ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद चौबे

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शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

वगैर सात फेरों के लाई गयीं उज्ज्वला...तिवारी के पद प्रतिष्ठा को जलाकर भस्म कर सकती है


वगैर सात फेरों के लाई गयीं उज्ज्वला...तिवारी के
पद प्रतिष्ठा को जलाकर भस्म कर सकती है

कहा जाता है कि- मनुष्य को जीवन में बहुत संभल कर चलना चाहिए.। प्रतिष्ठित व्यक्तित्व को संभलने की जरुरत होती है।  स्वामी विवेकानन्द जी के साथ भी कई बार ऐसी घटनाएँ हुईं होंगी इस लिए उन्होंने...अधिक न बोलते हुए अथवा किसी वर्ग विशेष का नाम न लेते हुए उन्होंने मात्र यही कहा कि- ''पर्वत के शिखरों से गिरा व्क्ति एक बार उठने की कोशिश कर सकता है परन्तु चरित्र भ्रष्ट व्यक्ति समाज के नजरों से गिरा हुआ कदापि नहीं उठ सकता।'' उनकी बात आज प्रासंगिक है शायद इस बात का खयाल ''श्री एन.डी.तिवारी'' जी को रहता तो यह नौबत नहीं आती।
इस पूरे प्रसंग में एक दूसरा भी पहलु है, वह है...--शास्त्रों में स्त्री को सावित्री, पूज्या और यहां तक की - ''यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता''...कह कर और महत्त्व दिया गया। किन्तु साथ ही यह भी कहा गया कि स्त्री अग्नि से भी अधिक जलाने की क्षमता वाली ''अग्निशिखा'' भी कहा गया, अर्थात् यदि आग और तिनके को एक साथ रखोगे तो निश्चित ही आग की क्षमता उस तिनके अथवा काष्ठ से अधिक होती है अतः प्रभुत्त्वशाली आग उस काष्ठ रुपी तिवारी के पद-प्रतिष्ठा को जलाकर भस्म कर देगी। यदि उसी ''अग्निशिखा'' (उज्ज्वला शर्मा) रुपी स्त्री को अग्नि के सात फेरे लगाकर घर में देवी स्वरुप लाया जाय और उससे 'रोहित' जैसा पुत्र पैदा होगा तो इस प्रकार के कोर्ट के असंख्य फेरे नहीं लगाने पड़ेंगे। मित्रों किसी भी प्रकार की फिसलन न हो इसका हमेशा खयाल रखें नहीं तो आग में ममता नहीं होती पर सात फेरे लेकर बनी माँ  के अन्दर ममता अवश्य होती है। अतएव पुनः ऐसी घटना न हो उसके लिए कोर्ट का फैसला काबिले तारीफ है जो उभयपक्षी (स्त्री-पुरुष) वर्ग के मर्यादा हेतु संबल का काम करेगा। पं.विनोद चौबे
सत्यमेव जयते नानृतं
सत्येन पन्था विततो देवयानः |
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा
यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम् ||६||

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

...जब भगवान कृष्ण भी अपने ही परिजनों के सामने असहाय हुए..।

...जब भगवान कृष्ण भी अपने ही परिजनों के सामने असहाय हुए..।


मित्रों सुप्रभात, कहा जाता है कि - विश्व के सभी शक्तिशाली महान योद्धाओं पर आप विजय प्राप्त कर सकते हैं लेकिन अपनों से ही हार का सामना करना पड़ता है। भगवान कृष्ण भी अपनों से हार की इस पीड़ा को देवर्ष नारद से बताकर हम सभी को संदेश देना चाहते हैं कि- ऐसा मेरे भी साथ हुआ है अतः आप सभी मेरे भक्त इस परिस्थिति से घहड़ाएं नहीं बल्कि अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए, आत्महत्या करने के बजाय, समाधान कर धर्म का पालन करें।

कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । मित्रों, श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम बलराम था जो अपनी शक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे प्रद्युम्न अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष नारद के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा।
महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:
''अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम। वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥''
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥

''बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे। रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥''
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
जरूरत है, इस विषम परिस्थिति में अधर्म रुपी आत्महत्या, हिंसा के अलावा समाधान की आवश्यकता है। -ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई
(आपको कैसा लगा अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें)

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

देखना धर्मक्षेत्र में कुरुक्षेत्र सेंध न लगा दे...।भगवान शिव के विराट रुप का दर्शन

देखना धर्मक्षेत्र में कुरुक्षेत्र सेंध न लगा दे...।


''स्थित्यदनाभ्यां च ''।।1।3।7।.

 स्थित्यदनाभ्याम् - एक ही शरीर में साक्षी रुप से स्थित और दूसरे के द्वारा सुख- दुःखप्रद विषयका उपभोग बताया गया है, इसलिए, च- भी(जीवात्मा और परमात्मा का भेद सिद्ध होता है)। इसी आत्मा और परमात्मा का व्याख्या मुण्डकोपनिषद तथा श्वेताश्वरोपनिषद(4।6) में कहा गया है कि-
'' द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। 
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादुवत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।। ''
अर्थात एक साथ रहते हुए भी परस्पर सख्यभाव रखने वाले दो पक्षी (जीवात्मा और परमात्मा) एक ही शरीर रुपी वृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं। उन दोनों में से  एक (जीवात्मा) तो उस वृक्षके करमफलस्वरुप सुख-दुःखों का स्वाद ले लेकर (आसक्तिपूर्वक) उपभोग करता है, किन्तु दूसरा (परमात्मा) न खाता हुआ, न उपभोग करता हुआ केवल दर्शक के रुप में देखता रहता है। मित्रों इसी जीवात्मा और परमात्मा के पार्स्परिक द्वन्द्व युद्ध को महाभारत में धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र का होना बताया गया जैसा कि के श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है ...धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। अर्थात मनुष्य के के साथ दोनों ही क्षेत्र सदा रहते हैं परन्तु कर्मफलगत धर्मक्षेत्र की प्रबलता नाश का कारण बनता है और धर्मक्षेत्र की प्रबलता मनुष्य को मोक्ष प्रदान कर 84 लाख योनि के भ्रमण (जन्म-मरण) से मुक्त करता है। जरुरत है ..जीवन में धर्मक्षेत्र को प्रबल बनाने की।
- पं.विनोद चौबे

 आज हरियाली अमावश्या है तो आईए मित्रों अब भगवान शिव के विराट रुप का दर्शन करने का प्रयत्न करते हैं

