सांसारिक परेशानियों से मुक्ति मिल जाती है।
मां दुर्गा का तृतीय स्वरूपब्रह्मचारिणी
मां दुर्गा अपने तृतीय स्वरूप में चन्द्रघंटाके नाम से जानी जाती हैं।
पिण्डजप्रवरारूढाचण्डकोपास्यकैर्युता।
प्रसादं तनुते महं चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥
भगवती दुर्गा अपनी तीसरे स्वरूप में चन्द्रघंटानाम से जानी जाती हैं। नवरात्र के तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है। इनका रूप परम शांतिदायकऔर कल्याणकारी है, इनके मस्तक में घंटे के आकार का अर्धचन्द्र है इसी कारण से इन्हें चन्द्रघंटादेवी कहा जाता है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला हैं, इनके दस हाथ हैं, इनके दसों हाथों में खड्ग आदि शस्त्र, बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है, इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उदधृत रहने की होती है इनके घंटे सी भयानक चंडध्वनिसे अत्याचारी दानव, दैत्य, राक्षस सदैव प्रकम्पित रहते हैं।
ध्यान:-
वन्दे वाच्छित लाभाय चन्द्रर्घकृत शेखराम्।
सिंहारूढा दशभुजां चन्द्रघण्टा यशंस्वनीम्॥
कंचनाभां मणिपुर स्थितां तृतीयं दुर्गा त्रिनेत्राम्।
खड्ग, गदा, त्रिशूल, चापशंर पद्म कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्यां नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर हार, केयूर, किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटिं नितम्बनीम्॥
स्तोत्र:-
आपद्धद्धयी त्वंहि आधा शक्ति: शुभा पराम्।
अणिमादि सिद्धिदात्री चन्द्रघण्टे प्रणमाम्यीहम्॥
चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्ट मंत्र स्वरूपणीम्।
धनदात्री आनंददात्री चन्द्रघण्टे प्रणमाम्यहम्॥
नानारूपधारिणी इच्छामयी ऐश्वर्यदायनीम्।
सौभाग्यारोग्य दायिनी चन्द्रघण्टे प्रणमाम्यहम्॥
कवच:-
रहस्यं श्रणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने।
श्री चन्द्रघण्टास्य कवचं सर्वसिद्धि दायकम्॥
बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोद्धारं बिना होमं।
स्नान शौचादिकं नास्ति श्रद्धामात्रेण सिद्धिकम॥
कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च।
न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचितम्॥

भगवती दुर्गाचंद्रघण्टा का ध्यान, स्तोत्र और कवच का पाठ करने से मणिपुर चक्र जाग्रत हो जाता है। जिससे सांसारिक परेशानियों से मुक्ति मिल जाती है।
मां दुर्गा का चतुर्थ स्वरूप
मां दुर्गा अपने चतुर्थ स्वरूप में कूष्माण्डाके नाम से जानी जाती है।
सुरासम्पूर्णकलशंरुधिप्लूतमेव च।
दधाना हस्तपदमाभयां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे॥
भगवती दुर्गा के चतुर्थ स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मंद हंसी द्वारा अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अंधकार ही अंधकार परिव्याप्त था तब इन्हीं देवी ने अपने ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। अत: यही सृष्टि की आदि स्वरूपा आदि शक्ति हैं। इनके पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व था ही नहीं। इनकी आठ भुजाएं हैं। अत: ये अष्टभुजा देवी के नाम से विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमश: कमण्डल, धनुष बाण, कमल, पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा कुम्हडे को कहते हैं। बलियों में कुम्हडे की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस कारण से भी यह कूष्माण्डा कही जाती हैं।
ध्यान:-वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढा अष्टभुजा कुष्माण्डा यशस्वनीम्॥
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु चाप, बाण, पदमसुधाकलश चक्र गदा जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीया कृदुहगस्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर हार केयूर किंकिण रत्‍‌नकुण्डल मण्डिताम्।
प्रफुल्ल वदनां नारू चिकुकां कांत कपोलां तुंग कूचाम्।
कोलांगी स्मेरमुखीं क्षीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम् ॥
स्त्रोत:-दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दारिद्रादि विनाशिनीम्।
जयंदा धनदां कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
जगन्माता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यसुंदरी त्वंहि दु:ख शोक निवारिणाम्।
परमानंदमयी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
कवच:-हसरै मे शिर: पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।
हसलकरीं नेत्रथ, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे वाराही उत्तरे तथा।
पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिग्दिध सर्वत्रैव कूं बीजं सर्वदावतु॥

भगवती कूष्माण्डा का ध्यान, स्त्रोत, कवच का पाठ करने से अनाहत चक्र जाग्रत हो जाता है, जिससे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है।
मां दुर्गा का पांचवां स्वरूप स्कन्दमाता

मां दुर्गा अपने पांचवें स्वरूपमें स्कन्दमाता के नाम से जानी जाती है।
सिंहासनगतानित्यंपद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तुसदा देवी स्कन्दमातायशस्विनीम्॥
भगवती दुर्गा के पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाताके रूप में जाना जाता है। स्कन्द कुमार अर्थात् काíतकेय की माता होने के कारण इन्हें स्कन्दमाताकहते हैं। इनका वाहन मयूर है। मंगलवार के दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थितहोता है। इनके विग्रह में भगवान स्कन्दजीबाल रूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं। स्कन्द मातुस्वरूपणीदेवी की चार भुजाएं हैं। ये दाहिनी तरफ की ऊपर वाली भुजा से भगवान स्कन्द्रको गोद में पकडे हुए हैं और दाहिने तरफ की नीचे वाली भुजा वरमुद्रामें तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर उठी हुई है, इसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णत:शुभ है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण से इन्हें पद्मासनादेवी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है।
ध्यान:-वन्दे वांछित कामर्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहारूढाचतुर्भुजास्कन्धमातायशस्वनीम्॥
धवलवर्णाविशुद्ध चक्रस्थितांपंचम दुर्गा त्रिनेत्राम।
अभय पदमयुग्म करांदक्षिण उरूपुत्रधरामभजेम्॥
पटाम्बरपरिधानाकृदुहज्ञसयानानालंकारभूषिताम्।
मंजीर हार केयूर किंकिणिरत्नकुण्डलधारिणीम।।
प्रभुल्लवंदनापल्लवाधरांकांत कपोलांपीन पयोधराम्।
कमनीयांलावण्यांजारूत्रिवलींनितम्बनीम्॥
स्तोत्र:-नमामि स्कन्धमातास्कन्धधारिणीम्।
समग्रतत्वसागरमपारपारगहराम्॥
शिप्रभांसमुल्वलांस्फुरच्छशागशेखराम्।
ललाटरत्‍‌नभास्कराजगतप्रदीप्तभास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपाíचतांसनत्कुमारसंस्तुताम्।
सुरासेरेन्द्रवन्दितांयथार्थनिर्मलादभुताम्॥
मुमुक्षुभिíवचिन्तितांविशेषतत्वमूचिताम्।
नानालंकारभूषितांकृगेन्द्रवाहनाग्रताम्।।
सुशुद्धतत्वातोषणांत्रिवेदमारभषणाम्।
सुधाíमककौपकारिणीसुरेन्द्रवैरिघातिनीम्॥
शुभांपुष्पमालिनीसुवर्णकल्पशाखिनीम्।
तमोअन्कारयामिनीशिवस्वभावकामिनीम्॥
सहस्त्रसूर्यराजिकांधनज्जयोग्रकारिकाम्।
सुशुद्धकाल कन्दलांसुभृडकृन्दमज्जुलाम्॥
प्रजायिनीप्रजावती नमामिमातरंसतीम्।
स्वकर्मधारणेगतिंहरिप्रयच्छपार्वतीम्॥
इनन्तशक्तिकान्तिदांयशोथमुक्तिदाम्।
पुन:पुनर्जगद्धितांनमाम्यहंसुराíचताम॥
जयेश्वरित्रिलाचनेप्रसीददेवि पाहिमाम्॥
कवच:-ऐं बीजालिंकादेवी पदयुग्मधरापरा।
हृदयंपातुसा देवी कातिकययुता॥
श्रींहीं हुं ऐं देवी पूर्वस्यांपातुसर्वदा।
सर्वाग में सदा पातुस्कन्धमातापुत्रप्रदा॥
वाणवाणामृतेहुं फट् बीज समन्विता।
उत्तरस्यातथाग्नेचवारूणेनेत्रतेअवतु॥
इन्द्राणी भैरवी चैवासितांगीचसंहारिणी।
सर्वदापातुमां देवी चान्यान्यासुहि दिक्षवै॥