भगवान शिव के विराट रुप का दर्शन

जगत पिता के नाम से हम भगवान शिव को पुकारते हैं। भगवान शिव को सर्वव्यापी व लोग कल्याण का प्रतीक माना जाता है जो पूर्ण ब्रह्म है। धर्मशास्त्रों के ज्ञाता ऐसा मानते हैं कि शिव शब्द की उत्पत्ति ''वंश कांतौ ''धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- सबको चाहने वाला और जिसे सभी चाहते है। शिव शब्द का ध्यान मात्र ही सबको अखंड, आनंद, परम मंगल, परम कल्याण देता है।
शिव भारतीय धर्म, संस्कृति, दर्शन ज्ञान को संजीवनी प्रदान करने वाले हैं। इसी कारण अनादि काल से भारतीय धर्म साधना में निराकार रूप में शिवलिंग की व साकार रूप में शिवमूर्ति की पूजा होती है। शिवलिंग को सृष्टि की सर्वव्यापकता का प्रतीक माना जाता है। भारत में भगवान शिव के अनेक ज्योतिलिंग सोमनाथ, विश्वनाथ, त्र्यम्बकेश्वर, वैधनाथस नागेश्वर, रामेश्वर, घुवमेश्वर हैं। ये देश के विभिन्न हिस्सों उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम में स्थित हैं, जो महादेव की व्यापकता को प्रकट करते हैं शिव को उदार ह्रदय अर्थात् भोले भंडारी कहा जाता है। कहते हैं ये थोङी सी पूजा-अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः इनके भक्तों की संख्या भारत ही नहीं विदेशों तक फैली है। यूनानी, रोमन, चीनी, जापानी संस्कृतियों में भी शिव की पूजा व शिवलिंगों के प्रमाण मिले हैं। भगवान शिव का महामृत्जुंजय मंत्र पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी को दीर्घायु, समृद्धि, शांति, सुख प्रदान करता रहा है और चिरकाल तक करता रहेगा। भगवान शिव की महिमा प्रत्येक भारतीय से जूङा है। मानव जाति की उत्पत्ति भी भगवान शिव से मानी जाती है। अतः भगवान शिव के स्वरूप को जानना प्रत्येक मानव के लिए जरूरी है।

जटाएं- शिव को अंतरिक्ष का देवता कहते हैं, अतः आकाश उनकी जटा का स्वरूप है, जटाएं वायुमंडल का प्रतीक हैं।

1चंद्र- चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन भोला, निर्मल, पवित्र, सशक्त है, उनका विवेक सदा जाग्रत रहता है। शिव का चंद्रमा उज्जवल है।

त्रिनेत्र- शिव को त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव के ये तीन नेत्र सत्व, रज, तम तीन गुणों, भूत, वर्तमान, भविष्य, तीन कालों स्वर्ग, मृत्यु पाताल तीन लोकों का प्रतीक है।

सर्पों का हार- सर्प जैसा क्रूर व हिसंक जीव महाकाल के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक वृत्ति का जीव है, जिसे शिव ने अपने अधीन कर रखा है।

त्रिशूल- शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशुल सृष्टि में मानव भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।

डमरू- शिव के एक हाथ में डमरू है जिसे वे तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्म रुप है।

मुंडमाला- शिव के गले में मुंडमाला है जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में कर रखा है।

छाल- शिव के शरीर पर व्याघ्र चर्म है, व्याघ्र हिंसा व अंहकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा व अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।

भस्म- शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से करते हैं। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है शरीर नश्वरता का प्रतीक है।

वृषभ- शिव का वाहन वृषभ है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ का अर्थ है, धर्म महादेव इस चार पैर वाले बैल की सवारी करते है अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्ष उनके अधीन है। सार रूप में शिव का रूप विराट और अनंत है, शिव की महिमा अपरम्पार है। ओंकार में ही सारी सृष्टि समायी हुई है। 


ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, 09827198828

शनिवार, 14 जुलाई 2012

आज हम हैं आभारी आपका, जो मिला आपका साथ,

''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका. 36 वाँ अंक
प्रिय पाठकों,
हम अपने लक्ष्य को केन्द्र बनाते हुए आकर्षक साज-सज्जा के साथ, सुवाच्य, पाठ्य सामग्रियों से भरपूर संयुक्तांक जून-जुलाई-2012 (36वाँ अंक) आपको समर्पित हैं। आपके द्वारा हमें समय समय पर सदैव प्रेम भरा सहयोग अनेकानेक विधाओं से मिलता रहा है। मैं आभारी हूँ उन देश के सुविख्यात साहित्यकार, पत्रकार एवं स्वतंत्र विचारक और हिन्दू संस्कृति का ताना - बाना बुनते हुए अपनी लेखनी से सरल शब्दों में लेख सामग्रीयाँ आप सभी को इस पत्रिका के माध्यम से देते रहे हैं। साथ ही आपने उन्हे सराहा भी।
अभी वर्तमान में श्रावण मास चल रहा है जिसमें भगवान शिव की आराधना अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि कहा गया है - भाभी मेट सकहिं त्रिपुरारी अर्थात् भाग्य को बनाने वाले ब्रह्मा में वह शक्ति नहीं है जो भाग्य को बदल दें। किन्तु भगवान शिव ही एक ऐसे देवाधिदेव महादेव हैं जो भाग्य को भी पलट सकते हैं।
अब बात करते हैं वैदिक परम्पराओं की-'वेद: शिव: शिवो वेद:'' अर्थात् वेद ही शिव हैं और शिव ही वेद अत: शिव वेदस्वरूप हैं। वेद ही नारायण का साक्षात् रूप हैं- ' वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुम'' इस तथ्य के अनुसार शिव-नारायण में कोई भेद नहीं हैं, क्योंकि वेदको परमात्मप्रभु का नि:श्वास माना गया है। वेद अपौरेषय व अनादि शास्वत सनातन है। शिव और रूद्र ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शिव को रूद्र इसलिए कहा गया है कि- यह रूद्र भगवान शिव रूत् यानि दु:ख को विनष्ट कर देते हैं- 'रूतम् दु:खम्, द्रावयति- नाशयतीति रूद्र:'' । अतएव अभी वर्तमान में सावन माहऔर  आगामी आने वाला भादो में अधिकमास दोनों माह में रुद्रीपाठ का विशेष महत्त्व को ध्यान में रखते हुए रूद्रीपाठ के विषय में रुचिप्रद विशेष सामग्री के अलावा देश में चल रहे सम-सामयिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य, सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक लेख अलग-अलग सन्दर्भों पर आलेख 'ज्योतिष का सूर्य' अपने परम्परा का निर्वाह करते हुए इस अंक में शामिल कर विगत तीन वर्षों से निरन्तर गतिशीलता पर कायम है, साथ ही आपके सराहना भरे पत्र हजारों की तादाद में हमारे लेखकों के साथ हमें भी गौरवान्वित होने को विवश कर देता है। आशा करता हूं कि इसी प्रकार आपका प्यार हमें मिलता रहेगा।
आज हम तीन वर्ष पूर्ण कर चौथे वर्ष की ओर चल पड़े हैं, जो अत्यन्त सौभाग्य और सुयोग का विषय है। इस अवसर पर मैं सम्पादक मण्डल के सभी सम्मानित सदस्यों को सहृदय धन्यवाद देते हुए, संरक्षक श्री विजय बघेल (संसदीय सचिव (गृह, जेल एवं सहकारिता), श्री के.के. झा एवं सलाहकार सम्पादक द्वय श्री बबन प्रसाद मिश्रजी, श्री संजय द्विवेदी और सलाहकार रविन्द्र सिंह ठाकुर , श्री नागेन्द्र प्रसाद मिश्र , श्री प्रमोद चौबे  सहित उन तमाम प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुपसे सहयोग करने वाले समस्त सहयोगियों का आभारी हूँ।
उपरोक्त इस खुशनुमा बेला में मैं काफी भावविभोर हो मात्र यही कहना चाहूंगा कि-