भगवती स्कन्दमाताका ध्यान स्तोत्र व कवच का पाठ करने से विशुद्ध चक्र जागृत होता है। इससे मनुष्य की समस्त इच्छाओं की पूíत होती है। परम शांति व सुख का अनुभव होने लगता है।

मां दुर्गा का छठा स्वरूप कात्यायनी

मां दुर्गा अपने छठे स्वरूप में कात्यायनी के नाम से जानी जाती है। चन्द्रहासोज्वलकराशार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभ दधादेवी दानवघातिनी॥
भगवती दुर्गा के छठेंरूप का नाम कात्यायनी है। महíष कात्यायन के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन उन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था। इनका स्वरूप अत्यंत ही भव्य एवं दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला, और भास्वर है। इनकी चार भुजाएं हैं। माता जी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रामें है तथा नीचे वाला वरमुद्रामें, बाई तरफ के ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।

ध्यान:-वन्दे वांछित मनोरथार्थचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहारूढचतुर्भुजाकात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णवर्णाआज्ञाचक्रस्थितांषष्ठम्दुर्गा त्रिनेत्राम।
वराभीतंकरांषगपदधरांकात्यायनसुतांभजामि॥
पटाम्बरपरिधानांस्मेरमुखींनानालंकारभूषिताम्।
मंजीर हार केयुरकिंकिणिरत्नकुण्डलमण्डिताम्।।
प्रसन्नवंदनापज्जवाधरांकातंकपोलातुगकुचाम्।
कमनीयांलावण्यांत्रिवलीविभूषितनिम्न नाभिम्॥

स्तोत्र:-कंचनाभां कराभयंपदमधरामुकुटोज्वलां।
स्मेरमुखीशिवपत्नीकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
पटाम्बरपरिधानांनानालंकारभूषितां।
सिंहास्थितांपदमहस्तांकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
परमदंदमयीदेवि परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति,परमभक्ति्कात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती,विश्वभर्ती,विश्वहर्ती,विश्वप्रीता।
विश्वाचितां,विश्वातीताकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
कां बीजा, कां जपानंदकां बीज जप तोषिते।
कां कां बीज जपदासक्ताकां कां सन्तुता॥
कांकारहíषणीकां धनदाधनमासना।
कां बीज जपकारिणीकां बीज तप मानसा॥
कां कारिणी कां मूत्रपूजिताकां बीज धारिणी।
कां कीं कूंकै क:ठ:छ:स्वाहारूपणी॥

कवच:-
कात्यायनौमुख पातुकां कां स्वाहास्वरूपणी।
ललाटेविजया पातुपातुमालिनी नित्य संदरी॥
कल्याणी हृदयंपातुजया भगमालिनी॥

भगवती कात्यायनी का ध्यान, स्तोत्र और कवच के जाप करने से आज्ञाचक्र जाग्रत होता है। इससे रोग, शोक, संताप, भय से मुक्ति मिलती है।