यूं  ही  बरसता रहे   सावन  की  बरसात,होता रहे 'ज्योतिष का सूर्य'  का अभिषेक।
शक्ति मिले हनुमन्त से, उदित सूर्य का हो प्रभात,
अज्ञान तिमिर को चीरता,  बीते बरस अनेक।।

दें हमें आशीष, हो गगनाधीन, आप करें आत्मसात,
ज्योतिषामयनम् चक्षु:, की दिव्य ज्योति हो अनेक।
आज हम हैं आभारी आपका, जो मिला आपका साथ,
हम बनें उनके अनुगामी, जो हैं सनातन ब्रह्म एक।।

ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदम् पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। इति शुभम् भवतु कल्याणम्।।

ज्योतिषाचार्य पं. विनोद चौबे , सम्पादक, ''ज्योतिष का सूर्य'' राष्ट्रीय मासिक पत्रिका.

हमारी पत्रकारिता का प्रभाष पाठ

हमारी पत्रकारिता का प्रभाष पाठ

By संजय तिवारी
आज से छिहत्तर साल पहले वे पंढरीनाथ के पूत बनकर आये थे. तीन साल पहले पत्रकारिता के सपूत होकर चले गये. जिन्दगी भर दिमाग का काम दिल से किया इसलिए दिल जल्दी साथ छोड़ गया. कुछ साल पेसमेकर ने शरीर की गाड़ी चलाई लेकिन मशीन भी भला क्योंकर साथ देती? वे सब तो कबके साथ छोड़कर छिटक गये जो प्रभाष जोशी की पैदाइश थे तो मशीन को क्या पड़ी थी कि गाड़ी को हांकती रहती? प्रभाष जी ने भी तो मशीन से लंबा नाता रखने का इरादा छोड़ दिया था. मानों वे भी जिन्दगी से छिटककर दूर ही चले जाना चाहते थे. वे चले भी गये. जनम मरण के इन तिहत्तर सालों के बीच में बोया ज्यादा काटा कम. फिर भी तिहत्तर सालों बाद जब वे जम के जाजम पर लेटे तो पीछे पछाड़ खाकर गिरनेवालों की कमी न थी. पीत से भी परे श्वेत श्याम के बंटवारे में बंटती जाती पत्रकारिता का वह पितामह अपने जीते जी वह कर चुका था जिसके लिए इतिहास उसे पंढरीनाथ के पूत के रूप में शायद न जान पाये लेकिन पत्रकारिता के सपूत के रूप में जरूर याद रखेगी.
उनके आगे कौन था उसे भला हम कैसे देख सुन सकते हैं. वे कहां से आये और क्या क्या किया इसे भी परखने की परखनली जिनके पास हो वे परखें. लेकिन उनके जीवन के आखिरी दशक और सदी की शुरूआत में अक्सर उनसे देखा ताकी हो जाती थी. वे दिखते थे. झक सफेद कुर्ते धोती में. चौड़ी किनारी लगी हुई. एक हाथ में धोती का एक पहलू पकड़े मानों हर वक्त वे जंग लड़ने को तैयार हैं. चलते फिरते जिधर घूमते तो इस अंदाज में मानों असुरों को दंहजते हुए सरपट आगे सरक जाएंगे. धोती का यही पहलू पकड़े वे आखिर के लगभग पूरे दशक दोड़ लगाते रहे. उत्तर से दक्षिण. पूरब से पश्चिम. जहां जिसने बुला लिया वहां पहुंच गये. कहीं पत्रकारिता की पुकार तो कहीं आम आदमी की गुहार. उनके दिल में लगी मशीन भी उनको यह मनमानी करने से रोक न पाती थी. हो सकता है उसने कई दफा खतरे की लाल बत्ती जलाई हो लेकिन प्रभाष जी इस बत्ती को पार करने की हिमाकत से कभी कतराए नहीं. आखिर इस भागदौड़ से वहां कहां पहुंचना चाहते थे? वह क्या था जो छूटा जा रहा था और जिसे पकड़ने के लिए प्रभाष जी काया की उस माया से भी न बंधे रह सके जो उनके होने के लिए आखिरी जरूरी औजार था?
दशक भर की देखा ताकी में प्रभाष जोशी तो क्या समझ में आते, अलबत्ता यह जरूर लगता रहा कि शिखर से उतर यह आमदी सुस्ताने की बजाय नये नये शिखर गढ़ने की कोशिश कर रहा है. जहां पत्रकारिता अपने पराकाष्ठा पर पहुंचकर झंडा गाड़ देती है, प्रभाष जोशी उसके आगे के काम में लग गये थे. सबको खबर देनेवाला सबकी खबर ले रहा था. दहाड़े मार रहा था और दौड़ लगा रहा था. बता रहा था कि देखो, ये अखबार तुम्हें गुमराह कर सकते हैं. ये सरकारें तुम्हें गुमराह कर सकती है. ये बाजार तुम्हारा सौदा कर सकते हैं. तुम्हें समझना होगा कि तुम अखबार और बाजार दोनों के लिए औजार हो गये हो. सावधान हो जाओ. शब्द ब्रह्म नहीं रहा. शब्द नाद नहीं रहा. शब्द अपवाद भी नहीं रहा. शब्द अवसाद बनता जा रहा है तुम्हारे लिए. इसलिए उन शब्दों से सावधान रहो, जो तुम्हें सुनाये जा रहे हैं. उन अर्थों से सावधान रहो जो तुम्हें समझाए जा रहे हैं. मानों वे उसी अखबार के खिलाफ आंदोलन करने उतर पड़े थे जिसकी आधुनिक बुनियाद उन्होंने रखी.
तीन साल में तीन पांच करनेवाले बहुत सारे लोग प्रभाष जोशी की पत्रकारिता का आंकलन कर चुके हैं. कर रहे हैं. करते रहेंगे. लेकिन लगता नहीं कि प्रभाष जोशी की पत्रकारिता का आंकलन अगले तीस सालों में भी हो सकेगा. हमारी पत्रकारिता में प्रभाष जोशी जो बीज छींट गये हैं उनका वृक्ष हो जाना अभी भी शायद बाकी है. प्रभाष जोशी का जनसत्ता या उनके जनसत्ताइट वे बीज नहीं हैं जिससे प्रभाष परंपरा विकसित होगी. ये तो हल कुदाल थे जिसका इस्तेमाल प्रभाष जोशी ने बीज बोने के लिए किया. प्रभाष जोशी ने जनसत्ता के जरिए जो बीज बोये हैं, वे कहां कब वृक्ष बनकर आकार लेंगे यह समय बताएगा. लेकिन इतना निश्चित है कि वही बीज पत्रकारिता में प्रभाष जोशी की परंपरा बनेंगे.
इसे, जिसे हम आप पत्रकारिता कहते हैं उसका हिन्दी वाला हिस्सा बिना प्रभाष जोशी के कभी पूरा नहीं होगा. पूरा तो छोड़िए, शुरू ही नहीं होगा. सन तिरासी की सोलह नवंबर को उन्होंने भारत के अखबारी इतिहास में जिस जनसत्ता को लाकर पटका था उसने अपनी चंद सालों की चरम यात्रा में न जाने कितनों को पटखनी दी. चरम पर पहुंचकर जनसत्ता क्यों चरमराया यह तो शोध का विषय है लेकिन इस चरमराहट से पहले प्रभाष जोशी ने साहित्य के सांचे से पत्रकारिता की मूरत भी गढ़ ली थी और उसकी सूरत भी बना दी थी. सूरत ऐसी की जो देखता वह देखता रह जाता. पहुंच और प्रभाव के स्तर पर लगभग गर्त में जा चुके जनसत्ता के जनसत्ताइट पत्रकार ही नहीं, बल्कि पाठक आज भी मौजूद हैं जिनके लिए पत्रकारिता प्रभाष जोशी के जनसत्ता से शुरू होती है और प्रभाष जोशी के जनसत्ता पर ही खत्म हो जाती है. उनके लिए प्रभाष जोशी थे तो पत्रकारिता थी. प्रभाष जोशी नहीं हैं तो पत्रकारिता भी नहीं है. ये शायद अतिरेक पर होंगे लेकिन इतना तो तय है कि यह जो पत्रकारिता है, यह बिना प्रभाष पाठ के शुरू ही नहीं होती.
साठ और सत्तर के दशक में उधर जब लोकतंत्र नवनिर्माण का ककहरा शुरू कर रहा था तो जरूरी था कि पठन पाठन की उस विधा को भी नया आयाम मिलता जिसने आजादी के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी. खुद भवानी बाबू प्रभाष जोशी के अग्रज थे. गांधी के बाद के गांधी बिनोबा भी मौजूद थे. मेल मिलाप और संयोग से पहले गांधीवादी विचार और प्रचार ही शुरू हुआ लेकिन प्रभाष जोशी इस पगडंडी पर बहुत देर चल न पाये. हो सकता है वे यह समझ चुके हों कि विचार को सिर्फ धारा नहीं चाहिए. वे उस धारा को सहस्रार तक ले जाने के लिए मानों सुषुम्ना बन गये थे. पत्रकारिता और विचार की इड़ा पिंगड़ा के बीच उन्होंने जो सुषुम्ना स्वरूप अख्तियार किया वह आजाद भारत में वैसा ही था जैसा गुलाम भारत में गांधी का आंदोलन. गांधी भी तो सबको समाहित करते थे. नरम गरम सबका चरम आखिर गांधी पर जाकर मिल ही जाता था. प्रभाष जोशी ने भी जो मूरत गढ़ी उसमें भी तो सबको अपना ही अक्स नजर आता था. जो देखता, कहता अरे, यह तो 'अपन' है.
लेकिन पत्रकारिता पर प्रभाष पाठ की यह त्रिवेणी तब तक संगम न बनेगी जब तक इसमें राजेन्द्र माथुर और उदयन शर्मा शामिल नहीं हो जाते. हमारी आधुनिक हिन्दी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर और उदयन शर्मा ऐसी इड़ा पिंगड़ा हैं जो सुषुम्ना के साथ साथ सहस्रार तक पहुंचते हैं. हिन्दी की आधुनिक राष्ट्रीय पत्रकारिता के मूल में प्रभाष जोशी के अलावा राजेन्द्र माथुर और उदयन शर्मा भी मौजूद हैं. माथुर साहब और पंडित जी की पत्रकारिता कुछ अर्थों में एकांगी जरूर थी, लेकिन बिना उनके बात कभी पूरी नहीं होगी. प्रभाष जोशी इन दोनों का समन्वय बन गये थे. माथुर साहब और पंडित जी दोनों जहां आ आकर ठिठक गये प्रभाष जोशी उस बाधा को भी सरपट पार कर गये थे. शायद इसीलिए वे हमारी राष्ट्रीय पत्रकारिता के पितामह बने नजर आते हैं. कोई तीन दशक में अखबारी पत्रकारिता ने जो पुराण निर्मित किया है उसमें प्रभाष जोशी का पाठ प्रस्थान भी है और मध्यान्ह भी हैं. प्रस्थान इस अर्थ में कि यहां से हमने हिन्दी पत्रकारिता में राष्ट्र देखा था और मध्यान्ह इसलिए क्योंकि राष्ट्र का समग्र दर्शन सिर्फ और सिर्फ प्रभाष जोशी की पत्रकारिता में ही होता है. वह राष्ट्र जो जन जन में बसता है. वह राष्ट्र जिसका धर्म एक है, भाव एक है और स्वभाव एक है. और इसी विचार विन्दु पर प्रभाष जोशी हमारी पत्रकारिता के ऐसी त्रिवेणी बन जाते हैं जिसमें डूबने वाला पार लग जाता है. क्यों? गलत बोलता हूं?