मां दुर्गा का सातवां स्वरूप कालरात्रि

मां दुर्गा अपने सातवें स्वरूप में कालरात्रि के नाम से जानी जाती है। एकवेणीजपाकर्णपुरानाना खरास्थिता।
लम्बोष्ठीकíणकाकर्णीतैलाभ्यशरीरिणी॥
वामपदोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनर्मूध्वजाकृष्णांकालरात्रिभर्यगरी॥
मां दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हे। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है, सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र है, ये तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश्यगोल है, इनसे विद्युत के समान चमकीलीकिरणें नि:सृत होती रहती हैं। इनकी नासिका के श्वांसप्रश्वांससे अग्नि की भंयकरज्वालाएं निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ है। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रासे सभी को वर प्रदान करती है। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रामें है बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे हाथ में खड्ग है। मां का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली है। इसी कारण इनका नाम शुभकरीभी है अत:इनसे किसी प्रकार भक्तों को भयभीत होने अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।

ध्यान:-करालवदनां घोरांमुक्तकेशींचतुर्भुताम्।
कालरात्रिंकरालिंकादिव्यांविद्युत्मालाविभूषिताम्॥
दिव्य लौहवज्रखड्ग वामाघो‌र्ध्वकराम्बुजाम्।
अभयंवरदांचैवदक्षिणोध्र्वाघ:पाणिकाम्॥
महामेघप्रभांश्यामांतथा चैपगर्दभारूढां।
घोरदंष्टाकारालास्यांपीनोन्नतपयोधराम्॥
सुख प्रसन्न वदनास्मेरानसरोरूहाम्।
एवं संचियन्तयेत्कालरात्रिंसर्वकामसमृद्धिधदाम्॥

स्तोत्र:-हीं कालरात्रि श्रींकराली चक्लींकल्याणी कलावती।
कालमाताकलिदर्पध्नीकमदींशकृपन्विता॥
कामबीजजपान्दाकमबीजस्वरूपिणी।
कुमतिघन्ीकुलीनार्तिनशिनीकुल कामिनी॥
क्लींहीं श्रींमंत्रवर्णेनकालकण्टकघातिनी।
कृपामयीकृपाधाराकृपापाराकृपागमा॥

कवच:-ॐ क्लींमें हदयंपातुपादौश्रींकालरात्रि।
ललाटेसततंपातुदुष्टग्रहनिवारिणी॥
रसनांपातुकौमारी भैरवी चक्षुणोर्मम
कहौपृष्ठेमहेशानीकर्णोशंकरभामिनी।
वíजतानितुस्थानाभियानिचकवचेनहि।
तानिसर्वाणिमें देवी सततंपातुस्तम्भिनी॥

भगवती कालरात्रि का ध्यान,कवच,स्तोत्र का जाप करने से भानु चक्र जाग्रत होता है, इनकी कृपा से अग्नि भय, आकाश भय, भूत पिशाच, स्मरण मात्र से ही भाग जाते हैं, यह माता भक्तों को अभय प्रदान करने वाली है।

मां दुर्गा का आठवां स्वरूप महागौरी

मां दुर्गा अपने आठवें स्वरूप में महागौरीके नाम से जानी जाती है। ॐनमोभगवती महागौरीवृषारूढेश्रींहीं क्लींहूं फट् स्वाहा।
भगवती महागौरीवृषभ के पीठ पर विराजमान हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्र का मुकुट है। मणिकान्तिमणि के समान कान्ति वाली अपनी चार भुजाओं में शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण किए हुए हैं, जिनके कानों में रत्नजडितकुण्डल झिलमिलाते हैं, ऐसी भगवती महागौरीहैं।