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

सूर्य पुत्र शनि काले क्यों हैं? 23 पर्यायवाची नामों का जप करें और शनि की कृपा प्राप्त करें।

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे

सूर्य पुत्र शनि काले क्यों हैं? 23 पर्यायवाची नामों का जप करें और शनि की कृपा प्राप्त करें।

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.)
सूर्यपुत्र श्री शनिदेव का जन्म महर्षि कश्यप के वंश  मे हुआ था इस लिए इनका गोत्र कश्यप है । यह  क्षत्रीय वर्ण और भगवान सूर्य तथा माता छाया के मध्य ज्येष्ठ मास की अमावस्या को सोराश्र्ट्र के शिंगनापुर में जन्म हुआ है ॥ (इनके जन्म स्थान को लेकर मतैक्य है) इनके भाई मृत्यु देव यमराज हैं और बहन पवित्र नदी यमुना और भद्रा है ॥ गिद्ध ओर भैंसा दोनों ही प्रिय वाहन है ॥ इनका विवाह चित्ररथ की कन्या से हुआ । सभी देवी-देवताओं में सूर्य का रूप परम तेजस्वी है। सूर्य की पूजा करने से भक्तों का रूप भी उनके जैसा ही तेजस्वी और गौर वर्ण हो जाता है। सूर्य देव सभी को तेज प्रदान करते हैं परंतु उनके पुत्र शनि का रूप श्याम वर्ण बताया गया है। सूर्य पुत्र होने के बाद भी शनि का रंग काला है, इस संबंध में शास्त्रों में कथा बताई गई है।
इस कथा के अनुसार सूर्य देव का विवाह प्रजापति दक्ष की पुत्री संज्ञा से हुआ। सूर्य का रूप परम तेजस्वी था, जिसे देख पाना सामान्य आंखों के लिए संभव नहीं था। इसी वजह से संज्ञा उनके तेज का सामना नहीं कर पाती थी। कुछ समय बाद देवी संज्ञा के गर्भ से तीन संतानों का जन्म हुआ। यह तीन संतान मनु, यम और यमुना के नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी संज्ञा के लिए सूर्य देव का तेज सहन कर पाना मुश्किल होता जा रहा था। इसी वजह से संज्ञा ने अपनी छाया को पति सूर्य की सेवा में लगा दिया और खुद वहां से चली गई। कुछ समय पश्चात संज्ञा की छाया के गर्भ से ही शनि देव का जन्म हुआ। क्योंकि छाया का स्वरूप काला ही होता है इसी वजह से शनि भी श्याम वर्ण हुए।
ये चंद्रमा परस्पर निकट होने के कारण अलग - अलग दृश्यमान नहीं है , पर ये स्वतंत्र रूप से मेरे चारो ओर घूमते है , मेरे चारो ओर वलय मैं चमकते चंद्रमा ऐसे लगते है जेसे की मैंने अपने कंठ मैं सफ़ेद मोतियों का हार पहन रखा है ॥
भगवान शनिदेव को लगभग कई नामों से पुकारा जाता है किन्तु मैं आप लोगों प्रमुख यत्किञ्चित नामों को आपके सामने रखने जा रहा हुँ। जो इन नामों का प्रतिदिन अथवा हर शनिवार को जप अथवा पाठ करता है उनको भगवान शनिदेव की अतिशय कृपा मिलती है, और वह सुखी, समृद्धि से युक्त हो जाता है। 1.शनेश्चराय , 2. सोराय , 3.कृष्णाय ,4. यम, 5.पिप्प्लाश्रय, 6. कोण्स्थ, 7. सोरि,8. शश्नेश्चर,9. कृष्ण रोदरांतक, 10. मंद ,11. पिंगल कंटक ,12. यमागज ,13. रविपुत्र ,14. सूर्यपुत्र, 15. दायातयज, 16. अकेसुवन, 17. असित सोकि, 18. निलिकाय , 19. नीलांजन , 20. निलकाय ,21. कुशांग , 22. कपिलाक्ष ,23. मंदगामी नाम से पुकारा जाता है

 कुछ रोचक जानकारियाँ भगवान शनिदेव की जुबानीः

शनिउवाचः मेरा आधिपत्य मकर तथा कुंभ राशि पे है । पुष्य, अनुराधा, उत्तराभाद्रपद मेरे नक्षत्र है , मैं पेर से विकलांग हूँ ॥ हाथ मैं मध्यमा अंगुली को शनि यानि की मेरी अंगुली कहा जाता है ॥ मेरा शुभ प्रिय रत्न नीलम ओर काले अश्व की नाल की अंगूठी इसी मैं पहनी जाती है ॥ मध्यमा अंगुली करे ठीक नीचे के स्थान को शनि पर्वत सामुद्रिक शास्त्र मैं बताया गया है , हथेली मैं इस पर्वत का उभरापन असाधाण प्रवृतियों का सूचक है ॥ वत्स ये भी ध्यान रखना की मध्यमा अंगुली को ही जो की मेरी है सामुद्रिक शास्त्र मैं भाग्य सूचक बताया गया है ॥

किसी की भी हथेली मैं भाग्य रेखा मेरे इसी पर्वत पे आके समाप्त होती है ॥ मेरा पर्वत अगर जातक की हथेली मैं उन्न्त ओर पुष्ट हो तो जातक सत्यवादी , दूसरों के मन की बाते जानने वाला , परोपकारी ,न्यायाधीश , जादूगर ओर तंत्र मैं रुचि रखने वाला, संपति या जमीन जायदाद का काम करने वाला , धातुओं , खनिज , लवण , रत्न आदि से संबन्धित कार्य करने वाला होता है ॥ अगर मेरा शनि पर्वत आपकी हथेली पे दबा हुआ है तो यह अपना विपरीत प्रभाव डालता है ।
शनि पर्वत का किसी जातक की हथेली पे ना होना असफलता का सूचक है
ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई, दुर्ग (छ.ग.)