ध्यान:-वन्दे वांछित कामार्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहारूढाचतुर्भुजामहागौरीयशस्वीनीम्॥
पुणेन्दुनिभांगौरी सोमवक्रस्थिातांअष्टम दुर्गा त्रिनेत्रम।
वराभीतिकरांत्रिशूल ढमरूधरांमहागौरींभजेम्॥
पटाम्बरपरिधानामृदुहास्यानानालंकारभूषिताम्।
मंजीर, कार, केयूर, किंकिणिरत्न कुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनांपल्लवाधरांकांत कपोलांचैवोक्यमोहनीम्।
कमनीयांलावण्यांमृणालांचंदन गन्ध लिप्ताम्॥
स्तोत्र:-सर्वसंकट हंत्रीत्वंहिधन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।
ज्ञानदाचतुर्वेदमयी,महागौरीप्रणमाम्यहम्॥
सुख शांति दात्री, धन धान्य प्रदायनीम्।
डमरूवाघप्रिया अघा महागौरीप्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यमंगलात्वंहितापत्रयप्रणमाम्यहम्।
वरदाचैतन्यमयीमहागौरीप्रणमाम्यहम्॥

कवच:-ओंकार: पातुशीर्षोमां, हीं बीजंमां हृदयो।
क्लींबीजंसदापातुनभोगृहोचपादयो॥
ललाट कर्णो,हूं, बीजंपात महागौरीमां नेत्र घ्राणों।
कपोल चिबुकोफट् पातुस्वाहा मां सर्ववदनो॥
भगवती महागौरीका ध्यान स्तोत्र और कवच का पाठ करने से सोमचक्र जाग्रत होता है, जिससे चले आ रहे संकट से मुक्ति होती है, पारिवारिक दायित्व की पूíत होती है वह आíथक समृद्धि होती है।

मां दुर्गा का नौवां स्वरूप सिद्धिदात्री


मां दुर्गा अपने नौवें स्वरूप में सिद्धिदात्रीके नाम से जानी जाती है। आदि शक्ति भगवती का नवम् रूप सिद्धिदात्रीहै, जिनकी चार भुजाएं हैं। उनका आसन कमल है। दाहिने और नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा, बाई ओर से नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प है, यह भगवती का स्वरूप है, इस स्वरूप की ही हम आराधना करते हैं।

ध्यान:-वन्दे वंाछितमनरोरार्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
कमलस्थिताचतुर्भुजासिद्धि यशस्वनीम्॥
स्वर्णावर्णानिर्वाणचक्रस्थितानवम् दुर्गा त्रिनेत्राम।
शंख, चक्र, गदा पदमधरा सिद्धिदात्रीभजेम्॥
पटाम्बरपरिधानांसुहास्यानानालंकारभूषिताम्।
मंजीर, हार केयूर, किंकिणिरत्नकुण्डलमण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनापल्लवाधराकांत कपोलापीनपयोधराम्।
कमनीयांलावण्यांक्षीणकटिंनिम्ननाभिंनितम्बनीम्॥

स्तोत्र:-कंचनाभा शंखचक्रगदामधरामुकुटोज्वलां।
स्मेरमुखीशिवपत्नीसिद्धिदात्रीनमोअस्तुते॥
पटाम्बरपरिधानांनानालंकारभूषितां।
नलिनस्थितांपलिनाक्षींसिद्धिदात्रीनमोअस्तुते॥
परमानंदमयीदेवि परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति,परमभक्तिसिद्धिदात्रीनमोअस्तुते॥
विश्वकतींविश्वभर्तीविश्वहतींविश्वप्रीता।
विश्वíचताविश्वतीतासिद्धिदात्रीनमोअस्तुते॥
भुक्तिमुक्तिकारणीभक्तकष्टनिवारिणी।
भवसागर तारिणी सिद्धिदात्रीनमोअस्तुते।।
धर्माथकामप्रदायिनीमहामोह विनाशिनी।
मोक्षदायिनीसिद्धिदात्रीसिद्धिदात्रीनमोअस्तुते॥

कवच:-ओंकार: पातुशीर्षोमां, ऐं बीजंमां हृदयो।
हीं बीजंसदापातुनभोगृहोचपादयो॥
ललाट कर्णोश्रींबीजंपातुक्लींबीजंमां नेत्र घ्राणो।
कपोल चिबुकोहसौ:पातुजगत्प्रसूत्यैमां सर्व वदनो॥