सोमवार, 2 जुलाई 2012

सावन में रुद्रपाठ से प्रसन्न होतें हैं भगवान शिव

सावन में रुद्रपाठ से प्रसन्न होतें हैं भगवान शिव

- ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, भिलाई
 "वेद: शिव: शिवो वेद:" अर्थात् वेद ही शिव हैं और शिव ही वेद अत: शिव वेदस्वरूप हैं। वेद ही नारायण का साक्षात् रूप हैं- "वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुम"  इस तथ्य के अनुसार शिव-नारायण में कोई भेद नहीं हैं, क्योंकि वेदको परमात्मप्रभु का नि:श्वास माना गया है। वेद अपौरेषय व अनादि शास्वत सनातन है। शिव और रूद्र ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शिव को रूद्र इसलिए कहा गया है कि- यह रूद्र भगवान शिव रूत् यानि दु:ख को विनष्ट कर देते हैं-"रूतम् दु:खम्, द्रावयति- नाशयतीति रूद्र:"। जल आदि अलग-अलग द्रव्यों से रुद्रीपाठ करते हुए अभिषेक करने से शिव सभी मनोकामनाएं पूर्ण होतीं हैं। रूद्रपाठ के तीन मुख्य प्रभेदों का उल्लेख मेरुतंत्र में पाया जाता है
रुद्रीभरेकादशभि: लघुरुद्र: प्रकीर्तित:!
अनेन सिक्तं येर्लिंग ते न भास्करम् !!
रुद्रैकादशिनी के एक बार पारायण का नाम ही "लघुरूद्र" है! रूद्रपारायण इसी का नामांतर है! इस लघुरूद्र-विधि से लिंगाभिषेचन करनेवाला शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है!
लघुरूद्र के ग्यारह आवृत्तियों के समाहार-पाठ और जपको "महारुद्र" कहते है, जिससे जप-होमादि करने से दरिद्री भी भाग्यवान बन जाता है! महारुद्र के पाठपूर्वक किया गया होम सोमयाग का फल प्रदान करता है!  शिव पूजन और शिवलिंग को जल अर्पित करने की मुख्य तिथियाँ निम्नलिखित हैं :-
    पक्ष                                                 तिथि      वार      नक्षत्र               तारीख
श्रावण कृष्ण पक्ष     षष्ठी     सोमवार     पूर्वाभाद्रपद     9 जुलाई
श्रावण कृष्ण पक्ष     त्रयोदशी     सोमवार     मृगशिरा     16 जुलाई(सोमप्रदोष)
श्रावण कृष्ण पक्ष     चतुर्दशी     मंगलवार     आद्र्रा     17 जुलाई(मासशिवरात्रि)
श्रावण शुक्ल पक्ष     चतुर्थी     सोमवार     पूर्वाफाल्गुनी     23 जुलाई
श्रावण शुक्ल पक्ष     12/13     सोमवार     मूल     30 जुलाई (सोमप्रदोष)
श्रावण शुक्ल पक्ष     13/14     मंगलवार     पूर्वाषाढा़     31 जुलाई
श्रावण शुक्ल पक्ष     चतुर्दशी     बुधवार     उत्तराषाढ़ा     1 अगस्त (प्रात: 10:59 तक)
श्रावण पूर्णिमा     पूर्णिमा     बृहस्पतिवार     श्रवण     2 अगस्त (रक्षाबन्धन) श्रावणी पर्व

राशियों के अनुसार कैसे करें शिव-अभिषेक
भगवान सदाशिव को प्रसन्न करने के लिए पुराणों के अनुसार शिव के पंचाक्षर मंत्र ऊँ नम: शिवाय, लघु रूद्री से अभिषेक करें। शिवजी को बिल्वपत्र, धतूरे का फूल, कनेर का फूल, बेलफ ल, भांग चढ़ाकर पूजन करें।
मेष- शहद, गुड़, गन्ने का रस। लाल पुष्प चढ़ाएं।, वृषभ- कच्चे दूध, दही, श्वेत पुष्प।, मिथुन- हरे फलों का रस, मूंग, बिल्वपत्र। , कर्क- कच्चा दूध, मक्खन, मूंग, बिल्वपत्र। , सिंह- शहद, गुड़, शुद्ध घी, लाल पुष्प।, कन्या- हरे फलों का रस, बिल्वपत्र, मूंग, हरे व नीले पुष्प। ,तुला- दूध, दही, घी, मक्खन, मिश्री। , वृश्चिक- शहद, शुद्ध घी, गुड़़, बिल्वपत्र, लाल पुष्प।, धनु- शुद्ध घी, शहद, मिश्री, बादाम, पीले पुष्प, पीले फूल।, मकर- सरसों का तेल, तिल का तेल, कच्चा दूध, जामुन, नीले पुष्प।, कुंभ- कच्चा दूध, सरसों का तेल, तिल का तेल, नीले पुष्प।, मीन- गन्ने का रस, शहद, बादाम, बिल्वपत्र, पीले पुष्प, पीले फल।

                                         ।। मौलिकता प्रमाणीकरण ।।
मैं ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे प्रमाणित करता हूं कि 'सावन में रुद्रपाठ से प्रसन्न होतें हैं भगवान शिव
Ó मेरी अपनी रचना है। इस आलेख का प्रकाशन अभी तक किसी समाचार पत्र/पत्रिका में नहीं कराया गया है। आपकी लब्ध प्रतिष्ठिïत पत्रिका में प्रकाशन हेतु सादर पे्रेषित है। कृपया यथायोग्य स्थान प्रदान करने का कष्टï करें।
                                           
प्रमाणितकर्ता -(ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे , श्रीमद्भागवत कथावाचक एवं सम्पादक. "ज्योतिष का सूर्य " राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, शंतिनगर भिलाई, मोबा.9827198828 )

आत्महत्या करना जन्मजन्मांतर चाण्डाल बनने को न्यौता देना है- पं.विनोद चौबे

आत्महत्या  करना  जन्मजन्मांतर  चाण्डाल  बनने  को  न्यौता  देना  है-  पं.विनोद  चौबे

 धमधा के धरमपुरा (बरहापुर) ग्राम में स्थित तिवारी कृषि फार्म हॉऊस में आयोजित श्रीमद् देवी भागवत कथा के छठवे दिन व्यासपीठ से ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे ने राजा  सत्यव्रत   की कथा सुनाते हुए बताया कि पूर्व  में सूर्यवंशी  राजा  सत्यव्रत  एवं  हरिश्चन्द्र आदि  राजाओं  के  राजधर्म  को आजके  राजनेता अनुकरण  करें तो निश्चित  ही  आज  भी  सतयुग  का सुख  और शांति के साथ  ही  साथ  देश   और  प्रदेश   समृद्ध  हो जायेगा।
राजा सत्यव्रत  ने  सदेह  स्वर्ग  जाने  के लिए  वशिष्ठजी  से  यज्ञ  करने  को  कहता है लेकिन  ऋषि  वशिष्ठ  राजा सत्यव्रत  को ऐसे  यज्ञ  करने  से मना कर  देने  पर  सत्यव्रत  ने दूसरे  किसी  ऋषि  से यज्ञ  करने  की  बात  करता  है  जिसे  मृत्युलोक  के  धर्मसूत्रों  के  अनुसार  विधि  व्यवस्था  का  अपमान  समझ  कर उस  राज-ा  सत्यव्रत  को  चाण्डाल  होने  का  शाप  दे देते  हैं,  और  राजा  सत्यव्रत  चाण्डाल  बन  जाता  है   और  वह अपने  पुत्र  हरिश्चन्द्र  को  राज्यभार  देकर  जंगल  चला  जाता  है।  वहाँ  राजा सत्यव्रत  को  विश्वामित्र  से  मुलाकात  होती  है  और  विश्वामित्र  ने  उस  राजा  को सदेह  स्वग्ग  लोक  भेजने  लिए 24  लाख  गायत्री  मंत्र  का  महापुरश्चरण  करते  हैं,  जिसके  बाद  वह  स्वर्गलोक  सदेह  जाता  है। लेकिन  जब  वह  राजा  सत्यव्रत  चाण्डाल  बन  गया  था  तब  वह  अपने  मन  में  विचार  किया  कि  यदि  मैं  अपने  आपको  मार  देता  हुँ  ,  तो  इसे  आत्महत्या  की  संज्ञा  दी  जायेगी  अतः  शास्त्रों  में  आत्महत्या  करने  से जन्म-जन्मांतर  चाण्डाल  होना  बताया  गया  है,
आत्महत्या भवेन्नूनं पुनर्जन्मनि जन्मनि।
श्वपचत्वं  च  शापश्च  हत्यादोषाद्भवेदपि।।
  अतएव  इस   जन्म  में वशिष्ठ  के  शाप से  केवल  एक  जन्म चाण्डाल  बना  हुँ, यदि मैं  आत्महत्या  करता  हुँ,  तो  मुझे  कई  जन्मों  तक  चाण्डाल  बनना  पड़ेगा।  
पं.चौबे  ने इस  दृष्टान्त  के  माध्यम  से  समाज  में  बढ़ती  आत्महत्याओं  लम्बी  फेहरिश्त  को  समूल  समाप्त  करने  के  लिए  आज  जरूरत  है  श्रीमद्देवीभागवत  के  इन  कथा  प्रसंगों   को   सुनकर  जीवन  में  उतारने  की।
आचार्य   पं. कृष्णदत्त  त्रिपाठी  ने  पंचांग  पूजन  के  अलावा  11  कन्याओं  का  पूजन  कराये। केशव  प्रसाद,  महेश   चौधरी  (लक्ष्मीकांत  प्यारेलाल)  एवं  बबलु  शुक्ल  ने सुन्दर  भजनों  से  शमा  बांधे  रक्खा।


कार्यक्रम  में  प्रमुख  रूप  से  डॉ.शम्भुदयाल  तिवारी,  जयप्रसाद  तिवारी (गुरूजी),  विजय प्रसाद  तिवारी  ,  गिरीशपति  तिवारी,  काशीराम  देवांगन, फिरन्ता  साहू (पूर्व  जनपद  सदस्य),  कुंवास  साहू,  लखन  वर्मा,  बीवीरसिंह  ठाकुर, नारद  यादव,  खेलन  यादव, रामनारायन  शर्मा, भगवन्ता  साहू,  गांधी  साहू,  लतेल  साहू  आदि  बड़ी संख्या  में श्ररद्धालु  उपस्थित  थे।






आजकल  के  राजनेताओं  को  राजा  हरिश्चन्द्र  राजधर्म  की  सीख  लेनी  चाहिए-  पं.विनोद  चौबे

 धमधा के धरमपुरा (बरहापुर) ग्राम में स्थित तिवारी कृषि फार्म हॉऊस में आयोजित श्रीमद् देवी भागवत कथा के छठवे दिन व्यासपीठ से ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे ने राजा  हरिश्चन्द्र   की कथा सुनाते हुए बताया 
आगे  श्री  चौबे  ने   राजा  हरिश्द्र का  उपाख्यान   सुनाते  हुए  बताये  की  जब  सत्यवादी  राजा  हरिश्चन्द्र  अपने  पत्नी, पुत्र   और  स्वयं  को  काशी  में  विक्रय  कर  दिये  और  कुछ  ही  दिनो  बाद  उनके  पुत्र  रोहित  को  सर्प  के  डँसने  से  मौत  हो  गई  और  उस  रोहित  के  मृत  शरीर  को  श्मसान  में  राजा  हरिश्चन्द्र  ने  कर  लेकर  लकड़ी  के  चिता  पर  जलाने  को  उद्दत  हुए  उस  समय  महामाया देवी  का  वहाँ प्राकट्य हो  जाता  है,  और  वहाँ  सभी  देवता  वहाँ  उपस्थित  हो  जाते  हैं,  माँ  की  कृपा  से  पुत्र  रोहित  जीवीत  हो  जाता  है,  और राजा  हरिश्चन्द्र  को  भगवान  विष्णु  के  दूत  वहाँ  विमान  लेकर आते  हैं, राजा  से  कहते  हैं  आप  अब  स्वर्गलोक  चलें।  ऐसा  कहने  पर  राजा  हरिश्चन्द्र  ने  कहाकि  मैं अपनी पत्नी शैव्या  के  साथ  ही  स्वर्गलोक  नहीं  जाऊंगा  बल्कि  अपने  राज्य  की  प्रजा  के  साथ  जाऊंगा,  नहीं  मैं  अकेले  स्वर्गलोक   न  जाकर  अपनी  प्रजा  की  सेवा  करूंगा।  इस  प्रकार  राजा  हरिश्चन्द्र   राजा  हरिश्चन्द्र  ने  अपनी  प्रजा  के  प्रति  वात्सल्यता   दिखाकर  आजके  राजनेताओं  को  राजधर्म  का  मार्ग  दिखाया,  जो  आज  के  राजनेताओं  के  लिए  प्रेरणा श्रोत  है।  जहाँ  एक  तरफ  देश  में  व्याप्त  भ्रष्टाचार  से  देश  की  अर्थव्यवस््था  चरमरा  गई  वहीं  यदि  प्रजावात्सलल्य  इन  नेताओं  में  होती  तो  आज  भ्रष्टाचार  रूपी  आसुरी  प्रवृत्ति  से  भारत  देश  परे  होकर  विश्वगुरू  बन  जाता।
आचार्य   पं. कृष्णदत्त  त्रिपाठी  ने  पंचांग  पूजन  के  अलावा  11  कन्याओं  का  पूजन  कराये। केशव  प्रसाद,  महेश   चौधरी  (लक्ष्मीकांत  प्यारेलाल)  एवं  बबलु  शुक्ल  ने सुन्दर  भजनों  से  शमा  बांधे  रक्खा।

कार्यक्रम  में  प्रमुख  रूप  से  डॉ.शम्भुदयाल  तिवारी,  जयप्रसाद  तिवारी (गुरूजी),  विजय प्रसाद  तिवारी  ,  गिरीशपति  तिवारी,  काशीराम  देवांगन, फिरन्ता  साहू (पूर्व  जनपद  सदस्य),  कुंवास  साहू,  लखन  वर्मा,  बीवीरसिंह  ठाकुर, नारद  यादव,  खेलन  यादव, रामनारायन  शर्मा, भगवन्ता  साहू,  गांधी  साहू,  लतेल  साहू  आदि  बड़ी संख्या  में श्ररद्धालु  उपस्थित  थे।

गुरू-पूर्णिमा

गुरू-पूर्णिमा

शिष्यों को विद्यादान करते गुरू व्यास

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।
'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु'
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। 

-:गुरु स्तुति:-

"अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥1!!