भगवती सिद्धिदात्रीका ध्यान, स्तोत्र, कवच का पाठ करने से निर्वाण चक्र जाग्रत होता है जिससे ऋद्धि, सिद्धि की प्राप्ति होती है। कार्यो में चले आ रहे व्यवधान समाप्त हो जाते हैं। कामनाओं की पूíत होती है।


दुर्गतिनाशिनी विंध्यवासिनी

भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विंध्याचलसदा से उनका निवास-स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विंध्यगिरिको जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया है। महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं- विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्।हे माता! पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचलपर आप सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराणमें विंध्याचल-निवासिनीइन महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है- विन्ध्येविन्ध्याधिवासिनी।
श्रीमद्देवीभागवतके दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकत्र्ता ब्रह्माजीने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपाको उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुवमनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ।
त्रेतायुगमें भगवान श्रीरामचन्द्र सीताजीके साथ विंध्याचलआए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वर महादेव से इस शक्तिपीठ की माहात्म्य और बढ गया है। द्वापरयुगमें मथुरा के राजा कंस ने जब अपने बहन-बहनोई देवकी-वसुदेव को कारागार में डाल दिया और वह उनकी सन्तानों का वध करने लगा। तब वसुदेवजीके कुल-पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं श्रीकृष्णावतारहेतु विंध्याचलमें लक्षचण्डीका अनुष्ठान करके देवी को प्रसन्न किया। जिसके फलस्वरूप वे नन्दरायजीके यहाँ अवतरित हुई।
मार्कण्डेयपुराणके अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती(देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवेंयुग में शुम्भऔर निशुम्भनाम के दो महादैत्यउत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोपके घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी।
लक्ष्मीतन्त्र नामक ग्रन्थ में भी देवी का यह उपर्युक्त वचन शब्दश:मिलता है। ब्रज में नन्द गोप के यहाँ उत्पन्न महालक्ष्मीकी अंश-भूता कन्या को नन्दा नाम दिया गया। मूर्तिरहस्य में ऋषि कहते हैं- नन्दा नाम की नन्द के यहाँ उत्पन्न होने वाली देवी की यदि भक्तिपूर्वकस्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के आधीन कर देती हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराणके श्रीकृष्ण-जन्माख्यान में यह वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजीने कंस के भय से रातोंरात यमुनाजीके पार गोकुल में नन्दजीके घर पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
मन्त्रशास्त्रके सुप्रसिद्ध ग्रंथ शारदातिलक में विंध्यवासिनी का वनदुर्गा के नाम से यह ध्यान बताया गया है-
सौवर्णाम्बुजमध्यगांत्रिनयनांसौदामिनीसन्निभां
चक्रंशंखवराभयानिदधतीमिन्दो:कलां बिभ्रतीम्।
ग्रैवेयाङ्गदहार-कुण्डल-धरामारवण्ड-लाद्यै:स्तुतां
ध्यायेद्विन्ध्यनिवासिनींशशिमुखीं पा‌र्श्वस्थपञ्चाननाम्॥
जो देवी स्वर्ण-कमल के आसन पर विराजमान हैं, तीन नेत्रों वाली हैं, विद्युत के सदृश कान्ति वाली हैं, चार भुजाओं में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं, मस्तक पर सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र सुशोभित है, गले में सुन्दर हार, बांहों में बाजूबन्द, कानों में कुण्डल धारण किए इन देवी की इन्द्रादिसभी देवता स्तुति करते हैं। विंध्याचलपर निवास करने वाली, चंद्रमा के समान सुंदर मुखवालीइन विंध्यवासिनी के समीप सदाशिवविराजितहैं।
सम्भवत:पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्रमें घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनीका वनदुर्गा नाम पडा। वन को संस्कृत में अरण्य कहा जाता है। इसी कारण ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी विंध्यवासिनी-महापूजा की पावन तिथि होने से अरण्यषष्ठी के नाम से विख्यात हो गई है।

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