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥2!!

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरू साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नम:!!3!!

स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किञ्चित् सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥4!!

चिन्मयं व्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥5!!

सर्वश्रुति शिरोरत्न विराजित पदाम्बुजः।
वेदान्ताम्बुज सूर्याय तस्मै श्री गुरवे नमः॥6!!

चैतन्य शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निञ्जनः।
बिन्दु नाद कलातीतःतस्मै श्री गुरवे नमः॥7!!

ज्ञानशक्ति समारूढःतत्त्व माला विभूषितम्।
भुक्ति मुक्ति प्रदाता च तस्मै श्री गुरवे नमः॥8!!

अनेक जन्म सम्प्राप्त कर्म बन्ध विदाहिने।
आत्मज्ञान प्रदानेन तस्मै श्री गुरवे नमः॥9!!

शोषणं भव सिन्धोश्च ज्ञापनं सार संपदः।
गुरोर्पादोदकं सम्यक् तस्मै श्री गुरवे नमः॥10!!

न गुरोरधिकं त्तत्वं न गुरोरधिकं तपः।
तत्त्व ज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥11!!

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोर्पदम् ।
मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोर्कृपा॥12!!

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम्॥13!!

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं।
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद् गुरूं तन्नमामि॥14!!

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥15!!

ध्यानं सत्यं पूजा सत्यं सत्यं देवो निरञ्जनम्।
गुरिर्वाक्यं सदा सत्यं सत्यं देव उमापतिः॥"16!!

-:अर्थ और विवेचना:-

इस गुरू वंदना में गुरू के स्वरूप,शक्ति,सृजन और महत्व का सूक्ष्म रहस्य छिपा हैं।गुरू,ब्रह्मा है,गुरू विष्णु है,गुरूदेव महेश्वर है।गुरू साक्षात परम ब्रह्म है,उनको नमस्कार है।गुरू ब्रह्मा क्यों है?कारण कई जन्मों के बुरे संस्कारों से हमारे अन्दर बहुत सा विकार पैदा हो गया है।हम दैविक मार्ग पर चलेंगे,क्या उसके लिए हमारा शरीर,मन,बुद्धि तैयार है या नहीं।हम उस रास्ते चलेंगे जो सुनने में आसान लगता है लेकिन जब उस पर चलेंगे तो ऐसा प्रतीत होगा कि बहुत ही कठिन एवं दुर्गम रास्ता है।इस कारण से गुरू को भी ब्रह्मा के जैसे ही हमारे अंदर के विकार और गन्दगी को हटाकर बुद्धि को शुद्ध कर हमारे बिगड़े संस्कार को ठीक करना पड़ता है।यानि साधना,संयम,योग,जप द्वारा गुरू हमे चलने लायक बना देते है।गुरू विष्णु के जैसे हमारा पालन करेंगे वरना हम भौतिक कष्ट से मर्माहत होकर साधना क्या कर पायेंगे।कोइ भी साधक या संत हो भले ही वो त्यागी हो फिर भी जरूरत की चीज मिल जाये और किसी के सामने शर्म से सिर झुकाकर भिक्षा या दान न मांगना पड़े।इसके लिए गुरू बिष्णु जैसा बनकर साधना,मंत्र,तंत्र द्वारा या वर,आशिर्वाद देकर उस लायक बना देते है कि सब कुछ स्वतः प्राप्त होता रहे।गुरू विष्णु के समान है जब चाहे भक्त,साधक को पुष्ट बना दें ताकि उसे साधना मार्ग में कभी भी भौतिक विघ्न न सताये।गुरू महेश्वर यानि शिव है जिनके पास सारी शक्तियां विद्यमान है परन्तु दाता होते हुए भी कोई दिखावा नहीं है।वो सबका मालिक है।गुरू का यह रूप सदाशिव सदगुरू बनकर साधक और भक्त को दिव्य शक्ति प्रदान करवाते है।यहाँ जो भी करते हैं,गुरू ही करते है।कारण कैसी साधना,कौन सा मंत्र या क्या करना है यह गुरू कृपा से ही प्रदान होती है।ये अपने शिष्य को जगत के सारे रहस्य से परिचित कराके स्वयं और शक्ति की लीला का साक्षात्कार कराने के साथ ही आत्म दर्शन द्वारा साकार परमात्मा के परम ब्रह्म का ज्ञान कराते है।
व्यास जयन्ती ही गुरुपूर्णिमा है। गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। गुरुपरंपरा को ग्रहण लगाया तो सद्गुरु का लेबिल लगाकर धर्मभीरुता की आड़ में धंधा चलाने वाले ‘‘कालिनेमियों ने। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। ‘व्यास’ का शाब्दिक संपादक, वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। ‘‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’’ अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुत्व है। आगम-निगम-पुराण का निरंतर संपादन ही व्यास रूपी सद्गुरु शिष्य को परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार का माध्यम है। जिससे मिलती है सारूप्य मुक्ति। तभी कहा गया- ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।’’ आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनका मूल कारण है गुरु-शिष्य परंपरा का टूटना। श्रद्धावाॅल्लभते ज्ञानम्। आज गुरु-शिष्य में भक्ति का अभाव गुरु का धर्म ‘‘शिष्य को लूटना, येन केन प्रकारेण धनार्जन है’’ क्योंकि धर्मभीरुता का लाभ उठाते हुए धनतृष्णा कालनेमि गुरुओं को गुरुता से पतित करता है। यही कारण है कि विद्या का लक्ष्य ‘मोक्ष’ न होकर धनार्जन है। ऐसे में श्रद्धा का अभाव स्वाभाविक है। अन्ततः अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचारादि कदाचार बढ़ा। व्यासत्व यानी गुरुत्व अर्थात् संपादकत्व का उत्थान परमावश्यक है।